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Wednesday, August 25, 2010

यूनिवर्सिटी की ओर पहला कदम ..

               

              १० वीं के एग्जाम के  बाद ११ वीं में दाखिले के लिए सेंट्रल हिन्दू स्कूल ही सबसे पहली पसंद थी मेरी .......और उसका सबसे बड़ा कारण था कि वहां की साफ़ सफ़ेद यूनीफार्म बहुत  स्मार्ट लगती थी .......पर हाई स्कूल  में बहुत अच्छे नंबर नहीं होने कि वजह से पहली और दूसरी लिस्ट में मेरा नाम नहीं आया....जिस से मन बहुत उदास हो गया...पर उसका भी एक विकल्प था कि राजघाट के बसंता कॉलेज में दाखिला मिल जाये ..

बसंता कॉलेज  गंगा के तट पर बना हुआ है और बनारस के राजघाट एरिया में है..................जब वहां पहुंचे  तो वो आखिरी दिन था दाखिले के लिए.....एक बार तो यही लगा कि बात नहीं बनेगी..पर मम्मी के प्रयास से कुछ हिम्मत बंधी ....पर प्रिंसिपल मैडम का ये कहना था कि उनके कॉलेज के ड्राइंग सर मेरा चयन करेंगे ...अगर मुझे ड्राइंग विषय चाहिए तो..........
  
       मुझे बड़ी चिंता हुई कि मैं कोई तैयारी करके नहीं गई थी वहां जाकर अगर नहीं बना पाई तो मुझे दाखिला नहीं मिलेगा.....सब उसी पर निर्भर करता था......खैर बड़ी हिम्मत कर के वहां गई......उस क्लास में पूरा कलात्मक वातावरण था.....पूरी फर्श पर दरी बिछी हुई थी चारों तरफ सुन्दर  सुन्दर मूर्तियाँ और चित्र लगे हुए थे....और क्लास के २  दरवाजे गंगा नदी   की      तरफ  खुलते  थे ....वहां  से  ही  गंगा   साफ़  दिखाई  देती  थीं ....थोडा ढलान पर ........ 
       कुछ लड़कियां वहां थीं जो बोर्ड पर चित्र बना भी रही थीं......वहां जाकर मैं अवनि दा से मिली जो वहां के सर थे.......प्रथम दृष्टि में उन्होंने मुझे बंगाली समझा (जो अक्सर ही लोग समझ लेते हैं)  उन्होंने बड़े ही प्यार से बात की .......और ४ चित्र जो लाइन ड्राइंग में बने हुए थे.....(अजंता के चित्रों की  अनुकृति थी ) मुझे बनाने को दिए......भगवान् कि कृपा ही कहूँगी कि वे चित्र पहली ही बार में बहुत  सुन्दर बन गए......अवनि दा बहुत खुश हुए......और मुझे लिख कर दे दिया कि मैं ड्राइंग विषय ले सकती हूँ.....मैं बता नहीं सकती कि उस समय मैं कितनी खुश हुई .....और मुझसे कहीं ज्यादा मेरी मम्मी खुश हुईं.......खैर....वहां दाखिला मिला और करीब ३ महीने मैंने वहां पढाई भी कि ......और मैं यह पूरे यकीन  के साथ कह सकती हूँ कि उन तीन महीनो में मैं अवनि दा कि एक प्रिय शिष्या बन गई थी......अक्सर वो अन्य लडकियों के चित्र में मुझसे सुधार करवाते थे......ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी ....पर अवनी दा को फाइन  आर्ट्स कॉलेज के नाम से बहुत चिढ थी.....उन्हें यही लगता था कि लड़के लडकियों के एक साथ पढने  पर पढ़ाई नहीं होती है सिर्फ आवारागर्दी होती है ....................और वो ये बात अक्सर क्लास में कह भी देते थे.......उनको किसी लड़की ने मेरी अनुपस्थिति में ये बता दिया था कि मैं पी.यू.सी. करने के बाद फाइन आर्ट्स ज्वाइन करना चाहती हूँ तो वे बहुत नाराज हुए......उनका कहना था कि मुझमे बहुत संभावनाए हैं.....और मुझे पेंटिंग विषय लेकर स्नातकोत्तर करना चाहिए..............

                          अवनी दा उस समय ही करीब ६० वर्ष के रहे होंगे...वे शान्तिनिकेतन में पढ़े हुए थे और नंदलाल बोस के जूनियर थे  ये लोग वो हैं जिनके नाम हम सबने सिर्फ किताबो में पढ़ा है.......बहुत ही महान  चित्रकार...........पर शायद मेरी किस्मत में उनका साहचर्य सिर्फ ३ महीने ही लिखा था.....क्यों कि सितम्बर के अंत में मेरा नाम सेंट्रल हिन्दू स्कूल कि तीसरी लिस्ट में आगया.....और मैं  बसंता कॉलेज छोड़ कर यहाँ आगई .........बसंता कॉलेज  छोड़ने का मुझे जीवन भर अफ़सोस रहेगा....क्यों कि वैसा  वातावरण वैसा माहौल फिर कहीं नहीं मिला.........सुबह की  प्रार्थना वहां जमीन  में बैठ कर होती थी पूरे वाद्ययंत्रों हारमोनीयम   सितार और तबला  के साथ भजन गाया  जाता था.....गीतों की  एक पुस्तक थी जिसमे से रोज बदल बदल कर प्रार्थना के गीत गाये जाते थे...  ये बहुत ही सुखद लगता था ........मैंने वहां बांग्ला विषय लिया था.....आज भी मैं थोड़ी बहुत  बांग्ला  समझ  लेती हूँ ......

बसंता कॉलेज की  एक और याद बहुत सुखद है.....सर एडमंड हिलेरी जो एवरेस्ट विजय में तेनजिंग नोर्के के साथ सहभागी रहे थे.....वो अपने सागर से आकाश अभियान  के  अंतर्गत गंगा नदी से गुज़रे थे..... उनकी पूरी टीम बसंता कॉलेज के पीछे कुछ देर के  लिए रुकी थी ..............हम सभी उनसे मिले और उनके आटोग्राफ भी लिए थे.....बड़ा ही यादगार पल   था वो ............

.बसंता कॉलेज छोड़ने का एक और सबसे बड़ा कारण रहा कि वहां बस से आना जाना बहुत कष्टप्रद था........सुबह ८.३० घर से  बजे निकलने के बाद शाम ६ बजे घर पहुँचते  थे............बस का सफ़र मुझे कभी सूट  नहीं करता  .......हमेशा जी मिचलाता और कभी कभी उलटी भी हो जाती थी.....सर में दर्द बना रहता फिर कोई काम करना और पढना  बहुत मुश्किल था......बस नींद आती रहती थी.......जिस से पापा जी बहुत नाराज होते थे...

वहां टिफिन नहीं ले जाती थी लड़कियां.......ज्यादा तर कैंटीन में खाती थीं....बसंता कॉलेज में बहुत अच्छी कैंटीन  थी..और वहां समोसे  और खट्टी चटनी बहुत अच्छी मिलती थी .....आज भी वो स्वाद याद है ......

   जब मैंने बसंता कॉलेज  छोड़ा तो मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं जाकर अवनी दा से मिलूँ...................अब शर्म आती है ये सोच कर कि मैंने कॉलेज छोड़ते वक़्त किसी को कुछ नहीं बताया बस एक दम से जाना छोड़ दिया और सेंट्रल हिन्दू स्कूल ज्वाइन कर लिया..........यहाँ भी मेरी ड्राइंग टीचर अच्छी थीं...पर अवनी दा से किसी का कोई मुकाबला नहीं......एक बार फाइन आर्ट्स कॉलेज में पेंटिंग कि प्रदर्शनी लगी हुई थी.......उस वक़्त मैं संभवतः तृतीय वर्ष की छात्रा  थी.......अचानक शोर हुआ कि बसंता कॉलेज की लड़कियां प्रदर्शनी देखने   आरही   हैं  ......सब   मेरे  साथ  वाली  लड़कियों  का ही  ग्रुप  था  वो ......और  अवनी  दा  ही  उनको    लेकर   आये  थे ......पर  मैंने  सभी  को  छुप  कर   देखा  ....अवनी  दा  के  सामने   जाने  की  हिम्मत   नहीं   हुई...............कई बार मन में आया कि जाकर पैर छू लूं उनके.....पर नहीं कर पाई ऐसा.......अभी भी सोच कर बुरा लगता है पर क्या बचपना था वो भी.......

६ या ७ महीने कि पढ़ाई सेंट्रल हिन्दू स्कूल में हुई  फिर अप्रैल से फाइन आर्ट्स कॉलेज में दाखिले के लिए भाग दौड़ शुरू हो गई......

1 comment:

  1. बहुत अच्छा अनुभव वर्णित किया है आपने , सुखद महसूस होता है जब इस तरह की लेखनी देखने को मिलती है| हर बात को बहुत ही बखूबी के साथ शब्दों में पिरो को प्रस्तुत किया है आपने |

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