मुझे कम बोलना पसंद है .....चुप रहना नहीं, पर जब जरूरत हो तभी.....बोलना अच्छा रहता है......और मेरी ये आदत हमेशा से है....जब कॉलेज में थी तब भी....... और आज भी ..मेरी इस आदत की वजह से अक्सर मुझे गलत समझ लिया जाता है.....घमंडी और गुरूर वाली....जबकि ऐसा कत्तई नहीं है अक्सर स्टाफ़रूम में या लेडीज क्लब में ,,,,,ट्रेन में.....महिलाओं के साथ घरेलू कार्यक्रमों में या किसी भी अन्य भीड़भाड़ वाली जगह में भी मैं सिर्फ एक अच्छी श्रोता बनी रहती हूँ....सभी की बातें सुनती रहती हूँ और कुछ पूछे जाने पर ही अपनी सहमति या असहमति जाहिर करती हूँ......मुझे मौन और एकांत दोनों ही आकर्षित करते हैं....बेवजह की.... ही ही ... ठी ठी या चिल्ल्पों या निरर्थक बातें....मुझे बिलकुल पसंद नहीं.....मुझे शांत - गंभीर और सहज सरल व्यक्तित्व वाले लोग ही पसंद आते हैं...जिनकी बातों में कुछ सार नजर आये.....निरर्थक, बेफजूल ..या दो अर्थी , अश्लील बातें करने वालो से मैं सख्त घृणा ( कृपया गौर करें !! घृणा ) करती हूँ.......
किसी के समय का ध्यान न रखना ,, सिर्फ अपनी ही हांके जाना ..बढ़ चढ़ के बोलना .....अपने आपको बहुत रईस या पढ़ा लिखा दिखाना.....ये सब ऐसे लक्षण (!!) हैं..जिन्हे मैं कत्तई बर्दाश्त नहीं कर सकती......
खैर !!! मैं हूँ ही कौन....जो अपनी पसंद ना पसंद को इतना महत्वपूर्ण समझ कर किसी को बताऊँ....पर मैं ये महसूस करती हूँ की चुप रहना एक जादुई असर डालता है...आप स्वयं से बातें करके देखिये ....तो खुद को .... खुद के बहुत करीब पाएंगे ........कभी अपने अंदर तक उत्तर के देखिये.....मैं कोई तत्वज्ञानी नहीं हूँ पर...मैंने महसूस किया है की सिर्फ चुप रहने से कितना सुकून मिलता है (यहाँ चुप रहना किसी हक़ के छीने जाने से पर भी चुप रहना नहीं है ).......यहाँ चुप रहने का मतलब शांत या मौन रहने से है.....बहुत ज्यादा एग्रेसिव या वाचाल होना बहुत सी समस्याओं को जन्म देता है बहुत ज्यादा बोलने वाले लोग निरर्थक या इतना ज्यादा फालतू बोल देते हैं कि वो मुसीबत का कारण बन जाता है........और बाद में उनको सफाई देते फिरना पड़ता है.....
पर कुछ लोग इतने ज्यादा चुप रहते हैं कि उन्हें चुप्पा या घुन्ना कहना ज्यादा मुनासिब होगा......उनके ऊपर किसी भी परिस्थति का कोई असर ही नहीं पड़ता नहीं वो कोई प्रतिक्रिया दिखाते हैं....ऐसे समय में बेहद खीझ उत्पन्न होती है.....एक अध्यापिका होने के नाते बहुत तरह के लोगों से मिलना होता है (बल्कि कहिये पाला पड़ता है ) अलग अलग मनःस्थिति के , विचारों के , वातावरण के लोग !!....आपकी कही साधारण सी बात को भी .....अलग अलग ढंग से सोचने वाले लोग .....
एक बार की घटना याद आती है.....पेरेंट्स टीचर मीटिंग में एक बेहद शरारती और पढ़ाई में फिसड्डी बच्चे के पिता आये.....मैं उस बच्चे से इस हद तक परेशान या कहूँ चिढ चुकी थी कि उनके आते ही मैंने उसकी कॉपी उनके सामने रखी और पूरी तौर पर महीनों की भड़ास उनके सामने निकाल दी .....साथ में बैठी दूसरी साथी टीचर ने भी मेरा साथ दिया .... वे बेहद धैर्य पूर्वक सुनते रहे बिलकुल चुप....शायद ही कोई शब्द बोले होंगे....कोई आर्ग्युमेंट नहीं......जब मैं काफी बोल चुकी तो वे बोले.....अब हम जाएं ??....
सच कहूँ मुझे तो यही महसूस हुआ कि अब तक मैं किसी उलटे घड़े पर पानी डाल रही थी...........इतना गुस्सा आया कि क्या कहूँ.......पर उस दिन के बाद से उनके बच्चे में गज़ब का परिवर्तन दिखा.....बाद में पता चला कि उसदिन घर जाकर उस बच्चे की काफी कायदे से धुलाई की गई थी......तब उनके चुप रहने का राज़ समझ में आया ......
कक्षा में दिन भर चुप रहो चुप रहो की रट्ट लगाते लगाते अब ये स्थिति हो गई है कि जरा से भी शोर शराबे ..चीख चिल्लाहट से धड़कन बढ़ जाती है ......घर पहुँचने पर भी बिलकुल बात करने का मन नहीं होता ....
नपी तुली हाँ हूँ वाली बातें या फिर सिर्फ टीवी की आवाज़ ही सुनाई देती है...टीवी में भी धड़ाम धुडूम या हल्ला गुल्ला सुनते ही मैं चैनल बदल देती हूँ.....
कभी कभी मैं सोचती हूँ..हफ्ते में एक दिन मौन रखा जाये.....कोई कुछ भी कहे...बिलकुल चुप रहें....कोई बेवजह प्रतिक्रिया नहीं दी जाये ....बोलें तभी जब बहुत जरूरी हो..
.और ऐसा ही बोलें ......जो सुनने लायक हो......