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Sunday, March 27, 2011

लो जी .....ये होली भी हो ली ............

                   धीरे  धीरे  एक  साल  बीत  ही   गया ......धीरे धीरे या इतनी जल्दी.....कुछ नहीं कह सकती.....मम्मी के बिना यह दूसरी होली भी बीत गई.....पिछले साल तो होली इतनी बेरंग  रही....की  किसी को होश ही नहीं था...की  कब होली आई और कब चली गई.......मम्मी को गए तब सिर्फ २० दिन बीते थे........न किसी ने रंग खेला न ही कुछ  खाने पीने की सुध रही किसी को............बस सब कुछ यथावत चलता रहा.......त्यौहार का कोई आभास या अहसास नहीं रहा......

             बस हर समय कान तरसते रहे ये आवाज सुन ने को..........की क्या क्या बनाया???......देखो कोई जाने वाला मिलता है तो गुझिया भेजवाएंगे   ......चिप्स और    पापड़ बनाया है की नहीं???.......वैसे    तो अब सब चीज बाजार में मिलने लगी है पर ..................अपने हाथ का बना जरूर होना चाहिए......नहीं तो बेटू को क्या सिखाओगी   ???....घर में नमकीन   गुझिया वगैरा जरूर   बना लिया करो.......साल भर का त्यौहार है......रीति रिवाज जरूर मानना  चाहिए.........और कुछ चाहिए तो बता देना......देखो शायद पप्पू ही जाये...तो भेज देंगे...........और मेरे नहीं नहीं करने के बावजूद झोला भर सामान आ जाता था.........
                    पर ........कोई फ़ोन नहीं आया......किसी ने गुझिया भेजने की बात नहीं की.....न ही किसी को चिंता थी ......की हमने क्या बनाया या क्या खाया??..............कहाँ गए वे दिन??????..
              याद आते हैं वो दिन जब.....हफ्ते भर पहले से हम सभी जुट जाते थे..होली की तैयारी में....दस दस किलो आलू के चिप्स और पापड़ बना लिए जाते थे  ......कई तरह की कचरी.....नमकीन...दालमोठ.....मठरी और सबसे बाद में गुझिया.....सारी चीजें तो दिन में बनती थीं...पर गुझिया रात में सारा काम निबटाने के बाद इत्मिनान से बनाई जाती थी....और दो तीन रातो में जग कर ये काम होता था..... ...सबके सोने के बाद ......मैं   मम्मी   मौसी   सब जुटते  थे.....मैदा गूंथना.....लोई काटना फिर बेल कर पूरियां बनाना फिर उन पूरियों में बहुत ही स्वादिष्ट खोये और सूजी का मेवे वाला पूरण भरना.....ये सभी काम हम मिल कर करते थे....और बड़े ही कलात्मक ढंग से मम्मी गुझियों को गोंठ्ती   थीं.....उनको भी और मुझे भी गुझिया बनाने वाले सांचे में गुझिया बनाना ..........कभी अच्छा नहीं लगा......हर गुझिया जो हाथ से बनाई हुई होती है ......मुझे बहुत पसंद है उसमे ये महसूस होता है की हर गुझिया पर अलग से ध्यान दिया गया है...........वैसे  भी ये काम हर किसी के  बस का नहीं.....मुझे लगता है कुछ चीजे ऐसी हैं जिनके लिए कभी कोई मशीन नहीं बनाई जा सकती.......जैसे लड्डू बनाने की कोई मशीन नहीं हो सकती.....उसी तरह गुझिया बनाने की भी कोई मशीन नहीं हो सकती.......लड्डू को कितने  दबाव के साथ हाथो में घुमाना है ये सिर्फ अनुभव से ही जाना जा सकता है.....लड्डू कितने भी   मुलायम हो ..............वो हाथो से उठा कर मुंह  तक पहुँचने में फूटने नहीं चाहिए...........और ये काम कोई सांचा नहीं कर सकता.........उसी तरह सांचे में बनी गुझिया भी मुझे .......बस खाना पूर्ति सी लगती है......खैर.....मुझे गर्व है की मम्मी के इस गुण को मैंने सीखा है.........मम्मी की बनाई हुई गुझियों की बहुत डिमांड रहती थी........बड़ी बड़ी टोकरियों में अखबार बिछा कर उसमे गुझिया रखी जाती थी........बिस्कुट के बड़े बड़े वाले टिन .......लगभग ५ या ६ टिन भर जाते थे......छुट्टियों में पापा जी आये हुए होते थे और जब १०० ...१५० गुझिया बन जाती थीं तब पापा जी मोढ़ा  लगा कर बैठते थे .......और शुरू होता था स्टोव पर बड़ी कड़ाही रख कर गुझियों क तलने का काम.......अपनी पसंद से पापा जी गुझिया सुनहरा होने तक तलते थे.......पहली गुझिया निकाल कर अलग साफ़ जगह रख दी जाती थीं.......फिर सभी एक एक गरमागरम गुझिया खाते थे........और ढेरों बाते होती रहती थीं ........जो कोई सो गया होता था उसे जगा कर गरम गुझिया खिलाई जाती थी......उस समय जो अपने पन और  स्नेह का वातावरण बनता था घर में ......वो बयां से बाहर है........ ये सब होते रात के  ३ या ४ भी बज जाते थे.......फिर सब सोने जाते थे..और सुबह ८ बजे तक सोते थे....

                       जिस दिन होलिका जलती थी.....उस दिन सभी बनाई हुई चीजो में से कुछ कुछ निकाल कर एक अलग पैकेट  में रख लिया जाता था.... शाम को मौसी या मैं सभी के पैरों में सरसों का उबटन लगाते  थे और उस  उस उबटन की मैल  को भी एक पुडिया में रख लिया जाता था......कुछ रंग और गुलाल भी उसमें डाल कर रात में जलने वाली होलिका में डाल दिया जाता था.........


                 मुझे और पापा जी को रंग खेलना कभी भी बहुत अच्छा नहीं लगा...............मुझे रंगों से खेलना पसंद है पर सिर्फ अपने कैनवास पर   .........बेमतलब की लीपा  पोती  छीना झपटी  मुझे बहुत फूहड़पन लगता है.....दूर से भले ही देख लूं ........पर मुझे याद नहीं .......की  मैंने  कभी भी बहुत ज्यादा रंग खेला हो.........हाँ भाई बहुत खेलता था ..और शायद आज भी खेलता है.....छोटे भाई को भी ज्यादा पसंद नहीं.....

             शाम को पूरी टेबल पर भांति भांति के व्यंजन सजा कर रखना और हर आने वाले  के लिए गुझिया के पैकेट बना कर रखना पापा जी का मनपसंद कार्य था......शाम को मिश्राम्बू  की ठंडाई मंगाई जाती थी.....और सभी बहुत प्रेम से सेवन करते थे...........कई बार नाना जी भी होली पर रहे हैं बनारस में........बहुत सुखद यादें हैं उस समय की......जब भांग   वाली ठंडाई पीकर हंसी मजाक होता था.......मम्मी को भांग बहुत ज्यादा लग जाती थी.....और एक बार तो वे बहुत ज्यादा रोने लगी थीं.......बिना बात के ही......सब खूब हंस रहे थे ....और वो रो रही थीं ........कहाँ  गए  वे दिन और कहाँ  गए  वो लोग ....



..अब      तो सब सपना    सा    ही लगता है....
           वक़्त       सबको     धकेल      कर ........बहुत  आगे        निकल  चुका     है.....कमरा     जो सबके कहकहे    से गूंजता    था वहां    अब   सन्नाटे   और ख़ामोशी   का डेरा   है......सभी की जिंदगियों    में कभी न    कभी ऐसा    कुछ घट    जाता है की सब कुछ बदल   जाता है.... ज़िन्दगी  फिर वैसी  ही नहीं रह  जाती.........जिन्होंने   घर बसाया    था वो लोग तो अब   इस दुनिया    में नहीं हैं....पर उनकी   खुशबू    उनका    अहसास   आज भी कोने   कोने   में बसा   हुआ   है.....और हमारे   पास   भी उन पुरानी   यादो   की जुगाली   करने   के सिवा   और कोई चारा   नहीं है.....पर बहुत सी ऐसी खुशनुमा   यादें  जो कभी भुलाई    नहीं जा सकतीं    .....और  लो   देख लो ....ये  होली  भी हो ली   ......






Friday, March 4, 2011

   प्यारा  लखनऊ   




         

             अभी कुछ समय पहले लखनऊ जाना हुआ....और संयोग ऐसा रहा की अपनी  गाडी और कुछ समय भी हमारे साथ था...नहीं तो हर बार भागते हुए जाना और भागते हुए आना ....ऐसे में चाहते हुए भी कहीं आना जाना नहीं हो पाता........कितने ही लोग जानपहचान के और रिश्तेदार हैं वहां.....और सबकी ही ये शिकायत रहती है की आप लोग लखनऊ आते हैं और घर नहीं आते.....अगर एक के घर रुको और एक के घर न जाओ तो सब के कहने के लिए हो जाता है ...अब ऐसे में हमने यही तरीका निकला है की किसी के घर रुको ही नहीं.....सुबह जाओ और शाम को वापस ......अगर कभी रुकना भी हुआ तो आई टी आई का गेस्ट हाउस जिंदाबाद..........खैर ये तो हुई एक छोटी सी बात......मैं बता रही थी.....की अपने पास बचे हुए समय का क्या सदुपयोग किया हमने....

              हर बार मनकापुर से लखनऊ जाते हुए.....जब इंदिरा ब्रिज पर से गुजरना होता था तो निगाहें बरबस ही उस रास्ते पर मुड़ जाती थीं....जहाँ हमारा ३५ साल पुराना घर हुआ करता था.....चाहे  वो किराए का ही था...पर उस घर से बचपन की ऐसी यादें जुडी हैं.......जो कभी विस्मृत नहीं होंगी..... आज भी वो नीम का पेड़ वहीँ है.....बस थोडा बूढा और कमजोर सा दिखने लगा  है......हर बार जब हमारी कार पुल से गुजरती थी.......तो ५ से १० सेकेंड में सिर्फ वो नीम का पेड़ ही दिख पाता था......और हर बार मैं बच्चो को वो रास्ता दिखा कर ये बताती थी की...देखो वो ही था हमारा घर........

    पिछले से पिछले साल अक्टूबर के महीने में कुछ जरूरी काम से मैं बाबू और मेरे पतिदेव लखनऊ गए थे.....मैंने पतिदेव से गुजारिश की कि क्यों न हम लोग पुल से नीचे उतर कर अपने पुराने वाले घर कि तरफ चलें देखें कि अब वहां कौन रहता है और कुछ पल फिर से अतीत में देख लें..... 

          मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि मुझे वो जगह पहचानने में जरा भी दिक्कत नहीं हुई.....क्यों कि वो नीम का पेड़ तो आज भी    वैसे   ही खड़ा  है......पर पहले जैसा घना और बहुत दूर तक फैला हुआ नहीं है.........सभी फ़ैली हुई शाखाएं काट दी गई हैं....उस जगह का उपयोग एक और मकान    बनाने में कर लिया गया है कट जाने से पेड़ थोडा सिकुड़ गया है......मकान जब हम लोग वहां रहने आये थे तभी काफी पुराना था.....लगभग २५ से २७  साल पुराना और अब हम लोग ३५ साल से बनारस में हैं........और करीब ८ साल उस मकान में रहे हैं... ........अगर ये सारे साल जोड़े जायें तो कुल मिला कर लगभग ७० साल के करीब हो जाते हैं.......तो यक़ीनन इतने   पुराने    मकान की   क्या हालत   होगी   ये सोचा   जा   सकता   है.......वो मकान काफी बड़ा था.....इतना कि उसमे १४ किराये दार रहते थे....और ये कहते हुए अच्छा लग रहा है कि उन सभी किरायेदारो में सिर्फ हम लोग थे जिनके पास ऊपर का सबसे बड़ा हिस्सा था .............यानि ४ कमरे और आँगन भी......मुख्य सीढ़ी हमारे दरवाजे से ही नीचे उतरती थी.....अब उस सीढ़ी के अंत में लोहे का गेट लगा दिया है...
          उस एरिया में बन्दर बहुत ज्यादा थे........पूरा आतंक मचा रहता था उनका.....बहुत नुक्सान  भी करते थे..... एक बार एक बहुत छोटा सा बन्दर का बच्चा गलती से हमारे कमरे में बंद हो गया था.....उस वक़्त हम सब कहीं गए हुए थे......जब वापस आये तो देखा कि बंदरो कि पूरी फ़ौज ने हमारे दरवाजे और खिडकियों  को घेर  रखा  है......बहुत मुश्किल  से उनको  हटा  कर दरवाजा  खोला  गया...........तो अन्दर  का हाल देख कर रोना आ गया  था.....उस चूहे  जैसे बच्चे ने पूरे कमरे का हाल ही बदल दिया था.....कोई भी सामान अपनी जगह पर नहीं था..सब तहसनहस कर के  रख दिया था उसने......

          अब उन खिडकियों पर प्लाई  लगा कर बंद कर दिया गया है शायद बंदरो के डर से या अब वे खिड़कियाँ   बिलकुल जर्जर हालत में हैं........पता नहीं ........नीचे रहने वाले एक सज्जन ने जब मुझे देखा और पाया कि मैं बड़ी ही आतुरता के साथ हर तरफ देख रही हूँ तो उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं किसी को खोज रही हूँ........मैंने उनसे कहा हाँ अपना बचपन.......तो बड़ी ही उत्सुकता से हंस कर उन्होंने कहा ......ओह्ह्ह....अच्छा अच्छा .....

        तब मैंने उन्हें बताया कि बहुत पहले हम लोग यहाँ रहते थे.....और उस समय का कोई है यहाँ??? .........तो पता चला कि एक सज्जन आज भी उस मकान में रहते हैं....और अब वे लोग हमारे वाले पोर्शन में शिफ्ट हो चुके हैं करीब ३० साल पहले.......और जो किराया वो तब देते थे वही आज भी दे रहे हैं........उनका पूरा परिवार आज भी वहीँ है.........जो छोटे छोटे बच्चे थे सब शादी शुदा हो चुके हैं और अपने बच्चो के साथ वहीँ रहते हैं.......पूरा मकान बहुत जर्जर स्थिति में पहुँच  चुका है.......सारी दीवारे बड़ी बड़ी ददारों से भरी हुई हैं......
        अगल बगल के सभी मकान काफी हद तक बदल चुके हैं..कुछ नए बन गए हैं...मैं बाई और की  गली से काफी दूर तक गई.....पीछे कि गली में मेरी एक बहुत अच्छी सहेली निशि रहती थी..... उनका परिवार आज भी वहीँ है..क्यों कि मैंने उसके पापा कि नेम  प्लेट  वहां  लगी हुई देखी....थोडा और दूर चलने पर एक वैद्द जी का दवाखाना पड़ता था.......जहाँ घंटो जाकर हम लोग उनके चूरन के लिए बैठे  रहते थे और झूठमूठ के पेट दर्द के लिए चूरन ले आते थे......कितना स्वादिष्ट चूरन होता था..आज भी याद है......बेमतलब ही जाकर वैद्द जी के यहाँ बैठना.....और उनके द्वारा किया जा रहा मरीजो का इलाज देखना....किस तरह वे शीशे के ग्लास में माचिस की  तीली जला कर दिखाते   थे और तुरंत वो गिलास पेट दर्द से छटपटाते मरीज के पेट पर रख कर चिपका देते थे.....ताज्जुब होता था कि कैसे  नाभि सहित  पूरे  पेट का एक बड़ा हिस्सा उस गिलास में भर जाता था......थोड़ी देर उसी तरह रहने देने के बाद गिलास एक झटके से हटा लिया जाता था..और मरीज हँसते हुए खड़ा हो जाता था.....शायद ये नारा उखड जाने पर किया जाता था.......कितनी ही बार  वैद्द जी के कंपाउंडर  के साथ दवा  की  बोतलों पर खुराक बताने वाले कागज कि चिप्पियाँ चिपकाई हैं..........उस समय दवा में अक्सर लाल रंग का मिक्सचर दिया जाता था ...और खुराक कम या ज्यादा न हो ..........इस लिए कागज कि चिप्पी लगा कर दी जाती थी........वैद्द जी के दवाखाने कि भी बहुत सी यादें  हैं..... ...
                       
                        बड़ी ही तक लीफ हुई  उस जगह को देख कर वो नारायण औषधालय आज भी वहां है पर उस कमरे में बड़े बड़े पेड़ पौधे और घास उग  आई हैं......  वैद्द जी उस समय ही  बहुत वृद्ध  थे....  उनके बाद शायद किसी ने दवाखाने को नहीं देखा.....  .दवाखाने के सामने  एक बहुत बड़ा पार्क  था जहाँ    अक्सर दीवार   पर प्रोजेक्टर   से पिक्चर   दिखाई    जाती थी......अक्सर रात    में हम लोग पिक्चर    देखने   चले   आते थे ..मनोज  कुमार   कि उपकार   फिल्म   हमने करीब ८ बार वहीँ पर देखी.......एक बार उस पार्क में नौटंकी  भी देखी...............
               और चौथी   गली की   रामलीला  तो हम ज़िन्दगी  में कभी नहीं भूल  सकते ..........रात में ९  बजे   से  ही ताई  जी वहां चादर  बिछवा  कर रजाई    कम्बल  के  साथ डेरा  डाल   कर बैठ    जाती थी....खाना   वाना   निबटा   कर हम सभी रात भर रामलीला     देखते     थे.....सुबह ४ बजे   तक वापस आते थे.....ज्यादा तर     सीता     स्वयंवर    और भरत  मिलाप   वाले दिन   बहुत भीड़   होती   थी...........  उसमे जो मेघनाद   का अभिनय   करते  थे ......उनका नाम   था जगदीश अलबेला    ..........उनकी   बहुत छोटी सी हलवाई  की  दूकान  थी......जो आज काफी बड़ी और प्रसिध्ध  दूकान  बन चुकी  है......अलबेला  ने फिल्म लाइन  में भी हाथ  आजमाया ........कुछ फिल्मे  आई भी.............फिर शायद वे लौट   आये.............क्यों कि उनकी दूकान  का नाम  आज भी अलबेला  मिष्ठान्न  भण्डार   है.....उसी  रामलीला में ही हमने पहली बार अनूप जलोटा को सुना था....तब वो लखनऊ   यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे........रामलीला के बीच बीच में दृश्य परिवर्तन के लिए जब पर्दा गिरा रहता था तब किसी गायक...या भजन गायक या किसी मिमिक्री करने वालो को मौका दिया जाता था.....उसी में वे भी गाने आये थे.......मुझे वो गाना भी याद है जो उन्होंने गाया था...मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती  कर ली........
                   आज  भी निशात   गंज   से गुजरते  हुए वो सातवीं गली     ....जहाँ  हम लोग रहते थे................निशात   गंज   कि सभी 7 गलियाँ   .........याद आती   है  .....चौथी गली की शुरूआत में ही थी समोसे  की दुकान जहाँ १५ पैसे का एक समोसा मिलता था......और  पहली  गली कहू या बालदा रोड...........जहाँ के नुक्कड़ पर डेयरी की बोतलों में दूध मिलता था............सुबह सुबह चार बोतलें लेकर मैं या भाई वहां से दूध लेने जाते थे.....ख़ाली बोतलें देकर भरी हुई  बोतलें ले  आते  थे......लाल नीली या सफ़ेद   सभी के अलग अलग दाम थे....... 
           जन्माष्टमी   के अवसर   पर ...........हर गली में कोई न कोई झांकी   सजती   थी.....और सभी एक से एक बढ़  कर ....हम सभी बच्चो का झुण्ड   बना  कर सभी झांकियों   को देखने जाना............और हर जगह का प्रसाद  खाना  याद आता   है.......स्कूल   से लौटने   के बाद या किसी मेहमान  के आने  पर ठन्डे    पानी   के लिए  .........हम में से कोई भी बर्फ लेने  जाता था....बुरादे    और बोरे  में लपेटी    हुई बर्फ जो बर्फ वाला    छेनी से तोड़ कर और तौल कर देता     था......घर तक आते आते वो कुछ हद तक पिघल   भी जाती थी.....पर उस बर्फ का ठंडापन ऐसा तृप्त करता था जो आज फ्रिज   के ठन्डे पानी में नहीं महसूस  होता.....गर्मी के दिनों में अक्सर पापा जी बेल का शरबत बनाते   थे.......या फिर तरबूज  का शरबत..........बरफ   डाला   हुआ.......वो स्वाद  अब नहीं मिलता ......पता नहीं अब बर्फ वैसी    नहीं रही या तरबूज  वैसा   नहीं रहा .....या बेल में कोई कमी   आगई     है..कह  नहीं सकती .....
      या शायद ....शायद क्यों ..सच   कहूं   तो हम ही  अब  वैसे   नहीं रहे.....

Wednesday, March 2, 2011

काश ऐसा होता...

काश ऐसा होता.....



               
          काश एक ऐसा लफ्ज़ है जो अपने आप में अधूरा है......और कभी पूरा होने की भी उम्मीद नहीं है............ इसके आगे कितना कुछ है जो जोड़ा जा सकता है..........यही सोच रही हूँ मैं कल से ही..आज एक इतनी बड़ी तमन्ना के पूरे होने की शुरूआत  है हमारे लिए....ऐसा सपना जो हर माँ बाप अपने बच्चो के लिए देखते हैं........एक ऐसा भविष्य जो खूब खूब सुखद और संतोषजनक हो....ऐसा जिसको पाने के बाद और कुछ ज्यादा पाने की इच्छा      न रहे.......ऐसा रास्ता जो सिर्फ खुशहाली और सम्पूर्णता के दरवाजे पर ले जाता हो......ऐसे रास्ते पर मेरी बहुत प्यारी बिटिया ने अपना पहला कदम रख दिया है.......भगवान्    उसकी   यात्रा    मंगलमय    करें    यही प्रार्थना    है ......एक सुखी    और संतुष्ट    माँ की प्रार्थना   .........

        कल  सुबह    बेटी   को  फ़ोन   मिलाया   सिर्फ यह   जानने  के लिए  की उसके इंटरव्यू   का क्या नतीजा  निकला .....या......क्या सूचना आई  ??........और प्रत्युत्तर में उसकी ख़ुशी से चीखती हुई आवाज सुनाई दी   की मम्मी मेरा सलेक्शन  हो गया ....तो  मैं बता  नहीं सकती  कि उस  पल  मुझे  क्या  महसूस  हुआ  .....आनंद  और भावावेश  से मेरा गला  रुंध  गया....मैं समझ  नहीं पा   रही थी  कि ये ख़ुशी मैं किसके   साथ बांटूं  ???........आज तक  यही होता रहा  है कि जब भी कोई  बहुत ख़ुशी का समाचार  हो तो सबसे पहले  ये बात  मैं मम्मी से शेयर  करती  थी .....ये पहला ऐसा अवसर  रहा  कि मेरे  साथ इतनी अच्छी  खबर  बांटने  के लिए मेरे  मम्मी  पापा  नहीं हैं........बहुत कमी महसूस हो रही है......सभी हैं..पर एक आतंरिक ख़ुशी जो वो लोग महसूस करते हम दोनों की तरह ही और कोई नहीं करेगा......कहते हैं न मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है...ये मैं अक्सर महसूस करती थी......जिस स्थान तक हम लोग नहीं  पहुँच पाए    उस   जगह   बच्चे   पहुँच जायें   यही    उम्मीद   रहती   है......अभी कितने ही काम करने के लिए बाकी हैं जिनमे मुझे सिर्फ मम्मी से ही मदद चाहिए थी.......उनकी जगह कोई नहीं ले सकता .......कोई ऐसा दीखता ही नहीं जो इतने निस्वार्थ भाव से ...............सिर्फ मेरे और मेरे बच्चों के लिए सोचता हो......जिसने  सिर्फ देना  ही जाना  है कभी  कुछ  लेने  का  वक़्त  आया  हो तो कितने संकोच  के साथ स्वीकार किया हो ये सिर्फ मैं जानती हूँ.....

             कितना ज्यादा शौक़  था  मम्मी को अपने बच्चों  को आगे   बढ़ते   हुए देखने का.....कुछ नया  और अनोखा  करते  देखने का........याद आता है बाबू जब  छोटा  था और .......दिन भर टीवी के सामने कार्टून  देखते रहना  चाहता  था.............तो नाना   और उसमे   कितनी झगडे   हुआ   करते थे   पापा जी दिन भर न्यूज़ सुनना   चाहते   थे... ...... .और बाबू कार्टून चैनल देखना   ......एक बार मैंने बाबू के अभिनय और गाने के शौक़ को देखते हुए मम्मी और पापा जी के सामने जिक्र  किया था  कि ...........बाबू को अगर टीवी .या सिनेमा लाइन में भेजा जाये तो कैसा रहेगा????....तो मम्मी का यही जबाब था कि उसको न्यूज़ रीडर  बनवाना  ताकि पापा जी जो हर समय न्यूज़ सुनते रहते हैं टीवी  पर वो बाबू को दिन भर देखा करेंगे......आज बाबू भी उस लाइन पर कदम बढ़ा चुके हैं.....शायद भविष्य में नानी का कहा पूरा भी हो जाये....टीवी भी वही   है  पर दिन भर न्यूज़ सुनने वाले चले गए   हैं.........और फिर  सबसे  ज्यादा अपनी  प्यारी बेटू को तरक्की  करते  हुए  देखने का........

                 मुझे याद है कि  जब बेटू का पासपोर्ट बन कर आया..तो उसने कितना उदास होकर मुझे   मेसेज  किया था की मम्मी मेरा पासपोर्ट बन कर आ गया..आज नाना नानी होते तो कितना खुश होते........बेटू को बाहर जाना है इस समाचार से मम्मी बहुत ज्यादा उत्साहित थीं.....  और वो ही बेटू की इन  उपलब्धियों को देखने के लिए आज हमारे साथ नहीं हैं.....मुझे पूरा  यकीन  है कि उनका  आशीर्वाद  हमेशा  हम सब  के  साथ है.......पर यही सोचती  हूँ कि काश  ऐसा होता के आज  वे  लोग हमारे  साथ  होते ........पर वही  है न कि काश  बहुत अधूरा  लफ्ज़  है......अपने   आप  में  शापित ........जो कभी पूरा नहीं होता...........