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Monday, August 30, 2010

सेंट्रल  स्कूल  में 

           



      सेंट्रल स्कूल में आने के बाद ये महसूस हुआ कि बेकार में मुझे यहाँ 
 आने का इतना शौक़ था..........बहुत  अच्छा अनुभव नहीं रहा मेरे लिए......  यहाँ कि लड़कियां बेहद घमंडी ,सर चढी  और अजीब सी थीं...खास तौर पर जो लड़कियां  शुरू से यहाँ पढ़ रही थीं....वो तो खुद को यूनिवर्सिटी   का ही समझती थीं क्यों कि सेंट्रल हिन्दू गर्ल्स स्कूल में या सेंट्रल हिन्दू ब्वायज   स्कूल में पढने वाले बच्चो को यूनिवर्सिटी में पहले मौका दिया जाता था....वो बच्चे  यूनिवर्सिटी के स्टुडेंट यूनियन  के चुनाव में वोट देने के हक़दार थे.....मैंने अपने जीवन का पहला वोट उसी स्कूल में ही दिया.....मुझे याद है उस साल एक चंचल सिंह नाम के छात्र नेता थे जो जीत कर छात्र संघ अध्यक्ष भी बने उस साल......वो वोट मांगने हमारे स्कूल भी आये थे...जो हमारे लिए बड़ी अनोखी बात थी कि उन्होंने हम सभी लड़कियों से हाथ जोड़ जोड़ कर वोट डालने कि विनती (!) की थी.......और वो चंचल सिंह फाइन आर्ट्स  कॉलेज के छात्र थे........उस वक़्त फाइन आर्ट्स का भूत इस क़दर सर पर सवार  था कि फाइन आर्ट्स से सम्बंधित हर बात हमें आकर्षित करती थी.....और हम ज्यादा से ज्यादा वहां के बारे में जानना  चाहते थे............मेरा चंचल सिंह से कोई परिचय नहीं था......न ही मैंने कभी उनको देखा था.....पर सिर्फ इस कारण से वे फाइन आर्ट्स के छात्र हैं मैंने उनको वोट दिया और कई वोट दिलवाए...........अब यह सब सोच कर बहुत हंसी आती है......कितना बचपना था ये सब.........

वहां की   ड्राइंग टीचर  भी बी .एच . यू. फाइन आर्ट्स की  ही पढी हुई थीं    श्रीमती आभा गौतम  ..........यहाँ भी ड्राइंग की  क्लास जमीन  में बैठ कर ही होती थी..विशुद्ध कलात्मक तरीके से.....पूरे कमरे में दरी बिछी हुई थी...और सारे  कमरे में चित्र और देख कर बनाने के काम आने वाली  मूर्तियाँ तथा बर्तन आदि रखे हुए थे.......यहाँ आकर  मेरी दोस्ती कई बहुत अच्छी लड़कियों से हुई जो सभी दूसरे दूसरे  स्कूलों से आई   थीं  .......इनमे  से २ तो फाइन आर्ट्स कॉलेज में मेरी सहपाठिनी भी बनीं...........

        सेंट्रल स्कूल में ७ महीने  पढने के दौरान  मैंने क्रिकेट  खेलना  भी सीखा ....हम कुछ  ६  ,७ लड़कियों का ग्रुप  था जो क्रिकेट    के पीछे  पागल  था.....सुबह  ५  बजे  उठ  कर स्टेडियम    जाना   और दौड़ लगाना याद आता है......उस वक़्त कितना साईकिल चलते थे हम लोग........मैं और दुर्गा जो कि मेरी बहुत पक्की  सहेली  थी और आज भी है ............वो सुबह सुबह ५ बजे आजाती  थी और फिर हम दोनों  निकल जाते  थे......पापा जी ने मुझे कलकत्ते से बैट  मंगा   कर दिया था........कितना हल्का फुल्का शरीर था तब.........काश के वो दिन फिर से वापस आजाते......


         क्रिकेट खेलने के सिलसिले में हम लोग दो तीन बार लखनऊ और कलकत्ते तक गए थे............पर सिर्फ घूम फिर कर लौट आये वहां खेलने का तो नहीं पर भारत और इंग्लॅण्ड कि महिला टीम का मैच देखने को मिला ...........टूर काफी अच्छा रहा.........
     पापा जी उस वक़्त कलकत्ते में ही थे...उनके पास २ दिन रुकी थी....वहां भी मेरी मैनेजर साहब की  बेटी के लिहाज़ से बड़ी आवभगत हुई....
पापा जी वहां सियालदह   में रहते थे.......खादी   कमीशन की  बिल्डिंग के सबसे ऊपर के हिस्से में उनके रहने की  व्यवस्था थी.....जो..लोगों में भूत बँगला  के नाम से मशहूर था......वहां कभी किसी ज़माने में बहुत बड़ा सामूहिक हत्याकांड हुआ था .....और सभी बताते थे कि वहां बड़ा ही डरावना माहौल रहता था रात को ...............और चीखने चिल्लाने कि आवाजें आती थी....सुबह का रखा हुआ खाना शाम तक सड़ जाता था .....अब इसके पीछे क्या कारण  था नहीं जानती ..............पर मुझे बड़ी ही हैरत होती है कि पापा जी वहां सिर्फ एक बूढ़े दरबान और उनकी बूढ़ी   पत्नी  के साथ कैसे रहते   थे?....उनको  बिलकुल   डर  नहीं लगता था......
          
      पापा  जी  के   कमरे   के   बगल    वाले  कमरे   में  खादी कमीशन   के   वरिष्ट   चित्र   कार   (नाम   नहीं  याद   आरहा  ) का   स्टूडियो   था ..  .......मुझे   बहुत   अच्छा   लगा   वहां  .....उन   अंकल   ने   मुझे   अपने    बनाये   हुए   कुछ   चित्र   और   बहुत   अच्छी   क्वालिटी   के   हैण्ड    मेड   पेपर   दिए   थे  ..जिनमे    से   कुछ   अभी   तक   मेरे   पास   सुरक्षित   हैं  ......बड़ी   बड़ी   पेंटिंग्स   रखने   के   लिए   उन्होंने    मुझे   फाइल्स    भी   भेजी   थीं  .....और   हैण्ड मेड   पेपर की  बनी  हुई ड्राइंग कॉपी भी .......

         सेंट्रल हिन्दू स्कूल में पढने के दौरान वहां पर एक आर्ट एग्जिबिशन  लगाईं  गई थी......जिसमे मैंने भी अपनी २ पेंटिंग्स लगाई  थीं.....और कुछ क्राफ्ट वर्क भी लगाया था...... काफी अच्छी प्रदर्शनी रही थी....
         सेंट्रल हिन्दू स्कूल एक तरफ से खालसा स्कूल और दूसरी तरफ से बसंत कन्या महाविद्यालय से जुडा   हुआ है.....मतलब तीनो स्कूल एक कतार  में हैं...बीच में सेंट्रल , दाहिनी तरफ खालसा स्कूल  और बाएँ तरफ बसंत कन्या महाविद्यालय........तो सभी की  पहली मंजिल वाली कक्षाएं  एक दूसरे  स्कूल में दिखाई देती थीं.........अगर किसी कक्षा को सजा मिली हुई होती थी...जैसे कान पकड़ कर खड़ा होना या कक्षा के  बाहर निकल दिया जाना .....तो वो दूसरे स्कूल वाली लड़कियों के लिए मनोरंजन का साधन होता था.....सभी एक दूसरे को चिढाते  थे.......कभी कभी बसंत कन्या की  लड़कियों के खोमचे वाले से हम लोग भी अमरुद और मूंगफली  या चूरन  खरीद  लेते  थे.... कुछ लड़कियां कभी कभी भाग भी जाती थीं........( बसंत कन्या की  तरफ की  दीवार थोड़ी ढह गई थी )उस समय  हर स्कूल में टिफिन  के वक़्त कुछ खाने   का सामान लेकर खोमचे वाले आते थे......खालसा स्कूल में तो एक आंटी आया करती थीं जो बहुत  अच्छे छोले और समोसे लेकर आती थीं..........२५ पैसे में २ समोसे और उसपर छोले और मीठी चटनी.....हाय क्या स्वाद था....

      क्रिकेट खेलने के दौरान हम लोग बड़े बड़े खिलाडियों से मिले......पूरी इंडिया टीम एक बार बनारस आई थी.....जिनमे सुनील गावस्कर, कपिल देव, रोजेर बिन्नी, रविशास्त्री  , संदीप पाटिल,मदन लाल,मोहिंदर अमरनाथ   जैसे खिलाड़ी भी थे.... .....सभी के हस्ताक्षर लिए थे मैंने भी........................पर अफ़सोस  कि अब वो ऑटो ग्राफ बुक   नहीं है मेरे पास..........उस समय क्रिकेट से सम्बंधित बहुत  मैटर  था इकठ्ठा  किया  था मैंने.......एक खेल पत्रिका खेल सम्राट का पूरा कलेक्शन था .......मैंने सुनील गावस्कर को राखी भेजी थी और उनका जवाब भी आया था............. ..........उनकी ब्लैक एंड ह्वाईट  फोटो के  साथ.........वो फोटो अभी भी है मेरे एल्बम में................

         एक बार उत्तर प्रदेश की रणजी ट्राफी टीम भी आई थी जिनमे से कुछ सदस्यों को मैंने अपने घर चाय पर आमंत्रित किया था.....और वे सभी लोग आये भी थे.........बहुत याद आते हैं वे दिन.....


खैर धीरे धीरे समय बीता ...............मैंने पी .यू..सी.पास किया......और फाइन आर्ट्स (अपने सपने ) की ओर कदम बढाए...........
..

यूँ ही सा

-->
जिसने जैसा समझा 
प्यार को अपने तरीके से परिभाषित किया  …....
और आज  तक  
ये  काम  बदस्तूर  जारी   है ...

सच   कहती   हूँ  ….
इस   भाव   से   तो   नहीं   माँगा   था  ..
मैंने   कुछ  …
कोई  लालसा  नहीं  थी …कोई  उम्मीद  नहीं  की   थी ………
सच  जानो ..यकीन करो  मेरा  ....
मैंने  तो  बस यूं  ही  हाथ  पसार   दिया  था ….
तुमने   जाने   क्या   सोच   कर..............  
मेरी   हथेलियों    में   पूरी  दुनिया  रख  दी        ….
अब   तुम्ही   बताओ  न  …..क्या   मेरी   सामर्थ्य   है  ???
इसे  सम्भाल   पाने  की  ???
कहो  न  अब  इसे  मुठ्ठी  में  लिए  लिए …मैं  कहाँ  घूमूं     ???
कहाँ जाऊं ...........क्या   करूँ   ???...............(संकलन  से)

Saturday, August 28, 2010

बस ऐसे ही ..............




 मुस्कुरा  लेती  हूँ ..और  क्या  चाहिए ..है  न ..
न  दे  सकूँ   किसी  को  मुस्कराहटों  की  सौगात  ......
तो  कम  से कम  किसी  की  आंखें  तो नम  न  करूँ ..
बस  इसी  कोशिश  ने  हर  बार  रुलाया  है  मुझे ...
बस  ऐसे  ही  जो  दिमाग  में  आता  है ...
लिख    देती    हूँ   ..कुछ    शब्द    होते    हैं  ..
जो  महसूस  किया ..वो  लिखा ..
जो  जिया ..वो  लिखा ..
जो  पाया ..वो  लिखा ..
जो भोगा   ..वो  लिखा ..
बस  वही  नहीं  लिखा ..
जो  दिल  ने  चाहा .....................

मेरे चंद पसंदीदा शेर..

 मेरे चंद  पसंदीदा शेर...



घर के हालात  तो चेहरे से बयान  होते हैं......
.
फिर क्यों कमरे को करीने से सजा रखा है??..................
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गुम्म   हूँ  न  जाने  कौन  से  आलम  में  इन  दिनों ...

अपनी  खबर  है  अब  न  तुम्हारी  खबर  मुझे .. .
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लग्ज़िशें  कहाँ  तक  साथ   देंगी ...

हम  भी  एक  रोज़  संभल  जायेंगे ..
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छोड़   कर  अपनी  जड़े  चलता  बना ..

हम  वहां  हैं  था  जहाँ   जंगल  कभी .......
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आता  था  जिसको  देख  के  तस्वीर  का  ख़याल ..

अब  तो  वो  कील  भी  मेरी  दीवार  में  नहीं .........
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सरहद की  लकीर  देख  आये ..

खंजर की  तरह  चमक  रही  थी .
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किया  था  उसने  जवानी  में  वस्ल  का  वादा

बुज़ुर्ग  हो  गए  हम  एतबार  करते  हुए ......
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देर  है  बारिश  के  आने  में  अगर ..

तब  तलक  तालाब  को  गहरा  करो ..
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रास्ते  में  मिले  सभी  मुझको ...

जिसको  देखा  वो  घर  के  बाहर  था ..
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शहर  का  दर्द  जहाँ  हद  से  गुज़र  जाता  है ..

गाँव  क्यों  छोड़ा   यही  मुझको  ख़याल  आता  है ..
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गली  में  चाँदनी  छिटकी  हुई  है ..

कई  दिन  बाद  वो  खिड़की  खुली  है ..
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तुम  आये  हो  तो  आँखे  हैं  रोशन ..

दिए  जैसे कि  दीवाली  में  खुश  हैं ...
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खज़ाना  सच  का  मुठ्ठी  में  है  जिसकी ,,

हम  अपनी  ऐसी   कंगाली  में  खुश  हैं ..
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हम  तो  गीली रेत   थे  जिसको  रोंदा  जाना  था ..

उसने  भी  कुछ  नक्श  बनाये  और  बिगाड़  दिए ..
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हमारे  ज़िन्दगी  भर  पाँव  चादर  से  रहे   बाहर ...

ताज्जुब  है  सिकंदर  के  कफ़न  से  हाथ  बाहर  थे ...
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हालां    के  याद   आता  है  अब  भी  बहुत   हमें ..

वो  शहर  जिसमे  कोई  हमारा  कभी  न  था ...
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हम  जिसके  साथ    साथ  थे ,उसके  कभी  न  थे ...

जो  साथ  था  हमारे . हमारा  कभी  न  था .....
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काश  किसी  दिन  तेरा  मेरा  यू  संगम  हो  जाये ..

मैं  रोऊँ  तो  तेरे  दिल  का  मौसम  नम   हो  जाये ..
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बच्चो  के  सच्चे  जेहनो  में  झूठी  बातें  मत  डालो ,

कांटो  कि  सोहबत  में  रह  कर  फूल  नुकीला  हो  जाता  है ..
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दिन  भर  तो  हम  दोनों  मिल  कर  पानी  शक्कर   मिलाते  हैं ..

रात  होते  ही  सारा  शरबत  क्यों  ज़हरीला  हो  जाता  है ...
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मैं  तो  अब  भी  तुझे  चाहता  हूँ  मगर ...

इतनी  जल्दी  न  मुझसे  बदल  ज़िन्दगी .....
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चला  हूँ  साथ  में  दुनिया  के  बरसो ...

अब  अपने  साथ  चलना  चाहता  हूँ ...
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हमें  भी  ज़िन्दगी  के  गम बहुत  थे ...

तुम्हे  भी  हमसे  प्यारी  ज़िन्दगी  थी ..
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मुझसे  क्या   बेखबर  रहे  हो  तुम ...

तुमसे  क्या  बेखबर  रहा  हूँ  मैं ....
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हम  कभी  अपने  साथ  ही  न  रहे ..

साथ  रहते  तो  खो  गए  होते ...
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क्या  कभी  तुम  भी  भूल  जाते  हमें ??

क्या  कभी  तुम  भी ऐसे   हो  गए  होते ???
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Friday, August 27, 2010

कुछ लम्हे

कुछ बातों को ....
बीते हुए लम्हों के हवाले कर देना चाहिए..................
.जो पल मिल   रहा है उसे तो जी लें....
.ज़िन्दगी का हिसाब किताब कितना रखें??.................
लम्हों का बही खाता   सही सलामत रहे ...
यही काफी है................
एक और उदासी भरा दिन बीत गया.....
कभी कभी बड़ा बोझिल सा समय बीत ता है......
हर बार इसी उम्मीद में सुबह उठती  हूँ शायद आज कुछ नया हो....... 
जीवन में बहुत कुछ पाया 
और जितना कुछ पाया..............
शायद इतनी ही मैंने उम्मीद भी की  थी..........
पर अब लगता  है बहुत अंतर्मुखी होना भी ठीक नहीं,,,,,,,,,,,,,,,,
लगता है न जाने कब से होंठो को सिये बैठी हूँ,,,,,,,,,,,,,
,और कमबख्त ज़िन्दगी है के मुंह  चिढाती है...
उसे तरस नहीं आता मुझ पर.....................

Thursday, August 26, 2010

काश






पता  है .................. 

काश ...............जिंदगी  का  सबसे  बड़ा  सच  है ..

जो  कभी  पूरा  नहीं  होता  ............हमेशा अधूरा   रहता  है....

हम  उम्र   भर  उस  काश  के  लिए  रोते  हैं 

जो  कभी  पूरा  नहीं  हो  पाता  ...........
.
काश मन की   जुबान  है ..

मन  जिसे  कुछ  कहने  का  हक  नहीं  सिवा  काश  के .............

यह  लफ्ज़  काश  ...

कितना  अकेला  कितना  तनहा ...

अपने  अन्दर  न जाने कितनी वीरानियाँ लिए हुए है......

हमेशा का ही प्यासा....

न जाने कितने दिलों की   चाहतें.....

कितनी जिंदगियों की  रंगीनियाँ कितने हसीं लबों की  मुस्कुराहटें    

अपने अन्दर समेटे हुए है.......

जिसके  बाद शायद कोई ................

और कुछ सोचने समझने की  ताक़त खो बैठे या.. 

ज़िन्दगी ही हार बैठे...

पर  इस काश की  भूख कभी ख़तम नहीं होती.................
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आज कल

आज कल

बहुत अजीब सा मौसम है आजकल का
न कोई ख़ुशी है न कोई दुःख
समझ नहीं आ रहा क्यों एसा है .......
अरसे बाद तारों की  बारात नज़र आई है...
अच्छा लगता है जब कभी सावन में तारे नज़र आते हैं.............
इन्हें देखते हुए सोचती हूँ...
सब...
इस वक़्त क्या कर रहे होंगे......
हर कोई अपने आप में व्यस्त...
और मैं ..
इस वक़्त सबसे दूर ......
निरासक्त भाव से सोच रही हूँ...
आजकल कुछ भी करने को जी नहीं चाहता......
बहुत दिन हो गए हैं कोई कविता लिखे हुए.....
अजीब सा मन हो गया है.....
न कोई ख़ुशी है न गहन उदासी....
ये बीच  कि स्थिति  बड़ी  अजीब  सी  होती  है......
त्रिशंकु  से दिन बीतते  जा   रहे हैं न  ऊपर  कि ओर  उठ पा रही हूँ न  गर्त  में समां  रही  हूँ.....
कभी कभी जब बहुत कुछ कहने  को जी चाहता  है .....
तो  कुछ भी कहा  नहीं जाता ......
शब्द  ही  साथ  नहीं देते . .....
समझ नहीं आता क्यों होता है ऐसा???...................
क्यों होता है ऐसा.........

Wednesday, August 25, 2010

यूनिवर्सिटी की ओर पहला कदम ..

               

              १० वीं के एग्जाम के  बाद ११ वीं में दाखिले के लिए सेंट्रल हिन्दू स्कूल ही सबसे पहली पसंद थी मेरी .......और उसका सबसे बड़ा कारण था कि वहां की साफ़ सफ़ेद यूनीफार्म बहुत  स्मार्ट लगती थी .......पर हाई स्कूल  में बहुत अच्छे नंबर नहीं होने कि वजह से पहली और दूसरी लिस्ट में मेरा नाम नहीं आया....जिस से मन बहुत उदास हो गया...पर उसका भी एक विकल्प था कि राजघाट के बसंता कॉलेज में दाखिला मिल जाये ..

बसंता कॉलेज  गंगा के तट पर बना हुआ है और बनारस के राजघाट एरिया में है..................जब वहां पहुंचे  तो वो आखिरी दिन था दाखिले के लिए.....एक बार तो यही लगा कि बात नहीं बनेगी..पर मम्मी के प्रयास से कुछ हिम्मत बंधी ....पर प्रिंसिपल मैडम का ये कहना था कि उनके कॉलेज के ड्राइंग सर मेरा चयन करेंगे ...अगर मुझे ड्राइंग विषय चाहिए तो..........
  
       मुझे बड़ी चिंता हुई कि मैं कोई तैयारी करके नहीं गई थी वहां जाकर अगर नहीं बना पाई तो मुझे दाखिला नहीं मिलेगा.....सब उसी पर निर्भर करता था......खैर बड़ी हिम्मत कर के वहां गई......उस क्लास में पूरा कलात्मक वातावरण था.....पूरी फर्श पर दरी बिछी हुई थी चारों तरफ सुन्दर  सुन्दर मूर्तियाँ और चित्र लगे हुए थे....और क्लास के २  दरवाजे गंगा नदी   की      तरफ  खुलते  थे ....वहां  से  ही  गंगा   साफ़  दिखाई  देती  थीं ....थोडा ढलान पर ........ 
       कुछ लड़कियां वहां थीं जो बोर्ड पर चित्र बना भी रही थीं......वहां जाकर मैं अवनि दा से मिली जो वहां के सर थे.......प्रथम दृष्टि में उन्होंने मुझे बंगाली समझा (जो अक्सर ही लोग समझ लेते हैं)  उन्होंने बड़े ही प्यार से बात की .......और ४ चित्र जो लाइन ड्राइंग में बने हुए थे.....(अजंता के चित्रों की  अनुकृति थी ) मुझे बनाने को दिए......भगवान् कि कृपा ही कहूँगी कि वे चित्र पहली ही बार में बहुत  सुन्दर बन गए......अवनि दा बहुत खुश हुए......और मुझे लिख कर दे दिया कि मैं ड्राइंग विषय ले सकती हूँ.....मैं बता नहीं सकती कि उस समय मैं कितनी खुश हुई .....और मुझसे कहीं ज्यादा मेरी मम्मी खुश हुईं.......खैर....वहां दाखिला मिला और करीब ३ महीने मैंने वहां पढाई भी कि ......और मैं यह पूरे यकीन  के साथ कह सकती हूँ कि उन तीन महीनो में मैं अवनि दा कि एक प्रिय शिष्या बन गई थी......अक्सर वो अन्य लडकियों के चित्र में मुझसे सुधार करवाते थे......ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी ....पर अवनी दा को फाइन  आर्ट्स कॉलेज के नाम से बहुत चिढ थी.....उन्हें यही लगता था कि लड़के लडकियों के एक साथ पढने  पर पढ़ाई नहीं होती है सिर्फ आवारागर्दी होती है ....................और वो ये बात अक्सर क्लास में कह भी देते थे.......उनको किसी लड़की ने मेरी अनुपस्थिति में ये बता दिया था कि मैं पी.यू.सी. करने के बाद फाइन आर्ट्स ज्वाइन करना चाहती हूँ तो वे बहुत नाराज हुए......उनका कहना था कि मुझमे बहुत संभावनाए हैं.....और मुझे पेंटिंग विषय लेकर स्नातकोत्तर करना चाहिए..............

                          अवनी दा उस समय ही करीब ६० वर्ष के रहे होंगे...वे शान्तिनिकेतन में पढ़े हुए थे और नंदलाल बोस के जूनियर थे  ये लोग वो हैं जिनके नाम हम सबने सिर्फ किताबो में पढ़ा है.......बहुत ही महान  चित्रकार...........पर शायद मेरी किस्मत में उनका साहचर्य सिर्फ ३ महीने ही लिखा था.....क्यों कि सितम्बर के अंत में मेरा नाम सेंट्रल हिन्दू स्कूल कि तीसरी लिस्ट में आगया.....और मैं  बसंता कॉलेज छोड़ कर यहाँ आगई .........बसंता कॉलेज  छोड़ने का मुझे जीवन भर अफ़सोस रहेगा....क्यों कि वैसा  वातावरण वैसा माहौल फिर कहीं नहीं मिला.........सुबह की  प्रार्थना वहां जमीन  में बैठ कर होती थी पूरे वाद्ययंत्रों हारमोनीयम   सितार और तबला  के साथ भजन गाया  जाता था.....गीतों की  एक पुस्तक थी जिसमे से रोज बदल बदल कर प्रार्थना के गीत गाये जाते थे...  ये बहुत ही सुखद लगता था ........मैंने वहां बांग्ला विषय लिया था.....आज भी मैं थोड़ी बहुत  बांग्ला  समझ  लेती हूँ ......

बसंता कॉलेज की  एक और याद बहुत सुखद है.....सर एडमंड हिलेरी जो एवरेस्ट विजय में तेनजिंग नोर्के के साथ सहभागी रहे थे.....वो अपने सागर से आकाश अभियान  के  अंतर्गत गंगा नदी से गुज़रे थे..... उनकी पूरी टीम बसंता कॉलेज के पीछे कुछ देर के  लिए रुकी थी ..............हम सभी उनसे मिले और उनके आटोग्राफ भी लिए थे.....बड़ा ही यादगार पल   था वो ............

.बसंता कॉलेज छोड़ने का एक और सबसे बड़ा कारण रहा कि वहां बस से आना जाना बहुत कष्टप्रद था........सुबह ८.३० घर से  बजे निकलने के बाद शाम ६ बजे घर पहुँचते  थे............बस का सफ़र मुझे कभी सूट  नहीं करता  .......हमेशा जी मिचलाता और कभी कभी उलटी भी हो जाती थी.....सर में दर्द बना रहता फिर कोई काम करना और पढना  बहुत मुश्किल था......बस नींद आती रहती थी.......जिस से पापा जी बहुत नाराज होते थे...

वहां टिफिन नहीं ले जाती थी लड़कियां.......ज्यादा तर कैंटीन में खाती थीं....बसंता कॉलेज में बहुत अच्छी कैंटीन  थी..और वहां समोसे  और खट्टी चटनी बहुत अच्छी मिलती थी .....आज भी वो स्वाद याद है ......

   जब मैंने बसंता कॉलेज  छोड़ा तो मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं जाकर अवनी दा से मिलूँ...................अब शर्म आती है ये सोच कर कि मैंने कॉलेज छोड़ते वक़्त किसी को कुछ नहीं बताया बस एक दम से जाना छोड़ दिया और सेंट्रल हिन्दू स्कूल ज्वाइन कर लिया..........यहाँ भी मेरी ड्राइंग टीचर अच्छी थीं...पर अवनी दा से किसी का कोई मुकाबला नहीं......एक बार फाइन आर्ट्स कॉलेज में पेंटिंग कि प्रदर्शनी लगी हुई थी.......उस वक़्त मैं संभवतः तृतीय वर्ष की छात्रा  थी.......अचानक शोर हुआ कि बसंता कॉलेज की लड़कियां प्रदर्शनी देखने   आरही   हैं  ......सब   मेरे  साथ  वाली  लड़कियों  का ही  ग्रुप  था  वो ......और  अवनी  दा  ही  उनको    लेकर   आये  थे ......पर  मैंने  सभी  को  छुप  कर   देखा  ....अवनी  दा  के  सामने   जाने  की  हिम्मत   नहीं   हुई...............कई बार मन में आया कि जाकर पैर छू लूं उनके.....पर नहीं कर पाई ऐसा.......अभी भी सोच कर बुरा लगता है पर क्या बचपना था वो भी.......

६ या ७ महीने कि पढ़ाई सेंट्रल हिन्दू स्कूल में हुई  फिर अप्रैल से फाइन आर्ट्स कॉलेज में दाखिले के लिए भाग दौड़ शुरू हो गई......

Tuesday, August 24, 2010

पढने की बीमारी

             किताबें  मन  का  शोक  ,दिल का डर  या अभाव कि हूक कम नहीं करतीं ,सिर्फ सबकी आँख बचा कर चुपके से दुखते सर के  नीचे सिरहाना रख देती हैं................(sankalan se )
         मेरे पास अपनी एक निजी लाइब्रेरी है ...बहुतदिनों से इकठ्ठी की  हुई 
मेरे पास तकरीबन २००० किताबें हैं ....एक यही शौक़ मेरा है ........जिसमे पैसे खर्च करना मुझे पैसे कि बर्बादी नहीं लगता ......मेरा बस चले तो मैं दुनिया कि हर किताब खरीद डालूँ और पढ़ डालूँ पर वो कहते हैं न कि भगवान् गंजे को नाखून नहीं देते   ........खैर.....फिर भी जितनी हमारी सामर्थ्य  है खरीदते ही रहते हैं ............मेरे घर में हर जगह  मेरे बिस्तर पर ,पढने कि मेज पर ,कंप्यूटर की  मेज पर, सोफे पर ,फ्रिज पर ,कपड़ो की आलमारी में यहाँ तक की बाथरूम में भी किताबे मिल जाएँगी....इसके लिए कितनी बार सभी से डांट खा चुकी हूँ पर एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया है......स्कूल में भी मेरे पर्स में एक दो किताबे और मैगजीन  जरूर रहती हैं....और अन्य टीचरों कि तरह फ्री पीरियड (जो कि  अक्सर मिलता ही नहीं) में बैठ कर गप्प मारना  मुझे ज्यादा पसंद नहीं......तो उस वक़्त भी किताबें ही मेरा साथ देती हैं.......या मेरा पेंटिंग का सामान मेरे साथ होता है ......मैं जानती हूँ की मेरे इस स्वभाव के कारन मुझे घमंडी कहा जाता है ..........पर मैं सच कहती हूँ के ऐसा बिलकुल नहीं है बस .......मुझे पसंद नहीं  है .........मेरा ज्यादातर समय बस इन्ही कामों में बीत ता है ..........अखबार वाले को तय कर रखा है कि कम से कम १० मैगजीन  वो मुझे हर महीने दे जाये .......और जब मैं पढ़ लूं तो वापस ले जाये .....
उसका पैसा ले जाये......


पढने का शौक़ मुझे पापा जी और नाना जी से मिला.....मुझे याद है के जब हम लोग अपने ननिहाल जाया करते थे ......उस समय नाना जी कुछ पत्रिकाएँ मंगवाया करते थे.....कादम्बिनी और स्पुतनिक जो एक रशियन   मैगजीन  थी ..ये नियमित आती थीं......नानाजी बहुत ज्यादा पढ़े लिखे तो नहीं थे पर बहुत  नोलेज था उनको .........बहुत से विषयों पर वो हम लोगो से बाते करते थे.....कितनी ही साहित्यिक किताबे पढ़ी थीं उन्होंने........
 और पापा जी का भी यही हाल था कि हर समय हाथ में कोई न कोई किताब होती थी ...............मैंने ज्यादा तर किताबे खरीद कर पहले पापा जी को ही दी हैं और उसके बाद मैंने पढ़ी हैं.....पापा जी के साथ साथ मम्मी को भी किताबे पढने का शौक़ हो गया था.....और अपने फुर्सत के  पलों का उपयोग वो भी पढ़ कर ही करती थीं........मुझे ध्यान है मम्मी ने बी.ए का एक्जाम  बनारस आकर दिया था.उस  समय मैं १० वीं में थी  ...........

    जब उनकी शादी हुई थी तब वो सिर्फ १० वीं  पास थी...पर पढाई का ऐसा क्रेज था उन्हें कि  हम लोगो के साथ वो भी पढ़ती थीं....... उनका अर्थशास्त्र विषय काफी अच्छा था ......


मुझे ,पापा जी को और मम्मी को इतना पढने का शौक़ होते हुए भी मेरे दोनों भाइयों को पढाई की  पुस्तकों के  अलावा कोई अन्य पुस्तक पढ़ते हुए कभी नहीं पाया गया.....वो दोनों सिर्फ पास होने के  लिए ही पढ़ते थे.....और आज भी यही हाल है कि लाख किताबे घर में रखी हों वो कभी छू भी नहीं सकते........ पर इस बात की ख़ुशी है कि भाई के बच्चो को पढाई के प्रति रूचि है.......और उसकी बड़ी बिटिया जो काफी हद तक स्वभाव में मुझसे मिलतीजुलती है पढने की  काफी शौकीन है....उम्मीद करती हूँ की इस शौक़ को बनाये रखेगी.........मेरे दोनों बच्चे भी बहुत ज्यादा तो नहीं पर कुछ कुछ शौक़ रखते हैं पढने का .........बेटा तो काफी अच्छा लिखने भी लगा है   और ये मेरे लिए बड़ी अच्छी बात है ......



 मेरे पतिदेव ज्यादा पढने के तो नहीं पर लिखने के ज्यादा शौक़ीन हैं......बहुत ही परिमार्जित और सुन्दर भाषा है उनके पास पर  जब मूड हो तभी लिखते हैं.......उनकी इस विधा का फायदा बहुत लोग उठाते हैं.....चाहे वो न्यूज़ पेपर्स में न्यूज़ लिखनी हो या किसी का भाषण लिखना हो सब आकर खड़े हो जाते हैं और उनसे लिखवा कर ले जाते हैं...मुझे बहुत  चिढ़ होती है इस से पर क्या करूँ??

पर मुझे अच्छी साहित्यिक पुस्तके पढने का शौक़ है तो वो मेरे लिए लेकर जरूर आते हैं.....किसी भी बुक स्टाल पर पहुँचने  के बाद मुझे फ़ोन करके पूछते हैंकि ..... यहाँ ये किताब  है ..तुमने पढ़ी है क्या??? अगर नहीं पढ़ी होगी तो वो खरीद ली जाएगी .........२००४ में जब उनको १ साल के लिए दिल्ली  भेजा गया था ...उस वक़्त मुझे याद है मेरे लिए ७०००/- की  बहुत अच्छी अच्छी किताबे खरीद कर मुझे वेलेंटाइन  डे पर उपहार दिया था उन्होंने.....और वो हर साल इसी दिन एक अच्छी सी डायरी भेंट करते हैं......

    मैं थोड़े थोड़े दिनों पर कुछ न  कुछ किताबों की  आलमारी से निकाल निकाल कर पढ़ती रहती हूँ.................और मैं जब लम्बे समय तक पढ़ पढ़ कर  आलमारी उथल पुथल कर डालती हूँ............तो बड़े ही धैर्य के साथ फिर से उसे नए सिरे से सेट भी कर देते हैं..........इसके लिए मैं उनकी अहसानमंद हूँ .........



 

Saturday, August 21, 2010

भुलाना नहीं चाहती .....................

भुलाना नहीं चाहती ........................



कभी कभी सोचती हूँ के  मैं इतना सब जो लिख रही हूँ वो क्यों लिख रही हूँ............
मैं कोई इतनी बड़ी हस्ती तो नहीं कि मेरे बारे में कोई दिलचस्पी ले या मेरे बारे में जान ना  चाहे   ...........
पर ये तो तय है कि इतनी सारी  बाते याद करने में किसी फिल्म का सा मज़ा आरहा है ......
जब लिखना शुरू किया था तो समझ नहीं पा रही थी कि क्या लिखूं ??? 
पर जब लिखने बैठी हूँ तो कितनी ही बातें घुमड़ घुमड़ के  आ रही  हैं....
.कि बच्चन जी के शब्दों में कहूं  तो ............क्या भूलूँ क्या याद करूँ......... ???.................
अरे किसी को नहीं तो कम से कम अपने बच्चों को और खुद को ही खुश कर लूं......
फिर से उन क्षणों को जीने में अच्छा लगता है......
कितने ही लोग जो अब नहीं हैं फिर से आँखों के  आगे जीवित हो उठ ते हैं 
कितनी ही ऐसी स्मृतियाँ हैं जो किसी से नहीं बांटी हैं अभी तक....

ऐसे अनकहे पल दूसरो से बांटना सुखद है .................ऐसे पल जो मैं कभी   भुलाना नहीं चाहती.....  ....



Friday, August 20, 2010

स्कूल के दिन ...



नारस में किसी स्कूल में दाखिले  के   लिए बहुत परेशान होना पड़ा क्यों कि सभी स्कूल  घर से काफी दूर थे और १० में दाखिला मिलना बहुत मुश्किल था जहाँ भी पढना था वहां ९ और १० एक साथ पढना जरूरी था.....जिसका नतीजा यही हुआ की मुझे फिर से  क्लास ९ पढनी पड़ी....क्लास १ में बहोत अच्छे नंबर  आने   की   वजह से मुझे क्लास २ नहीं पढनी पड़ी थी ......और फिर क्लास ९ दोबारा पढने से बात बराबर हो गई .....


मैंने क्लास ३ तक अंग्रेजी नहीं पढ़ी थी क्यों कि तब प्राइमरी स्कूलों   में अंग्रेजी क्लास ६ से शुरू होती थी जब मगहर (बस्ती) जहाँ बाबा जी गाँधी आश्रम के मंत्री थे ....मैं वहां के  प्राइमरी स्कूल की  क्लास १ में पढ़ती थी....इसके पहले हम लोग लगभग २ साल पटना रहे थे जहाँ के जयप्रकाश नारायण और प्रभावती जी के महिलाचर्खा समिति कदम कुआं  से मैंने नर्सरी  की  पढाई की  थी वहां भी सिर्फ ए  बी सी  दी   की ही जानकारी दी गई थी....जब हम मगहर से लखनऊ  शिफ्ट  हुए  तो स्कूल में अंग्रेजी विषय मेरे लिए बहुत बड़ी मुश्किल था......
इतना अधिक बोझ मेरे सर पर हो गया कि मेरी रातो कि नींद हराम हो गई....इतना अधिक टेंशन था कि मुझे रात में  २ ...३ बजे जाग कर पढने कि लत या बीमारी जो भी कहें वो हो गई रात भर जाग कर मैं पूरी कॉपी भर डालती थी..अंग्रेजी का काम कर कर के......
पापा जी और मम्मी बहुत चिंतित हो गए ये देख कर ..और मेरी हालत देख कर......डाक्टर को दिखने के  बाद ये नतीजा निकला के मुझे पढ़ाई का ज्यादा बोझ लेने से मना    कर दिया गया......उस समय मैं अक्सर बीमार भी रहने लगी थी....और स्वास्थ्य का ये हाल था कि हड्डियों  का ढांचा दिखने लगी थी मैं.....( आज के बिलकुल उलट )...अब तो ताज्जुब होता के मैं कभी इतनी दुबली भी रही हूँगी..........काश  कि कुछ  फोटो  भी खिचाई  होती उस वक़्त .....पर उस वक़्त फोटो खिचाने का इतना इन्तेजाम कहाँ था .............
खैर धीरे धीरे ट्यूशन आदि कि मदद से गाडी पटरी  पर आने लगी....और मैं अंग्रेजी में बेहतर होने लगी........पढने में बहुत होशियार तो नहीं थी पर बहुत बेवकूफ भी नहीं थी....बस ठीक ठाक थी....हाँ ड्राइंग  मेरी काफी अच्छी  थी....और उसके  लिए काफी तारीफ  भी मिलती  थी मुझे   ........................
लखनऊ में क्लास ८ तक तो मुझे चित्रकला विषय पढने को मिला पर ..............बनारस में खालसा स्कूल में ये विषय नहीं था.....वहां मुझे बिना आर्ट सब्जेक्ट  के  ही ९ और १० .पढना पड़ा ...फिर पी यू सी ...(हायर सेकेंडरी) में मुझे कला विषय मिला....जो आगे चल कर मेरे फाइन  आर्ट्स .पढने में सहायक हुआ ......इसके पीछे भी एक लम्बी कहानी है.....


       

Wednesday, August 18, 2010

मेरी कला यात्रा का पहला चरण

याद नहीं कब से कूची थामी पर...........
इतना याद आता है कि जब मैं नर्सरी  में पढ़ती थी  तब मैंने जयशंकर प्रसाद का एक चित्र  बनाया था और शायद वो बहुत  अच्छा बना था.....क्यों कि बहुत दिन बाद पापा जी के  कागजो वाले लकड़ी के  बाक्स में मैंने वो चित्र देखा तो खुद मुझे भी वो काफी अच्छा लगा था .....
शायद ३ या ४ साल कि रही होउंगी तब जब पापा जी ने मुझे एक मोटा रजिस्टर बना कर दिया था (गाँधी आश्रम क पुराने बही खाते  जो रद्दी में निकाल  दिए जाते थे ,,हम लोग उनके रजिस्टर बना कर उनकी उलटी साइड पर रफ कार्य किया करते थे....या फिर लिखने का काम लेते थे.)


 मुझे याद है उस रजिस्टर में मैंने बहुत से हीरो हिरोइन के  चित्र चिपका रखे थे.    फूल तितलिया  बच्चो के  चित्र  जो भी कुछ मिलता था काट कर चिपका लेती थी उस रजिस्टर में ....
इस काम में पापा जी मुझे सहयोग करते थे.......उस वक़्त फेविकोल का प्रचलन नहीं था मैदे कि लेई बना कर गोंद का काम लिया जाता था.......और पापा जी बहुत अच्छी लेई बनाते थे ................हमारे घर बहुत  सी पत्रिकाए आती थीं ..जिनमे साप्ताहिकहिंदुस्तान,धर्मयुग,,सारिका,,बालभारती.पराग ,नंदन और चंदा मामा हमेशा आती थी.......उनके अच्छे अच्छे चित्र काट कर चिपकाने में बहुत मज़ा आता था.....जिसके लिए कई बार बहुत डांट भी पड़ी है.......क्यों कि चित्र काट ते  वक़्त ये ध्यान नहीं रहता था कि उसकी उलटी तरफ कोई जरूरी मैटर  भी छपा हो सकता है................साप्ताहिक हिंदुस्तान में एक पृष्ट पर किसी न किसी हीरो या हिरोइन कि तस्वीर होती थी.........और वो काट कर मैं अपने अल्बम में लगा लेती थी....
.ये सिलसिला काफी दिनों तक चला जब तक मम्मी ने ये नहीं समझाया कि बेटा इस तरह तो पूरी मैगजीन  ख़राब हो जाती है तुम खुद से कुछ बना के लगाओ.............और तब खुद से बनाने कि शुरूआत हुई........और जब अपनी बनाई  हुई चीजो कि तारीफ सुन ने को मिली.....तो उत्साह और दुगना हो गया ......सचमुच अपने द्वारा सृजित वस्तुओ का सुख अलग ही होता है ......
फिर धीरे धीरे हर सुन्दर वस्तु  को देख कर हर सुन्दर चित्र को देख  कर वैसा  ही बनाने कि  इच्छा जागृत होने लगी और फिर यूं  शुरू हुआ अपनी चित्रकला का सफ़र ..............
फिर तो कितने ही चित्र बना डाले...याद नहीं....
हर समय कुछ न कुछ रंगने पोतने का ही सुर चढ़ा रहता था...मुझे याद है एक बार रात में मैंने इतना शोर मचा दिया वाटरकलर  के  लिए कि  मूसलाधार बरसते पानी में पापा जी को निशातगंज जाना पड़ा था मेरा रंग लेने.....
.पर इस बात का अफ़सोस है क उस समय इतना ख्याल नहीं था कि उन चित्रों को संभाल के रखना भी चाहिए.......
पापा जी के एक बहुत  अच्छे मित्र जो उम्र में उनसे काफी बड़े भी थे......विभाकर जी...वो बहुत  अच्छे चित्रकार थे..उन्होंने  मुझे काफी प्रोत्साहित किया......
मेरे सभी चित्र वो बड़े ध्यान से देखते और उसमे सुधार भी करते थे.....
अपनी क्लास में मैं अच्छा चित्र बनाने वालो में गिनी जाती थी.......और बहुत से परिचितों कि लड़कियां जो गृह विज्ञान  विषय पढ़ती थी.....
उनके डायग्राम और प्रोजेक्ट फाइल मैंने बना कर दिए हैं...विज्ञान विषय के सभी चित्र मैं बनाया करती थी.......घर में कोई भी पेंटिंग  नहीं बनाता  था सिवा मेरे.....और इस बात के लिए मैं हमेशा कृतज्ञ रहूंगी सबकी ...............कि जब मैं चित्र बना रही होती थी  तो मुझे कोई डिस्टर्ब नहीं करता था........यह तब कि बात है जब मैं क्लास ८ में थी........
जब मैं क्लास ९ में आई तो सभी कि इच्छा थी कि मैं विज्ञान विषय लेकर पढूं......पर सिर्फ २ महीने तक ही विज्ञान पढने के  बाद मुझे लगने लगाकि  या तो ये मेरे लिए नहीं है या मैं इसके लिए नहीं हूँ...अंततः मैंने विज्ञान छोड़ दिया.....उसी साल गर्मी कि छुट्टियों  में  मामा जी कहीं से पता करके आये कि  महानगर में एक महिला हैं जो पेंटिंग सिखाती हैं बच्चो और लड़कियों को ...............पता लगते ही मैं और मम्मी जाकर वहां मधु दीदी से मिले और सीखने कि इच्छा जाहिर कि...मुझे बड़ा ही सुखद अनुभव है वहां का ......बहुत सुन्दर काम था उनका .............वहां जाकर मैंने भी सोचा था कि जब मैं भी सीख जाउंगी तो ऐसा ही स्कूल खोलूँगी और लड़कियों को सिखाउंगी ...............आज करीब १८ साल से मैं भी घर पर पेंटिंग कि होबी  क्लास चलाती हूँ..............ये उन्ही मधु दीदी कि ही देन है......मैं ने वहां करीब ३ महीने सीखा था और बच्चो के साथ कितना दोस्ताना व्यवहार  रखना है कि  वो मन लगा कर सीखें ...........ये उन्ही से सीखा .............शुरू में थोडा बहुत गड़बड़ बनाते बनाते जब बच्चो का काम धीरे धीरे..मैच्योर  होने लगता है और जब उनको भी तारीफें मिलनी शुरू  हो जाती हैं ....तब कितना अच्छा लगता है   .........................आज जब बच्चों को अपने बनाये हुए चित्रों को देख कर खुश होते हुए देखती हूँ तो मुझे मधु दीदी हमेशा याद आती हैं.....बनारस आने के  बाद लगभग १२  साल बाद अपनी बेटी को जो उस समय १ साल कि थी लेकर मधु दीदी से मिलने गई थी........मैं उनकी आभारी हूँ ........... 
बनारस आने के     बाद मुझे यहाँ पता चला कि चित्र कला की   भी विधिवत पढाई होती है और उसमे भी लोग  एम्.  ए बी. ए  करते हैं ये मेरे लिए बड़ा ही अच्छा समाचार था...मुझे बड़ी तमन्ना थी कि मैं भी कुछ ऐसा पढूं..और फिर बी. एच.यू    में पढना तो एक बहुत  बड़ा सपना था......





Tuesday, August 17, 2010

भुलाना मुश्किल है .

भुलाना मुश्किल है ..........

जीवन में एक वक़्त एसा  भी आता है जब सब कुछ जानते हुए भी हम अनजान बनने का अभिनय करते  हैं,,,, कभी सफलता मिलती है तो कभी असफल भी हो जाते हैं .....सभी जानते हैं कि माँ बाप हमेशा हमारे साथ नहीं रह सकते...पर  क्यों एसा सोचते रहते हैं कि  जैसे वो हमेशा हमारे साथ बने रहेंगे.......कम से कम मैंने एसा कभी नहीं सोचा था क कभी ऐसा भी वक़्त आएगा मेरे जीवन में कि मम्मी पापा दोनों लोग हमारे साथनहीं होंगे वो भी सिर्फ २ साल के  अंतर में ....


पापा जी के स्वास्थ्य को लेकर हमेशा चिंता लगी रहती थी ....उनके अन्दर मीठे कि इतनी अधिकता हो गई थी कि वो अन्दर तक कडवे हो गए थे..हर बात पर चिडचिडा जाना नाराज हो जाना .....किसी बात से कोई ख़ुशी न ज़ाहिर करना ......कई कई दिन तक किसी से भी बात नहीं करना .....कभी कभी तो हम लोग भी झल्ला जाते थे...एक मैं ही थी जो उनसे बहस कर लेती थी....और पता नहींएसा क्या था क वो मेरी बातो का बुरा नहीं मानते थे सिर्फ मम्मी को देखा था क कितने मनोयोग से लगी रहती थी उनके साथ...मनमें जरूर वो भी तनावग्रस्त रहती थीं पर कभी जाहिर नहीं किया ...........समय से दवा  देना नाश्ते का खाने का ख्याल रखना ....पापा जी कि आदत थी कि हर काम समय पर होना चाहियेथा.. उनका नहीं तो घरभर कि शामत आ जाती थी ......भाई के  बच्चो के साथ जरूर थोडा जी बहलता था ..पर उनको भी ज्यादा देर तक नहीं रखपाते  थे अपने साथ ........मेरे बच्चो के साथ पापा जी को ज्यादा वक़्त नहीं मिला ..क्यों कि मैं हमेशा छुट्टियों में ही आती जाती रही हूँ....और जाना भी एसा  कि जाते ही आने कि तैयारी शुरू...................
.बहोत बुरा लगता है ये सोच कर कि कितना कम वक़्त दिया हमने पापा जी को..बचपन से लेकर अपनी शादी होने तक अगर सारा समय सालो और महीनो में जोडू तो हम लोग १० ,१५ साल भी साथ नहीं रहे होंगे पापा जी का स्थानांतरण वाला जॉब और हम लोगो कि पढाई.... साथ में नहीं चल सकते थे...... जिस समय हम लोग लखनऊ छोड़ कर बनारस शिफ्ट हुए....उस समय मम्मी कितनी हिम्मत के साथ हम सभी को लेकर एक दम नई  जगह रहने को तैयार हुई थी....
अब सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है.. ....शायद मैं इतनी हिम्मत नहीं कर सकती अभी भी ............जब कि मम्मी उस समय सिर्फ ३२ साल कि थीं ....मेरे   मामा , मौसी रिश्ते कि एक और मौसी गाँव के एक दो लोग और हम तीनो भाई बहन...इतने लोग एक साथ रहते थे.....और बहुत आराम से रहते थे......घर अभी पूरी तरह बना नहीं था...या यूं कहूं सिर्फ चार कमरों कि चारो तरफ कि दीवारे और छत डाल  दी गई थी..बांस बल्लियों से घिरा हुआ..कमरों कि फर्श भी नहीं बनी थी...और पापा जी को कोलकाता जाना पड़ा था....दो चार महीनों में हफ्ते दो हफ्ते के लिए उनका आना होता था.......और जब वो आते भी थे पूरा समय अपने गाँधी आश्रम के लोगो से घिरे रहते थे..सारा समय चाय बनती रहती थी.....
बनारस आकर मेरा और भाई  का नाम गुरुनानक खालसा स्कूल में और  मौसी का नाम बसंत कन्यामहा विद्यालय में लिखाया गया छोटे भाई का नाम तब  नए नए खुले एक स्कूल में लिखाया गया .........उस समय का सिगरा आज का सिगरा नहीं था तब चाय कि पत्ती भी लेनी होती थी तो एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता था......स्कूल भी बहुत  दूर लगता था शाम के  बाद कहीं निकलना मुश्किल लगता था ............थोडा थोडा करके..धीरे धीरे मम्मी ने पूरा घर अपनी जिम्मेदारी पर बनवाया...हम सभी सारा समय लगे रहते थे..अपना घर बन ने का जो उत्साह होता है वो किसी और काम में नहीं होता...मुझे याद है हम सभी मजदूरों के  साथ भी लग जाते थे काम करवाने  में.........बस उस समय यही लगता था जल्दी से घर बन जाये..............पापा जी के  मनिआर्डर आने का इंतज़ार रहता था सभी को.....मुझे याद है मेरा भाई तब सिर्फ ११ साल का था और वो बैंक का सब काम जान गया था.......
कितनी ही बाते हैं जो उमड़ उमड़ कर आती रहती हैं जिन्हें भुलाना मुश्किल है...................ऐसे ही फिर कभी ............

Monday, August 16, 2010

बहुत दिन हो गए


 बहुत दिन हो गए ..............
बहुत दिन हो गए नहीं पूछा किसी ने ...............कैसे हो तुम लोग?? ...क्या हो रहा है इस वक़्त ?? क्या कर रहे हो तुम लोग??....बहुत  दिन हो गए.....हर शाम फ़ोन के  बजते ही  एक आवाज सुनाई देना जो अंतर्मन तक छू जाती थी ....भूल गए मम्मी पापा को? ........
बस तुम्हारी आवाज सुन ने का मन हो रहा था इसी लिए फ़ोन कर लिया....
अब महसूस होता है क्यों नहीं हर रोज बात कर लेती थी उनसे...क्या जाता था..पर यही है न जब वक़्त निकल जाता है तब अफ़सोस रह जाता है ...........कोई भी परेशानी हो या कोई सलाह लेनी हो तो सिर्फ मम्मी याद आती थीं.. (थी क्या ..अभी भी याद आती हैं..)ऐसा लगता है जैसे हर सवाल का जवाब था उनके पास.......
खाना पकाने से लेकर अचार बनाने तक सिलाई करने से लेकर कोई दर्द बुखार होने तक सबके लिए उनसे पूछती रहती थी मैं ............कई बार तो कडाही चूल्हे पर चढ़ा कर मसाले के  बारे में पूछा है मैंने.... ............पेड़ में आम आये हैं इस बार इतने .........और मम्मी नहीं हैं कि  उनसे पूछ कर अचार बनाऊ ..अच्छा लगता है जब बच्चे कहते हैं के मैं नानी कि तरह अचार बनाने लगी हूँ या आम का मीठा  अचार (जो मम्मी बहोत अच्छा बनाती  थीं) बना लेती  हूँ  ...............बहुत कुछ था ऐसा  जो पूछना चाहती थी उनसे और नहीं पूछ पाई बाकी ही रह गया पूछना.....कितना कुछ था जो सिर्फ उनको ही आता था....
कितनी भी परेशानी में रहे हो हम लोग........मम्मी की  बातो से कितनी तसल्ली मिलती थी.......कितना मानती थीं वो हम सभी को खास तौर पर पर मेरी बेटी को ........

मुझे याद है  मम्मी को कितना शौक़ था कि मुझे हर चीज आना चाहिए चाहे डांस हो या गाना चित्रकला  हो या क्राफ्ट एसा कोई विषय नहीं होना चाहिए जो मुझे न आता  हो....बेहद शौक़ था उनको...आज जब अपनी बेटी को मैं ये सब सिखाना चाहती हूँ..तब लगता है कि मम्मी को तो कुछ भी सीखने का मौका नहीं मिला था...परउनको शौक़ था...और उन्होंने मुझे सब सीखने का अवसर दिया  ...........किसी के   आने पर बेहद उत्साह के   साथ मेरी  बनाई  हुई पेंटिंग्स और क्राफ्ट का सामान दिखाना याद आता है .......कोई भी अच्छा व्यंजन  बनाने  के  बाद  सिर्फ मेरे प्लेट  में सजा कर  रख  देने से सभी को ये बताना के वो मेरा बनाया हुआ है.....और तारीफ के  पुल बाँध देना ..ये सब छोटी छोटी बातें याद आती हैं...............आज जब मम्मी नहीं हैं तो ये बातें कितनी बड़ी लग रही हैं......






Sunday, August 15, 2010

क्या कहूं ??

क्या कहूं और कैसे कहूं  ?
कभी सोचा नहीं है इस बारे में ,
ब्लॉग लिखने के  बारे में ज्यादा कुछ तो नहीं जानती पर शुरुआत करने में कोई बुराई नहीं है एसा सोचती हूँ ...
और शुरुआत कभी भी की जा सकती है .........
.मित्रों क ब्लोग्स पढ़ पढ़ कर अपने  अनकहे पलों को भी दूसरों से बांटने की इच्छा हुई .......
और इसे ही ब्लॉग लिखने की शुरुआत मान लिया है .....अच्छा  है या बुरा ये तो नहीं जानती
पर आपकी प्रतिक्रिया जरूर जान ना चाहूंगी  .............शेष फिर

 स्मिता