लिखिए अपनी भाषा में

Friday, November 29, 2013

कौन हैं ये ??




                  कोई इतना खडूस भी हो सकता है ये उन महाशय को देख के ही समझा जा सकता है.......कभी कभी लगता है कुछ शब्द कुछ खास लोगों के लिए ही बनाये जाते हैं तो ये शब्द भी उनके लिए ही गढ़ा गया है.......उन्ही के लिए इज़ाद किया गया है.....        मुस्कराहट जैसी चीज उनके चेहरे पर कभी नहीं दिख सकती....या शायद  कुछ बहुत ही ज्यादा भाग्यशाली    लोग होंगे  ,     जिन्हे ये देखने का सु अवसर मिला हो कि वे कभी मुस्कुराते भी होंगे......      उनकी .हंसी तो किसी विभूति या अवतार को ही दिख सकती  है   ,      हमारे जैसे साधारण जन को कभी नहीं.....
               हमेशा तने रहो , अकड़ कर चलो , और बोलो भी तो ऐसे कि फूल नहीं कांटे झड़ रहे हो......और कुछ भी बोलो तो ऐसे      जैसे सामने वाले पर अहसान लाद रहे हों.......और वो आपके सुमधुर (!) वचन सुनकर कहीं कृतार्थ न हो जाये.....    मुझे लगता है ऐसे लोग किसी तरह के गुमान में नहीं जीते ,....  बल्कि इस तरह से अपने को जीवन में ढाल लेते हैं .        कि वो वक़्त के साथ उनके व्यक्तित्व में झलकने लगता है....हर समय अपने चेहरे पर एक भारीपन और  गम्भीरता का लबादा ओढ़े रहने वाले  ये लोग ,     क्या सोचते हैं ?...क्या महसूस करते हैं ?....    और कब किस बात पर  किस तरह से रिएक्ट करते हैं ...     अनुमान लगाना मुश्किल है.... उनकी  हर  बात  से  यही  महसूस  होता  है          जैसे  ये  सारी  दुनिया  से  नाराज़  हैं ....कोई  भी  बात  इन्हे  प्रसन्न नहीं कर सकती .....  सारी दुनिया इनके जूते की नोंक पर है.....   और ....  .यदि इनकी बातो का कोई प्रति उत्तर देने का साहस कर ले तो ,उस से बड़ा  नाचीज कोई नहीं........   भले ही खुद किसी लायक न हों पर किसी को प्रसन्न या फलता फूलता नहीं देख सकते....      कोई यदि किसी बात पर खुश  है तो जरूर
 कोई न कोई गलत बात ही होगी  ऐसा इनका मानना होता है.....      जाहिर सी बात है ऐसे लोग इतने सेल्फ सेंटर्ड होते हैं कि अपने  नजदीक ,   अपने करीबियों को भी नहीं आने देते हैं.....    ऐसे लोग सज्जनता और विद्वता का आवरण ओढ़े  रहते हैं........    बड़ी बड़ी समाज सुधारक और , समाज को बदल डालो ,टाइप की संस्थाओं   से जुड़े रहते  हैं...      जब कि सच्चाई में ऐसा कुछ नहीं है, ये बेहद पुरातन पंथी....और हम नहीं बदलेंगे ( सुधरेंगे) टाइप के होते हैं ...दुनिया चाहे कहीं से कहीं चली जाये ये उसी सड़ियल और दकियानूस दायरे से बाहर नहीं निकल सकते......बाहर से ये खुद को कितना भी उदारवादी और दरियादिल दिखलायें ......   .पर सच कहूँ तो अंतर्मन से बहुत ही निकृष्ट होते हैं.......उन्हें  शायद  प्रकृति  ने  ही  ऐसा  बनाया  है  कि  उन्हें  अपने  सिवा  कोई  पसंद  ही  नहीं ,,,,,    और  अपने  सिवा  किसी  की  ख़ुशी  से  कोई  लेना  देना  नहीं .....न  ही  किसी  के  मान  सम्मान  की  कोई  फिकर ...   .पता  नहीं  क्यों  ऐसे  हैं  वो.... .........

Wednesday, November 27, 2013

मेरी आस्था

      





      मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक ...यकीन  से नहीं कह सकती , शायद कोई भी स्थिति स्वीकार या अस्वीकार कर लेने के बीच की भी एक स्थिति होती है,, ... हाँ या ना के बीच वाली ,...तो वही स्थिति मेरी भी है......मैं प्रार्थना करती हूँ,... मैं ईश्वर भक्त हूँ,....अगाध श्रद्धा है मुझमे , ईश्वर के लिए,............ पर इसे एक नियमित रूप से एक रूटीन के रूप में जीवन में उतार पाने का अनुशासन मुझमे नहीं है,रोज सुबह शाम दैवी मूर्तियों को जगाने , भोग लगाने , उनके सामने घंटी बजाने  और फिर रात को उन्हें सुला कर सोने की न तो मुझे कभी उत्सुकता रही,  न ही वक़्त.....अन्य साथी लड़कियों ,    (और अब महिलाओं )   की तरह शुक्रवार या सोमवार के व्रत रखने की इच्छा नहीं हुई.....मुझे अभी भी ज्ञात नहीं कि प्रदोष , एकादशी या सोमवती अमावस्या  क्या होती है ?...और क्यों मनाई जाती है ?/   
                घर में बचपन में  कभी देखा नहीं .....मम्मी कुछ समय तक तो करती थीं पर बाद में .....हम सब की बहुत ज्यादा रूचि नहीं देख कर   ....      सिर्फ सुबह नहाने के उपरान्त पूजा और साल में दो तीन व्रतों  तक ही सीमित हो गईं.......       पापा जी के विचारों से बहुत ज्यादा पूजा पाठ या व्यक्ति विशेष की भक्ति करना या घर परिवार की   उपेक्षा करके दिन रात भजन सत्संग (!!) में लीन रहना एक ढकोसला मात्र था ...   वे कभी कभी अपनी तार्किक बातों में ऐसी कटाक्ष पूर्ण कटूक्तियां कह देते थे ,        जो किसी भी धार्मिक व्यक्ति को बुरी लग सकती थीं.....यही हाल नाना जी का भी था,               वे मन से ईश्वर को मानते थे पर किसी पाखण्ड को नहीं.......अच्छी और सुधारक बातें...   हर धर्म में हैं....    पर उन्हें किसी देवी देवता का डर दिखा कर मनवाया जाये ये मैं उचित नहीं समझती.....     मुझे मंदिर , मस्जिद , गुरूद्वारे या चर्च में कोई भिन्नता नहीं लगती...  .मेरी दृष्टि में सब एक से ही हैं,,,    और मैं जब भी वहाँ जाती हूँ...   हर जगह मेरी एक ही प्रार्थना होती है ..और मन ही मन मैं एक ही इच्छा हर जगह रखती हूँ.......

               शायद ही हमने कभी पापा जी को मंदिर जाते या मन्त्र पढ़ कर घंटी बजाते  हुए      ,पूजा करते देखा हो..... सिर्फ दीवाली की रात जब लक्ष्मी गणेश की मूर्ति सजा कर पूरा परिवार वहाँ पूजा करने बैठता था... तब वे भी कुछ समय के लिए वहाँ हाथ जोड़ कर बैठते थे...... पर वहाँ भी विधिवत पूजा करना  उन्हें नहीं आता था.....या शायद हम सबको नहीं आता ....   .कि  कब अक्षत डालना है , फूल चढ़ाना है , या कब जल चढ़ाना है, कब सिन्दूर लगाना है या कब अगरबत्ती जलानी  है...   ..करते सब हैं...पर किसके बाद क्या करना है ?...ज्ञात नहीं........,मुझे लगता है जो भी करना है .    द्धा के साथ करना चाहिए बस.....

           वैसे भी जिस तरह की किचिर पिचिर और गन्दगी हमारे मंदिरों में मचती है उसे क्या कहा जाये....   पंडितों और बाबाओं की छीना झपटी देख कर सिर्फ भाग आने का जी चाहता है,     वहाँ किसी तरह की कोई भक्ति या श्रध्धा नहीं पनपती......गन्दगी और कूड़ा देख कर ही जी घबराने लगता है,    और पूरा ध्यान अपने कपडे भीगने से बचने या फिसल कर गिर न पड़ें ,     इसी में लगा रहता है....धक्का मुक्की या पंडों की छीना झपटी , यजमान को लूट लेने की आतुरता देख कर बहुत क्षोभ होता है.....कुछ समय पूर्व अपने एक घनिष्ट पारिवारिक मित्र परिवार के साथ विंध्याचल जाना हुआ, वहाँ एक पण्डे ने हमें अपरिचित जान कर इतना ज्यादा परेशान किया जिसकी हद नहीं.....वो इस बुरी तरह पीछे पड़ गया    ,हमारे मित्र के........ कि यही जी में आरहा था  ...... उस पण्डे को पीट कर धर दिया जाये....    जब मैंने उसे सख्ती से दुत्कार कर भगाया तो वह गाली गलौज पर उतर आया.....ऐसे समय में कौन सी श्रद्धा रह जाती है .......बस यही जी में आता है कि यहाँ से लौट चलें.....ऐसा ही कुछ अनुभव ....     बहराइच की एक प्रसिद्ध दरगाह पर भी देखने को मिला.....वहाँ भी हर स्थान पर पैसे चढाने के लिए जिस तरह मुल्ला लोग ज़िद कर रहे थे   और न देने वालो के साथ अभद्रता से व्यवहार कर रहे थे वो कहीं  से भी शोभनीय नहीं था........एक दम लूट खसोट मची हुई थी...जिसने ज्यादा पैसा दिया है उसे अंदर ले जाकर दर्शन कराये जाते हैं........कतार में भी धक्का मुक्की और बदतमीजी करते हुए .... .श्रद्धालु लड़कियों और युवतियों को किसी न किसी बहाने अश्लीलता से स्पर्श करना उनकी क्षुद्र नीयत का पता देता है.......
       इसके विपरीत चर्च और गुरुद्वारे में जाने  का मेरा  अनुभव बहुत अच्छा रहा.....कक्षा नौ और दस मैंने गुरु नानक खालसा कॉलेज वाराणसी से पास किया,..        .स्कूल के बगल में ही गुरुद्वारा था..जहाँ लगभग रोज ही जाना होता था,,,,,बेहद शांत और सुकून भरा माहौल,    जाते ही, मन को तसल्ली मिलती थी....  अच्छा रिजल्ट आये इसके लिए मैंने बाबा विश्वनाथ  के साथ साथ गुरु नानक देव से भी आशीष माँगा है.......

       वैसे ही कई बार चर्च जा कर भी बहुत अच्छा अनुभव हुआ,.....जैसे सचमुच किसी ईश्वरीय आश्रय में पहुँच गए हों....     न कोई धक्का मुक्की न छीना झपटी न कोई लूट खसोट....न ही यहाँ वहाँ पैसा चढाने की व्यर्थ की गुहार ......पता नहीं हम कब सीखेंगे...     .इतने धैर्य और तमीज से पेश आना ....बिना किसी को डिस्टर्ब किये . चुपचाप  आकर बेंच पर बैठ जाना.......    साफसुथरे   सुन्दर परिवेश...में ..और एक गहन शांति में डूब जाना ....

             कुछ ऐसा ही अनुभव लोटस टेम्पल में जा कर भी हुआ.....बेहद शांत सुकून दायक और आध्यात्मिक माहौल में किसी शून्य में विचरण करने जैसी अनुभूति ......      सच कहूँ तो वहाँ सिर्फ चुपचाप बैठे रहने से ही इतनी पॉजिटिव एनर्जी मिलती है ,       जो अन्य कहीं सम्भव नहीं.........भगवान् में मेरा अटूट विश्वास है पर अंध विश्वास नहीं...    .मुझे लगता है भगवान् हर जगह है आप जहाँ चाहो खड़े हो कर उसकी प्रार्थना कर सकते हैं...उन्हें शुक्रिया कह सकते हैं....   फलां दिन , फलां मंदिर जाने  से ही भगवान ज्यादा खुश होते हैं,     या फलां व्रत के जरिये ही मन्नत पूरी होती है      या रोज भगवान् के आगे घंटी बजाना जरूरी है,      इन बातो में मुझे जरा भी यकीन नहीं......मैं सोते जागते ,     चलते फिरते ,खाना बनाते या खाते समय     कभी भी कहीं भी भगवान को याद कर सकती हूँ       और मुझे पूरा यकीन है कि वे मेरी प्रार्थना कभी अनसुनी नहीं कर सकते ......हाँ ध्यान जैसी चीज मुझे पसंद है    उसके लिए मैं जरूर समय देती हूँ ..  .बल्कि निद्रा वस्था से ठीक पहले मैं इसी मुद्रा में होती हूँ....उस समय मैं यही सोचती हूँ  कि मैंने आज किसी को कोई तकलीफ तो नहीं दी....., किसी की उपेक्षा तो नहीं की....       किसी का मज़ाक़ तो नहीं उडाया.....और जब इसका जवाब न में आता है तो तो यकीन मानिये जो संतुष्टि या सुकून मिलता है उसका जवाब नहीं.........

भगवान ने मेरी हर बात सुनी है......और ज्यादा तर मानी भी है.....और मुझे पूरा विश्वास है की आगे भी ऐसा ही होगा.....आमीन

Friday, November 8, 2013

बनारस डायरी.....





इधर काफी दिनों बाद बनारस जाना हुआ ...बिटिया कि शादी  के सामान की खरीदारी   के सिलसिले में , पिछले साल दो ,तीन बार जाना हुआ , और उसके पहले २०१० में जब मम्मी नहीं रही थी.....मम्मी के साथ आखिरी दीवाली २००९ में मनाई थी........इस बार मम्मी पापा दोनों ही लोग नहीं मिले....



बनारस से भाइयों भाभी और बच्चों का बार बार आने का आग्रह रहा,...बहुत अच्छा महसूस हो रहा था....स्वयं हमारी भी काफी इच्छा हो रही थी   बनारस की बहुत याद आरही थी.......

मम्मी पापा जी के बिना बनारस की कल्पना करना भी बड़ी तकलीफ देता है.....पर अब धीरे धीरे यकीन करना ही पड़ रहा है......ख़ुशी इसी बात की है कि   पिंकी ने काफी हद तक मम्मी का स्थान भरने की चेष्टा की है और काफी अंशों तक उसमे सफल भी है.......


बहुत अच्छा लगा इस बार, तीन चार दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला , खूब  आराम किया...पूरा मायके का सुख उठाया  आराम से बैठे बैठे चाय , नाश्ता, खाना  ,स्वादिष्ट भोजन,  बच्चों का बेहद प्यार और अपनापन ,...भाई के बच्चे बहुत प्यारे हैं...बेहद समझदार और स्नेही .....डुग्गू को तो सभी कहते हैं...मुझ पर गई है... ...कभी कभी मुझे भी लगता है..उसका स्वभाव काफी कुछ मुझ सा .है  .भगवान् सभी को लम्बी उम्र दें....


साफ़ सुथरा सजा संवरा घर पिंकी के सुघड़ गृहणी होने का आभास करा रहा था.... बहुत ख़ुशी हो रही है कि पिंकी ने सब कुछ बहुत अच्छी तरह सम्भाल लिया है.......मम्मी की बनाई हुई  ५०-५२ साल पुरानी गृहस्थी....अभी भी बहुत अच्छी तरह बनी हुई है....



.

....  रंजन     के    लिए    थोड़ी     चिंता     रहती       है उसे  समझना  बड़ा दुरूह  कार्य  है , कौन  सी  बात  उसे  बुरी  लग  जायेगी  और किस  बात  पर वो  खुश  हो जायेगा   , पता  ही  नहीं  चलता  , मैं समझती  हूँ कि उम्र  के इस  मोड़  आकर  स्वभाव  में  परिवर्तन   हो पाना  बड़ा  कठिन  है  पर   तसल्ली  है , कि पिंकी ने  काफी  कुछ एडजस्ट  कर  लिया  है..... बाक़ी .  सब लोग  तो  देख  सुन कर  के...समझा  के अलग हो जाते हैं पर जो सब कुछ सहता और निभाता है वही जानता है....इसके लिए मैं पिंकी की ह्रदय से आभारी हूँ.... ..




भगवान् से यही प्रार्थना है कि वे मेरे प्यारे छोटे  भाई को  सहन शक्ति और समझदारी दें और हम सबको धैर्य......आमीन...

दीवाली काफी अच्छी रही.... पप्पू पिंकी की इच्छा रही कि     पतिदेव दीवाली पूजा का प्रारम्भ करें , तो इन्होने बड़े ही सुन्दर तरीके से सारा आयोजन किया ....और पूजा की गई....धनतेरस पर कुछ बर्तन और चांदी के सिक्के खरीदे गए...




सोने के गहने इत्यादि खरीद पाना तो अब  शायद बच्चों  की शादियों में ही सम्भव हो पाये......या शायद डौंडिया खेड़ा की खुदाई में मिलने वाले १००० हजार टन सोने  (!!!!)  की प्रतीक्षा करनी होगी सबको......

दुःख इस बात का है कि हमारे पूर्वजो (ससुराल या मायके ) में भी कोई ऐसा नहीं रहा , जिसने कोई मटकी ,मटका या घड़ा ....सोने की मोहरें भर के कहीं गाड़ रखा हो........अब तो यही मनाते हैं...... कि भगवान् देना तो छप्पर फाड़ के देना ,..पर इतना जरूर देना कि छप्पर बनवाने के बाद भी कुछ बचा रहे....क्यों कि आज कल रिनोवेशन में भी काफी खर्च हो जाता है.....स्वयं हम भुक्त भोगी हैं.....



इस बार मैंने फेसबुक पर सूचित कर दिया था , कि मैं बनारस आरही हूँ, यह जान कर बड़ी ख़ुशी हुई कि मेरे बनारस के कुछ मित्र बड़े उत्सुक रहे मिलने के लिए.....पर समय कम होने के कारण कई मित्रों की सूची में गणेशन (मेरा फाइन आर्ट्स कॉलेज का क्लासमेट )    को सबसे ज्यादा तरजीह दी हमने ...क्यों कि इधर बीच कई बार आना जाना हुआ पर हम लोग मिल नहीं पाये थे.....इस बार उसे फोन करके आने का कार्यक्रम तय किया और समय से पहुँच भी गए.......


बहुत आंतरिक ख़ुशी हुई कि  लगभग २५- २६ साल के बाद मिलने पर भी बड़ी आत्मीय मुलाकात रही....(फेसबुक की आभारी हूँ कि बहुत से पुराने मित्रों को फिर से मिलाया ) 



उसकी पत्नी से पहली बार मुलाकात हुई....बड़े स्नेह और अपनेपन से उनके परिवार ने हमारा स्वागत किया ....बेहद खूबसूरती से सजा हुआ उनका घर , और उनकी आवभगत से हम सब बहुत खुश हुए......फिर तो दो घंटे कैसे बीते पता ही नहीं चला....बहुत पुरानी पुरानी बातें, अपने सुख दुःख, क्या क्या खोया क्या क्या पाया ,...आपस में बांटी गई....अपनी अपनी उपलब्धियां गिनाई गईं...गणेशन ने भी इस बीच में काफी अच्छा काम और नाम कर लिया है,....काफी हार्दिक प्रसन्नता हुई..... अब हम ऐसी उम्र में पहुँच चुके हैं जब मित्रों की उपलब्धियों से ईर्ष्या नहीं होती......बल्कि ख़ुशी होती है कि हम एक ऐसे जाने  मानें व्यक्तित्व के मित्र  हैं....   अच्छी और मधुर स्मृतियों और पुनः मिलने की  इच्छा के साथ हमने विदा ली....आते समय गणेशन की पत्नी ने दक्षिण भारतीय परंपरा के अनुसार सुहागिनों के सौभाग्य चिन्ह मुझे भेंट किये....मुझे बहुत अच्छा लगा. 


भाई और उसकी बिटिया हमें स्टेशन तक छोड़ने के लिए आये....उसका बेटा  बहुत उदास था और हमारे आने पर रो पड़ा......रंजन की इच्छा थी आने की …….  पर कुछ लम्बी छुट्टियां हो मेरी ..  तो उसे बुलाऊंगी.......

रास्ते   भर बच्चों की और सभी की याद आती रही... रंजन की कुछ ज्यादा ही.....


कुछ ऐसी विवशताएं होती हैं...की उनका कोई उपाय नहीं ....सब अपने अपने जीवन ढर्रे में इस तरह बंधे हुए हैं         उनसे निजात नहीं पाई जा सकती.......मेरे बच्चे भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं....पर कुछ  ऐसे  ही पल  निकाल    के  सबसे   मिलना जुलना कुछ तसल्ली देता है.......



मनकापुर वापस आ  गई हूँ....

फिर वही पुरानी रूटीन में लौट आई हूँ.....कल से फिर वही उबाऊ दिन चर्या  ...... वही उकताने वाले चेहरे देखने हैं.....जिन्हे देखते देखते थक चुकी हूँ ....पर फिर भी जिन्हे देखे बिना चैन नहीं......                

Monday, September 23, 2013

माई री !! मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की.......



           कैसे यकीन दिलाऊँ खुद को मम्मी , कि अब सब कुछ पहले जैसा कभी नहीं हो पायेगा...मम्मी आपके जाने के बाद तीन गर्मियां, तीन सावन , तीन तीजें और बीत गईं,....मैंने नई चूड़ियाँ नहीं खरीदीं , हर बार इंतज़ार रहता था , आपके मनीआर्डर का जो मेरे लिए तीज पर नई चूड़ियों और मेहंदी का सबब बनता था......ऐसा नहीं कि मैं खरीद नहीं सकती ....या ये सब यहाँ मिलता नहीं......बस एक उम्मीद या लगाव सा रहता था ...कि मम्मी की खरीदी हुई चूड़ियाँ ही होनी चाहिए.......आपने आखिरी बार जब मेरे लिए चूड़ियाँ और कुछ बर्तन आदि सामान खरीदा था ,      वो समय कितना भारी रहा होगा आपके लिए   मैं समझ सकती हूँ मम्मी ,,,पापा जी के नहीं रहने के महीनो बाद ......मैं खुद आपको जबरदस्ती..बाजार ले कर गई थी....और मेरे नहीं नहीं करते रहने के बाद भी .....चूड़ियों और कड़ों का काफी लम्बा बजट बन गया था , और वो सब आपने ही दिया था ,,मुझे क्या पता था कि हम आखिरी बार एक साथ वो खरीदारी कर रहे हैं ?.....मेरे लिए मन पसंद साडी न खरीद पाने का अफ़सोस ...आपके चेहरे से साफ़ दिखाई दे रहा था , पचासों साड़ियाँ आपने मुझे दी हैं. ...पर पता नहीं ऐसी कौन सी चीज आप खोज रही थीं , जो अंततः नहीं मिल सकी ........अब कौन इतनी तन्मयता से ,....इतनी दिलचस्पी से खोजेगा मम्मी ?

           बेटू की शादी के लिए क्या करना है ...क्या देना है ...क्या बनवाना है ....ओह्ह!! कितना कुछ अरमान था आपका .....काफी कुछ किया है हमने ...पर शायद वो सब नहीं कर पाए जो आप करना चाहती थीं.....समय के साथ सब कुछ बदल जाता है मम्मी ....  ये तो सच है कि माँ - बाप तक ही मायका होता है और सास ससुर तक ही ससुराल ......उसके बाद तो भाइयों या पट्टीदारों का घर हो जाता है.......अब तो वो हक नहीं रहा कि ....कहूं मम्मी ..पापा के पास जा रही हूँ......या सास ससुर के पास जा रही हूँ ......छुट्टियाँ बिताने.....या दीवाली दशहरे या होली की  छुट्टियाँ होते ही कभी रायबरेली   या बनारस भागना.....एक दिन भी बर्बाद न हो....यही सोच कर....

अब तो लगता है कि हमारा कोई रहा ही नहीं.....महज़ एक खाना पूरी सी लगती है........शायद एक उम्र के बाद       सभी औरतों के साथ ऐसा होता है.....क्यों हम उम्मीद लगाये रहते हैं ?         जब कि मालूम है ....कि इन बातों का कोई नतीजा नहीं निकलेगा........ प्राणपण से चेष्टा करने के बाद भी एक असहजता भरी दूरी आती जा रही है....संबंधों में ...वो स्वाभाविकता ख़त्म है जो पहले हुआ करती थी.......बातचीत में मेरी यही चेष्टा रहती है कि कहीं मेरी बातों से किसी को बुरा न लगे , कहीं कोई ऐसी बात न हो जाये जो स्तरीय न हो.....कहीं कुछ ऐसा न निकल जाये मुंह से ....कोई कुछ का कुछ समझ बैठे ......इतनी सावधानी बरतने के बावजूद सामने वाले.... से... ऐसा कोई प्रत्युत्तर नहीं मिलता तो बहुत तकलीफ होती है मम्मी,,   ,बहुत ज्यादा ...किस से बांटूं ये सब ?       हम किसी के लिए अच्छा करते हैं या अच्छा सोचते हैं      तो उन को एहसास क्यों नहीं होता .?
लोग साथ क्यों छोड़ देते हैं ?
रिश्तो की इज्जत करना भूल क्यों जाते हैं ?
ईर्ष्या........जैसी भावना     इतनी प्रबल क्यों हो उठती है.?   कि सारी अच्छाइयों को ढँक लेती है ?
यही सब सवाल हैं ..और हम सब  ..इसकी कीमत चुका रहे हैं …...
अपना सेल्फ रेस्पेक्ट गँवा के ..हासिल क्या हुआ ?.


        अच्छा होना बहुत कठिन है ..और अच्छे बने रहना    उस से भी दुरूह ......कितना मन मसोस के रह जाना पड़ता है
मुझे व्यंगात्मक  भाषा में न बोलना पसंद है न सुनना....और अगर कभी ऐसी स्थिति आती है ,तो बेहद तनाव वाली स्थिति में आ जाती हूँ...अब मेरी भी इतनी उम्र हो चली है मम्मी कि    अब बर्दाश्त नहीं होता...हमेशा एक  फ़ोर्मेलिटी  सी निभाते रहना अब नहीं होता......
मैं कभी किसी को कठोर भाषा में नहीं बोल सकती , अगर गलती से कभी कुछ कह भी जाऊं तो कई दिनों तक यही सोच सोच के परेशान रहती हूँ , कि पता नहीं अगला क्या सोच रहा होगा ?....मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था , क्या हो जाता अगर मैं ही चुप रह जाती , क्या घट जाता मेरा ?...पर बहुत बार ऐसा होने पर अब जी ऊब गया है......क्यों मैं ही चुप रहूँ ?  अक्सर बहुत लम्बे समय बाद मुलाकात या बात होने पर भी.....अगला चोट पहुंचाने से नहीं चूकता .....तो आखिर मैं ही क्यों सहन करती रहूँ ?   बिना किसी वजह के ही लोग चोट देकर चले जाते हैं.....और हम सिर्फ देखते रह जाते हैं .....ऐसा नहीं कि मुझे जवाब देना नहीं आता या मैं कुछ कह नहीं सकती......लेकिन सिर्फ इस लिए चुप  रह  जाती हूँ कि मैं किसी की  बेइज्जती  नहीं कर सकती..... किसी को तोड़ नहीं सकती.....किसी को चोट नहीं पहुंचा सकती....किसी को इतना कडवा   जहरीला   नहीं बोल सकती कि अगला रो पड़े ..चूर चूर हो जाये .....किसी को इतना दुखी कर दूं कि उसकी जिंदगी तहस नहस हो जाये.... .पर मैंने महसूस किया है कि हमारे साथ कई बार ऐसा हुआ है ….हमारे साथ कई लोगो का व्यवहार ऐसा रहा है.....क्यों कि वो जानते हैं, कि हमें उनकी जरूरत है , वे हमारी ज़िन्दगी का एक अटूट हिस्सा हैं...हमारी नाराज़गी से किसी को क्या फर्क पड़ता है ? ..हम नाराज या दुखी हैं तो रहें  ..उनकी बला से .......कई बार हमें ये अहसास दिलाया गया है कि हम तो ऐसे ही हैं....... तुम्हें बुरा लगे तो लगे ..हमें क्या ?....हम कोई चिंता क्यूँ करें ?   पर वो ये क्यों भूल जाते हैं,   कि आज अगर वे हमारी चिंता नहीं करते तो  ..  कल वो हमसे कैसे उम्मीद करेंगे ?
ऐसा लगता है प्रेम धाराएं सूखती जा रही हैं.....सब सिर्फ अपने लिए ही जी रहे हैं ...एक दूसरे  के लिए भी जिया जाता है,    ये सब भूल ही गए हैं...और अकेले जी कर भी सब खुश हैं ..  ऐसा नहीं है....  उससे भी सब उकता गए हैं , मन ऊब गया है.... सम्बन्ध टूटते जा रहे हैं...., सिर्फ अपने लिए जीने का क्या मतलब है ? एक दूसरे की शुभ आकांक्षा के पीछे भी अपना ही सुख छिपा है   हम भूलते जा रहे हैं....

कभी कभी सोचती हूँ मम्मी ......कितना अच्छा होता कि जब कभी मैं बरसों बाद अपने पुराने दिन याद करूँ ,   और उन दिनों में लौटना चाहूं तो वक़्त मुझे वैसे का वैसे ही समूचा   वापस खड़ा मिले ...जिसे मैं छोड़ आई थी...बिना किसी बदलाव के ..  पर ऐसा कहाँ संभव है ?... मम्मी .....कितना कुछ कहने की इच्छा होती है   और कितना कुछ करने की भी ... हम इंसान बहुत बेवकूफ हैं    कितनी बेरहमी से सब कुछ छोड़ते चले जाते हैं...जब कि  ये तय है आज जो कुछ भी हमारे पास है ....ये सब कुछ दोबारा कभी मिलने वाला नहीं ......अपने गुरूर में , सामने की हकीकत नजर ही नहीं आती.....और जब नजर आती है मम्मी तो बहुत देर हो चुकी होती है, वैसे कभी कभी लगता है ,  कुछ गलती हमारी भी है ,  जब जब हमें कोई चोट पहुँचती है या हम  अंतर्मन से दुखी होते हैं..   तो कोई ऐसी गोद या आत्मीय कन्धा तलाशते हैं  जहाँ हम जी भर के रो सकें ....  पर हम यह हमेशा भूल जाते हैं,   और किसी के दुःख में हमने .. कब किसके आंसू पोंछे हैं ?   या कितने वक़्त पहले अपनी गोद में  किसी को रोने दिया है ?
          कैसी विडम्बना है मम्मी कि बात कुछ भी नहीं पर बहुत बड़ी है सबके व्यवहार में ऐसा कुछ नजर नहीं आता जिसकी आलोचना की जाये , जो दिखाई दे , जो सभी भांप सकें, पर जरूरी तो नहीं हर बात दिखाई ही दे जाये... ये सिर्फ महसूस करने की बात है.... जिस अपनेपन की आशा रहती थी,    जो भावनात्मक सम्बन्ध बना कर हम सबके साथ जुड़े रहना चाहते थे, सबके जीवन का एक अभिन्न अंग बने रहना चाहते थे ,   उसे पूरी तरह नकार दिया जाता है ,    सभी को उसमे स्वार्थ और बनावट की बू आती है....सिर्फ रहने खाने की पर्याप्त सुविधा ही तो जीवन में सब कुछ नहीं है न....उसके अलावा भी इंसान की जरूरतें या आशाएं हो सकती हैं....ये नहीं भूलना चाहिए....दिन रात ऐसी कितनी ही बातें हैं जो अन्दर तक धंसे हुए कांटे की तरह रह रह कर टीसती रहती हैं.....अब किस से कहूं ये सब मम्मी......बहुत याद आती है आपकी.....सचमुच....   किस से कहूं ये पीर अपने जी की......

Friday, September 20, 2013

मधुबन की यादें


मधुबन  की एक   याद

        


        मधुबन का नाम लेते ही ,   ज़ेहन में सबसे पहले उभर कर आती है वो जगह .... ...जहाँ कभी ...राधा नृत्य किया करती होंगी.......वो गाना है न ..    मधुबन  में राधिका नाचे रे ..........तब हम लोग सोचा करते थे कि इस जगह का नाम मधुबन क्यों रखा गया ??....ये राज तो बाद में खुला .कि उस मधुबन से  और यहाँ  से कोई मतलब नहीं....और यहाँ राधा नहीं नाचतीं , हाँ कई राधा कृष्ण टाइप  जोड़े जरूर वहां मिल सकते थे ....  


हमने जब फाइन  आर्ट्स  बी.एच. यू. में एडमिशन लिया था...... तो वहां मनचाहा विषय पढने की ख़ुशी ..... और जब जी चाहे कैंटीन में जाकर चाय पीने की आजादी ... दोनों ने इतना लुभाया था , जिसकी हद नहीं.......तब तक घर पर चाय नहीं पीने दी जाती थी,  इस लिए कि  बच्चे (! ) चाय नहीं पीते हैं, और चाय पीने से काले हो जाते हैं ....ऐसा माना जाता था , .उस समय अगर ५ रुपये भी पर्स में होते थे .....तो हम खुद को अमीर समझते थे.....और दो तीन लोग उसमे चाय और समोसे या ब्रेड पकौड़े विद चटनी खा लेते थे.........
      यादव जी ,मधुबन की कैंटीन के सेवक थे ,,,,,,और हम सब पर उनकी विशेष कृपा रहती थी....कई बार ऐसा भी हुआ है कि ... हमने छ कप चाय पी है और पैसा चार का ही दिया है .....  पर यादव जी ने कभी उसके लिए तकादा नहीं किया.......... उस समय वो समोसे (हमेशा के मेरे फेवरिट) इतने अच्छे लगते थे और उसके साथ की खट्टी चटनी क्या कहने !!....अक्सर बिना भूख के भी खाए जाते थे......



       वहां की हरी घास पर बैठना.....बल्कि घंटो बैठे रहना ... कितनी ही प्रेम कथाएँ वहां जन्मी.....और अपने अंजाम तक भी पहुंची.....( और कई अधूरी भी रह गई ...)

    बगल में ही संगीत और मंच कला संकाय हुआ करता था. ...(आज भी है ) एक से एक दिग्गज कलाकार वहां होते थे.....सितार ,वायोलिन  की आवाज और  तबले की मीठी ठन ठन ,     ढोलक की धमक  ,  और सुमधुर स्वर लहरियां गूंजा करती थी.....पूरा माहौल बहुत संगीतमय होता था......

    हमारे  कॉलेज  से मधुबन तक आने के लिए एक छोटा सा तालाब  पार करना पड़ता था.....तालाब इस लिए कह रही हूँ क्यों कि  हमेशा वहां पानी भरा होता था ....पर उसे पार करने के लिए एक संकरा सा  करीब ५० कदम का रास्ता था ...जो दोनों और बोटल ब्रश के पेड़ों से घिरा हुआ था.....करीब पांच या छ फीट चौड़े रास्ते को .. बोटल ब्रश के पेड़ों ने बेहद रोमांटिक तरीके छुपाया हुआ था.....और वो जगह दूर से देखने पर बेहद खूबसूरत लगती थी.........अक्सर लैंड स्केप की क्लासेस के लिए हमें जब भी   बाहर   ले जाया जाता था, तो हम सब वहीँ जाते थे......अपने अपनी पसंद की जगहें चुन कर सब बैठ जाते थे....और काम करते थे.....कितने ही स्केच बनाये हैं वहां के....पर अफ़सोस है की अब कोई भी चित्र मेरे पास नहीं.....
        कभी कभी पम्मी लाल सर ....पूरी क्लास को लेकर भी वहां गए हैं......और कितनी ही बातें हमारे साथ शेयर  की हैं....अपने विदेश के अनुभव ....  नए नए काम करने के तरीके..... बहुत मजा आता था.......   वहां हमारे कई सिनिअर छात्रों द्वारा बनाई हुई मूर्तियाँ आज भी वैसे ही लगी हुई हैं.......  पहले पहल तो हमें समझ नहीं आता था कि  ऐसे अमूर्त चित्रण क्यों किये जाते हैं.....  बाद में जब कुछ कुछ कला की जानकारी हुई तो उन मूर्तियों में भाव समझ आने लगे.......एक बहुत बड़ी स्त्री मूर्ति हमारे सामने ही तैयार हुई.......अखिलेश राय जी की बनाई हुई एक कृति  पत्थर शायद मार्बल में वहां लगी है......जो हमारे सामने ही लगाई गई थी......


      वहां बहुत सारे ,  बहुत ऊंचे ऊंचे  ,इमली के पेड़ थे...जिनमे मौसम में इतनी इमलियाँ आती थीं...  कि  पूरा पेड़ उनसे लद जाता था.......हमने बहुत बार वहां से इमलियाँ बटोरी हैं....और तोड़ी भी हैं......पता नहीं अब पेड़  हैं कि नहीं .......ये १९७९  से ८७ के बीच की बात है....जिस दरम्यान हम वहां पढ़े ....  



      संगीत संकाय से भी लोग आ आ कर वहां चाय पीते  थे ...पर तब हमें नहीं पता था कि आज जो इतने सहज उपलब्ध लोग दिख रहे हैं....   .वो कल को कितने बड़े कलाकार बनने वाले हैं...... मुझे याद है ...  संगीत संकाय की श्रीमती एन. राजम.जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती थी..तब ..   .बस ये जानती थी की वे यहाँ वायोलिन  सिखाती हैं.....कुछ  एक बार वे मेरे साथ कॉलेज से लंका ( बी. एच. यू. गेट ) तक रिक्शा से भी गईं .....   तब मुझे भी गिटार या वायलिन सीखने की धुन चढ़ी हुई थी.......इस बाबत मैंने उनसे बात भी की ......  पर  बात आगे नहीं बढ़ सकी क्यों कि मैं फाइन आर्ट्स की छात्र थी....और एक साथ दो कोर्स नहीं कर सकती थी........काफी दिनों बाद मुझे मालूम हुआ कि वे तो अंतर राष्ट्रीय स्तर की कलाकार हैं......जिनके अनगिनत प्रसंशक और सुन ने वाले हैं.....शायद ये इस लिए भी था कि तब टेलीविजन का इतना व्यापक प्रभाव नहीं था.....और कलाकारों को ज्यादातर लोग शक्ल से नहीं पहचानते थे ......मधुबन में आने जाने से कई महान कलाकारों को भी देखने को सौभाग्य मिला......अब टी. वी. पर  या नेट पर देख कर याद आता है कि उनको कॉलेज और मधुबन में देखा है....


            मधुबन  में  हमने  बहुत अच्छा समय बिताया है......गाने सुने हैं.....वीरेंद्र भाई से मुकेश के गाने  सुन ने में कितना मजा आता था....    सब याद आता है तो जी खुश हो जाता है.... ........आज चंचल दा से मालूम हुआ कि मधुबन पर्यटन स्थल .....बन रहा है ये जान कर तो बड़ा ही गर्व महसूस हुआ .....कि कभी अतीत में हम उसका हिस्सा रहे हैं ...........

Sunday, September 8, 2013

यूं ही ....

           मैंने महसूस किया है , कि कभी कभी कोई पुस्तक इतना गहरे तक छू जाती है , कि कई दिनों ,महीनों सालों तक उसका एक अहसास सा मन पर तारी रहता है , वो किताबों के ढेर से निकल कर इस तरह हमारी अपनी बन जाती है , जैसे भरी हुई कक्षा में कोई एक खास मित्र ही हमारा अपना बन जाता है और हमेशा खास बना रहता है ...ऐसी ही एक पुस्तक है जिसे मैं कभी भुला नहीं सकती ......जिसे पढ़े हुए कई साल हो गए हैं ...पर आज तक उसके असर से नहीं उबार पाई हूँ ..जब तब उसका ध्यान आता रहता है...वो है "नाच्यो बहुत गोपाल " बेहद मार्मिक संवेदनशील और छू जाने वाली कृति ...सभी के प्रिय लेखक अमृत लाल नागर  जी की....मैंने कई लोगों को इसे पढने के लिए प्रेरित किया , और लगभग सभी का यही अहसास रहा , यही प्रतिक्रिया रही... अमृता प्रीतम और शिवानी के सभी उपन्यास मैंने पढ़े हैं और उनसे गहरे तक जुडी हूँ ..मेरी दिली इच्छा थी कि कभी शिवानी जी से मिलूँ , पर मेरा दुर्भाग्य कि ऐसा नहीं हो पाया..खैर ! हर कामना तो पूरी नहीं हो सकती पर उनकी सुरंगमा पढ़ कर मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था. उसका प्रत्युत्तर ,स्वयं उन्ही हस्त लिपि में लिखा पोस्टकार्ड आज भी मेरे लिए एक अमूल्य निधि है....

मुझे बहुत से कवियों तथा साहित्यकारों का सानिध्य भी मिला जिनमे सर्वश्री कैलाश गौतम, अदम गोंडवी , अवनींद्र मिश्र विनोद , के.के. अग्निहोत्री , श्री बुध्धि सेन शर्मा , अतुल कुमार सिंह अतुल,ब्रजराज श्रीमाली , अनगिनत नाम हैं कितने नाम गिनाऊँ ?..बड़ी लम्बी लिस्ट है ....

कितनी ही बार निजी कवि गोष्ठियों में बड़े अच्छे अच्छे कवियों को सुन ने का अवसर मिला है , श्री आदित्य वर्मा जी कि सुप्रसिध्ध रचना "तांडव" उनके घर पर स्वयं उनके ही मुख से सुना है . बेहद प्रभावशाली रचना कभी नहीं भूलती.
याद आता है जब कैलाश गौतम जी आई.टी.आई. में यहाँ के प्रेक्षागृह में आयोजित काव्य गोष्ठी या कवि सम्मलेन में जब भी आये और अपनी सर्वप्रिय रचना "अमौसा क मेला " पढना शुरू किया , हर बार उन्होंने मुझे और मेरे पतिदेव को विशेष रूप से समर्पित करके पढ़ा ....भरी हुई जन सभा में जब वे सिर्फ हम दोनों को संबोधित कर के कहते थे "ये रचना मैं श्रीमती और श्री के.के. तिवारी जी को समर्पित कर रहा हूँ तो एक ऐसी हार्दिक ख़ुशी की अनुभूति होती थी , जिसका बयां नहीं किया जा सकता ....


ऐसे अनगिनत अनुभव हैं जो एक विशिष्ट बुध्धिजीवी और साहित्यकार वर्ग के साथ बैठने से प्राप्त हुए हैं....कभी कभी सोचती हूँ कितना अनूठा अनुभव होता होगा जब सब अपनी अपनी रचनाएँ एक दूसरे के साथ बाँटते होंगे उनपर चर्चा करते होंगे,..

Saturday, August 24, 2013

किताबें और मैं

पुस्तकों के प्रति मेरा रुझान कब से है ......मुझे स्वयं भी याद नहीं.......बचपन से ही पढने का बहुत शौक रहा...अक्षर ज्ञान होते ही रास्ता चलते हर दीवार हर बोर्ड पढ़ती चलती थी........किताबों से मेरी दोस्ती बचपन में ही हो गई थी......दूसरे सभी लालचों पे लगाम लगा के किताबें खरीदती थी........ये जरूर याद है कि किताबों की दूकान , रेलवे के बुक स्टाल , फुटपाथ पर सजी किताबों की दुकानें .....मुझे हमेशा से आकर्षित करती रही हैं,,......आज भी जब भी मौका मिलता है..... मैं हर समय कुछ न कुछ पढ़ती ही रहती हूँ.......मनपसंद पुस्तकें भी एक लम्बे अरसे बाद भी पढने से नई ही लगती हैं..........एक किताब ख़तम होती है ,.....तो तुरंत दूसरी शुरू कर देती हूँ....एक चेन स्मोकर की तरह ........लगातार सोते ,   जागते उठते बैठते बेडरूम से लेकर रसोई तक और ड्राइंग रूम से लेकर बाथरूम तक ,    मेरा पढने का कोई नियत स्थान नहीं है.......और इस वजह से अक्सर डांट भी खा जाती हूँ......   पर आदत है कि कमबख्त छूटती नहीं ........  समझिये अब ये मेरा स्वभाव ही बन चुका है......और आदत बदली जा सकती है स्वभाव नहीं......    मेरे पर्स में भी  हमेशा कोई न कोई किताब होती है और कार में भी ......स्कूल में खाली पीरियड में ..........बैठ कर गप्पें हांकने से ज्यादा....... मुझे कुछ न कुछ पढ़ते रहना ही पसंद है........छुटती नहीं है मुंह से ये काफ़िर लगी हुई.......कभी कभी सोचती हूँ कि अगर मुझे पढना नहीं आता , ......या मैं भी ...अम्मा या सोना ( हमारी मेड्स ) की तरह होती तो क्या होता ???

            हजरतगंज से खरीदी हुई एक एक रुपये वाली बाल पाकेट बुक्स या फिर 20 पैसे दिन के किराए पर ली गई कहानियों की किताबें मेरी यादों में हमेशा तरोताज़ा हैं..... मुझे याद है जब मैं कक्षा ४ की छात्रा थी......तब मेरे लिए पहली बार दो बाल पाकेट बुक्स के दो उपन्यास........ जिनकी साइज ४ बाई २ इंच रही होगी....उनके नाम आज तक मुझे याद हैं.......मेरे जीवन के प्रथम उपन्यास........भूतों की रानी और दयालु राजा.........उन्हें पढने के बाद से ही मुझे उपन्यास पढने का शौक शुरू हुआ ..... और उसके बाद तो कम से कम ४०० , ५०० . बाल उपन्यास पढ़ ही लिए होंगे.....सहेलियों से उनका आदान प्रदान होता रहता था..........बाल पाकेट बुक्स जो उस समय एक रुपये की आती थीं...और दो दिन के लिए किराए पर लेकर पढने पर २० पैसा किराया देना पड़ता था...हम बच्चो में बराबर इसका लेन देन चलता था,,,....अदल बदल कर सैकड़ों बुक्स पढ़ ली जाती थीं............लोट पोट, दीवाना...पराग., मिलिंद , बाल भारती..नंदन. चंदामामा ..कहाँ तक नाम गिनाऊ ??....थोड़ी उम्र और रूचि में विविधता आने पर... .....फिल्मी पत्रिकाओं का भी चस्का लगा, ..फिर फिल्म फेयर. स्टार डस्ट, माधुरी ...भी पसंद आने लगी...........बचपन से ही अपने आस पास पुस्तकें देखी हैं,,, ...उस वक़्त जितनी भी पत्रिकाएँ बाजार में उपलब्ध होती थी.............धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान., दिनमान, रविवार, इलेस्ट्रेटेड वीकली ,फेमिना .....सभी पापा जी अपने ऑफिस की लाइब्रेरी से लाते थे....... बाद में कुछ कहानियाँ मैंने भी लिखीं,,,....पर यह जारी नहीं रह सका.....शायद छ या सात कहानियों तक ही सीमित रह गया....जिनमे से ३ या ४ छपी भी....एक दो बार अपनी कहानी आकाशवाणी के युवा वाणी कार्यक्रम में भी पढ़ी........लिखने का शौक भी बना रहा पर कहानी फिर नहीं लिखी जा सकी.... (फिर से प्रयास में हूँ कि शायद कुछ लिख सकूं )...कभी कभी कुछ पंक्तियाँ लिख लेने का मन होता है तो लिख लेती हूँ.......कभी कभी कहीं मूड आने पर चुटकी पुर्जे इत्यादि पर भी लिखा गया ......पर उन्हें संभाल कर नहीं रख पाई .......और वे इधर उधर हो गए....पढने के लिए मुझे कुछ भी चाहिए.......बहुत उत्कृष्ट साहित्य ही हो ये जरूरी नहीं .........हाँ प्रथम श्रेणी में मैं उसे ही रखना चाहूंगी,,,,,,पर सामान्य या ......... इमानदारी से कहूं तो निकृष्ट साहित्य भी मैंने पढ़ा है ,,,... दूकान पर खड़े खड़े ......आते जाते ट्रेन में.......अगलबगल..........यहाँ तक कि झाडू लगते वक़्त भी ....अगर कोई अखबार या मैगजीन का टुकड़ा मिल जाये तो..... बिना पढ़े उसे नहीं फेंकती......कई बार बड़ी इंट्रेस्टिंग सी चीजे भी मिल जाती है यहाँ वहां.........अभी तक कितने उपन्यास , कितनी कहानियां, कितने आर्टिकल्स मैंने पढ़े हैं याद नहीं........
पुस्तकों  की दूकान में घुस जाने पर .......मैं समझ नहीं पाती कि क्या छोडू क्या ले लूं ?? काश !! मेरे पास इतना पैसा होता , कि मैं जी भर कर पुस्तकें खरीद पाती...

कॉलेज में पढ़ते वक़्त वहां  की लाइब्रेरी  की लगभग ७५% पुस्तकें मैंने पढ़ डाली थीं....और कुछ संयोग भी अच्छा रहा कि शादी के पश्चात पतिदेव का सहयोग भी बराबर मिला......यदि मुझे पढने का शौक़ रहा है तो उन्होंने भी मुझे पूरी तौर पर पुस्तकें खरीद कर देने में कोई कोताही नहीं बरती उन्हें ज्यादा पढने का तो नहीं....पर अच्छी किताबें खरीदने का बहुत शौक़ है.....(वैसे आज कल पढना भी शुरू कर दिया है उन्होंने...).....इसी का नतीजा है कि आज मेरे घर में मेरी अपनी निजी लाइब्ररी है...जिसमे करीब २००० पुस्तकों का संकलन है ज्यादातर साहित्यिक कृतियाँ हैं.....वैसे तो मुझे हर तरह कि किताबें पसंद हैं पर साइंस या फिक्शन से ज्यादा लगाव नहीं.....आत्मकथाएं या जीवनियाँ पढना ज्यादा भाता है......अच्छे साहित्यिक उपन्यास साथ ही रशियन साहित्य भी......हर तरह की मैगजींस पढ़ती हूँ ......
बल्कि हालत ये है कि कोई भी मैगजीन देख कर मैं ललचा उठती हूँ....रहा नहीं जाता जब तक उन्हें पूरा न देख डालूँ....पत्रिकाओं का भी बहुत बड़ा संग्रह है मेरे पास....सभी तरह की पत्रिकाएँ.......अपने अखबार वाले से.....हर महीने कई पत्रिकाएँ मंगाती हूँ.......अब ये अलग बात है कि वे खरीदती नहीं हूँ....पढ़ कर वापस कर देती हूँ.....

मुझे लगता है कि हर इंसान को अपने अन्दर पढने की आदत डालनी चाहिए या पैदा करनी चाहिए......क्यों कि इस से कल्पना शक्ति भी प्रखर होती है...किसी ने कहा है कि पुस्तकें एक बहुत अच्छी गुरु हैं,....ऐसा गुरु जो न डांटता है न शिकायतें करता है न ही हमारी कोई परीक्षा लेता है और न ही हमारी असफलता का मूल्यांकन करता है......वे बस एक स्नेहमयी माँ की तरह सहजता से हमें पढ़ाती रहती हैं....उनके पढ़ाने का तरीका भी तो निराला है , मूक भाव से , बिना कुछ कहे , बिना बोले....
किताबें हमारे व्यक्तित्व में बदलाव लाती हैं ये तो तय है ....छोटे छोटे बच्चे भी नई चमकती सुन्दर किताबो के प्रति लालायित होते हैं......न पढना जानते हुए भी सुन्दर चित्रों से सुसज्जित पुस्तकें देखकर उनके चित्रों से स्वयं को जोड़ते हैं.....एक अध्यापिका होने के नाते........मैंने यह महसूस किया है कि पुस्तकों के प्रति ,बच्चों का एक स्वाभाविक लगाव होता है.....और अनदेखे अनजाने चित्रित पात्रों को देख कर वो ऐसी ऐसी कहानियां गढ़ कर सुनाते हैं कि ............उनकी कल्पना शक्ति पर ताज्जुब होता है....                                                

  बच्चों को   इसी लिए किताबें थमाई जाती हैं.....
हम किस तरह के व्यक्ति बनना चाहते हैं ?....समाज और दुनिया के लिए हम क्या क्या कर सकते हैं ?? इन सबके बारे में किताबों से बढ़ कर कौन मदद कर सकता है ??

मेरा बहुत सा एकांत इनके साथ ही बीत ता है ..किताबों की एक खास तरह की महक मुझे बहुत अच्छी लगती है.....उनकी छुवन उनका अहसास ....सिरहाने रख कर सोना ,,,..पढ़ते पढ़ते कब सो जाती हूँ, पता ही नहीं चलता , कई बार ऐसा हुआ है चश्मा पहने पहने ही सो गई हूँ.....और उसके लिए पतिदेव नाराज भी हुए हैं......स्कूल से आकर जब कोई नई ताज़ा मैगजीन टेबल पर रखी हुई मिलती है तो जी खुश हो जाता है .......

स्कूल की... चख चख , शोर और तनाव सब भूल जाती हूँ....खाना खा कर आराम करने का वक़्त (जो अमूमन २ घंटे से तीन घंटे के बीच होता है ) सिर्फ मेरी किताबों को और नींद को समर्पित है इसमें मुझे किसी भी तरह का व्यवधान पसंद नहीं.........
मेरे जीवन में अच्छे बुरे अनुभवों के बाद के बचे हिस्से पर सिर्फ पुस्तकें ही काबिज हैं ….. सिर्फ वे ही हैं जो मेरे एकाकी और उदास पलों की साक्षी रही हैं......मेरा मन बहलाती हैं.......ऊब थकान और हताशा से मुक्ति दिलाती हैं.........कितनी भी चिंता में या तनाव में रहूँ,........पर सिर्फ कुछ पृष्ठ पढ़ लेने से ही जैसे शांति सी मिल जाती है........
अब जब से मैं नेट से जुड़ गई हूँ, ....... बहुत से ऐसे साहित्य कारों ,... कवियों, ....और लेखकों से संपर्क हुआ जो मेरे प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं, .....बहुत सी रचनाएँ जो नेट पर उपलब्ध हैं पढ़ती रहती हूँ........कई इ- मैगजींस के साथ भी जुडी हूँ .......उनके लिए कुछ कुछ कार्य करती रहती हूँ..........पर बात फिर घूम फिर कर वहीँ आ जाती है......किताबों के प्रति प्रेम की,....तो उनका कोई जवाब नहीं......कितनी भी किताबें नेट पर हों.. पर उनको पढने में मुझे ज्यादा आनंद नहीं आता , किताबों की बात ही कुछ और है,..... वे हमेशा अपनी सी लगती हैं........मेरे प्रिय लेखक निर्मल वर्मा जी के शब्दों में ...
"किताबें मन का शोक , दिल का डर , या अभाव की हूक कम नहीं करतीं , सिर्फ सबकी आँख बचा कर चुपके से दुखते सर के नीचे सिरहाना रख देती हैं.".........

Friday, August 2, 2013

दिन जो पखेरू होते





हाँ वही पीला मकान ही तो है वह ...
कंगूरों पर सफ़ेद और गुलाबी नक्काशी वाला ...जब नया नया पेंट किया गया था तो उस से ज्यादा खूबसूरत मकान उस पूरे मोहल्ले में और कोई नहीं लगता था....
दीवारों के एक एक छिद्र और दरारों में दोबारा तिबारा रंग भरवा कर मैंने अपने सामने सारे घर की पुताई करवाई थी....
.बेहद उत्सुकता और ख़ुशी के साथ उस पुराने घर को फिर से नया बनाने में अपने सारे अरमान निकाले थे....कितनी ही किताबें उलट पलट कर इंटरनेट पर सर्च कर कर के पचासों डिजाइन के ड्राइंग रूम और बेड रूम के चित्र सेव कर के अपनी फ़ाइल बनाई थी.......और बाथरूम और किचन को अपनी कल्पना मुताबिक बनाने में कोई   कसर    नहीं छोड़ी थी.......ढूंढ ढूंढ कर टाइल्स ,नल की टोंटियाँ ,वाशबेसिन और कमोड की तलाश में कितना भटके थे हम लोग......और आखिर में जब घर बन कर तैयार हुआ तो सचमुच जैसे हमारे सपनों में इंद्र धनुषी रंग भर गए थे.....
पर आज......
एक लम्बे अरसे बाद लौट रही हूँ यहाँ....(हाँ दस साल का अरसा भी लम्बा ही होता है ) ...तब मैं एक पैंतालिस साल की सुखी संतुष्ट गृहणी थी...अपने प्यारे सुन्दर तीन बच्चों की स्नेह मयी माँ और पति की आज्ञाकारिणी सुशील पत्नी.....और आज .....मैं एक नौ दस  वर्षीय
 … शांत गंभीर और उत्सुकता से पूर्ण बच्ची हूँ...जिसने अपना सालों पहले बिछड़ा हुआ घर खोजने में    अपने माता पिता को कितना परेशान  किया है......मुझे मालूम है   मेरे माता पिता ये कभी नहीं मानेंगे कि ये मेरा इस दुनिया में आने का दूसरा अवसर है और मैं फिर से क्यों अपनी पुरानी दुनिया में जाने को उत्सुक हूँ...जाने को नहीं सिर्फ देखने को.... उनसे मिलने को…… जो कभी केवल मेरे अपने थे......मेरे बिना भी रह सकने वाला मेरा परिवार कैसा है ? यही देखने की इच्छा मन में बहुत ज्यादा थी.....मुझे इस बात का अहसास होना तब शुरू हुआ जब मैं पहली बार स्कूल गई.......बार बार मुझे ये महसूस होने लगा…। जैसे मैं कोई सपना देख रही हूँ....कुछ छूटा हुआ सा है.....कुछ है जो मैं पाना चाहती हूँ.....और पाने में
सक्षम नहीं हूँ.......अचानक कुछ चेहरे मुझे बार बार याद आने लगे.....ऐसे चेहरे जो मैंने अपने तीन चार साल की  उम्र तक देखे भी नहीं थे.....कुछ ऐसी घटनाएं जो कभी घटी ही नहीं थीं......कुछ ऐसी बातें जो कभी हुई ही नहीं थीं.....मैंने माँ को बतानी शुरू कीं ...... माँ ने पापा को......और कुछ ही दिनों में मैं घर भर के लिए अजूबा बन गई......हर आने जाने वाला मुझे ऐसी नजरों से देखता मानों मैं कोई अद्भुत वस्तु  हूँ......कोई राज़ हूँ.....सभी मुझसे अलग अलग ढंग की  बातें पूछते.....मुझे भी अपनी स्मृतियों पर बड़ा जोर डालना पड़ता....धीरे धीरे  नौबत यहाँ तक आ पहुंची कि मुझे लाल ईंटों वाली चारदीवारी और मीठे इलाहाबादी अमरूदों वाला पेड़ बुरी तरह याद आने लगा. .....मुझे अक्सर ये महसूस होता कि अगर मैं फिर से वहां नहीं पहुंची तो शायद जीवित नहीं रह पाउंगी......बार बार रोने की इच्छा होती.....माँ पापा भी परेशान होने लगे .....अब उनकी यही चेष्टा रहती कि किसी भी तरह कोई मुझे पुरानी बातें याद न दिलाये.....कभी भी पंडितों और बाबाओं की  बातों पर यकीं   न करने वाले मेरे पापा भी चोरी छुपे उनसे सलाह लेने लगे..... ..मैं भी जब अकेली होती तरह तरह की  सोचों से घिरी रहती.....पर ये याद नहीं आता कि आखिर मेरा वो सपनो से प्यारा घर है कहाँ ???
मेरे घर के लोग...मेरे पति, मेरे बच्चे सब कहाँ हैं ??किसी भी बाइक की आवाज पर चौंक पड़ती लगता वो आगये हैं........ बाहर की  और दौड़ पड़ती.....एक चार ,पांच साल की  बच्ची  के   मुंह से पति और बच्चों की  बातें सुनना हर किसी को एक नागवार सी उत्सुकता से भर देता......कभी कभी कुछ रिश्तेदार कुछ अश्लील सी बातें भी पूछ देते जो मेरे लिए हैरान कर देने वाली होतीं.....
अंततः एक मनोवैज्ञानिक मित्र के समझाने पर पापा ने पता लगाया और मुझे पुनः मेरे घर ले जाने को तैयार हुए......और इसका ही परिणाम है कि मैं आपने इस चिरपरिचित मोहल्ले में आ सकी हूँ.....कितना कुछ बदल गया है इन आठ दस सालों में....कितने ही मकान बन गए हैं...जो दो मंजिल थे वो चार मंजिल बन गए हैं......झन्नाटू हलवाई की दूकान अब भी वहीँ है पर अब उसका नाम बदल कर मधुर मिलन स्वीट्स हो गया है.....मोटरपार्ट्स की दूकान,.. ....केसरी की ब्रेड बिस्कुट की दुकान......सारी चीजें देखी पहचानी सी लग रही हैं ....जैसी एक धुंधली सी परत आँखों के सामने थी,....अब वो परत हटती जा रही है......सड़क की दाएँ ओर एक बड़ा सा नाला और मलबे का ढेर रहता था अब वो नहीं है....वहां एक बहुत बड़ा शो रूम बन गया है....नेता जी की छोटी सी दूकान जहाँ दूध वाले पैकेट मिला करते थे वहां डेयरी का सामान मिलता दिखाई दे रहा है.....
रस्ते में कई चेहरे ऐसे दिखे जिन्हें मैं पहचान रही हूँ पर वो मुझे बिलकुल नहीं पहचान रहे.....सभी चेहरों को गौर से देखती जा रही हूँ.....सभी पर उम्र की धूल की एक परत सी चढ़ी हुई है  …… जो अब कभी झाडी नहीं जा सकती.....सामने वाली गली में रहने वाली सरदारनी आज भी मुन्नीलाल सब्जी वाले से वैसे ही लड़ रही हैं......
सरदारनी और भी बूढी हो गई हैं और मुन्नी लाल और भी जवान........दस साल आगे बढ़ गई है सभी की ज़िन्दगी........पर मैं अभी भी वहीँ की वहीँ खड़ी हूँ.......
बेहद उत्सुकता है अपने घर (! ) पहुँचने की...........माँ   पापा की ऊँगली पकडे सीढियां चढ़ती हूँ .........चौड़ी सीढ़ियों पर दोनों तरफ गमले रखे रहते थे.........अब नहीं हैं.......बरामदे में मेरे बनाये हुए कुछ चित्र फ्रेम कर के लगे थे ......अब वो भी नहीं हैं..........हर चीज मुझे फिल्म की तरह याद आती जा रही है.......बरामदे के दाहिनी तरफ सीढियां थी जो ऊपर के कमरे में जाती थीं........वहां मकड़ियों ने जाले तान रखे हैं.....लगता है अब वहां कोई नहीं रहता.........दस साल पहले वहां एक छोटा सा तीन प्राणियों का परिवार रहता था.......बरामदे में सन्नाटा है........पापा माँ के कान में फुसफुसाते हैं......अभी भी वापस लौट चलो.......क्या कहेंगे इनसे कि  हम कौन हैं ?? ...और किस लिए आये हैं ???....पर मेरी उत्सुकता का अंत नहीं है.....मैं उछल कर कालबेल बजा देती हूँ.....ताज्जुब है आज भी वही कालबेल लगी हुई है........चींचीं करती चिड़ियों की आवाज मैं खुद ही पसंद करके लाई थी ये बेल की जब भी कोई स्विच पर हाथ रखे......गौरयों की चहकार से घर भर जाए...........बिना जरूरत के ही बच्चे बार बार बजा कर ये आवाजें सुना करते थे.....

अन्दर से स्लीपर पहन कर किसी के आने की आहट सुनाई दे रही है.....फिर दरवाजे के पीछे लगे हुए रॉड के हटाये जाने की, और अब चिटखनी खोले जाने की......अब कुछ नहीं किया जा सकता.....दरवाजा खुलने ही वाला है......बस दरवाजा खुला........अरे ये कौन हैं ??.....पहचानने की कोशिश करती हूँ....ओह्ह्ह....दस सालों में वे इतना बदल गए हैं ???.....ताज्जुब होता है.....लगभग सारे बाल सफ़ेद हो चुके हैं....शायद चश्मे का नंबर भी बढ़ गया है.....मैं तो भूल ही गई..की अब वो भी तो साठ के आस पास पहुँच रहे हैं.....यानी मेरे नए पिता से २५ साल ज्यादा......पापा से उन्होंने उनके आने का कारण  पूछा है....और बताये जाने पर उनकी हैरत की हद देखने लायक है.........जितनी उत्सुकता से मैं यहाँ तक आई हूँ........अब माँ पापा के सामने मुझे उनसे बात करने में बड़ी हिचक और शर्म सी महसूस हो रही है..........शरमाई हुई सी मैं.........पूरे कमरे को ध्यान से देख रही हूँ.....बच्चों के बारे में जानने की इच्छा है.....पापा पूछ ही लेते हैं.....वे बताते हैं.......बड़ी बिटिया की शादी हो गई है..........छोटी हैदराबाद में पढ़ रही है और बेटा यानि मेरा जान से प्यारा दुलारा राजू... उनके साथ यहीं है और इस साल इंटर की परीक्षा देने वाला है........बड़ी बिटिया के विवाह की मुझे कितनी तमन्ना थी उन्हें पता है.....वे बड़ी निरीहता से मुझे देखते हैं.......आलमारी से अल्बम निकाल कर वे हमारे सामने रखते हैं........और अन्दर की ओर जाते हैं.........मेरा जी हो रहा है मैं भी साथ में जाऊं उसी रसोईघर में जो मैंने कितनी तमन्ना से बनवाया था.........माँ से पूछ कर मैं भाग कर रसोई में जाती हूँ..........पूरा घर मेरा देखा भाला है.........१५ साल कम नहीं होते.........मैंने १५ साल इस नए घर में बिताये हैं.....इसी कोरिडोर में खड़े हो कर हम सर्दियों की सुबह में सूरज के धुंध से निकलने का इंतज़ार करते थे ....... हाथ में चाय का कप लेकर सड़क के उसपार पेड़ों के झुण्ड को देखना कितना अच्छा लगता था......

एक प्लेट में बिस्कुट और पानी के चार गिलास  …। ट्रे में लेकर ये बाहर निकलते हैं.....और ड्राइंग रूम में चले जाते हैं.....
और मैं पीछे का दरवाजा खोल कर किचन गार्डन में आ जाती हूँ.....मैंने सालों पहले यहाँ नीम्बू, करौंदे , आम और अमरुद के पेड़ लगाये थे....सब सूखी झाड़ियाँ सी रह गई हैं.....पेड़ों का झुण्ड अब नहीं रहा.....कुछ पेड़ों को जडें खोखली हो गई हैं.....कुछ पेड़ लुटे पिटे से खड़े हैं पता नहीं कब गिर जाएँ.......किसी की जडें जमीं से उखड गईं हैं...किसी की शाखाएं काट डाली गईं हैं......कौन हमेशा रहता है...दुःख इंसान तक  को घुन की तरह चाट जाते हैं....पेड़ क्या चीज हैं ?? .मेरे बाद किसी ने इसे संभाल कर रखना नहीं चाहा....जी उदास सा हो जाता है......शायद अपनी उम्र के लिहाज से मैं ज्यादा मैच्योर हूँ....या हमेशा अतीत में खोये रहने का नतीजा है.....
...

अन्दर कमरे में दो तीन नई आवाजें सुनाई दे रही हैं..........झाँक कर देखती हूँ........एक तो मेरा राजू ही है.....ऊँचा पूरा कद ,....गोरा रंग.....हलकी हलकी मूंछें.....पूरा पापा पर ही गया है......और साथ में शायद मेरे जेठ हैं.........ये पूरी तरह उन्हें समझाने में लगे हैं......कि मेरे माँ पापा कौन हैं.....और किसलिए आये हैं.......पर जेठ जी को इन फ़ालतू बातों में कोई यकीन  नहीं है .....और वे बार बार इस बात को साबित करने में लगे हैं......आज कल फ्रॉड  करने वाले ऐसे बहुत से लोग घूमते रहते हैं.......पर मैं उन्हें कैसे समझाऊँ  कि .... मैं किसी लालचवश नहीं आई ....एक अनजानी अनचीन्ही सी डोर में बंधी चली आई हूँ.....
राजू बाहर आकर मुझे गौर से देखता है.....जी उमड़ रहा है कि उसे जोर से लिपटा कर प्यार कर लूं पर काश !!! ऐसा हो पाता.......राजू को बुला कर दिखाती हूँ वो जगह..... जहाँ चमेली की झाड के नीचे.....मैंने उसका गिनी पिग दफनाया था....सफ़ेद और खूब मोटा गिनी पिग जो राजू को बहुत प्रिय था..... और जिसके मरने पर राजू ने तीन दिनों तक खाना नहीं खाया था......उसी जगह की मिटटी में लोहे का एक चाकू भी गाड़ दिया गया था की गिनी पिग को डर न लगे.........ये सारी बातें राजू को भी शब्दशः याद हैं .....वो हैरानी से मेरी बातें सुनता है....पर उसके चेहरे से अविश्वास की लकीरें ख़तम नहीं होती......



पर सोचती हूँ यदि वो यकीन  कर भी ले तो क्या होगा ???मैं क्या फिर से उसके साथ उसकी प्यारी माँ बन कर रह पाऊँगी ??? उसके पिता की पत्नी बन कर ?

वक़्त का पहिया फिर से तो नहीं घूम सकता न.......मैं सोचती हूँ मुझे ज्यादा उदास नहीं होना चाहिए.........मैं यहाँ उदास होने नहीं आयी यादों के बिखरे पत्ते समेटते हुए थक गई हूँ.....बरामदे की सीढ़ियों पर रुक जाती हूँ.......मेरे कदम उठ नहीं रहे........मैं गीली आँखों के साथ मुंह फेर कर खड़ी हो जाती हूँ.......................

Sunday, February 17, 2013

कुछ भी नहीं कहने को ...........



ज़िन्दगी
 इन दिनों     कुछ     अजीब सी हो गई है............
कुछ बाते हैं , जो पीछा नहीं छोड़ रहीं …..
उस भंवर से   ...अपने आपको ....निकाल   नहीं पा रही हूँ .......
बार बार वे ही बातें घूम फिर कर सामने आ खड़ी होती हैं .........
पता नहीं ........मैं इतना कमजोर कैसे हो जाती हूँ .......कभी कभी ….

क्यों नहीं  ......सबकी तरह मैं भी उल्टा जवाब दे पाती ??

शायद ये संस्कारों का असर है …..
कभी सीखा ही नहीं ….
मुझे भी कितने जवाब सूझते हैं पर ….
वक़्त गुजर जाने के बाद ….
क्या     करूँ       ?? .......मैं ऐसी ही हूँ ….
  शायद       सब की ज़िन्दगी में ऐसे लम्हे आते   होंगे  न .....
जब इंसान मजबूर हो जाता है ..

हम किसी के लिए अच्छा करते हैं
या अच्छा सोचते हैं
तो उन को एहसास क्यों नहीं होता .???

लोग साथ क्यों छोड़ देते हैं ?
रिश्तो की इज्जत करना भूल क्यों जाते हैं ?

ईर्ष्या........जैसी भावना इतनी प्रबल क्यों हो उठती है.??
कि सारी अच्छाइयों को ढँक लेती है ?


यही सब सवाल हैं ..
और हम सब
इसकी कीमत चुका रहे हैं …...
अपना सेल्फ रेस्पेक्ट गँवा के ..हासिल क्या हुआ ?.
.
कहते हैं ज़िन्दगी कभी रूकती नहीं ..
पर मुझे लग रहा है ………
 ज़िन्दगी में समय और उम्र के अलावा सब कुछ ठहर सा गया है ………….
…….

अब तो जैसे ……….
किसी चीज में कोई रूचि ही नहीं रह गई..
किसी के लिए कुछ करने का मन ही नहीं होता.....
फिर वही साये पीछा सा करने लगते हैं ……

कोशिश कर रही हूँ      इस मनः स्थिति से दूर निकलूँ ….…...

अभी कहीं पढ़ा था …..
जो तुम्हारे पीछे बोलता है उसे बोलने दो …
क्यों कि  वो उसी लायक है       कि   तुम्हारे पीछे ही रहे …..
उसे कभी इतनी तवज्जोह मत दो ...... कि वो तुम्हारे विचारों पर हावी हो सके …..

इस बात को अपने ऊपर लागू करने का प्रयास जारी है ….
शायद सफल भी हो जाऊं ……यही उम्मीद है ….
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