लिखिए अपनी भाषा में

Tuesday, November 25, 2014

यूँ ही....

यूँ ही.…


 आपके दिमाग में क्या चल रहा है....फेसबुक के  इस  प्रश्न पर सभी अपने  अपने  जी की भड़ास निकालने को आजाद हैं....और उस भड़ास यानि स्टेटस को लाइक्स और कमेंट्स के लिए फेसबुक पर थोप दिया जाता है........ बुरा  तो  तब  लगता  है .....कि  हमारी और कुछ हमारे जैसे ही अदना लोगो की  लिखी  कोई  अच्छी  या  ठीकठाक  सी  बात  पर  भी  लाइक्स और कमेंट्स बहुत  कम  आते  हैं ..और  कई  लोगो  की  ऊल  जुलूल  बातो  पर  भी  अनगिनत  लाइक्स  और  वाद  विवाद  शुरू  हो  जाते  हैं  ...कई  बार  तो  बेहद  मूर्खतापूर्ण  से  स्टेटस  पर  भी ......जैसे किसी महिला ने सिर्फ ये लिख दिया "आह"    बस बन्दे यूं छटपटाने लगेंगे मानों उनका सारा दुःख दर्द दूर कर के ही मानेंगे.....फिर घंटों इसी पर डिस्कसन चलता रहेगा....

Wednesday, October 22, 2014

दीवाली की बचपन की यादें....




      अपने बचपन की दीवाली की यादों में से कुछ बांटने की इच्छा हो रही है..अब लगता है कि कितने भोले भाले पटाखे और आतिशबाजियां चलाई हैं हमने .......आज कल की भयानक आवाजों और दिल दहला देने वाले मंजर के सामने......उस समय में...एक तरह के पटाखे आया करते थे..सफ़ेद रंग के पतंगी कागज़ में थोड़ा सा बारूद वाला मसाला रख कर ऐंठ कर लपेट दिया जाता था....काफी कुछ लहसुन के आकार का ..उसे लहसुनिया पटाखा कहते भी थे..जिसे दीवार पर या जमीन पर इतने जोर से पटका जाता था की वो धड़ाम की आवाज़ के साथ फूट जाता था....एक बड़े पैकेट में काम से काम ५० से १०० लहसुन होते थे.....और उन्हें ज़मीन पर बार बार पटकने से हाथ भर जाते थे....और कई दिनों तक उनमे दर्द बना रहता था..पर फिर भी जोर की आवाज करने के लिए उस समय वो दर्द हम सब भूले रहते थे.......छोटे छोटे सुतली बम...मिर्ची बम....रेलगाड़ी...जो दूर दूर दो कीलों पर पतला सा धागा बाँध कर जला दी जाती थी जो सर्र से उस धागे पर चल कर जाती थी और दूसरें सिरे पर जाकर फिर वापस आती थी.... ..और सबसे मजेदार एक माचिस की डिब्बी जैसी पैकिंग में आने वाली छोटी छोटी लगभग हाजमोला की गोलियों के बराबर आकार जैसी काली काली टिकियां जिन्हे रख कर जलाने पर सरसराता हुआ एक सांप निकलता चला आता था......मुझे याद है उस सांप वाली डिब्बी पर जो चित्र बना होता था..........उसमे पूरा फन काढ कर बैठा हुआ नाग दिखाया जाता था.......पर हम सब कभी उस नाग का फन नहीं देख पाये..........गोल गोल तेजी से घूमने वाली चरखी.......बेहद खूबसूरत चमकदार रंग बिखेरने वाले बड़े बड़े अनार (जो मुझे कभी अनार के आकार के तो नहीं लगे...पता नहीं उनका नाम अनार कैसे पड़ा.? ),,,,..रॉकेट जलाने के लिए कबाड़ी की दूकान से खरीद कर लाई गई बियर की बोतलें.....छोटी छोटी पिस्तौलें ..जिनमे लगाने के लिए पतली पतली पत्तियों..वाली गोलिया.... जो एक बार पिस्तौल में लोड कर लेने पर चट चट की आवाज़ के साथ लगातार चलाई जा सकती थीं....मैंने तो कभी भी पटाखे चलने में रूचि नहीं ली पर मेरा भाई इस कार्य में ..और कहीं न कहीं हाथ पैर जलाने में भी....एक्सपर्ट था...मेरा सबसे मनपसंद दीवाली का आतिशबाजी आयटम था फुलझड़ी .....जो आज भी मुझे सबसे ज्यादा पसंद है.....
....पटाखे जला लिए जाने के बाद..चारों तरफ फैला हुआ उनका कूड़ा....बटोरना ..और सांप और चरखी जलाने के बाद ........मोजैक के फर्श पर बना हुआ कालिख और जलने का निशान साफ़ करना जो हफ़्तों की मेहनत के बाद कहीं साफ़ हो पाता था..... और अंत में सबसे खास बात..कि इतना कुछ खरीद के लाने के बाद भी १५ से २५ रूपये ही खर्च होते थे.....जब कि आज २५ रूपये में शायद कुछ भी न मिले......

Thursday, October 2, 2014

यूं ही.....

          साफ़ सुथरी सड़कों पर... नए नए झाड़ू लेकर ..पोज़ देते हुए..फोटो खिंचाने और रोज अपने घर द्वार की ही सफाई करने में बहुत अंतर है....एक से एक बनठन कर मेकअप  से पुते चेहरों का ....घर , रसोई और उसके आसपास पड़ी गन्दगी को भी देखा है.......अभी अपने ही घर में झाड़ू पोंछा लगाना पड़े तो आंधी आ जाए..........अगर हर कोई सिर्फ अपने घर ... अपने घर के आसपास...अपने मोहल्ले.... ही सफाई करने जा जिम्मा उठा ले..तो इतनी नौटंकी करने की जरूरत ही क्या पड़े.......आखिर हम लोग स्कूल में भी एक चार साल के बच्चे तक को ये सिखा ही देते हैं..की टॉफी खाने के बाद छिलका....और पेंसिल की छीलन या कागज की कतरन  को क्लास में रखे कूड़ेदान में ही डालना है......तो ये बात स्कूल से बाहर निकल कर सड़क पर पड़े कूड़ेदानों में कूड़ा डालने में कहाँ चली जाती है....सड़कों के किनारे भी दुनिया भर का कचरा चारो तरफ फेंका जाता है (सिर्फ कूड़ेदान में नहीं डाला जाता).....

Monday, September 15, 2014

                 
       बनारस की   मिठाई         


            
              बनारस के रहने वाले सभी मिष्ठान पसंद  शौक़ीन लोगो को मेरा ये छोटा सा लेख समर्पित है.....जो मेरी तरह बनारस से दूर है....वो इस दर्द को समझ सकता है....की बढ़िया ताज़ा मिठाई बहुत दिन तक न मिले तो क्या दशा होती है.....अब तो मिलावट और दुनिया भर के झंझटों से बचने के लिए कुछ ख़ास ब्रांड की डिब्बा बंद सोनपापड़ी  खा खा के मन ऊब गया है........उस पर भी उसकी  मैन्युफैक्चरिंग और  एक्सपायरी डेट देख कर जी घबराया रहता है....
मुद्दतें हो गयी...गरमागरम गुलाबजामुन ..या ताजे छेने का ठन्डे ठन्डे बंगाली रसगुल्ले खाए हुए..... क्षीर सागर की रसमलाई , जलजोग की मिष्टी दोई , बेनीराम देवीप्रसाद (जौनपुर) की बेहद नरम मुलायम इमरती .....कचौड़ी गली की स्वादिष्ट कचौड़ी सब्जी और जलेबा का नाश्ता ......घर पर कितना भी बना लो पर वो स्वाद नहीं आता .....
.बनारस के सिवा  और जगहों पर तो ये देखा है..कि लोग जलेबी...जलेबा,या इमरती में फर्क ही नहीं कर पाते.....वैसे .एक ही  परिवार के सदस्य होने के नाते इनमे फ़र्क़ करना भी मुश्किल है   पर हर बनारसी जानता है कि जलेबी और जलेबा में क्या अंतर है ....बनारस जैसी बढ़िया स्वस्थ चाशनी से भरी जलेबियाँ....और कहाँ और जगहों की दुबली पतली रसविहीन एनिमिक जलेबियाँ....नारंगी रंग की खिसखिस करती सूखी इमरतियाँ....जिन्हे देखने से भर से ही अरुचि हो जाये.....
.जलेबी किसी को कुरकुरी पसंद है किसी को मुलायम......किसी को गरमागरम ...तो किसी को दूध के साथ....पर जलेबा जो जलेबी का बड़ा भाई है..वो साइज में कम से कम १०० ग्राम जलेबी के बराबर सिर्फ एक ही होता है..और वो रबड़ी के साथ ज्यादा पसंद किया जाता है........बसंत बहार की रसमलाई ,सत्यनारायण मिष्ठान्न भण्डार का राज भोग....कितने नाम गिनाये जाएं....बनारस की बहुत याद आती है.....
.मेरे मोहल्ले की बहुत प्रसिद्द दुकान 'मधुर मिलन' के लाल पेड़े...और लवंगलता  बहुत मशहूर हैं.......पर मुझे लगता है....बनारस में जितनी भी मिठाइयां बनती हैं सब बेहद स्वादिष्ट होने के साथ साथ....बेहद खूबसूरत भी है.....सिर्फ एक लवंग लता को छोड़ के.....वैसी भद्दी और बदसूरत मिठाई..और कहीं नहीं मिलती....नाम सुन कर लगता है कोई नाज़ुक सी लवंग लतिका जैसी छूने भर से लचक जाने वाली चीज होगी..पर देखो तो ऐसा लगता है जैसे सुंदरियों से भरी सभा में कोई अखाड़े से  आया हुआ पहलवान खड़ा हो गया हो....
.या सुन्दर सुन्दर वी आई पी सूट्केसों के बीच एक भद्दा सा होल्डाल लपेट कर रख दिया गया हो......उसकी भी एक विशेषता है की इसे गर्मागर्म ही खाया जाये तो अधिक स्वादिष्ट लगता है .....ये ऐसी मिठाई नहीं जो पैक करा के  कहीं ले जाई जा सके या कई दिनों तक रखी जा सके.......इसका आनंद वही बता सकता है जिसने इसे खाया हो.....
और  झन्नाटू  साव  की  दूकान  में  रोज शाम को लवंग लता खाने वालों की भीड़ जमा रहती है......बनारस में सबसे ज्यादा खाई जाने वाली मिठाई यही है....सिर्फ एक लवंग लता खा लो तो फिर और कुछ मीठा खाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती......
सिर्फ एक यही मिठाई है जो अमीर गरीब का फ़र्क़ नहीं रखती....सब जी भर के  खाते   हैं...पर ये इतनी बड़ी और इतनी मीठी होती है कि ज्यादा केलोरी कॉन्शस लोग इसे पचा नहीं सकते...पर मुझे तो ये बहुत पसंद है.....और साल छ महीने में जब भी मेरा बनारस जाना होता है......झन्नाटू साव का लवंगलता और समोसा खाए बिना वापस नहीं आती......

Sunday, September 14, 2014

एक याद

               




              कई साल पुरानी एक घटना याद आरही है..शायद २००० या २००१ की ...लखनऊ से .गोरखपुर ..आने वाली रेलगाड़ियों के यात्रियों   के बारे में .कुछ फेसबुक मित्रों की प्रतिक्रिया पढ़ी  ....हम  लोग  बराबर  उसी   लाइन  से आने जाने  वाले  हैं...लखनऊ  से मनकापुर  करीब  तीन  से चार  घंटों  का  सफर  है.....पर  ये हिंदी  का  सुहाना सफर  नहीं  अंग्रेजी  का  सफर  ज्यादा है.....ज्यादा तर  लगभग  75% ग्रामीण  यात्रियों  से भरी  हुई ....पूर्वांचल  या बिहार  के यात्री .....सर्दियों के मौसम की वो चार घंटे की यात्रा तो जैसे तैसे काट ली  जाती है...पर भयंकर गर्मी के मौसम में वो समय बिता पाना ....उफ्फ्फ वो एक भुक्त भोगी ही बता सकता है........तो किस्सा  कोताह ये है....कि उस साल की भयंकर गर्मी में हम सब लखनऊ से वापस मनकापुर लौट रहे थे.... ..अब चार घंटे के सफर के लिए कोई रिजर्वेशन तो कराता नहीं....बस जहाँ तहाँ  सब बैठ जाते हैं....ऐसे ही हम सब भी चढ़ लिए.......चिपचिपी  बदबूदार गर्मी ....उसमे ऊपर की बर्थ पर बैठे एक सज्जन......अपना एक रुमाल सीट पर बिछा कर नीचे उतरे..और प्लेटफॉर्म पर जा कर दो तीन बड़े बड़े लिफाफों में आम और केले लेकर वहीँ टहलने लगे ...शायद इस इंतज़ार में की ट्रेन जब चलने ही वाली हो तो चढ़ जाएँ........और जब ट्रेन चली तो लपक कर चढ़ लिए......किसी तरह मुश्किल से अंदर जब अपनी सीट तक पंहुचे  तो उन्होंने पाया कि....कोई उनकी जगह  बैठ चुका है.......बड़े ही चिढ़े हुए अंदाज में उनका गुस्सा देखने लायक था.....बार बार उनका  कहना याद आता है ..यहां दस्ती रहल ह ..हम दस्ती ध के गइल रहलीं ह...(दस्ती बिहार में रुमाल को कहा जाता है ).मतलब यहाँ हम रुमाल रख के गए थे....वो क्या हुआ ???........अगल बगल के सब लोग उनकी तरफ आकृष्ट हो गए.....उसी में से किसी ने चुटकी  लेते हुए कहा.......अरे दस्तिये नु रहल ह.....के कवनो सीव जी के धनुख रहल ह ..के राम जी अईहें   त   उठैइहैं  (अरे रुमाल ही तो था न कि कोई शिव जी का धनुष था कि राम जी आएंगे तो वही उठाएंगे ??)....उनका इतना कहना था कि आसपास जो हंसी का फौहारा छूटा  कि आज भी याद करने पर बरबस हंसी आ ही जाती है.....और जिस किसी को भी ये घटना बताते हैं सब हँसते हँसते लोट पोट हो जाते हैं.......क्या हाजिर जवाबी थी.....

Monday, September 1, 2014

क्या बनाऊँ ??






        अभी अभी अपने एक फेसबुक मित्र श्री अरविन्द भट्ट जी का स्टेटस देखा....."आज क्या बनाऊँ " ??.उसी सिल सिले को आगे बढ़ाते हुए......कुछ लिखने  को मन  हो  आया  है....सचमुच  ये  दुनिया  भर  में पूछा जाने  वाला ....और सच  कहूँ  तो सबसे  ज्यादा पकाऊ प्रश्न है.....और जिसका जवाब भी बिलकुल निश्चित है जो १०० में से ९० पति अपनी पत्नियों के देते हैं....कुछ भी बना लो.....मतलब अहसान जताते हुए जैसे वो कुछ भी खा लेने को तैयार हैं.....बस पत्नी बना के दे दे.....जब कि अगर इसकी गहराई में जा के देखा जाये तो   १०० में से ५० पत्नियां तो इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में सुनना चाहती हैं....चलो   आज कहीं बाहर चल के खाते हैं.......या  बाहर  से कुछ मंगवा  लेते हैं......रोज रोज वही प्रश्न...रोज रोज वही जवाब..... ..ना पूछने वाला ऊबता है.....ना जवाब देने वाला........और पूछा भी ऎसे जाता है मानो वे पचासों डिशेस बनाने में एक्सपर्ट हों....और जवाब भी ऐसे ही दिया जाता है जैसे उन पचासों व्यंजनों में से कुछ भी बना लो......और यदि कुछ व्यंजन विशेष का नाम भी ले लिया गया पतिदेव द्वारा.....तो उसमे  तुरंत संशोधन करते हुए बता दिया जायेगा.....ये तो है ही नहीं....या पहले से बताना चाहिए था....ये बनाने में तो पहले से तैयारी करनी पड़ती है......या ये तुम्हे तो पसंद है..पर बच्चे मुह बनाएंगे....इसमें केलोरी बहुत ज्यादा होती है....ज्यादा ऑयली तुमको नुक्सान करेगा....आखिर में घूम फिर कर फिर वही बात कि ....कुछ भी बना लो....और फिर पत्नियां अपने मन का बना लेती है.....इस पर एक अहसान और हो जाता है कि अगर पति महोदय मुंह बनाएं....तो उनसे बड़ी मासूमियत से कहा जा सकता है.....आपसे पूछा तो था.....:( :( :(

Monday, August 25, 2014

यूं ही....

   


        इस बार गर्मी की छुट्टियां बहुत बोझिल सी बीतीं..……। बहुत कुछ करना चाहते हुए भी...सच कहूँ तो कुछ भी नहीं किया जो सार्थक लगे....
साल भर जिस छुट्टी का इंतज़ार रहता है
वो इतना निरर्थक बीते ये सोच कर ही एक अपराधबोध से घिर जाती हूँ.....
.जैसे लग रहा है..समय बर्बाद हुआ....
घरेलू काम काज निबटाने के बाद सारा दिन कोई काम नहीं ....
सिर्फ चुप चाप बैठे बैठे किताबें पढ़ते रहने के ...ये तो मैं पूरे साल करती हूँ.....फिर इन छुट्टियों का क्या सदुपयोग हुआ ???
ऐसे भी दिन बीते हैं, जब इस छुट्टियों में मेरे पास बिलकुल फुरसत नहीं होती थी...पर अब ?
बहुत दिनों तक अगर चुप से रहो तो वैसी ही आदत  पड़   जाती है....ये महसूस होता है कि अगर इशारों में ही बातें कर ली जाएँ तो अच्छा है....बरसों बीत गए हैं.....सिर्फ वक़्त बोलता रहा ..बाकि सब तमाशाई बने देखते रहे .....कभी कभी महसूस होता है कि हम वहीँ के  वहीँ खड़े हैं....और ज़िन्दगी भागती चली जा रही है ...लगता ही नहीं कि जिंदगी के ५२ साल बीत चले हैं...और जिंदगी छोटी और छोटी होती चली जा रही है....काफी कुछ किया है..और अभी काफी कुछ करना बाक़ी  है....बस यही सोचती रहती हूँ कि जितना कुछ कर सकी हूँ   वो क्या एक सार्थक जीवन कहलायेगा ???
किसी  हद तक हाँ....पर अंदर ही अंदर एक बात कुछ कचोटती सी रहती है....इस बात का एक दुःख सा बना रहता है कि जो मेरे जीवन का सबसे प्रिय काम रहा है ,, जो मेरे जीवन का एक अभिन्न सपना रहा है,  उसे ही सबसे कम समय दे पा रही हूँ...या यूं कहूँ कुछ समय से बिलकुल छोड़ ही दिया है......तो ज्यादा सही होगा....एक निश्चित रूटीन पर ज़िन्दगी घूमती चली जा रही है...वही वही दिनचर्या....वही वही थके हारे उकताए हुए चेहरे...रोज देखना....वही घिसी पिटी उबाऊ बातें....वही रोज का रोना देखते देखते सोचती हूँ , क्या यही सपना था मेरा ?....भागती दौड़ती जिंदगी में वक़्त के बीतने का पता ही कहाँ चलता है.......
               कब  दोपहर  होती  है  ....कब  शाम  होती  है ...कब रात गुजर कर फिर दिन निकल आता है....कब बैठे बैठे उम्र निकलती चली गई....कब खूबसूरत  काले बालों के बीच चांदी के तार चमकने लगे,....और कब मेहंदी हाथों के बजाय बालों में लगानी शुरू  कर दी गई.....अहसास ही नहीं हुआ..........सोचो तो ताज्जुब होता है....कि कब  और कैसे     नपी तुली सुन्दर कदकाठी बेडौल हो कर बोझ बन जाती है.......आसपास के बच्चे दीदी के बजाय आंटी कहने लगते हैं.......और कभी आंटी या बहन जी सम्बोधन से चिढ़ने वाले हम........ बड़ी ही शालीनता से इसे स्वीकार भी कर लेते हैं.......और कब साथ के  लोग  एक एक कर रिटायर होना शुरू हो जाते हैं........पता ही नहीं चलता.......
खैर यह तो जीवन यात्रा  है....एक आश्चर्यजनक चक्र....   और हमें इसके साथ ही घूमते रहना है....

अभी कहीं पढ़ी हुई सुन्दर पंक्तियाँ...

ज़िन्दगी का फलसफा भी कितना अजीब है.....
शामें कटती नहीं और साल गुजरते चले जा रहे हैं....

Sunday, August 10, 2014

बस्स्स यूँ ही …

 

हाहा .
मुद्दतें हो गईं मुझे राखी पर किसी ने कोई गिफ्ट नहीं दिया.... ...और अगर किसी बार किसी कारण से राखी समय से नहीं पहुँच पाई तो तंज़ करने से नहीं चूके... ...बच्चो के साथ भी राखी का त्योहार मनाए कई साल बीत गये हैं .....आज फिर ऐसा है कि सभी बाहर हैं...मै एकाकी. . क्या बनाऊँ....क्या मनाऊँ...समझ नही पा रही..... . ....अपने दोनों प्यारे भाइयों को राखी पर बहुत सारा आशीर्वाद भेजती हूँ.... और सभी भाइयों को ढेर सी स्नेहिल शुभकामनाएँ.....

राखी सभी के लिए मंगल मय हो.........मेरे पतिदेव के लिए भी मेरी राखी की अनगिनत शुभकामनायें.......मैं हर साल उन्हें भी राखी बांधती हूँ......आखिरकार..मेरे असली रक्षक तो वे ही हैं.....और गिफ्ट्स भी मुझे उनसे ही मिलते हैं हाहाहाहा

Saturday, August 9, 2014

यूँ ही.…।




जिंदगी में इतनी उलझनें हैं कि.... हम बचपन की शरारतों को भूल जाते  हैं......और ये भ्रम पाल बैठते हैं कि अब हम बड़े हो गए हैं.......हमें ऐसी शरारतें नहीं करनी चाहिए.....पर सच पूछो तो हर किसी में एक छोटा सा बच्चा हमेशा ज़िंदा रहता है.......जो वक़्त बेवक्त शरारतें करना चाहता है........हर तरह की फ़िक्र  से दूर खूब देर तक सोना चाहता है........अपने हर काम में किसी की रोक टोक नहीं चाहता है.......जी भर कर हंसना चाहता है.....मनचाहा न होने पर जी भर कर रोना चाहता है....किसी से चिढ जाने पर..... उसे जीभर कर पीटना  चाहता है....और कोई जी दुखाने वाली बात हो जाने  पर चाहता है कोई हमें भी पुचकारे.......प्यार से समझाए........बिना झिडके हमारे आंसू पोंछ दे .......और सर पर हाथ फेर कर कहे........कोई बात नहीं सब ठीक हो जायेगा.......चिंता मत करो....
कहाँ गए वो हाथ ???. जो हमारे दुखी और उदास होने पर सर सहला कर और पीठ थपथपा कर सांत्वना देते थे.....

Friday, August 8, 2014

यूँ ही






जिंदगी के धंधों ने इस कदर बिजी कर रखा है कि वक़्त के गुजरने का अहसास ही नहीं हो पाता ,,,,,,,बस जब आइना देखो तो ख़याल आता है कि ज़माने  गुजर गए.....अब जब बच्चे जवान हो गए हैं तो हमें तो बूढ़ा होना ही पड़ेगा...... :( :( :(

Sunday, August 3, 2014

मेरे परम मित्र




        पता नहीं क्यों ....आज तक इस विषय पर कभी बहुत गौर नहीं किया कि मेरे खास मित्र कौन हैं.....हर उम्र, हर जगह, हर परिस्थितियों में दोस्त बदलते रहते हैं.....इस लिए कोई दोस्त बहुत लम्बे समय तक बना रहे ऐसा  नहीं हो पाया......बचपन की और कॉलेज टाइम की दोस्ती......और ऐसे ऐसे दोस्त .....जिनके बिना लगता था जी ही नहीं पाएंगे......आज न जाने कहाँ हैं......मैं मानती हूँ.. कि ऐसा नहीं.. कि वो भी हमें भूल चुके हो......कोई भूलता नहीं....  हाँ ये जरूर है..कि एक लम्बा  समय बीत जाने पर एक धुंधली परत सी चढ़ जाती है रिश्तों पर....वो उतने चमकदार नहीं रह जाते.....पर अगर फिर से उन्हें झाड़पोंछ  कर चमकाने की . कोशिश की जाये तो कोई शक नहीं कि वे पुनः चमक उठें.......पर दुःख इस बात से होता है कि ये चेष्टा कोई करना ही नहीं चाहता........समय के अभाव का रोना रोते रोते हम ये भूल जाते हैं ...कि हमारी ज़िन्दगी कितनी मशीनी और बेरंग हो चली है कि हमारे पास न खुद  के लिए वक़्त है न दूसरों के लिए.........इस भागती हुई दुनिया को देख कर लगता है आखिर हम कहाँ भाग रहे हैं.....क्यों भाग रहे हैं.???......
               खैर ये तो हुई दुनिया जहाँ की बातें....पर मुझे इस बात का आत्मिक संतोष है कि मैंने.... अपने जीवन साथी के रूप में एक ऐसा मित्र पाया है .....जो आज एक लम्बे समय से मेरे परम घनिष्ठ मित्र हैं.....जिनसे मैं हर तरह की बातें शेयर कर सकती हूँ.....इस लिए नहीं कि वे हर प्रॉब्लम सॉल्व कर देते हैं ..बल्कि इस लिए कि वे बातों में इतनी बातें निकाल कर इतने तरीके बता देते हैं......कि असली प्रॉब्लम क्या थी....यही याद नहीं रहता.........पर कुछ भी हो.....मैं अपने सारी मनो भावनाएं  या कहूँ भड़ास ....इनके सामने निकाल कर निश्चिन्त हो जाती हूँ ...........मुझे लगता है जीवन की हर मंजिल आसान है अगर जीवन साथी हर समय पास न भी हो , पर साथ ..हर समय होना चाहिए.....और ये साथ सहज हो तो चलना और भी आसान हो जाता है......एक राज की बात और बता दूँ कि इतने दिनों तक इनके साथ रह कर मैंने जान लिया है कि इनको परेशान करना हो तो थोड़ी देर इनके ऊपर ध्यान न दिया जाये....बस ये दिल से लगा लेते हैं ....हमारी शादी को २९ साल बीत चुके हैं....बहुत सी बातों पर बहस हुई है...मुँह फुलाया है,,, कई कई दिनों तक बात नहीं हुई है ....अब तो इतने पक्के हो गए है कि बिना लड़े झगडे मजा नहीं आता.....अच्छे दोस्त भी तो यही करते हैं न.....:) :) :) :)

Saturday, August 2, 2014

कुछ इंसानी रवैये दूसरे  को    कितना कमजोर बना देते हैं,कि सारे हौसले , सारी ताकतें , सारी हिम्मतें जवाब दे जाती हैं.... सब कुछ रेत का ढेर होता नजर आता है.... कैसी विडम्बना है कि   इतनी मेहनत से बनाये गए  घोंसले का अस्तित्व भी सिर्फ कुछ तिनकों के इधर उधर सरक जाने से ही खतरे  पड़ जाता है।

Thursday, May 15, 2014

बहुत दिनों के बाद



              कितना अच्छा  होता कि हम जीवन के बीते हुए दिनों को भी एक बैंक में जमा करते जाते और जब कभी जी चाहता ,  जाकर जितना जी चाहे उतने दिन निकाल  लेते  और फिर से उन दिनों को जी लेते,,,,और हम वापस लौटना चाहते तो समय वहीँ का वहीँ रुका मिलता बिना किसी बदलाव के जस का तस ......ज्यूँ का त्यूँ ...और  हम  फिर यादों में जी लेते ........सिर्फ यादें ही तो ऐसी हैं....जो समय के हमेशा के लिए चले जानें के बाद भी फिर से उस गुजरे हुए समय को याद दिलाती रहती हैं......



          मैं अपने ननिहाल पक्ष से बहुत ज्यादा जुड़ाव महसूस करती हूँ.....ददिहाल पक्ष में बाबा जी साथ बहुत ही कम रहा ........पर मुझे इस बात का गर्व है कि मैंने अक्षर ज्ञान बाबा जी से ही सीखा....भट्टी में पकाई हुई .मिटटी की गोलियां जिनसे बाबा जी गिनती..जोड़ना घटाना.....इत्यादि सिखाते थे....बहुत दिनों तक पुराने ट्रंक में संभल कर रखी  हुई थीं.....दादी जी को मैंने देखा ही नहीं....हाँ उनका उस समय का ज्वेलरी बाक्स जो अब करीब ८० साल पुराना हो चुका है मेरे लिए एक एंटीक चीज है.......और वो शायद इतना भाग्यशाली  है कि कभी खाली नहीं रहा.....पहले दादी , फिर मम्मी और अब मेरे लिए पूर्ववत कार्य कर रहा है........

मुझे अपने नाना नानी का अगाध स्नेह और दुलार मिला है जो अभी भी मेरी स्मृतियों में ज्यूँ का त्यूँ है...कुछ ऐसी विडम्बना रही कि एक अरसा पहले जो नानी का घर  छूटा  तो एक लम्बे अर्से तक वहाँ जाना ही नहीं हुआ.....कुछ परिस्थितियां  , कुछ समयाभाव, और कुछ सम्बन्धो में दूरियां सबने मिलकर एक ऐसा संसार रच दिया ....कि ढेकही (मेरा ननिहाल) एक सपना सा हो कर रह गया ....फिर सिर्फ एक ऐसा अवसर आया...जब नाना जी नहीं रहे थे तब  एक दिन के लिए जानें का अवसर मिला था.....पर वो एक ऐसा दुखदाई अवसर था जिसे मैं याद नहीं करना चाहती......नाना जी के बगैर ढेकही की  कल्पना करना भी मुश्किल है.....हमने इतना स्नेहभरा और सुखद समय बिताया है उनके साथ.....पर कहते हैं न कि हर वक़्त एक सा नहीं रहता और परिवर्तन तो संसार का नियम है.....तो सब कुछ बदलता जा रहा है.....वक़्त के गुजरने का अहसास इंसान को तब होता है जब वक़्त बहुत आगे जा चुका होता है.....पता ही नहीं चलता कि कितना समय बीत गया और हम कहाँ से कहाँ आ पहुचे हैं.....कभी पता ही नहीं चला कि इतना वक़्त गुजर गया .... इतने सालों के बाद शायद एक युग के बाद अचानक ही ढेकही जानें का कार्यक्रम बन गया .....विगत कई सालों से सोचते सोचते भी हम उस पर अमल नहीं करपा रहे थे....पर आखिरकार केशव मामा जी का अत्यंत स्नेहपूर्ण निमंत्रण इस बार हम स्थगित नहीं कर सके और दो दिनों का अवकाश निकल कर अंततः गोरखपुर चल ही दिए...एक रात्रि मनोजी मामा के पास विश्राम कर दूसरे दिन ढेकही का कार्यक्रम बना ...संयोग कुछ ऐसा रहा कि कोई टैक्सी इत्यादि कि व्यवस्था नहीं हो सकी तो हम लोग ऑटोरिक्शा से ही निकल पड़े .......बहुत आराम आराम से चल कर वहाँ तक पहुचे.......

वहाँ जाकर "आपाद-मस्तक" बदल जानें वाली बात सार्थक होती दिखी.....पहले तो कुछ भी समझ नहीं आया कि हम किस ओर , किस छोर से वहाँ पंहुच रहे हैं.....दिशा भ्रम सा हो गया ....पता नहीं कितने सालों पहले कि बात है शायद २८ या ३० साल पहले जब हम यहाँ आये थे.....कभी कभी जैसे अचानक किसी रात देखा हुआ कोई सपना याद आ जाता   है  और काफी समय तक झिंझोड़ता रहता है कुछ वैसी ही अनुभूति हुई .....

टैक्सी से उतरते ही एक गहरी उदासी ने घेर लिया .....उदासी नहीं एक ऐसी अनचाही अनुभूति  जो गले तक लबालब भर गई..... कुछ समझ नहीं आरहा था कि क्या महसूस कर रही हूँ.....गले में अटकी रुलाई सी ….जो न बाहर आ रही थी...न ही  अंदर जा रही थी.....एक चुप्पी सी लग गई .....जी कुछ ऐसा हो गया कि मैं क्या चाह  रही हूँ .....व्यक्त नहीं कर पा  रही थी.....चाहने भर से तो कुछ नहीं हो सकता न........चुप्पी के भी अपने रंग होते हैं.....कुछ बोलने का ही मन नहीं कर रहा था...... कभी चारों ओर से बहुत बड़ा लगने वाला वो घर अनचाहे ही काफी छोटा लग रहा था.......बिलकुल अपरिचित ..जानें कब से उन दीवारों पर पुताई नहीं हुई है .....बिलकुल काली और उजाड़ पड़ी सुन्न सी दीवारें....एक अजीब सी उदासी से भरा अहाता .....जो अपने आस पास उग आये कुकुरमुत्तों से घरों और दुकानों के कारण और भी दुखी , उजाड़ और उदास लग रहा था....ये वही जगह थी....जिसे नाना जी कि लगवाई  हुई कई तरह की  मशीनो के कारण "मसीन " कहा जाता था.... ..बदलाव अच्छी बात है...पर ऐसा बदलाव तो कलेजा चीर कर धर देता है.....

वे सारी जगहें जो हमारे लिए अत्यंत प्रिय थीं.....जहाँ खाना बनता था,...वे अलमारियाँ जिनमे कितना ही सामान भरा रहता था.....नानी जी द्वारा बनाये गए अचारों के मर्तबान , और मटके...राशन की बोरियां , ड्रम ,डेहरी....अब वहाँ कुछ भी नहीं था.......जिस जगह नाना जी की बड़ी खाट बिछी रहती  थी,..वो जगह सूनी है....मैं बड़ी उत्सुकता से कमरे  का द्वार खोल कर अंदर घुसी और धुएं से काली पड़ी खिड़की से बाहर झाँकने की चेष्टा की तो अचानक ही मेरा एक पैर घुटने तक  वहाँ की पोली मिट्टी के गड्ढे में घुस गया..... सारे  शरीर में डर   की एक लहर सी दौड़ गई.. कि कहीं वहाँ सांप इत्यादि न हों.......पर बाद में मालूम हुआ कि वहाँ बहुत बड़े बड़े साइज के चूहों का बिल बन चुका है......दोनों पुराने जर्जर पलंगों पर सूखे उपलों का ढेर रखा हुआ था.....जो अब उस घर में रह रहे परिवार के लिए ईंधन के काम आता है....नाना जी के पारिवारिक पुरोहित कभी कभी इस समय वहाँ रहते हैं....दोनों मामा जी लोगों ने शहर में आशियाना बना लिया है....

कमरे  की  दीवारों  पर  उस  समय  ही  पीली  मिटटी  का  कच्चा  प्लास्टर  था   जहाँ  कोनों  में  बरसात  के  समय  सैकड़ों  को  संख्या  में   मेंढक  चढ़े  रहते  थे .....यहाँ  तक  कि  वो  पूरी  दीवार  ही  मेंढकों  की  बनी  हुई  लगती  थी .....धीमी  धीमी  धड़कती  हुई  दीवार ......आज भी याद करती  हूँ....तो  अजीब  सी  गिनगिनाहट    से सिहर उठती हूँ....... मुझे याद है राम सेवक मामा (उस समय सभी घरेलू सेवकों को मामा या काका ही कहने का रिवाज़ था  और उन्हें नौकर जैसा नहीं समझा जाता था...और उन्हें पूरा हक़ था कि अगर हमारी शैतानियाँ हद पार कर रही हैं , तो वे हमें डाँट भी सकते थे.....)  सीढ़ी या तखत पर चढ़ के उन मेढ़कों को दीवार से खींच खींच के निकालते थे और उन्हें  बोरी में भर कर कुछ दूर पर स्थित तालाब में फेंक आते थे.....हमें बहुत मजा आता था ..वो उछलती कूदती बोरी देख के.......



और हफ्ते दस दिनों में फिर उतने ही मेंढक जाने कहाँ से निकल आते थे......पूरी बोरी भर मेंढक ...गंदे पीले ,मटमैले हरे, ऊदे...घिनौने मेंढक..उफ़..आज भी याद आते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं....मुझे मेंढकों और छिपकलियों से इस कदर नफरत है जिसका कोई हिसाब नहीं......उस समय हम बच्चो को ये कहा जाता था की मेंढक मारने से कान में दर्द होता है....पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है पर मैंने कभी किसी मेंढक को नहीं मारा, जबकि मेरा छोटा भाई इस काम में माहिर था...कितने ही मेंढकों को उसने जबरदस्ती जमीन  में गढ्ढा खोद कर जिन्दा गाड़ने की कोशिश की है...पर उसके कान में कभी दर्द नहीं हुआ.....और मैं अक्सर कान दर्द से परेशान रही.....और कभी कभी आज भी रहती हूँ....मुझे याद आता है एक बार नाना जी ने कादम्बिनी से पढ़ कर बताया था, की चीन में मेढक और छिपकलियों को खाया जाता है...ये सोच कर ही...कई दिनों तक खाना गले से नीचे नहीं उतरा था...... बाद  में  हम  लोग  खूब   हँसते  थे  ये  सोच  सोच  कर  कि चीन  में  जब मम्मियां पूछती होंगी ..कि आज खाने में क्या बनाया जाये तो बच्चे कहते होंगे..मां आज भरवां छिपकली या मेंढक की भुजिया बना लो......



जिस  चौकोर पत्थर   पर  ट्यूबवेल के मोटे पाइप से पानी छोड़ा जाता था...वो पत्थर आज भी वहां पड़ा हुआ है.....बड़ा सा करीब ८ बाई ८ का वो पत्थर जिस पर हम सब घंटों नहाते हुए उछल कूद करते रहते थे और पतली सी एक नहर बना कर खेतों की तरफ पानी भेजा जाता था..आज भी वैसा  ही है....  पर अब कोई ट्यूबवेल या मशीन वहां नहीं है....थोड़ी ही दूर पर नाना जी का बनवाया हुआ टॉयलेट दिखाई दिया   खेतों में जाने की आदत न होने से हम सबको बहुत दिक्कत होती थी...उसके लिए एक कच्चे तौर पर शौचालय की व्यवस्था कराई गई थी.....उसे बिलकुल ध्वस्त हालत में देख कर जी भर आया  सब झाड़झंख़ाड  के बीच उजाड़ पड़ा हुआ.......उस समय आमों के बगीचे में कितने ही पेड़ ऐसे थे जिन पर हम आसानी से चढ़ जाया करते थे...अब वे पेड़ बहुत बड़े हो चुके हैं....और ज्यादातर काटे जा चुके हैं....





      गिनती के चार छ पेड़ ही दिखाई दिए.....हर तरफ घर और वो भी पक्के मकान बन जाने से सारी  लोकेशन ही बदल गई लगती है...साधू बाबा की कुटिया जो उस समय बहुत दूर लगती थी....अब सिर्फ ध्वस्त हालत में है....मड़ई बिलकुल टूटफूट गई है....बहुत बड़ा सा कुआं ..जिसमे हम बड़ी उत्सुकता से झांकते  और जोर से अपना नाम पुकार कर उसकी गूँज सुना करते थे...उस समय वो कुआं कितना बड़ा लगता था.....अब उस कुएं में पानी नहीं है....उसके अंदर बड़े बड़े पेड़ पौधे उग आये हैं....चारों ओर का चबूतरा भी काफी खस्ता हाल में है....  साधू बाबा उस चबूतरे पर किसी को चढ़ने नहीं देते थे......साफ़ सफाई ......और खरहरे से झाड़ू लगते हुए कितनी ही बार उन्हें देखा है...सम्मेमाई के  प्राचीन स्थान की जगह नए मंदिर का निर्माण हो गया है...वो पुराना पीपल का बहुत बड़ा पेड़ जिसके नीचे एक सांपों का जोड़ा रहता था,काट डाला गया है.....अनुष्ठान इत्यादि करने और लोगों के बैठने हेतु नए नए मंडपों का निर्माण हो गया है.....काफी कुछ शहर के मंदिरों जैसा....अब वो जगह सम्मेमाइ का थान कहलाने लायक नहीं है बल्कि टेम्पल ऑफ़ सम्मेमाइ जैसी हो गई है.....





हाँ यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि अब हर घर के सामने सरकारी शौचालय बना दिए गए हैं...जिस से काफी साफ़ सुथरा सा माहौल लगा....एक समय थोड़ी सी भी बरसात हो जाने पर जिन गलियों और सड़कों कि हालत बुरी हो जाती थी, वहां अब काफी अच्छी सड़कें (गाँव के हिसाब से ) बन गई हैं.....ऐसे कई घर जो उस समय झोंपड़ी या खपरैलों के रूप में थे उन्हें पक्के मकान के रूप में देख कर बहुत अच्छा लगा.....हालांकि उन्हें पहचान ने में काफी समय लगा 

क्यों कि मेरी याददाश्त में तो उनका वही रूप बना हुआ था.... कई लोगों ने अपने नए नए घर बनवा लिए हैं...केशव मामा  जी के घर जाते समय ऐसे बहुत से लोग मिले जिन्हे पहचान पाना मेरे लिए दुरूह कार्य  था...मम्मी के बचपन के साथी संडुल  मामा (घर में कहार का कार्य करने वाले ) से मुलाकात हुई, उन्होंने मुझे देखते ही कहा....".मालती बहिनी के  धीया हई न ?..एक दम्मे उनही के लेखां बाड़ी "...सुन के बहुत अच्छा लगा कि मुझे देख कर लोगों को मम्मी  की  याद आजाती है.....मैं उनसे करीब  ३० साल बाद मिली और उन्होंने मुझे पहचान लिया......फिर कई लोगों से मुलाकात हुई ...सभी बहुत प्रेम से मिले...मिलने की  इच्छा तो कई लोगों से थी, पर दुर्भाग्यवश उस दिन पट्टीदारी के ही किसी अभिन्न की  मृत्यु हो जाने से काफी लोग उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने चले गए थे ,   इस लिए बहुत से लोगों से मुलाकात नहीं हो सकी......



      केशव मामा जी के घर का सुस्वादु भोजन करने के उपरान्त हम लोग वापस आने के लिए चले, पर नाना जी का पुश्तैनी घर देखने की  मेरी बड़ी इच्छा थी,....इस वजह से हम लोग दूसरे रास्ते से वहां पहुंचे....नाना जी का पुराना घर अब वहां नहीं है...सिर्फ टूटी फूटी ईंटों और मिटटी का ढूह ही दिखाई दिया....पूरा घर तोड़ डाला गया है....छोटे नाना जी का घर अभी वहां है...पर वो भी जर्जरित अवस्था में है....बड़े बड़े लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे....काफी जर्जर हो चुके हैं...नाना जी की कचहरी गायों की गोशाला....सब अब धीरे धीरे अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं....या कहूँ खो चुके हैं तो ज्यादा सही होगा……

            सूर्यनारायण भैया के पिता जी वहां बैठ कर सरपत और मूँज के रस्सियाँ बनाया करते थे ...भीगे हुए मूँज या सरपत को पीट पीट कर मुलायम करना    फिर अपनी जांघो और हाथों की सहायता से बट कर रस्सियाँ बनाना बड़ा मजेदार कार्य लगता था.. ..मामा जी से मैंने रस्सी बनाना भी सीखा था....उन्हें मैंने अक्सर वही कार्य करते देखा था दिन भर में कई कई मीटर रस्सियाँ बना डालते थे....एक बार उन्होंने हमें बताया था कि हाथ से मल कर खाने वाली सुरती या खैनी को ३०० बार तक मल लिया जाये तो वो जहर का काम करती है....पता नहीं ये बात कहाँ तक सच है,  पर यह भी सच है कि हमने कई बार ऐसी चेष्टा की थी कि ऐसा जहर तैयार किया जाये, पर ऐसा संभव नहीं हुआ .....

          अक्षैबर  मामा जी के घर से ही थोड़ा आगे बढ़ कर तिर्जुगी मामा का घर था,   जिन्हे बचपन से ही थोड़ा मंदबुद्धि होने के कारण लोगों के मज़ाक का पात्र बनना पड़ता था....मुझे याद है ज्यादातर बड़े, यहाँ तक कि बच्चे भी उनसे मज़ाक करते थे , और वो अपनी सहज बुद्धि के हिसाब से उनकी बातों का जवाब नहीं दे पते थे, या देते भी थे तो उन्हें झिड़क दिया जाता था...पता नहीं क्यों लोग इतने निर्मम हो जाते हैं....मुझे सख्त नफरत है ऐसी ओछी प्रवृत्ति वाले लोगों से....मुझे उनके साथ बहुत सहानुभूति थी मैंने कभी कुछ ऐसा व्यवहार नहीं किया उनके साथ …जिस से मुझे शर्म आये....आज वो नहीं हैं....पर मुझे उनका वही चेहरा याद है....जब मैंने फोटोग्राफी पढ़ना शुरू किया तो बहुत शौक़ से अपने क्लिक ३ कैमरे  से वहां बहुत सी तसवीरें ली थीं....और तिर्जुगी मामा कितने सहज भाव से फोटो खिंचाने खड़े हो गए थे.....बेहद बचकाने पन से खींची हुई वे तसवीरें आज एक अमूल्य वस्तु हैं मेरे लिए......  
            
उनकी माँ को बड़का कहा जाता था....और उनके घर में ढेंकी (धान कूट कर चावल निकलने वाला प्राचीन घरेलू यंत्र )लगी हुई थी....जिसमे एक बहुत मोटे से गोल लकड़ी के लठ्ठे के एक सिरे पर मूसल जैसा बना होता था....पट्ट लिटा कर रखा हुआ वो लठ्ठा बीच में एक मोटी रस्सी के द्वारा छत  की बँड़ेरी से से बंधा होता था....दोनों सिरों पर जमीं में दो छोटे छोटे गड्ढे से होते थे जिनमे एक तरफ के गढ़े में धान या चूड़ा  जो भी कूटना होता था वो थोड़ा थोड़ा डालते जाते थे और लठ्ठे के दूसरी तरफ खड़ा हुआ व्यक्ति एक पैर उस लठ्ठे पर रख कर और छत से लटकी रस्सी के सहारे एक निश्चित समय पर लठ्ठे को धीरे धीरे ऊपर नीचे करता रहता था ...उस लठ्ठे पर उछल उछल कर ढेंकी चलाने में बहुत मजा आता था....पर उसे चलाने में बड़ी सुगढ़ता और फुर्ती चाहिए  थी कि जिस समय वो मूसल चावल वाले गढ़े में पड़े वहां से  बार बार धान डालने वाले हाथ हटा लिए जाएँ ...कई बार अनाड़ी हाथो की वजह से अभी हाथ हटाया नहीं गया और मूसल की चोट उस हाथ पर पड़जाती थी....यह काम इतने लयबद्ध तरीके से किया जाता था कि कई कई बोरी धान कूट लिया जाता था बिना थके....कहाँ विलुप्त हो गए ये सब यंत्र ??

ढेंकी  चलते वक़्त कितने मधुर गीत गाती रहती थीं महिलाएं....शायद थकान का पता न चलने देने के लिए........



        लिपे पुते (गोबर तथा पीली मिट्टी से )छोटे छोटे दरवाजों और खपरैलों वाले घर अभी भी स्मृतियों में ताजा हैं....अब तो काफी कुछ या कहूँ सबकुछ ही बदल गया है...तो सही होगा..अब बहुत सी चीजे जो उस समय सहज उपलब्ध हुआ करती थीं....उनका अभाव सा हो गया है....वो खूब मोटी गाढ़ी भूरे रंग की साढ़ी (मलाई वाली गुलाबी दही ) जो एक चौड़े मुंह की चपटी मटकी में दूध को खूब औटा कर जमाई जाती थी....कहीं नहीं दिखती.....पता नहीं अब वैसा दूध मिलना बंद हो गया है या गायें भैंसे दूध देना भूल गईं हैं या ग्वाले वैसा दही जमाना......विस्मृत कर चुके हैं...जो भी हो अब वैसा दही कहीं नहीं दीखता....गोरखपुर की दही एक ज़माने में बहुत मशहूर हुआ करती थी......मुझे याद है नाना जी मेरी शादी में भी विशेष रूप से वो दही बनवा कर लाये थे.....जो बड़े बड़े कनस्तरों में लाया गया था..उस दही की ये विशेषता थी कि वो इतनी गाढ़ी (कंसन्ट्रेटेड )होती थी कि सिर्फ एक कटोरी दही से एक भगोना दही तैयार की जा सकती थी....लगभग खोये जैसी गाढ़ी .....
      नाना जी बताते थे कि उनके बचपन में कोई दही वाला ऐसा था जिसकी जमाई दही को यदि हाथ में लेकर उछाल दिया जाये तो वो छत में चिपक जाती थी गिरती नहीं थी....और ये कल्पना नहीं हकीकत है......नाना जी के चले जाने के बाद फिर कभी वैसा दही नही मिल पाया और अब शायद कभी मिलेगा भी नहीं....खैर....ढेकही में कई लोगों से मिलने की इच्छा थी पर मुलाकात नहीं हो सकी.....कई लोग मुझे नहीं पहचान सके बहुतों को मैं नहीं पहचान सकी.....



इतना लम्बा अरसा, इतने बहुत सारे दिन बीत चुके हैं...सब अतीत बन कर खो गया है....परिवर्तन या बदलाव की ऐसी भूल भुलैया जिसका कोई ओर छोर पकड़ना अब संभव ही नहीं.....सब कुछ बदल गया है और बदलना ही पड़ता है इस से निजात नहीं.....वैसे सच कहूँ तो सारा कुछ वैसा ही है....वही घर वही लोग....कुछ चले गए कुछ आज भी हैं....पर वो भोले भाले दिन कहाँ रहे ?? सिर्फ हम बदल गए हैं......