लिखिए अपनी भाषा में

Tuesday, December 27, 2011

अदम के गाँव की पगडंडी .......



                 दिखने में तो ये किसी भी साधारण गाँव का रास्ता लग सकता है पर  ये कोई साधारण रास्ता नहीं है........ये अदम के गाँव की पगडंडी है.......जिसके लिए उन्होंने लिखा था....... 
         फटे  कपड़ों में तन ढांके ,गुजरता हो  जहाँ कोई..
          समझ लेना वो पगडंडी अदम के गाँव जाती  है..... 
आज इस रास्ते पर सड़क बनाने का काम शुरू हो चुका है... डी. एम्.  श्री राम बहादुर साहब  की   पहल  से ही यह काम प्रारंभ हो सका है...पर अफ़सोस है कि अब  अदम जी उस सड़क पर  से कभी नहीं गुजरेंगे........वो बूढा बरगद आज भी चुपचाप  खामोश खड़ा अदम जी का रास्ता देख रहा है.......जिसका जिक्र उन्होंने अपनी रचनाओं में कितनी ही बार किया है..........

               अदम जी की रचनाओं के बारे में कुछ कहना शायद मुझ जैसे मामूली इंसान के लिए बहुत मुश्किल  है.....मुझे इतनी समझ नहीं....आज जब अदम जी जैसे व्यक्तित्व  के बारे   में लिखने बैठी हूँ तो समझ नहीं पा रही  की क्या और कहाँ से शुरू करूँ ??.... अदम जी से हमारी मुलाकात  शायद ८७ या ८८ के दौरान हुई...उसी समय उनकी एक  पुस्तक.....धरती की सतह पर ..प्रकाशित हुई थी...जिसने तहलका मचा दिया था....
                               अतुल भैया (कुंवर अतुल कुमार सिंह ,मंगल भवन, मनकापुर )के मंगल भवन में आयोजित ....कवि सम्मेलनों में और आई. टी. आई. में आयोजित कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में उन्हें  बराबर सुना है और ह्रदय से सराहा  है ....
          मुझे याद है ......एक बार रात में ११ बजे अदम जी हमारे घर आये ...साथ में एक कवि मित्र भी थे...उस समय वे कैनवास की तलाश में हमारे पास आये थे .......चूंकि हम दोनों चित्रकार लोग हैं...तो रंग ब्रुश कैनवास ...हमारे पास आसानी से मिल सकता था.....भीष्म साहनी  जी के विशेष आग्रह ........पर दूसरे दिन सुबह ही ......उन्हें एक कविता पोस्टर प्रदर्शनी  में ...वो कैनवास भेजना था......उनकी एक बहुत प्रसिद्ध  ग़ज़ल .......उस पर लिखी जानी  थी.....रात भर  जाग कर मेरे पतिदेव ने वो कविता पोस्टर तैयार किया और भेजा.....
                     कई बार हमने घर में बैठ के इत्मिनान से उन्हें सुना है..और विभोर हुए हैं...ऐसा सौभाग्य बहुत कम मिलता है  ......मुझे बहुत ख़ुशी है  की ऐसे बहुत से अविस्मर्णीय अनुभवो की मैं भी   साक्षी रही हूँ.....
                   उनकी गजलें हर वर्ग के लोगों की जुबां पर हैं और इतने लम्बे अरसे पहले  कही जाने के बावजूद ......आज भी समसामयिक लगती हैं......उनका सच बात कहने का लहजा ऐसा तीखा  था  कि एक  बार जेल  तक जाने की नौबत आ गई थी...पर उनकी असीमित लोकप्रियता के कारण ऐसा संभव नहीं  हुआ.......ऐसी ही एक रचना के दो शेर जो मुझे बहुत पसंद हैं....
मैंने अदब से हाथ उठाया सलाम को ,
वो  समझे इस से खतरा है उनके  निजाम  को , 
चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें ?
चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को?...
             उन्हें दुष्यंत और नागार्जुन के समकक्ष रखा जाता है....पर शायद बहुत कम लोग ही ये जानते होंगे , कि सिर्फ प्राइमरी तक की शिक्षा  थी उनकी ......शायद कक्षा ६ तक ,परिस्थितियों  ने इस से आगे पढ़ पाने की इजाजत  नहीं दी थी उन्हें .....पर साहित्य में कितनी गहरी पकड़ और पैनी पैठ थी उनकी ...इस से सभी  वाकिफ हैं.....
            दुष्यंत का वारिस .....गोंडा का कबीर  ...ऐसे कई नामों से विभूषित किया जाता है उन्हें...पर इस बात का तनिक भी गुमान नहीं था अदम जी को....... ऐसे ऐसे शेर कह जाना  जो सुन ने वाले को चीर  कर धर  दें ...पर उनके चेहरे  से जरा भी आभास नहीं होता था कि वे वाह वाह के लिए तरस रहे हैं.....जब कि आज ज्यादा तर कवि मंच लूट लेने के लिए इतने अभिनय .....और अदाएं दिखाते हैं कि बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है..... पर बिना कोई दिखावा किये जब अदम जी शुरू होते थे ...........तो पूरे हाल में सन्नाटा हो जाता था.....कितनी बार ऐसा हुआ है कि ....जब अदम जी ने अपना पाठ शुरू किया है, ......लोगों ने दूसरे कवियों को उठने ही नहीं दिया.....कितनी ही बार सुनी हुई गजलें फिर फिर  ....सुनी जाती थीं.....चाहे  कितनी भी देर  हो जाये....लोग उन्हें सुनने के लिए बैठे रहते थे......

          पहली  दृष्टि में उनके व्यक्तित्व का कोई खास असर नहीं पड़ता  था (कम से कम मुझ पर तो नहीं पड़ा था.) सीधे सादे ग्रामीण वेश में  खिचडी  बालो  और छितरी मूछों वाले ...........कुरता ,धोती और बंडी  पहने ....बेहद विनम्रता  के साथ ..और .........कुछ कुछ हिचकते हुए बोलना....सभी पढ़े लिखों के बीच ....स्वयं को कम पढ़ा लिखा और छोटा बताना .........एक ऐसी  खासियत थी जिसकी कोई मिसाल नहीं.....पर उन्हें मंच पर देखना एक अनूठा  अनुभव था.....उनके एक एक शेर सीधे जाकर ....ह्रदय में धंस जाते थे.......सोचने   पर विवश  कर देते थे......
               उन्होंने अपनी जैसी पहचान बनाई........... और दिनों दिन उनके शेरों  में जैसा पैनापन बढ़ता गया.....और वही तेवर शुरू से अंत तक विद्द्मान   रहे ये बहुत बड़ी  बात है......उनके पास न कोई डायरी थी न ही वे कुछ लिख  कर लाते   थे.....पर उन्हें सब जुबानी याद रहता था ...यहाँ तक कि ...
मैं चमारों  की गली में ले चलूँगा आपको ...........
      जैसी बेहद लम्बी कविता  भी उन्हें पूरी कंठस्थ थी....और जिस तरह वे ठन्डे मस्तिष्क के साथ गजलें कहते थे.............कि सुनने वालो की शिराओ में खून उबलने लगता था......हर व्यक्ति  उन शेरों से .....खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता था.......
         उनकी कवितायें और गजलें ..वाह वाह नहीं करवातीं   बल्कि  वाह और आह का अंतर   भुला देती हैं......सुन कर कुछ देर के लिए निस्तब्धता छा जाती है...... 

            इधर  काफी  दिनों  से  अदम  जी  मुलाकात  नहीं  हुई  थी ....हाँ ये जरूर मालूम होता रहा की वे बीमार चल रहे हैं.....बीमारी इतनी ज्यादा बढ़ जाएगी इसका आभास नहीं था.......अचानक सुनाई देना कि अदम जी नहीं रहे......बहुत कष्ट पंहुचा गया......मेरी बहुत इच्छा थी कि..... मैं भी अदम जी के प्रिय गाँव में एक बार जरूर जाऊं .....जहाँ वे जीवन पर्यंत रहते रहे......जब कि थोडा सा भी चर्चित होते ही सभी शहर की तरफ   भागते   हैं.....पर   उन्होंने ऐसा नहीं किया......खैर.....
              मेरे पतिदेव अभी पिछले रविवार को अतुल भैया के साथ  उनके घर गए ..और  उनसे जुडी कुछ  यादों  के चित्र .......मेरे लिए लेकर आये.....उनका घर , उनकी पत्नी ,उनके पुत्र  के चित्र .......उन्हें मिले हुए ढेरों इनाम, उनका प्रिय बरगद ........और उनके घर तक जाने वाली पगडंडी.......सभी के चित्र ......अब मेरे संकलन में हैं.......जो मैं आप सभी से बांटना चाहती हूँ.......


            अदम जी ने   फलां शायर या कवि की जगह ली ..............या फलां शायर अदम जी की जगह लेगा .........ये कहना बेमानी है.....कोई किसी की जगह नहीं लेता.........हर व्यक्ति अपनी जगह स्वयं बनाता है.....अदम जी की जगह कोई नहीं ले सकता...........अदम जी भले ही आज सशरीर हमारे बीच नहीं हैं.........पर वे नहीं रहे.......ऐसा नहीं कहा जा सकता  .....वे अपनी रचनाओं में अमर हैं........पर ये सोच कर जरूर कष्ट  होता   है.....अब इतनी सशक्त भाषा में कौन ललकारेगा??...........
 सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को.......


अदम जी को विनम्र श्रधांजलि .......

Sunday, December 11, 2011

अफ़सोस है यार .(!!!!!!!).

                 



                        कभी कभी लगता है ....कि मेरे बारे में सभी यही सोचते होंगे कि मेरे पास सिवा पुरानी यादो में घिरे रहने के और  कोई काम नहीं.....?....तब  लगता है कि शायद कहीं   ये सच भी है ......जब इतनी अच्छी और खुशनुमा यादें जुडी हों आपके साथ........फिर इधर उधर क्यों देखें ?..मन ही मन में उन मीठी यादों की..... जुगाली करते रहना बहुत पसंद है मुझे..........पर एक अफ़सोस सा है मन में.......मुझे लड़ना नहीं आया आजतक.......
                    एक बेहद साधारण इंसान की तरह जीवन जिया है मैंने ......न काहू से दोस्ती न काहू से बैर  ......वाला सिद्धांत ...रहा  है अपना तो.........इसमें जरा बदलाव करूँ  तो.....ये कह सकती हूँ......सब कोऊ से दोस्ती न काहू से बैर.....कह सकती हूँ......मुझे याद नहीं कभी किसी से मेरी लड़ाई हुई हो............हाँ लड़ाईयां देखी हैं...... बहुत विकट रूप से लोगो को ........लड़कियों को झगड़ते देखा है.....मारपीट करते देखा है...  अपने बच्चों का झगडा निपटाया है......स्कूल में रोज ही इस परिस्थिति से आमना सामना होता है.......पर कभी खुद ......किसी से झगड़ नहीं सकी..........तमन्ना ही रह गई.....कोई बहन  नहीं जिसके साथ लड़ाई हो.....हाँ भाई जरूर लड़ता था .........पर उस समय मुझे ये कह कर चुप करा दिया जाता था.....बेटा तुम बड़ी हो न...जाने दो लड़ाई नहीं करते........वो बड़े पन का अहसास कभी नहीं गया..........सहेलियों से जब कुछ अनबन होने की नौबत आई .....तो मेरा अंतर मुखी स्वभाव सामने आगया.......चुप रह जाने की आदत........फिर शादी हुई.......तीन तीन ननदें.....पर कोई झगडालू  नहीं....मेरी सास जी......  ....सीधे पन और भोले पन की मिसाल.........शायद परंपरागत  ससुराल में ज्यादा समय रहना पड़ता तो.....कुछ लड़ने का तरीका मैं भी सीख लेती....लड़ाइयाँ    हुईं    हैं पर मुझसे       किसी की लड़ाई नहीं हुई........ वहां पर भी ऐसा नहीं हो सका......पतिदेव मेरे स्वयं के चुने हुए हैं.....तो उनमे कोई कमी निकालने का मुझे कोई हक नहीं.....पर मुझे लगता है.....कि सीधे पन और सज्जनता   की अगर कोई हद होती है तो वो मेरे पतिदेव पर आकर ख़त्म होती है.......कभी किसी के मुंह  से उनकी बुराई नहीं सुनी मैंने.......( कोई करता तो शायद मैं उसका मुंह नोच लेती..उस से लड़ लेती.......पर यहाँ भी मुझे निराशा ही मिली है.......)हाँ पतिदेव से .....किसी बात     पर असहमत    होने पर हमेशा    की तरह ..........एक  दो दिन     बात    चीत    बंद    बस  ........... ...लड़ाई ...    फिर भी नहीं........फिर सुलह   ...........(मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत होती हूँ    और वो मेरी बात से.......सो  .ऐसे मौके  बहुत कम आते हैं...)......


                           जानपहचान की कुछ महिलाओं को ......सब्जी वाले...काम वाली बाई ..सफाई करने वाली....हर एक से झांव झांव करते देखा है.......पर खुद कभी हिम्मत नहीं कर पाई ......कभी कभी सोचती हूँ......कैसे कमर  पर हाथ रख कर ......चीख चीख कर .......हाथ नचा नचा कर लड़ लेते हैं लोग......हे भगवान्..............अपने स्कूल स्टाफ के बीच में कभी कभी बहुत गरमागरम वार्तालाप भी देखती हूँ.................पर अफ़सोस है कि वहां भी अभी तक ऐसा मौका नहीं मिला मुझे.......ट्रेन में सीट के लिए.........दूकान में सामान के लिए.....दूध वाले से दूध में पानी मिलाने के लिए.....ये सब कुछ बातें ऐसी हैं...जिनका कोई अंत नहीं............पर मुझे आज  तक अवसर नहीं मिला......एक अध्यापिका  होने के कारण....हमेशा से एक आदर वाले भाव से ही.... सभी मिलते हैं......संतोष की बात है अभी भी ये भावना बची हुई है कुछ लोगों  में......
                       एक दूसरे की मिटटी पलीद करना और .............एक दूसरे की माँ बहनों के साथ अपने नजदीकी सम्बन्ध बना लेना .........तो बहुत मामूली बात है............पुराने   गड़े  मुर्दे  खोदे    जाते हैं....जाने कहाँ कहाँ की बातें निकाली जाती हैं.......हे भगवान्............खैर और इस हद तक लड़ने के बाद ......फिर कैसे बात कर लेते हैं उनसे.....भगवान् ही जानता है......... मेरा झगडा इस हद तक किसी से हो जाये ........तो शायद मैं जीवन भर उस व्यक्ति से बात न कर सकूं....उसकी शक्ल तक न देख सकूं............. पर भगवान् की बड़ी कृपा है......आज तक मैं इस सुख से वंचित हूँ......और शायद......ये मेरा सौभाग्य है.......भगवान् से यही प्रार्थना  है कि वे  मुझे ये सुख कभी न प्रदान करें......आमीन   ......

Tuesday, December 6, 2011

कैसे हमदम कैसे दोस्त ...

                   
                             कल  अपने कॉलेज  के    मित्र गणेशन की शिकायत पर  कि........कुछ मित्र हमारे संदेशों का जवाब क्यों  नहीं देते??.......बहुत देर तक सोचती रही ...............कि आखिर ऐसा क्या हो जाता है..........कि हम संदेशों का जवाब तक देने में कतराते हैं???........... सिर्फ हाँ....हूँ....या फिर झूठे ही हाल चाल पूछ लेने में किसी का क्या जाता है??.......ये महज एक औपचारिकता ही तो है......हमारे हाल कैसे भी हों....उसके लिए कोई क्या कर लेगा...........हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे....न कोई किसी को कुछ देता है न ...न कोई किसी से कुछ लेता है.....फिर??..........पर सिर्फ एक औपचारिकता निभाने से ..........अगर  किसी को कुछ ख़ुशी या तसल्ली मिलती है .......तो क्या हम उतना भी उसे नहीं दे सकते??.....   व्यस्त  रहना अच्छी बात है......पर इतना व्यस्त रहना??......
                           इस रफ़्तार  भरी ज़िन्दगी में......हम कितनी कोरी  ज़िन्दगी जीने के आदी हो गए हैं......कि उन रिश्तों को भी नहीं निभा पाते.......जिनके बिना हमारी ज़िन्दगी अधूरी है....कभी जगह की दूरी.....कभी दिलों की कडवाहट .......हमारे रिश्तों में एक ऐसी दरार डाल  देती है कि उन रिश्तों की अहमियत का अहसास ........हमें या तो किसी अपने की मृत्यु  के बाद होता है या फिर रिश्तों के टूटने   पर.......

                               अभी कुछ दिनों पूर्व मैंने......प्लान   बनाया .....की चाहे फेसबुक  या अन्य किसी माध्यम से भी ........अपने पुराने मित्रो को खोजा जाये......और मैं इस प्रयास में सफल भी हुई......एक दूसरे के माध्यम से ..........कई पुराने  मित्र......जिनकी स्मृतियाँ ....कहीं बहुत गहरे  दबी पड़ी थी.....पुनः उभर आईं......और ये इतना संतुष्टि दायक प्रकरण रहा.....जिसकी मुझे उम्मीद भी नहीं थी.....कॉलेज छोड़े हुए लगभग २२ या २३ वर्ष बीत चुके हैं........इस दरम्यान....नदियों में कितना पानी बह चुका है.....कितना समय बदल गया  है.........परिस्थितियां  बदल गई हैं.......हम सभी लगभग आधी सदी जी चुके हैं......सबके बालों में चाँदी  के तार चमकने लगे हैं........सभी के बच्चे बड़े हो गए हैं.............या उस उम्र में हैं.....जब हम सभी मित्रों की दोस्ती शुरू  हुई थी......पर अभी जब उन सबसे मुलाकात  हुई....फ़ोन पर ही सही......( सचमुच अभी तक ज्यादातर को इतने सालों  से देखा    नहीं हमने  ....अभी तक रूबरू  नहीं हुए...)...पर  लगा ही नहीं कि हम इतने अरसे बाद मिल रहे हैं...वही उत्साह.....वही उमंग.......बहुत अच्छा लगता है सबसे बात करके.......
              पतिदेव ने भी अपने कई मित्रों को ढूंढ  निकला......और बातचीत का ऐसा समां बंधा कि लगता ही नहीं ....अब सब दादा  नाना बनने  की उम्र में पहुच चुके हैं. .......... कईयों  की बहुए आ चुकी हैं...........दामाद आ चुके  हैं.........पर  ......वही चुहलबाजियाँ .....वही हंसी मजाक.......वही पुरानी मस्ती  भरी बातें........अपने कॉलेज टाइम  में की हुई बदमाशियां..और शरारतें.....जिन बातों  के लिए आज जब हम अपने बच्चों को डांटते  हैं .......तो ये जरूर याद आता  है की ये सब तो हम भी किया करते थे........पर इन बातों के साथ साथ अब हमारे बातें करने  के कुछ टॉपिक बदल गए हैं......अब हमारी बातो में हमारे बच्चे भी शामिल हैं.........वे क्या करते हैं...........उनके लिए क्या सोचा है......उनकी शादी   कहाँ करनी है??.....लड़का देखा या नही.....बेटो की बाते बहुओं  की बातें.........दामादों की बातें.............घर बनवाया या नहीं........रिटायर  होने  के बाद क्या करना  है......?..... वगैरा वगैरा भी शामिल हैं........ देखते देखते कितना समय बीत गया है.......लगता है अभी तो नौकरी शुरू की थी.....अब रिटायर  भी होने जा रहे हैं........
     
                             पतिदेव के बहुत खास मित्र राजीव दा  तो लगता ही नहीं  ..........कि कभी बड़े होंगे .....जबकि वे दो विवाहिता बेटियों के पिता हैं.....आज भी ...........उतने ही जीवंत और हंसमुख........उनकी शरारतों  से पूरा कॉलेज और हॉस्टल परेशान रहता था......कुछ पुराने     मित्र     जो उनके    साथ    होस्टल    में थे  .......बुरी    तरह   त्रस्त   रहते थे  उनकी  हरकतों  से ..........होस्टल में हुई किसी भी शरारत की शुरुआत  उन्ही से होती थी.......हर खुराफात    की जड़    में उनका हाथ     जरूरी था.........इस    बात    को लेकर   कई बार मित्रो से ......उनकी लड़ाई नाराज़गी   भी हो जाती थी पर वे  बाज  नहीं  आते  थे ..........मेरे पतिदेव स्वयं भुक्त भोगी हैं...............और आज भी राजीव दा  मौका मिलने पर ....किसी को भी छोड़ने वाले नहीं है...........जाने कहाँ कहाँ की..... खुराफातें सूझती हैं उनको........और मजे कि बात ये है ...........कि मेरे पतिदेव भी खूब  रूचि लेते हैं उनके साथ.........राजीव दा एक प्रतिष्ठित   अखबार    में चीफ    ग्राफिक आर्टिस्ट   हैं...और साथ ही बहुत ही अच्छे कार्टूनिस्ट   भी   ..........तो     कभी   कभी   उस   विधा   का प्रयोग   वो   ..मेरे   पतिदेव  के चित्रों का कार्टून बनाने में करते  हैं......अलग अलग लोगो के शरीर पर .......इनके मुंह     का चित्र...या फिर  किसी टॉपिक पर इन्हें माडल  बना कर ...........इनके कार्टून अक्सर भेजते रहते हैं......... वो चित्र बना कर मुझे ई  मेल  करते हैं ............और .  जब तक  हम   वो चित्र देख न लें  ...तब तक .....कई बार उनका फोन आ  चुकता है .........देखो हमने कुछ भेजा है..........फिर हम सबके खूब ठहाके लगते हैं.........कुछ कोड वर्ड      में इनलोगों    ने एक दूसरे के नाम बना रखे  हैं....जो एक दूसरे  को    पुकारने   में प्रयोग किये जाते हैं.... ........कई बार  ऐसा हुआ है कि आधी रात में राजीव दा का फोन   आया  है ....कि कोई बढ़िया  जोक या मेसेज  भेजो.....ट्रेन में हैं.......बोर हो रहे हैं........और हमने मेसेज भेजा है...........और भेज भेज कर उन्हें  भी   खिझा दिया है............कभी कभी ....चलो  यार फलां का नंबर ..... मिलाओ  उसको गरियाया जाये.....इस तरह  की बातें सुनकर .........कभी कभी मैं ही इनलोगों को टोकती हूँ ........कि आप लोग बड़े कब होंगे  ??........ये सब क्या है........पर  मित्रों के साथ ........एक ऐसा ही माहौल बन जाता है................कि अपनी  वही पुरानी ज़िन्दगी जीने का मन होता है..........वो चुलबुला पन वो मस्ती.......मधुबन (कोलेज  की  कैंटीन )  में जा   कर चाय   पीना   ........टूर   में किये हुए   गुल गपाड़े ..........तब हम सभी .....इन्द्रा भी....(राजीव दा की पत्नी )  उनके बच्चे ..........हमारे बच्चे .....सभी कॉलेज  की बातें सुनकर खूब एन्जॉय करते हैं.............चूंकि हम दोनों पति पत्नी एक ही कॉलेज  से पढ़े हुए हैं..............और  ज्यादातर......पुराने मित्रों को हम दोनों ही जानते हैं........तो ये आनंद  और दुगना हो जाता है......


           याद आता है......मेरी एक बहुत प्यारी सहेली जो अब हमारे बीच नहीं रही.....राजश्री  सिन्हा......कभी हम दोनों मिल के ये सोचा करते थे......जब हम लोग बुढ्ढे हो जायेंगे... ......तो सब फाइन आर्ट्स  के दोस्तों को इकठ्ठा करेंगे...और तीर्थयात्रा पर चलेंगे . एक बार हम लोगो ने कुछ स्केचेस भी बनाये थे कि जब हम लोग बुढ्ढे होंगे तो कैसे दिखेंगे.......काश......

          और भी कई दोस्तों से बातें होती रहती हैं.........अच्छा लगता है .........सब अच्छी अच्छी जगहों पर कुछ न कुछ बढ़िया काम कर रहे हैं.........जिनसे बात की और .........उन्होंने उतना ही अच्छा रेस्पोंस दिया तो  खुद को भी अच्छा लगा..................पर कुछ लोग ऐसे भी हैं...जो बहुत ज्यादा व्यस्त हैं.......या शायद  व्यस्त दिखने का दिखावा करते हैं पता नहीं.........इंसान कितना भी व्यस्त हो.......पर कुछ पल ऐसे जरूर निकाल सकता है.........जब वो सिर्फ अपने लिए जिए......सारी टेंशन को भुला कर.... ......और वो टेंशन सिर्फ पुराने दोस्त ही दूर कर सकते हैं......अब इस उम्र में .........वे आपकी कोई बुराई नहीं करेंगे...न ही आपकी किसी लड़की .....या लड़के से दोस्ती देख कर जलेंगे.....न ही किसी खास अध्यापक को .....आपका पक्ष लेने के  लिए कोसेंगे...................अब ये बहाना  भी नहीं बनाया जा सकता कि .......आने जाने का टाइम नहीं है.......क्यों कि हर हाथ में फोन है.....और कभी भी ..........कहीं भी बात की जा सकती है.........पर इसके लिए भी इच्छा होनी चाहिए.....पर कुछ खास मित्रो का व्यवहार  देख कर ......यही महसूस हुआ.....कि वे या तो खुद को बहुत बड़ा समझते हैं ......या हमको बहुत छोटा.........जो भी हो.......


               इसी  से  इतनी  उम्र  और अनुभव    के  बाद  मेरा  तो  यही  मानना    है  कि  जो  प्रेम   से  बात  करे  ..उसे  वैसे  जवाब  दो .....नहीं  तो  कोई  किसी  को  क्या  देता  है ......जब  तुम   किसी  से  प्रेम  से  बोल   भी  नहीं  सकते  ....तो और क्या कर सकते हो?...........जिनके  साथ  जीवन  के  सबसे  अच्छे  ९  ...१०  साल   बिताये   हैं ...उनको  सिर्फ  जवाब   देने   में  इतनी  तकलीफ  ???...तो  जाओ .....अपना  काम  करो ........यहाँ  किसके  पास  फुर्सत  है ....है  न ......मस्त   रहो ......

Friday, December 2, 2011

मेरी प्रिय किताबें और मैं.....

                            




                     मुझे किताबों से अच्छा  कोई गिफ्ट नहीं लगता ........आज  ही नहीं बचपन से ही किताबो के प्रति जो मेरा प्रेम भाव बना हुआ है..........(बेशक कोर्स की किताबों को छोड़  कर ) वो आज भी वैसे ही बरकरार है......किताबों को देख कर ............मैं खुद को रोक ही नहीं पाती..............अगर मुझसे पूछा जाये .............जीवन  में सबसे सुखद क्षण  कौन से होंगे  आपके लिए.?? .......तो मैं यही कहूँगी.....छुट्टी का दिन......साफ़ स्वच्छ बिस्तर......हाथ में चाय से भरा  मेरा मनपसंद बड़ा मग  ...जो मेरे बेटे ने मुझे गिफ्ट किया है......(जिस पर लिखा है ..यू आर द  बेस्ट मदर .).......और  मेरे मनपसंद  साहित्यकार.........(जिनकी लिस्ट बहुत लम्बी है ) की खूब बढ़िया किताब... ......नहाने धोने और खाने की कोई जल्दी नहीं........  इस से ज्यादा बढ़िया दिन मेरे लिए और कोई नहीं हो सकता ...........


                           इधर बहुत दिनों से पेंडिंग   पड़ा हुआ काम .....अपनी किताबो की आलमारी साफ़ करना....आखिर इस दशहरा और दीवाली की छुट्टियों में  हमने  निबटा ही डाला.......इतनी सारी किताबो की साजसंभाल  ...सचमुच  एक बड़ा भारी काम है......सारी किताबों को निकाल कर धूप दिखाना....सफाई से पोंछ कर कटी फटी जगहों को चिपकाना  ........कहीं जरूरत हो तो जिल्द चढ़ाना.....बहुत दिल कडा करके कुछ ऐसी किताबें .......जो सचमुच एक कबाड़  ही बन चुकी थीं उन्हें हटाना....(मैं मानती हूँ कि किताबें कभी भी कबाड़ नहीं हो सकती )पर सचमुच कुछ इस हाल में आ चुकी थी कि जिनके पन्ने छू भर लेने से मिटटी में मिल जाने को आतुर थे.....तो उन्हें मृत ही घोषित कर दिया हमने........बहुत  सारी  ऐसी पत्रिकाएँ ......जिनकी अब कोई आवश्यकता नहीं रही....बहुत सी अखबारों की कतरनें........पुराने अखबार......जो पता नहीं किस कारण से अभी तक संभाल कर रक्खे  गए थे.....उनको पूरा खोल खोल कर देखना कि.... क्या पता कुछ ऐसा निकल ही आये...जो जरूरी हो.......पापा जी के पुराने बक्से में भी ऐसा बहुत कुछ हुआ करता था.....पापा जी की डायरियां........ उनके लिखे हुए नोट्स.........कुछ छोटे छोटे  संस्मरण.........कोई खास आर्टिकल.......कुछ विशेष.......लेख.......जो कभी काम नहीं आ सके   .....पुरानी पत्रिकाओं से काट कर निकाले हुए.....कविताओं के संकलन.........मम्मी कितना नाराज होती थी........कि क्या ये बेमतलब का बवाल....... काट काट कर इकठ्ठा करते रहते हैं.....तो पापा जी उनको यही कहते थे देखना ये सब मेरी बेटी संभाल के रखेगी........मुझे बहुत दुःख है .....पापा जी ....कि........... मैं नहीं संभाल पाई उन्हें...... अब अपना ही इकठ्ठा किया हुआ.........देख के लगता है कि क्यों जोड़ रही हूँ ये सब???...कौन पढ़ेगा??.........फिर    भी  बटोरती  ही  जा  रही  हूँ ........
                 कितनी ही किताबें   ऐसी निकल आई .........जिन्हें एक अरसे बाद देखने से ये महसूस हो रहा है..... कि वे मेरे लिए बिलकुल नई  हैं ...फिर  से उन्हें पढने में वैसा   ही आनंद  आएगा ...........अभी २५ सितम्बर को पतिदेव  से उपहार में मिली १२ किताबो में से ४ किताबें  भी अभी नहीं पूरी नहीं पढ़ पाई हूँ.........

               मैं क्यों पढ़ती हूँ ?? ....या बिना पढ़े क्यों नहीं रह पाती हूँ??..या हर समय क्यों पढ़ती रहती हूँ ??........... ये मेरे लिए बहुत विकट प्रश्न है..........मैं कुछ भी पढ़ सकती हूँ.....अगर पढने के लिए कुछ नहीं है तो पंचांग और रेलवे टाइम टेबल  से लेकर फ़ोन डाइरेक्टरी  तक ....झाडू लगते वक़्त कूड़े में पड़े चिरकुट  तक  सब कुछ  पढ़ लेती हूँ......और मजे की बात है सबमे कुछ न कुछ अच्छा मिल ही जाता है....अभी मम्मी के नहीं रहने पर जो उनके लिए पूजा इत्यादि  हुई थी....उस वक़्त पूजा के लिए कपूर जिस पुडिया में लपेट कर लाया गया था......वो पुडिया संयोग वश मैंने ही खोली........और आदतन उसमे .....लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ पढने का लोभ ......नहीं संवरण कर पाई.....और मुझे देख कर बड़ी ही हैरत और दुःख हुआ...कि वे पंक्तियाँ किसी ...बच्चे ने  अपनी माँ के लिए लिखी थी...........शायद किसी डायरी का पन्ना था वो.......उस माँ के लिए जो शायद घर छोड़ के चली गई थी या दुनिया छोड़ के ........ये साफ़ नहीं था...पर उस बच्चे का पूरा दुःख बयां हो  रहा था........वो पृष्ठ आज भी मेरे पास सुरक्षित है........हम सभी मम्मी के लिए  दुखित थे......उसमे उस पृष्ठ  ने जैसे   मरहम का काम किया.......

                      अपने यहाँ की घरेलू सेविका  सोना को देखती हूँ .......जो एक अक्षर भी नहीं पढ़ सकती.......तो यही सोचती हूँ की उसे क्या बिलकुल भी दुःख नहीं होता होगा ??/.........इतनी रंगबिरंगी सुन्दर पुस्तकें देख कर उसमे लिखे हुए शब्दों को देख कर ..........कि आखिर उनमे  ऐसा क्या लिखा होगा??.........उसे कोई उत्सुकता  नहीं जगती होगी???.................मुझे बहुत हैरत और दुःख हुआ.............जब उसने मुझसे पूछा कि आखिर मैं इतनी बड़ी बड़ी पेंटिंग्स क्यों बनाती हूँ और उनका उपयोग क्या है?...........मैं समझ नहीं पाई कि... उसे क्या उत्तर दूं ???........इतनी सारी किताबें क्यों खरीदती हूँ और ........जब उन सब  किताबों की पढ़ लिया गया है .......तो बजाये  रद्दी वाले को बेच देने के इन्हें आलमारी क्यों सजा के रखा गया है????.......अब इस तरह की बात करने वाले के प्रश्नों का कोई उत्तर ........समझ में आता है क्या????..सिवा दांत  पीस के रह जाने  के..........या फिर अपना सर पीट लेने के......

Thursday, November 10, 2011

हमारी मीना जिज्जी






           अपनी ससुराल में जब मैंने पहली बार  कदम  रखा....उस समय एक अजीब सा भय या संकोच जो भी कह लें...... मन मस्तिष्क पर पूरी  तरह हावी था......और वो  यह कि पता नहीं मेरी सास या ननदें कैसी होंगी.....    लोगों से किस्से सुन सुन कर एक अजीब सा हौव्वा सर पर सवार था कि एक ही ननद या सास को बर्दाश्त कर पाना मुश्किल होता है यहाँ तो  तीन  तीन  ननदें थीं .....जिनमे  से एक कुंवारी भी थी ...( ! ) फिल्मों में देखा और सुना था कुंवारी ननदें हर समय सास (माँ) को उल्टी सीधी पट्टी पढ़ाती रहती हैं....शिकायतें करती रहती हैं.......कुछ काम धाम नहीं करती ......आराम  करती रहती हैं  और भी जाने क्या क्या......पर इस मामले में मैं खुद को बहुत खुश किस्मत मानती हूँ कि मेरी तीनो ही ननदें मुझे इतनी अच्छी मिलीं हैं कि .... अब तो मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि अगर  मुझे फिर से स्त्री जन्म लेना पड़ा  और शादी करनी  पड़ी .........तो मुझे ननदों के रूप में वही चाहिए हर जनम में.......वैसे  .......मैं अपनी सबसे छोटी ननद जो मेरी हमउम्र है..........उस से सबसे ज्यादा अटैच  हूँ......मेरी शादी के  ४ साल बाद उसकी शादी हुई......इस लिए भी  उसके साथ रहने का मुझे कुछ ज्यादा अवसर मिला......

            मीना जिज्जी के बारे में लिखने जा रही हूँ.........वो भी उनके नहीं रहने पर,..  ये सोच कर थोडा दुःख सा महसूस हो रहा है.........अपनी   ससुराल के मेरे सबसे फेवरिट लोगो में मीना जिज्जी तीसरे नंबर पर हैं....( पहले नंबर पर तो पतिदेव, और दूसरे नं पर मेरी सासू माँ विराजमान हैं न . )    बेहद सामान्य शक्ल सूरत और कदकाठी की मालकिन होने के बावजूद जिज्जी दिल की बेहद सुन्दर थीं.....कभी भी किसी की बुराई उनके मुंह से नहीं सुनी न ही कभी किसी को उल्टा सीधा कहते सुना.......कभी किसी भी बात का बुरा नहीं मानना.....मैं जानती हूँ कि ऐसा  नहीं हो सकता कि उनको किसी की बात का बुरा न लगता हो.....या कोई बात बुरी न लगती हो.....पर वे कभी जाहिर नहीं करती थीं..........उनके सीधे पन को देख  कर लगता ही  नहीं था कि वे इतना पढी लिखी हैं....और अगर वो नौकरी छोड़  नहीं देतीं तो शायद आज प्रिंसिपल की पोस्ट से ही रिटायर होतीं........पहनने - ओढने.....जेवर ...चूड़ियों इत्यादि का बेहद शौक़ था उन्हें......हर साड़ी के साथ मैचिंग चूड़ी जरूर खरीदती थी.....  और उनकी साफ़ सफाई, घर का रख रखाव इत्यादि देख कर जी खुश हो जाता था सभी का.....   कोई भी काम बड़े ही इत्मीनान और धैर्य के साथ करना.....इतने धैर्य के साथ ...  कि देखने वाले धैर्य  खोने लगते थे........उनकी रसोई में....कई बार रात को ९ बजे के बाद ......खाना क्या बने ?   .....ये सोचा जाता था............जिज्जी अगर  किसी काम से अपना बक्सा खोल लें .....तो फिर कम से कम दो घंटे की छुट्टी हो जाती थी.....सारी चीजों को निकाल कर फिर से जतन के साथ वापस लगाना......उनका मनपसंद काम था..........उनके द्वारा सिर्फ तह कर के रखे हुए कपड़े किसी भी धोबी के प्रेस किये हुए कपड़ों से बराबरी  कर सकते थे.....एक एक कपडे को सिलवटें मिटा मिटा कर.... दबा दबा कर तह करना मैंने उन्ही से सीखा.....(पर कभी अमल में नहीं ला सकी जिसका मुझे अफ़सोस है )...पुरानी शीशियाँ ,बोतलें...या जार जो भी खाली होते जाते...उन्हें खूब साफ़ करके जमा करती जातीं...कि पता नहीं कब जरूरत पड़ जाये.......सैकड़ों की संख्या में  पोलीथिन बैग्स  उनके बाक्स में तह कर के रखे रहते..... ....सभी उन्हें इन कामों  के लिए बहुत चिढाते ......पर वे सिर्फ हंस कर टाल जातीं......अपनी तीनो बेटियों के लिए ........अच्छी अच्छी फ्राक्स और कपड़े सिलना उन्हें बहुत पसंद था.........सिलाई मशीन ...हमेशा तैयार पोजीशन   में .....टेबल पर  रखी रहती.......मेजपोश...चादरें...सभी अटैचियों और बक्सों के कवर ....झालर  तथा लेस लगे हुए ....सुन्दर तरीके से सजे रहते.....एक बार मैंने उनसे पूछा भी था कि जिज्जी कैसे आप सब चीजों पर कवर लगा लेती हैं......( सच पूछें तो मुझे थोडा उबाऊ. लगता है ये सब )....तो जीजा जी हँसते हुए बोले थे.....इनका बस चले तो हमारे ऊपर भी कवर चढ़ा के रख लें...... ... जिज्जी की बेटियां भी ...घरेलू कामों में उनकी तरह ही सुघड़ हैं... ....बच्चों से तो ज्यादा संपर्क नहीं रहा हमारा पर जितना भी रहा..........यही महसूस हुआ ........कि जिज्जी ने अपने सभी गुण अपनी बेटियों को सिखा दिए थे.....  किसी के भी आने पर स्वागत सत्कार की कोई सीमा नहीं ........लगता  था कि वो अंतरमन तक प्रसन्न हैं....कि क्या क्या कर दें.... क्या क्या खिला दें.....

               वैसे    सभी भाई बहनों प्रति  अगाध प्रेम  रहा है उनका.............पर हम पति -पत्नी उनके कुछ विशेष स्नेह के पात्र रहे हैं  ...... मैंने अपने विवाह से पहले .....उन्हें एक साडी  पेंट करके  दी  थी.....मुझे याद है गुलाबी  रंग  की वो साडी  ......जिस पर पंख फैला कर नाचते हुए मोर बनाये थे मैंने......... मैंने सिर्फ पेंट ही  किया था.......जब  कि वो साड़ी उन्ही की  भेजी हुई   थी......पर वो सबको यही बताती थीं कि.........  गुडिया ने मेरे लिए साड़ी बना कर भेजी है.......दोबारा भी कई बार जिक्र हुआ  पेंट करने का पर अफ़सोस है कि  ....मैं पुनः नहीं भेज पाई.....आजकल -आजकल की प्रतीक्षा में ही समय निकल गया.............अब इतने प्यार और इच्छा के साथ कौन कहेगा..... कि एक साड़ी फिर से पेंट कर दो  हमारे  लिए......?? 
                  .पतिदेव बताते हैं........कि बचपन में जिज्जी ने अपने हाथ से कपड़े सिल कर पहनाये हैं उन लोगों को.....और किसी भी जरूरत पर हमेशा साथ खड़ी  रही हैं.......मेरी शादी के बाद से ये सिर्फ चिढाने  के लिए उन्हें फोन पर भी बार बार कहते रहे  हैं........कि जिज्जी बहुत दिनों से कोई कपड़ा नहीं दिया हमको........और एक दो सूट सिलवा दो हमारे लिए........और वो हमेशा हंस कर यही कहती रहीं ..देंगे .... देंगे.....जरा ये काम हो लेने दो ......जरा ये काम निबट जाने दो.....और ये बार बार कहते .....अभी हमारा सूट बाकी है..... .... प्रतिउत्तर   में जिज्जी का खुल कर हँसना याद आता है.......संयोग ही कहेंगे.....   कि अभी कुछ दिन पहले ही जिज्जी ने इनके लिए पैंट  शर्ट का कपडा और मेरे लिए ....बहुत सुन्दर सी साडी भेजी थी......    और वो उनका अंतिम उपहार हो गया हमारे लिए.....

           इधर करीब दो तीन साल  से जिज्जी कुछ ज्यादा अस्वस्थ रहने लगीं थीं.....सभी के और डाक्टरों  के बहुत मना  करने के बाद भी ...  .......वे अपनी मिर्च और सुपारी खाने   की आदत पर कंट्रोल नहीं कर पा रही थीं......चुपके से खाती रहतीं.....ताज्जुब है की इतनी मिर्च खाने के बावजूद जिज्जी इतनी मीठी कैसे थीं.......  

                    जीजाजी ने बहुत सेवा की उनकी.....जिज्जी की बेटियों और दामादों का भी बराबर आनाजाना  लगा रहता  था...... ......कभी कभी बेटा न होने का दुःख उन्हें सालता था.....तीनो बेटियाँ बेहद प्यारी होने के बावजूद भी ..............आखिर दूसरो के घरों की ही अमानत हैं....हमेशा तो साथ नहीं रह सकतीं.... ...........कभी कभी उनकी बात से यही जाहिर होता की काश एक बेटा भी होता उनको.......
                 तीसरी बेटी की संतान को भी ......अपने सामने ही पैदा  होते देखना चाहती थीं.जिज्जी....और इतनी तबियत ख़राब होने के बाद भी   .....उन्होंने उसे पहले महीने  से ही उसे अपने पास बुला लिया था.....जब उसका आठवां महीना चल रहा था....तभी अचानक उनकी तबियत खराब हो गई.......और ऐसी स्थिति हो गई कि ..... फ़ौरन रायबरेली से लखनऊ ले जाना पड़ा.....कोमा जैसी स्थिति   शुरू हो गई थी.......यहाँ करीब एक हफ्ते तक जूझने के बाद डाक्टर्स ने उन्हें वापस ले जाने की सलाह दी...........और सिर्फ दुआओं का सहारा लेने को कहा.....पर अनोखा संयोग रहा कि ऐसी स्थिति में आने के बाद भी जब वो रायबरेली वापस पहुंची......तो सिर्फ अपनी इच्छाशक्ति के बल पर दोबारा ठीक हुईं .............उस वक़्त हम सब उनसे मिलने गए थे......तब बिलकुल सुस्त लेटी हुई जिज्जी धीरे धीरे उठ कर बैठीं......फिर कुर्सी पर आकर बैठीं......      उनकी सजगता  देख कर बहुत  अच्छा लगा.....हम सभी को देख  कर वो इतना अधिक ...खुश थीं  कि लगता ही नहीं था कि..... अभी वो एक हफ्ता पहले    ही   कोमा से वापस आई हैं.....कुछ दिनों बाद ही राखी का त्यौहार था ....और बहुत सालों बाद मेरे पतिदेव राखी के आसपास जिज्जी के साथ थे......इन्होने सिर्फ एक बार कहा.....जिज्जी अबकी अभी ही राखी बाँध दो.........और वे तुरंत उठ खड़ी हुईं.....राखी बाँधने  के लिए......बेटियों के बहुत खोजने पर भी कहीं रक्खी हुई राखी नहीं मिली तो वे स्वयं खोजने लगीं ..... उन्हें बहुत दुःख हुआ जब राखी नहीं मिली........सबके बावजूद उनका उत्साह देखते ही बनता था.....हम सभी को बाहर गेट तक छोड़ने आई........उनका वो बड़े स्नेह से कहना ......जल्दी ही आना .....और हाथ हिलाना........कभी नहीं भूलता......

             पूरा महीना...... वे बड़ी ही बेताबी से  ...............रोमी के बच्चे की प्रतीक्षा करती रहीं.....उसके लिए झबले, गद्दियां सिलीं..... ३  सितम्बर को सुबह ६ बजे के करीब....    बहुत ख़ुशी  और उत्साह से भरी उनकी आवाज फोन पर सुनाई दी......रामू  टुल्लू आ  गये......   टुल्लू नाम उन्हें और जीजा जी को बहुत पसंद था......और जिज्जी की इच्छा थी की अगर उन्हें नाती हुआ ......तो वे उसका नाम टुल्लू  ही रखेंगी ..... ..हम सबने भी ईश्वर से यही प्रार्थना की थी...कि भगवान् इस बार उनकी नाती देखने की इच्छा जरूर पूरी कर देना....और यही हुआ भी........उसके लिए ढेरों लंगोटिया...झबले...और गद्दियाँ जिज्जी ने बना डाले थे......इतनी तबियत खराब होने के बाद भी    वे पूरा समय .....नाती के रख रखाव में व्यस्त रहीं........जब दशहरे में रोमी अपने ससुराल गई ... तो कुछ दिनों तक जिज्जी बहुत उदास  रहीं......नाती  के वियोग में.....
  करवाचौथ इस बार १५ अक्टूबर को पड़ा था......सब के बहुत मना करने के बाद भी वे व्रत रहीं...जीजा जी ने ही अपने हाथों से पूजा इत्यादि कराई....... उनका व्रत खुलवाया   .....पर इसके अगले दिन से ही उनकी तबियत बिगड़ना शुरू हुई......जो फिर कभी नहीं संभल पाई ..... वो फिर से कोमा में चली गईं..... लखनऊ अस्पताल में २  दिन रखने के बाद उन्हें वापस रायबरेली लाना पड़ा....यहाँ २ दिन किसी तरह उन्हें आक्सीजन के भरोसे रोके रखा गया.....वहां  धीरे धीरे सभी  आत्मीय  पहुंचे... आखिरी पहुँचने  वाली मैं ही थी........मेरे पहुँचने  के कुछ देर बाद ही.... उनका आक्सीजन सिलिंडर हटा दिया गया...... जिज्जी की हालत भी काफी कुछ मेरी मम्मी जैसी ही महसूस हो रही थी..........जिज्जी को घर लाया गया.....रात भर सभी सिरहाने बैठे रहे........दूर दराज से आने वाली सभी औरतें  उनके जैसा सौभाग्य पाने की कामना में उनके पैर छूती रहीं......जिज्जी ने बड़े शौक़ से करवाचौथ पर पहनने के लिए   नई   साड़ी ब्लाउज  तैयार  कराया था.....वही उन्हें पहना कर विदा किया गया.........

                 खैर होनी पर तो किसी का वश नहीं...........सब कुछ ऐसे ही चलता रहता है....सभी अपनी अपनी ज़िन्दगी में फिर से व्यस्त होते जा रहे हैं..... ..........बस समय रुक गया है तो जीजा जी के लिए.........जिज्जी का जोड़ा हुआ सब कुछ.....  उनका सामान....उनकी गृहस्थी....जिसे अब उनके जाने के बाद कोई बरतने वाला कोई नहीं है...... जीजा जी देख देख कर उदास हो जाते हैं.....फोन पर रो पड़ते हैं.......हर जगह उनकी यादें बसी हुई हैं....... उस दिन जीजा जी ने कितनी उदासी से कहा.....वो कुछ नहीं करती थीं.....सिर्फ बैठी रहती थी..........वैसी   ही बैठी रहती....हम सब   करते .....उनको कुछ नहीं करने देते.....अगर देने लायक होता तो....... हम अपनी    सांस तक दे देते उनको....पर वो न जातीं......कैसे रहेंगे हम उनके बिना.......क्या विधान है....३६ साल जिसके साथ रहे.....उसी के मुंह में आग लगा के फूंक आये  हम.......सुन कर कलेजा....मुंह को आगया......रोंगटे  खड़े हो गए......

           पर क्या किया जाये...रहना तो पड़ेगा ही....यही तो जीवन है....जिज्जी सभी की प्रिय थीं.....हैं...और हमेशा रहेंगी.....हम कभी नहीं भूल पाएंगे उन्हें..........





Wednesday, November 9, 2011

मेरे जन्मदिन का उपहार











                  आप  सबको  बताते  हुए  अच्छा  लग  रहा  है  की ...कल  मेरे  जन्मदिन  की  पूर्व  संध्या   पर  मुझे  मेरे  पतिदेव  द्वारा  एक  कवि  गोष्ठी  का  उपहार  और  करीब  १५००  /_ की  बहुत   अच्छी  साहित्यिक  पुस्तकें  ....मिली ......कुल  १५  कवियों  के  सानिध्य  में  बैठ  कर  लगभग  ४  घंटे  कैसे   बीत  गए  पता  ही  नहीं  चला .....अवनींद्र  विनोद ....सतीश  आर्य ... इशरत  जहाँ ....खालिद  भाई ....आदि  बहुत  बेहतरीन  लिखने  वाले  शायरों  और  कवियों  की  रचनाओं  का  रसास्वादन  किया  गया .....और  उनके  सम्मुख  ही  मेरा   जन्मदिन  भी  सेलिब्रेट    किया  गया ......अंत  में  डिनर   के  साथ  गोष्ठी  समाप्त  हुई ......मैं  बहुत  खुश  हूँ .......आशा  ही  नहीं  पूरी  उम्मीद  है  की  आप  सभी  को  भी  ये  जान  कर  अच्छा  लगा  होगा  .......(25.9.11)

Tuesday, September 27, 2011

कल किसी जगह पढ़ी हुई  ह्रदय स्पर्शी  कहानी......
फादर फोरगेट्स

             सुनो बेटे ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। तुम गहरी नींद में सो रहे हो। तुम्हारा नन्हा सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल के नीचे दबा है। और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाखिल हुआ हूं, अकेला। अभी कुछ मिनट पहले जब मैं लायब्रेरी में अखबार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ। इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूं, किसी अपराधी की तरह।

जिन बातों के बारे में मैं सोच रहा था, वह ये हैं बेटे। मैं आज तुम पर बहुत नाराज़ हुआ। जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तब मैंने तुम्हें खूब डांटा... तुमने टाॅवेल के बज़ाय पर्दे से हाथ पोंछ लिए थे। तुम्हारे जूते गंदे थे, इस बात पर भी मैंने तुम्हें कोसा। तुमने फर्श पर इधर उधर चीजें फेंक रखी थी... इस पर मैंने तुम्हें भला बुरा कहा। 

नाश्ता करते वकत भी मैं तुम्हारी एक के बाद एक गलतियां निकालता रहा। तुमने डाइनिंग टेबल पर खाना बिखरा दिया था। खाते समय तुम्हारे मुंह से चपड़-चपड़ की आवाज़ आ रही थी। मेज़ पर तुमने कोहनियां भी टिका रखी थीं। तुमने ब्रेड पर बहुत सारा मख्खन भी चुपड़ लिया था। यही नहीं जब मैं आॅफिस जा रहा था और तुम खेलने जा रहे थे और तुमने मुड़कर हाथ हिलाकर बाय बाय, डैडी कहा था, तब भी मैंने भृकुटी तानकर टोका था, अपनी काॅलर ठीक करो।

शाम को भी मैंने यही सब किया। आॅफिस से लौटकर मैंने देखा कि तुम दोस्तों के साथ मिट्टी में खेल रहे थे। तुम्हारे कपड़े गंदे थे, तुम्हारे मोजों में छेद हो गए थे। मैं तुम्हें पकड़कर ले गया और तुम्हारे दोस्तों के सामने तुम्हें अपमानित किया । मोज़े महंगे हैं जब तुम्हें खरीदने पड़ेगे तब तुम्हें इनकी कीमत समझ में आएगी। ज़रा सोचो तो सही, एक पिता अपने बेटे का इससे ज्यादा दिल किस तरह दुखा सकता है ?

क्या तुम्हें याद है जब मैं लाइबे्ररी में पढ़ रहा था तब तुम रात को मेरे कमरे में आए थे, किसी सहमें हुए मृगछौने की तरह। तुम्हारी आंखें बता रही थीं कि तुम्हें कितनी चोट पहुंची है। और मैंने अखबार के ऊपर से देखते हुए पढ़ने में बाधा डालने के लिए तुम्हें झिड़क दिया था कभी तो चैन से रहने दिया करो। अब क्या बात है ? और तुम दरवाज़े पर ही ठिठक गए थे। 

तुमने कुछ नहीं कहा। तुम बस भागकर आए, मेरे गले में बांहें डालकर मुझे चूमा और गुडनाइट करके चले गए। तुम्हारी नन्ही बांहों की जकड़न बता रही थी कि तुम्हारे दिल में ईश्वर ने प्रेम का ऐसा फूल खिलाया था जो इतनी उपेक्षा के बाद भी नहीं मुरझाया। और फिर तुम सीढि़यों पर खट खट करके चढ़ गए। 

तो बेटे, इस घटना के कुछ ही देर बाद मेरे हाथों से अखबार छूट गया और मुझे बहुत ग्लानि हुई। यह क्या होता जा रहा है मुझे ? गलतियां ढूंढ़ने की, डांटने-डपटने की आदत सी पड़ती जा रही है मुझे। अपने बच्चे के बचपने का मैं यह पुरस्कार दे रहा हूं। ऐसा नहीं है बेटे, कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता, पर मैं एक बच्चे से जरूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा बैठा था। मैं तुम्हारे व्यवहार को अपनी उम्र के तराजू पर तौल रहा था। 

तुम इतने प्यारे हो, इतने अच्छे और सच्चे। तुम्हारा नन्हा सा दिल इतना बड़ा है जैसे चैड़ी पहाडि़यों के पीछे से उगती सुबह। तुम्हारा बड़प्पन इसी बात से साबित होता है कि दिन भर डांटते रहने वाले पापा को भी तुम रात को गुडनाइट किस देने आए। आज की रात और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, बेटे। मैं अंधेरे में तुम्हारे सिरहाने आया हूं और मैं यहां घुटने टिकाए बैठा हूं, शर्मिंदा। 

यह एक कमज़ोर पश्चाताप हैं। मैं जानता हूं कि अगर मैं तुम्हें जगाकर यह सब कहूंगा, तो शायद तुम नहीं समझोगे। पर कल से मैं सचमुच तुम्हारा प्यारा पापा बनकर दिखाऊंगा। मैं तुम्हारे साथ खेलूंगा, तुम्हारी मज़ेदार बातें मन लगाकर सुनूंगा, तुम्हारे साथ खुलकर हंसूंगा और तुम्हारी तकलीफों को बाॅंटूंगा। आगे से जब भी मैं तुम्हें डांटने के लिए मुंह खोलूंगा, तो इसके पहले अपनी जीभ को अपने दांतों में दबा लूंगा। मैं बार बार किसी मंत्र की तरह यह कहना सीखूंगा , वह तो अभी छोटा बच्चा है.... छोटा बच्चा।

मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हें बच्चा नहीं, बड़ा मान लिया था। परंतु आज जब मैं तुम्हें गुड़ी-मुड़ी और थका-थका पलंग पर सोया देख रहा हूं, बेटे, तो मुझे एहसास होता है कि तुम अभी बच्चे ही तो हो। कल तक तुम अपनी मां की बांहों में थे, उसके कांधे पर सिर रखे। मैंने तुमसे कितनी ज्यादा उम्मीदें की थीं, कितनी ज्यादा!

----- डब्ल्यू. लिविंग्स्टन लारनेड

Sunday, August 21, 2011

हैदराबाद से लौटते वक़्त

                 इस बार कुछ उदास और भरे हुए  मन से हैदराबाद से वापस हो रही हूँ ......अभी १८ मई से १८ जून तक बड़े  उत्साह  से   वहां  रही ....फिर  अचानक  ही  १३  जुलाई  को  दुबारा  जाना  पड़ा बिटिया  की  अस्वस्थता   की  वजह  से ...... रिजर्वेशन   नहीं  मिल    पाने    से   फिर हवाई    यात्रा     से   ही जाना   पड़ा  ......और  वो     यात्रा   भी  ऐसी     की  ७  घंटे  मुंबई  एयरपोर्ट  पर  बैठना    पड़ा.....बिना  किसी  काम  के  एक  ही जगह   पर बैठना  कितना      दुश्वारी    का   काम है ......यही  महसूस  हुआ ....पतिदेव  ने  कई  बार  चेष्टा  भी  की  कि चलो कहीं  घूम     आते   हैं .....पर वहां की  बारिश  और   किसी न   किसी वजह  से  बाहर   निकलना  संभव  नहीं   हुआ.....अब  सोचती  हूँ  कि अच्छा    ही हुआ जो  हम  लोग  कहीं  बाहर    नहीं गए ......वहीँ     बैठे  बैठे  समय  बिताया ...जब  हैदराबाद  वाली    फ्लाईट    में    बैठे और सामने  की सीट के  पीछे     लगा  हुआ टीवी     ऑन  किया .....तो समाचार  सुन  कर  सन्न   रह  गए.....कि ठीक  १०  मिनट  पहले  वहां ३   जगह भीषण  धमाके  हुए  जिसमे  बहुत   से लोग मारे   गए.....हमारा प्लेन   भी करीब  आधा  घंटा  देरी  से उड़ा ...... सभी  अनुमान   लगा रहे  थे ........कि क्या  बात  है उड़ान   में इतनी  देरी  क्यों ......पर बाद   में पता  चला  कि क्या कारण  था  .....और यह  सब  बस  कुछ  ही मिनटों  के अंतर   पर हुआ....हमारा जहाज  कुछ विलम्ब  से उड़ा .....और जब  तक यह समाचार सब तरफ  फैला  ......हम  सब हैदराबाद की तरफ आधा रास्ता  पार  कर चुके   थे......रात  करीब १० बजे  हम बिटिया    के पास   पहुंचे   .....और काफी   देर   तक टीवी    पर मुंबई के  समाचार    देखते   रहे और अपनी   घबराहट    पर काबू  पाते   रहे..... 

               १७   तारीख  को मेरी    बिटिया   का साइनस    का ओपरेशन    था....ओपरेशन  सफल   रहा  ........डॉक्टर    बहुत  अच्छे    और मिलनसार   स्वभाव   के थे..........मरीज    की    आधी   बीमारी   तो  डाक्टर    के ढाढस    बंधाने    और अच्छी    तरह    अटेंड   करने    से ही चली    जाती     है...ऐसा   अनुभव     रहा .....ओपरेशन   से लेकर   टाँके   काटने    तक एक  हफ्ते      का समय लगा.....उसकी      तकलीफ    और कष्ट   देख    कर मन   बड़ा   विचलित   रहा  .....पर बहुत    तसल्ली    की बात है की भगवान्     ने उसे   बहुत  हिम्मती   बनाया    है.....इतने दर्द     और तकलीफ में होने      के बाद भी उसने   बिलकुल   हिम्मत    नहीं हारी   .....डाक्टर   भी बहुत  तारीफ      कर रहे थे उसकी  ....
              अभी    २४    तारीख    को जब वो  टाँके  कटवा    कर घर   वापस   आई     ....तो  काफी  देर   तक सर    दर्द  उलटी   तथा   जी   घबराने    से परेशान  रही ...........पर उसके     बाद उसे  काफी  हल्कापन     महसूस हुआ.........चेहरे    तथा   नाक     की सूजन   कम    होने   लगी   ...पर ऐसी  स्थिति   में  उसे  छोड़    कर आने    में बड़ा  कष्ट  हो   रहा    था......पर परिस्थितियां    इंसान      को ऐसा  विवश    कर देती   हैं   ........कि कोई    क्या करे  ?.........२६     की सुबह  का हमारा रिजर्वेशन     था......और आना    भी अवश्यक      था क्यों की गर्मियों    के अवकाश    के बाद मैंने    तुरंत     ही १५   दिनों    की छुट्टी   ले   ली      है......पता नहीं स्कूल      में क्या चल      रहा   होगा     .....खैर    देखा    जायेगा     .......अभी    से क्यों परेशान     होऊं  ?.............
                 बिटिया  हर    बार स्टेशन    तक छोड़ने   आती   थी   ...पर इस   बार अस्वस्थता   के कारण  उसकी  आने   की हिम्मत   नहीं हुई  ....... ..और हमने    भी ज्यादा   जोर    नहीं दिया   .....उसकी  रूम   मेट   रिनी       जरूर   हमें   छोड़ने    आई  ........और बड़ी    ही सक्रियता    के साथ     उसने  हमें  ट्रेन    तक छोड़ा   ......बहुत  प्यारी    और अच्छी  बच्ची   है.. वो   भी.........
            अभी   ७५ %  ठीक होने   की अवस्था  में    बिटिया को   छोड़    कर जा  रही हूँ..............पर मन  वहीँ लगा हुआ है......समझा कर तो आई   हूँ....रिनी   को भी समझाया   है.........पर कभी    कभी     बच्चे    लापरवाही    करते  हैं .........खाने   पीने     में भी  कोताही   हो जाती है ........पर क्या  करू ???........खैर  बच्चे  समझदार  हैं.........जो  करेंगे  अच्छा ही  करेंगे ...........इतना  कमजोर   होने से  काम  नहीं  चलेगा  ...........पर माँ   के दिल  का  क्या करू??...........
                     ट्रेन में रिजर्वेशन बहुत मुश्किल  से मिल पाया    है.....वो भी स्लीपर   में........एक तो ट्रेन में बैठने    की आदत  ख़तम   सी  होती  जा   रही है.....कई  सालों   से कहीं   आना  जाना   ही छूट  सा  गया  है ....जब भी छुट्टी होती है बच्चे ही चले  आते हैं........और  आसपास  कहीं  जाना होता   है तो कार    से ही निकल  लेते  हैं......इस  लिए  लम्बे  सफ़र     की आदत   ही  छूट गई   है..........पर ट्रेन   के सफ़र   का अलग  ही आनंद  (!!) है ........

                    सबसे  पहले  कितनी मुश्किल से ट्रेन में घुसना ........वो  भी स्लीपर   में  .......एक से एक ...........दुर्गन्ध  युक्त   लोगो    का सामना    करना  .............वो भी इस भीषण  गर्मी   तथा चिपचिपाती   हुई उमस  में...टॉयलेट और बाथरूम की भयानक.  दुर्व्यवस्था  . ......कुछ  . ......... कहना ही बेकार है .......उफफ्फ्फ्फ़   ......
               पर बिना  सामान    के यात्रा करने का   आनंद   कुछ   और ही है....देख रही हूँ     की हमारे     पास  सिर्फ   २   बैग्स    हैं .....वो हमने अपने  ऊपर  वाली  बर्थ   में रख  दिया है....और निश्चिन्त   हो गए    हैं...पर अगल  बगल  कुछ लोग  ऐसे     भी हैं...जिनके    सामान  को  देख कर  लगता     है कि  वे    अपना  मकान    बदल    रहे     हैं......इतना सामान  अगल बगल ....ऊपर नीचे ....... दायें   बायें   ....हर तरफ      सामान ही सामान...किसी     तरह ठूंसा  गया है सब  कुछ......

               हैदराबाद   का मौसम   बहुत अच्छा रहता   है.......दिन   में गर्मी पर रात    में एक चादर  जरूरी.......      जब हम  वहां  से चले थे   तो वहां खूब   मूसलाधार   बरसात   हो रही थी........ट्रेन में चढ़ने तक ये   हाल  था      कि.......सीट पर बैठने के लिए जगह  बनानी   पड़     रही थी....पूरी    सीट खिड़की    से आ   रहे   पानी    से गीली   थी..........पर ज्यों ज्यों   आंध्र     ख़तम होता जा रहा है ......गर्मी   की प्रचंडता   बढती      जा रही है........हवा में एक चिपचिपाहट सी बनी    हुई  है ...... जरा   भी ताजगी   नहीं    है  हवा    में......जब तक ट्रेन  चलती  ...रहती  है.......गनीमत    है.........ट्रेन  रुकते  ही ...........जान .सांसत  में पड़ जाती है.........

             १०.३० बजे से  लेकर   १   बजे तक हम लोग  थोडा   सो  लिए  हैं .......फिर उठ   कर   रात    की    कचौड़ी  और    ट्रेन  में  खरीदे  आलू वडे      खाए  हैं ......

               ट्रेन  पूरी  रफ़्तार     से चलती  है  तो   ट्रेन में  बैठने    का    मज़ा   दुगना    हो   जाता    है.....मीलो   दूर   दूर    तक फैले  ...खेत   ....जंगल    और  सूखी   पहाड़ियां   दिखाई   दे   रही    हैं.....बारिश    हो  जाने    से सब   कुछ  धुला  धुला साफ़  सुथरा    दिखाई दे रहा  है ....कहीं  कहीं  के  दृश्य   खूब  सुन्दर  बनी  हुई  पेंटिंग  जैसे  लगते  हैं ......काश  मैं  इतना  सुन्दर लैंड  स्केप    बना  पाती .......कोई  कोई  जगह   इतनी   सुन्दर लग  रही है ..कि जी  चाहता  है ............. यहीं  एक  झोपड़ी  बना कर बस  जायें ......काश ऐसा  हो पाता .......

                मेरी     बिटिया  हैदराबाद  में  जहाँ  रहती  है.....वो   जगह मुझे  बहुत  पसंद  आई  है..... शायद मुझे     मनकापुर  के  अलावा ...और कहीं  ख़ुशी से और .............वातावरण को देखते हुए रहने को   कहा  जाये तो मैं वहां रहना पसंद  करूंगी ...........   
बेहद साफ़सुथरा  शांत  और खुशनुमा सा इलाका.........अभी बहुत डेवलप नहीं है.........दूर तक काफी हरियाली और सूखे पहाड़ दिखाई देते हैं.........रात में  जब चारों तरफ .....बत्तियां जलती हैं......तो   किसी हिल स्टेशन पर होने का आभास  .....होता  है..........मैं तो वहां  बालकनी  में घंटो बिता सकती हूँ.... .......हाथ  में चाय का कप थामे हुए...........

    .....बेहद अच्छा  मौसम .....शायद ४ ..६  ...साल  में वहां भी  अच्छी   भीड़  भाड    हो जाएगी  .....पर  अभी   तो बहुत अच्छा लगता   है.....

                    यहाँ  ट्रेन  में मेरे  ठीक  सामने  की सीट  पर   .....एक गोरखपुर   के दंपत्ति  बैठे  हुए हैं....रहन  सहन   से तो लोअर  मिडिल  क्लास  ही  हैं..पर शो  ऑफ़  वाली  प्रवृति    से ग्रसित  हैं....उनका  एक ३  या   ४ साल का बच्चा   है....बिलकुल गहरा सांवला (काला ) जो   बेहद चंचल   या हमारी   भोजपुरी   भाषा   में कहें   तो बेहद उछिन्नर  या बनच्चर   है.....एक जगह बैठ  ही नहीं  पा  रहा......इतनी भीषण  गर्मी   में उसकी  हरकतें .....बुरी  तरह  चिढ़ा  रही हैं......जी यही  चाह   रहा है..कि अपनी  टीचर   वाली भूमिका   में आ जाऊँ  ...और जोर   से डांट  कर दो  चपत  लगा  दूं  ............हर  सामान  बेचने  वाले  के आने   पर......जिद   से लोट  जाना  .....फिर उसके  पापा  का ......सबको  नोटों का  बण्डल दिखाते   हुए कुछ न   कुछ खरीदना ......ज्यादा  महंगा  होने   पर .......न खरीद पाने  पर चीखना  चिल्लाना .....रोना ....  फिर दो  चार  झापड़  खाकर  कुछ देर  शांत रहना.....थोड़ी  देर बाद......   फिर यही सब दोहराया   जाना.......ये  ड्रामा   बहुत देर से देख   रही हूँ ....

              उसके बगल    में ही एक २५  ..२६  साल का युवक  बैठा  हुआ  है....वो भी एक अलग   ही व्यक्तित्व या  कहूं   नमूना है   तो ज्यादा सही होगा   ....कंधे  तक  बढे   हुए बाल  ....और करीब  डेढ़ इंच  लम्बे  नाखून  जो चमकीले  हरे  नेल पोलिश    से रंगे  हुए हैं....यहाँ बैठे सभी  के आकर्षण   और कौतूहल   का केंद्र  हैं.........और दूसरे   बाएं हाथ         की    कलाई  में  मोतियों  की कई  लडियां  ....जिन्हें  उसने  चूड़ियों  की तरह लपेट  रखा  है.....साटिन    या शनील   कि नीली  धारीदार  कमीज  पहने   हुए वो खुद   को न जाने क्या  समझ  रहा है.....इतनी गर्मी में कानों    में हेड   फोन    लगा कर    मोबाईल  से गाने  सुन रहा है.....मेरे पतिदेव  ने  तो उस  से पूछ  भी लिया है कि उसने नाखून क्यों  बढ़ा  रखे  हैं.......और उसने कोई जवाब   नहीं दिया  है.....अभी शायद   (ऐसा लोगो ने अंदाज़ा लगाया है )    वो कुछ नशा  करने  की चीज  को एक प्लास्टिक शीट   में लेकर मसल  रहा था ....लोगो  के पूछने  पर की वो क्या कर रहा है ???     .......उसने  कोई  जवाब   नहीं  दिया   और वहां  से  उठ  कर  चला  गया  ..और जब  वापस  आया  तो  वो  पैकेट  उसके  पास  नहीं था ......ताज्जुब  की बात  है की उसका  पिता  भी   उसके साथ   है.....क्योंकि  अभी  अभी दोनों   ने साथ  बैठ  खूब  ढेर  सारा  खाना   खाया   है......



                                        साइड    की  ऊपर   की सीट   पर एक  युवक …बिलकुल लाल  रंग  की ......पता   नहीं क्या  क्या लिखी  हुई  एक्टर  एक्ट्रेस  शर्ट  पहन   कर लेटा   है……..उसकी  काफी लम्बी  चुटिया  है……शायद पक्का  पंडित  होगा या   किसी मन्नत  के  लिए  रखी  होगी ….क्योकि  जींस और फैशनेबल   शर्ट पहने  हुए किसी लड़के  की एक फुट  लम्बी चुटिया रखे  कभी  नहीं देखा …….चुटिया इतनी  लम्बी है कि कई  बार  मोड़  कर लपेटने  पर एक बड़ा  सा  गुच्छा  बन  कर लटक  रहा  है……. उसे   भी काफी बढ़  चढ़  कर बोलने   की आदत  लगती  है……छोटी  छोटी बहसों   में मेरे  पतिदेव  ने उसे  बुरी  तरह  धराशायी    कर दिया है….. पर शायद वो समझ   गया है की यहाँ  बैठे   हुए सहयात्रियों   में हम  लोग   ही ऐसे   हैं जो  उसके झांसे   नहीं आने   वाले  …तो उसने डींगें मारना  बंद  कर दिया है…..

                       नागपुर   स्टेशन पर गाडी  रुकी   है…….काफी बड़ा स्टेशन है…........पतिदेव काफी देर   से सो  रहे  थे  …..अभी अभी उठ कर बैठे हैं…..दक्षिण  भारत   के सभी  स्टेशनों  की  खासियत  है….कि ये  अपनी  यू .पी  और बिहार  वाली  गन्दगी  फैलाने  वाली   आदत से कोसों   दूर है….बेहद  साफ़  सुथरे  स्टेशन…..यहाँ तक की पटरियों   को देख  कर भी लगता   है… सारे  पत्थर  कायदे  से सजा   कर और अभी अभी झाड़ू  लगा   कर रखे गए   हैं…….ट्रेन   के नीचे  पटरियों पर भी बिलकुल गन्दगी नहीं…......अगर   कोई कागज़  डब्बे  ..बोतल   …..वगैरा   फेंक  दे   तो तुरंत   सफाई   कर्मी   द्वारा  उठा  कर कूड़ेदान   में डाल   दिया जाता  है…….अगर कोई हयादार  इंसान  हो  तो वाकई  लज्जित  हो जाये …..पर अपनी साइड के लोग बिलकुल भी नहीं शर्माते ….......और वक़्त  बेवक्त  अपनी बेशर्मी   का प्रदर्शन  करते  रहते  हैं…..

      इधर  पान  और गुटखा  खाने  की आदत भी नहीं नज़र  आती … हैदराबाद में ........     बहुत ढूँढने के बाद भी मुझे रजनी गंधा का पैकेट नहीं मिला…..जिस तरह अपनी  तरफ छोटी से छोटी दुकान पर भी झालर की तरह सजी हुई…गुटखा और सुपारी की पुडिया दिखाई देती हैं…..इधर कहीं नहीं दिखती….पान की दुकान ही मुश्किल से मिलती है……और पान तो ऐसे मिलते हैं….जैसे पान के पत्ते को पूरा सैंडविच बना देते हैं……उसमे इतना अधिक मैटेरिअल  डाला जाता है की पान का अस्तित्व ख़तम हो जाता है…..
                   कुल मिला कर अर्थ यही निकलता है..कि इधर पान को बिलकुल महत्त्व ही नहीं दिया जाता..और इसी वजह से पान की पीक से संवरी हुई जगहें ....दीवारें ...कोने.....सड़कें जो हमारे यू . पी. बिहार की शान हैं……यहाँ नहीं हैं…..बहुत साफ़ सुथरापन है यहाँ……
   
           दक्षिण से हमें सीखना चाहिए…..ऐसा बहुत कुछ …….जो उनसे सचमुच सीखने लायक है……ट्रैफिक नियमों का पालन…इमानदारी ….कई  चीजो  में  हम  उनसे बहुत पीछे  हैं……..
                                        

            रात   बीतती जा रही है…अभी एक चाभी के गुच्छे वाला आया   था ….जिस से एक दर्जन   गुच्छे खरीदे …बेहद  सुन्दर   और फिनिश  काम      वाले     छोटे    छोटे       गुच्छे हैं…. गिफ्ट   में देने  लायक…….गोरख पुरी  जोड़े    ने   भी अपने लाल  के लिए दो ले  ही लिए …..


                डिप    वाली    चाय   मुझे बहुत बेस्वाद   लगती     है…पर मजबूरी   है…कई बार पी  चुकी  हूँ  ….और माइंड  कर रही हूँ   ….कि जब     भी मैं     चाय   लेती     हूँ ….अगल    बगल    बैठे    सभी  चाय  लेते     हैं…..और जब   तक चुपचाप   बैठी   रहती   हूँ ….चाय   वाला आवाज़   लगा    कर चला     जाता है कोई  नहीं लेता …..पता    नहीं क्या   बात    है……गोरखपुरी जोड़ा    हर    फेरी    वाले     से कुछ न     कुछ अल्लम  गल्लम    खरीदता     ही रहता   है …… पर  अगर  कोई  भिखारी  आता  है तो        उनकी  जेब     से  एक  रुपया  भी  नहीं  निकलता …..सीधे  भगा  देने  वाली  मुद्रा  में   हाथ  हिला  देते  हैं …… अभी  मैंने  भी २  पैक  चिप्स  खरीदे  हैं……खाना  खाने  की  बिलकुल  इच्छा  नहीं है……इतनी  घुटन  भरे  माहौल  में खाना ??  छि !!!!!!!! …सोच के ही जी मिचला रहा है…....



                         सोने  का  वक़्त  हो  गया   है….गर्मी  की भीषणता   उग्र  रूप  में है…..पता  नहीं नींद  कैसे   आएगी ………सोने  का मन  तो नहीं पर क्या  करें  उसके  सिवा  कोई चारा  भी तो नहीं है……ऊपर  जल  रही  लाइट  भी इतनी मरियल   है की कुछ  पढ़ा  भी नहीं जा  सकता ……..गर्मी के मारे  हमने  कुछ खाया   नहीं……सबसे  ऊपर वाली बर्थ  हम  दोनों  की थी   ….पर एक भले  आदमी  ने  अपने  दोनों  लडको  को  ऊपर सुला  कर   सबसे नीचे  वाली बर्थ हम लोगो   को दे  दी  है……..पर बीच  वाली बिर्थ  गिरा  दिए  जाने  से ....   कुछ ऐसा  आभास  हो रहा है की ताबूत  में लेट  कर कैसा  लगता  होगा …….न बैठ  सकते  हैं न  उठ  सकते हैं……….किसी  तरह  दम  रोके  पड़ी  हूँ…..सामने  पतिदेव   भी बार  बार पहलू  बदल  रहे  हैं…….नींद किसी को नहीं आरही  ….हर तरफ  से एक विकट  सी  बदबू  आरही है…….पर कुछ बहादुर  लोग  ऐसे  भी हैं जिनकी  नाक  बहुत  जोर  जोर से बज  रही है…….
                  रात  में करीब  १  बजे   कुछ पुलिस  वाले अन्दर  आये   थे  ….और   चुटिया     वाले की सीट  के नीचे वाली बर्थ पर किसी तरह सोये  हुए  दो  नेपालियों  की तलाशी  का ड्रामा  करने  लगे …..पासपोर्ट  मांगने  पर एक के पास  तो सारे      कागजात  मिल  गए  पर दुसरे  वाले को ३००  रूपये  लेकर  उन्होंने  छोड़ा …..छी  कैसी  गन्दी  मानसिकता  हो गई है……पैसे  देकर    छूटे हुए नेपाली  ने भी हंसी  उड़ाई  उनलोगों  की…….पर उन्हें   तो सिर्फ  पैसे से मतलब  है किसी भी तरह मिलें …….अन्ना  हजारे  बेचारे  कहाँ  कहाँ तक दौडें ??बहुत शर्म  महसूस  होती  है ऐसी  हरकतें  देख  कर………..

हे  भगवान  किसी तरह रात   बीती    है…….
        गोरखपुर  वाला  जोड़ा रात भर .....जमीन पर सोया    रहा है……कन्फर्म  टिकट  नहीं होने से उन्हें बर्थ नहीं मिली  थी   ……अभी अभी आलू  पकोड़े  और चाय  का नाश्ता  करके  फिट  हैं…..पूरा  परिवार ……

        लखनऊ  स्टेशन  पर उनके  लाडले  ने एक फूहड़  सा  हवाई जहाज   खरीदा  है…..और हाथ पैर  धोकर  या  कहूं  नहा  कर उसके पीछे  पड़ा  हुआ    है……..माँ   के कई    बार कहने   के बावजूद ….उसने  खिलौना  रखा  नहीं है…..खिलौना  शायद    ही उसके घर   तक सलामत  पंहुचे ……..उसके पापा  ने बड़ी  शान के साथ  बताया  है की जहाज  ८०  रूपये का है………और माँ  का कहना  है की ऐसे महंगे  महंगे पचासों  खिलौने  घर पर पड़े  हैं….यह  बात  वो  कई बार दोहरा   चुकी है……

                   धीरे  धीरे  धीरे  गंतव्य  निकट  आता   जा रहा है…….इधर  कहीं  बारिश  होती नहीं दिखी ….......पर बादल  लगे हैं…..शायद होने  ही लगे……झिलाही   के आसपास .. से बारिश मिली  है…पता नहीं मनकापुर   में बस  तक पहुचने  के लिए  भीगना   न पड़  जाये ……..
                            मनकापुर  स्टेशन पर गाडी     से उतरने    के बाद  ……पीछे से बाय   बाय   सुनाई  दिया  है…..मुड  के देखती  हूँ वही  ट्रेन  वाला छोटा  बच्चा  खिड़की  में से हाथ निकाल कर टाटा  कर रहा है……..बहुत अच्छा  सा महसूस हुआ..........मैंने भी हाथ हिला दिया है….उसकी  माँ भी झाँक  रही है…….एक ऐसा साथ ...........जो करीब डेढ़  दिन  तक रहा……और अब  शायद ज़िन्दगी  में फिर  कभी  उनसे  मुलाकात  नहीं होगी ……..

          बस  तक आते  आते    छींटे  पड़ने   लगे हैं…..बस में सबसे आगे   की सीट मिल गई    है…….आखिर   पहुँच  ही गए मनकापुर….घर वापस  आगई      हूँ……दो चार  दिन फिर लगेंगे सामान्य  अवस्था  में पहुचने में…….कल   से फिर वही दिन चर्या ………वही स्कूल ……हे  भगवान  !!!!!!!!!!!!!!!!!!!......