इस तेज रफ़्तार वाले दौर में जहाँ पल भर में ही संसार भर कि दूरी नापी जा सकती है....मोबाइल और इंटरनेट सात समंदर पार से भी पल में नाता जोड़ सकते हैं....वहां लिखने का ..........कलम और कागज़ का सहारा लेना शायद बेवकूफी लग सकता है...पर मुझे लगता है कि बोल कर मन की पीड़ा या मन के भाव को हल्का करने की अपेक्षा लिख कर..शब्दों को कागज़ पर उतार कर ह्रदय का भार हल्का कर लेना कहीं ज्यादा सुकून दायक है......अब वो भावनाएं ही कहाँ रह गई.....??? ......
कुछ अनकहे पल ..कुछ अनकही बातें ......कुछ अनकहे दर्द कुछ अनकहे सुख ......बहुत कुछ ऐसा जो सिर्फ महसूस किया .....किसी से बांटा नहीं . ...बस इतना ही .......
लिखिए अपनी भाषा में
Thursday, October 21, 2010
लिखे गए शब्द.....
आज के समय में किसी से ये पूछना ...क्या हाल चाल है ?? और उस पर ये जवाब मिलना सब ठीक है यथावत है और पूर्ववत है......बड़ा अच्छा लगता है.....वैसे ये बड़ी आम बोलचाल वाली बात है कि किसी से मिलते ही सबसे पहले पूछा जाता है और भाई क्या हाल चाल है.? और इसका यही जबाब है सब ठीक है..बढ़िया है.....कुछ लोग जो जरा और साहित्यिक भाषा का प्रयोग करते हैं....उनका कहना होता है सब पूर्ववत है यथावत है...... वैसे भी आज की इस भागम भाग और व्यस्त ज़िन्दगी में सब कुछ पूर्ववत और यथावत बना रहे ये सोचना भी बड़ा सुकून देता है........ ..
इस तेज रफ़्तार वाले दौर में जहाँ पल भर में ही संसार भर कि दूरी नापी जा सकती है....मोबाइल और इंटरनेट सात समंदर पार से भी पल में नाता जोड़ सकते हैं....वहां लिखने का ..........कलम और कागज़ का सहारा लेना शायद बेवकूफी लग सकता है...पर मुझे लगता है कि बोल कर मन की पीड़ा या मन के भाव को हल्का करने की अपेक्षा लिख कर..शब्दों को कागज़ पर उतार कर ह्रदय का भार हल्का कर लेना कहीं ज्यादा सुकून दायक है......अब वो भावनाएं ही कहाँ रह गई.....??? ......
सारा अपना पन.... सारी संवेदनाएं.....सारा भाव ....अब हाय... बाय... टेक केयर......आय एम् ओके ...टेक इट टी इजी .....डोंट टेक टेंशन ....में सिमट कर रह गया है ...ये ऐसे बोले जाने वाले शब्द हैं....सारी भावो को खुद में ही समेट लेते हैं......और कितने ही प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं.....लिखे हुए शब्द अनमोल हैं......बार बार पढ़े जा सकने वाले शब्द......एक थाती हैं एक धरोहर.....
इस तेज रफ़्तार वाले दौर में जहाँ पल भर में ही संसार भर कि दूरी नापी जा सकती है....मोबाइल और इंटरनेट सात समंदर पार से भी पल में नाता जोड़ सकते हैं....वहां लिखने का ..........कलम और कागज़ का सहारा लेना शायद बेवकूफी लग सकता है...पर मुझे लगता है कि बोल कर मन की पीड़ा या मन के भाव को हल्का करने की अपेक्षा लिख कर..शब्दों को कागज़ पर उतार कर ह्रदय का भार हल्का कर लेना कहीं ज्यादा सुकून दायक है......अब वो भावनाएं ही कहाँ रह गई.....??? ......
Friday, October 15, 2010
काश वो दिन फिर से लौट आते ................
आज भी महसूस होता है कि कितनी मस्त और जीवंत लाइफ थी वो......किसी बात की चिंता नहीं.....सिर्फ अपनी पढाई और दोस्तों की चिंता रहती थी.....दोस्त भी ऐसे ऐसे कि लगता था जब कभी हम अलग होंगे तो कैसे रहेंगे......अपनी रैगिंग का दिन याद आता है...हमारी क्लास में दो बच्चे ऐसे आये थे जो वाकई उम्र और क्लास में हमसे छोटे थे..एक था आर.गणेशन और दूसरा युवक तुलाधर....जो देखने से ही बच्चे लगते थे...गणेशन दुबला पतला सांवला सा था....उसके दाँत कुछ आगे को निकले हुए थे.....और युवक...खूब गोरा चिट्टा भूरे बालो वाला नेपाली चेहरा.....मुझे आज भी याद है....वो अक्सर लाल रंगकी जैकेट पहनता था....उसकी ठोडी पर गिने चुने चार छः बाल थे.....जिस से वो और भी भोला भाला सा लगता था......उसका हिंदी बोलना बहुत अच्छा लगता था .....और हम सब अक्सर उसे चिढाया करते थे........ राजश्री तो बिना घूंसे और चांटे के उस से बात ही नहीं करती थी.....राजश्री चूंकि कॉन्वेंट से पढ़ी हुई थी और युवक ज्यादा तर अंग्रेजी में ही बोलता था..तो उन दोनों की काफी जमती थी.....वैसे युवक..परमेश दा ..किरण मानन्धर दा भट्टराई दा वगैरा नेपाली लडको का अपना ग्रुप था जो कि अक्सर साथ साथ रहा करते थे......कॉलेज में कुछ नेपाल और मणिपुर वगैरा से आये हुए स्टुडेंट्स भी थे ........जो इंटरनेश्नल हॉस्टल में रहते थे....वहां ज्यादातर विदेशी लड़के रहा करते थे ........उन लोगों के गाये हुए नेपाली गाने आज भी यादो में ताज़ा हैं.....ओ कांची छोरे रे जान्छी .....न जश्तो शो जा लाई जिनगी भर रुनु परला.......(आगे मुझे याद नहीं )............
जब हम लोगो की रैगिंग हुई तो सबसे पहले गणेशन से कहा गया कि सब खड़े हैं तो तुम क्यों नहीं खड़े हो???? ...........जब कि वो बेचारा भी खड़ा था.....पर वो सबके आगे इतना छोटा लग रहा था..............कि उसे कुर्सी पर खड़ा किया गया.....(आगे के तीन चार सालों में तो गणेशन क्लास का सबसे लम्बा छात्र हो गया था...) फिर वही सबसे कुछ कुछ पूछने का दौर चला....कुछ लोगो से गाने सुनाने को कहा गया......खेल कूद के बारे में पूछा गया राजश्री ने बताया कि वो बास्केटबाल खेलती रही है .........तो उस से काल्पनिक बाल बास्केट करने को कही गई......मुझसे भी गाना सुना गया......मैंने कई गाने सुनाये थे..अलग अलग जगहों पर ......शायद मैं कुछ हल्काफुल्का अच्छा गा लेती थी.....इस लिए मुझसे अक्सर गाने के लिए ही कहा गया.....अनामिका ने भी गाना सुनाया था.............मेरी भीगी भीगी सी....पलकों पे रह गए.......उसने खास तौर पर यही गाना क्यों सुनाया ?? ......इसका कारण उसने बताया था..कि इस गाने में उसका नाम आता है.............इस लिए ये गाना उसे पसंद है......मैंने ........कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ..........सुनाया था( ये गाना मेरी मम्मी को बहुत पसंद था )...और ये मैंने इतनी बार गाया था कि जब भी कोई मुझे गाने को कहता तो मैं यही सुना देती थी.......नतीजा ये हुआ.....कि मुझे होली में दी जाने वाली टाइटल्स में यही टाइटल मिला था.........कोई लौटा दे इनके बीते हुए दिन.......इंट्रोड़क्शन के अंत में मुझे और अनामिका को घर से पकौड़ी और चटनी बना कर लाने का हुक्म दिया गया.......दूसरे दिन हम दोनों घर से बनवा के ले गए.....जिसे सबने बड़े स्वाद से खाया......तो ये रही हमारी रैगिंग की कहानी.......
कॉलेज जाने के थोड़े ही दिनों के बाद पता चला कि यहाँ हर साल एक एजुकेशनल टूर जाता है ....... कला से जुडी हुई जगहों पर.....जहाँ पुराने ऐतिहासिक मंदिर या इमारतें...म्यूजियम और आर्ट कॉलेज इत्यादि हों.....बड़ी ही ख़ुशी हुई ये जान कर .........क्यों कि मुझे हमेशा से खूब घूमने का शौक़ रहा है .......................कॉलेज ट्रिप्स में खूब घूमने को मिला.......अजंता एलोरा एलिफैन्टा राजस्थान और गुजरात के कई शहर ...दक्षिण भारत की कई जगहे......लगभग आधा भारत......हमने ट्रिप में ही देखा......काफी अच्छा अनुभव रहा.....आज के हिसाब से लगभग मुफ्त में ही......पर उस समय वही बहुत ज्यादा लगता था........टूर के भी बहुत मनोरंजक अनुभव हैं.....अभी भी याद करके मज़ा आता है......उस समय फोटोग्राफी बहुत महंगी लगती थी.........जब कि सभी फोटोग्राफी स्टुडेंट्स के पास कैमरे थे पर बहुत अफ़सोस है कि बहुत अच्छे चित्र कोई भी नहीं ले पाया.......सभी ने खुद के खींचे हुए फ़ोटोज़ अपने कॉलेज के डार्करूम में खुद से ही बनाये थे........जो कि आज भी एक अमूल्य धरोहर की तरह हैं.......बोहरा सर ने बहुत से चित्र लिए थे ........हर जगह के एक से बढ़ कर एक.........(पर किसी को दिए नहीं....इसका अफ़सोस है....)एक सिनिअर छात्र थे जिन्होंने मेरी कनक दी और राजश्री की ग्रुप फोटो ली थी......रंगीन....जो उस वक़्त १० रुपये की पड़ती थी.....और उनके कथन नुसार उन्होंने कहीं विदेश से बनवा कर मंगवाई थी......बहुत अफ़सोस होता है आज भी याद करके कि वो फोटो हम लोगो ने ले ली थी ये सोच कर कि शायद उन्होंने गिफ्ट की है.....पर जब बाद में उन्होंने उसके लिए तकादे करना शुरू किया ....और किसी के द्वारा मेसेज भेजवाया....तो बड़ी शर्मिंदगी हुई ...............उस १० रुपये की तब कितनी वक़त थी.......तुरंत उनका पैसा वापस किया गया......अगर वो सज्जन मेरा ये ब्लॉग पढ़ रहे हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ.....
टूर में सभी लोग खूब एन्जॉय करते थे.......खूब शैतानिया ......खूब नाच गाना बजाना सब होता था....... टूर की बाते फिर कभी..........
Tuesday, September 21, 2010
बस ऐसे ही ....
फाइन आर्ट्स में पढने के दरम्यान मैंने पाया..........कि अध्यापक से ज्यादा सीनिअर्स जूनिअर्स की मदद करते हैं.....अब तो मुझे याद भी नहीं आता कि सर लोग सिवा कुछ कुछ समझा देने के अलावा हमें और क्या बताते थे???...........................
कभी हम लोगो के काम में हाथ नहीं लगाते थे..............सिर्फ अगर कुछ गलत बना हो तो वो जरूर बता देते थे .....पर उनका उतना बता देना ही बहुत होता था...........आखिर कला ऐसी चीज है कि वो आपके अन्दर से निकालनी चाहिए...........सिर्फ रास्ता दिखाया जा सकता है पर मंजिल पर पहुँचने की इच्छा और मेहनत तो खुद को ही करनी होती है न.............और वो कोई कोई ही कर पाता है.....प्रयास करते करते हर एक का अपना एक स्टाइल हो जाता है काम करने का........जिसे सिर्फ एक नज़र देख कर ही बताया जा सकता है कि ये किस कलाकार का काम है...........और अपना स्टाइल बनाते बनाते बहुत समय लग जाता है....और ज्यादातर लोग असफल ही रह जाते हैं इस काम में...........शायद मैं भी इनमे से एक हूँ.......मैंने भी कभी अपना कोई स्टाइल बनाने का प्रयास नहीं किया..............पता नहीं क्यों मुझे एक तरह से ही काम करते करते ऊब सी महसूस होने लगती है........शायद ये मेरी कमजोरी हो सकती है.......पर मैं संतुष्ट हूँ इस से.........और मुझे कोई परेशानी नहीं.है ........मैंने पेंटिंग की हर विधा में काम किया है ....जैसे फेब्रिक कलर.....आयल कलर ....वाटर कलर...ग्लास कलर....इंक.....कलर इंक या पेस्टल कलर..पेंसिल कलर में भी.....मुझे जो भी माध्यम हो पेंटिंग का .................बस मुझे अच्छा लगना चाहिए.....सिर्फ आधुनिकता कि दौड़ में कुछ भी बना देना मुझे नहीं सुहाता.......मेरा ये मानना है कि चित्र को खुद बख़ुद बोलना चाहिए.....न कि देखने वाले को पूछना पड़े कि ये क्या बनाया है???........जब कभी ऐसी परिस्थिति आती है..........तो बड़ा अजीब सा महसूस होता है........आखिर हम चित्र किस लिए बनांते हैं.....??दूसरो के लिए ही न ??? कि दूसरे उसे देखें और सराहे ???...कुछ लोगो का ये कहना है कि हम स्वान्तः सुखाय के लिए चित्र बनाते हैं....तो फिर उसे सबके बीच प्रदर्शित ही क्यों करते हैं???.......अपने घर में ही रख कर सुख उठाएं....ये कोई कविता या कहानी तो नहीं है कि सिर्फ जो पढ़ रहा है वो ही आनंद उठा रहा है.......चित्र तो सबकी सम्मिलित ख़ुशी के लिए हैं......और जो सुन्दर है वो सभी को ख़ुशी ही देगा.......वीभत्स और उटपटांग चित्र मुझे कभी पसंद नहीं आये चाहे वो कितने ही बड़े कलाकार के बनाये हुए क्यों न हों......जिसे देख के मन को शांति या ख़ुशी न मिले वैसे चित्र मुझे पसंद नहीं.......आज कल बहुत से ऐसे तथाकथित चित्रकार भी मिल जायेंगे..जिन्हें.....वास्तव में ज्यादा कुछ नहीं आता सिर्फ रंगों की लीपापोती के अलावा.....और उनसे एक बच्चा भी कुछ बनाने को कह दे तो वे बगलें झाँकने लगते हैं........इसी का नतीजा ये होता है छोटे छोटे बच्चो के मन में भी तथाकथित मोडर्न आर्ट के लिए सिवा एक हास्यास्पद फीलिंग के और कुछ नहीं.. रहता...कुछ भी ऊलजुलूल बना हो तो उसे मोडर्न आर्ट कह दिया जाता है.......ज्यादातर जन मानस में आज की चित्रकला के लिए यही सोच है........हर समय की चित्रकला अपने समय में मोडर्न ही होती है........मुझे लगता है चित्र ऐसे होने चाहिए जिनसे लोग खुद को जुडा हुआ महसूस करें.........और जिन चित्रों को देख कर बरबस ही मुंह से निकल पड़े वाह ........बहुत सुन्दर.....................न कि थोड़ी देर हैरत से देखने के बाद...दर्शक पूछ ही बैठे ...............वैसे ये क्या है????...और आर्टिस्ट के लाख सफाई और संतुष्ट करने लायक .............उत्तर देने के बाद भी....................मुंह छुपा के हंस पड़े.......क्यों की हर कोई कलाकार तो नहीं................... ज्यादातर बहुत साधारण ही लोग होते हैं जिन्हें ठीक से पेंसिल से रेखा भी खींचने नहीं आता......पर वो भी ये तो बता ही सकते हैंकि ये चित्र सुन्दर है या बेकार है.........
Monday, September 20, 2010
बहुत याद आते हैं...(2010की पोस्ट)
यकीं नहीं आता ..कि कॉलेज छोड़े हुए....२२ साल बीत चुके.हैं
.......२२ साल सोचो तो कितना बड़ा अरसा है....पर महसूस करो तो लगता
है .............अरे अभी कल की ही तो बात है.....जब हमने कॉलेज ज्वाइन किया था.....और वहां १० साल बिताए थे.....वो १० साल बिताने के बाद भी २२ साल बीत चुके हैं............यानि लगभग ३१ साल से फाइन आर्ट्स हमारा है.....हमारे दिल के बहुत करीब...........कितनी तमन्ना और प्यार के साथ वहां ज्वाइन किया था हमने......और उतने ही प्यार और उम्मीदों के साथ वहां से विदा भी ली थी ................हमारा सौभाग्य है कि आज भी हमारा वहां आना जाना होता रहता है......जब भी कुछ लम्बे समय के लिए बनारस जाना हुआ है कॉलेज जरूर गए हैं हम लोग.....अब तो काफी लोग जा चुके हैं वहां से या .........यूं कहूं कि बहुत कम लोग ऐसे हैं वहां अब....... ..................जो हमारे परिचित हैं..........पर जो भी हैं आज भी उतने ही प्यार और ख़ुलूस से मिलते हैं ....ये बहुत अच्छा लगता है.....
ज्यादातर प्रोफेसर्स तो अवकाश ग्रहण कर चुके हैं........या अब हमारे बीच नहीं रहे हैं........पर अभी भी वहां जाकर....उन सभी के होने का आभास होता है...................उनके चेम्बर्स या क्लास अभी भी उनकी याद दिलाते हैं..........अब उन चेम्बर्स में हमारे पुराने सीनीअर्स जो अब वहां लेक्चरर्स और प्रोफेसर्स बन चुके हैं .......बैठते हैं.......पर उनको देख कर वो फीलिंग्स नहीं आतीं......एक सूनापन सा लगता है.....बरबस ही वे सारे चेहरे आँखों के सामने घूम जाते हैं.......
सारे कॉलेज में घूम घूम कर सभी पुरानी बातो को याद करना बहुत अच्छा लगता है..............वैसे अब कॉलेज की पुरानी इमारत में काफी कुछ बदलाव आगया है.........................फिर भी बहुत कुछ वैसा का वैसा ही है ...........वो सीढियां जहाँ सबसे पहली बार कॉलेज जाने के बाद हम सब बैठे थे.........और हमेशा बैठा करते थे.......आज भी सारे छात्र वहीँ बैठे मिलते हैं.........सब कुछ वैसा ही है बस बैठने वाले बदल गए हैं.........बाहर के कोरिडोर में जगन्नाथ केसरवानी सर की बनाई हुई ....गंगा पूजन को जाती हुई दुल्हन और दूल्हा ..............बेहद सजीव और सुन्दर चित्र है .................वो कॉमन रूम जहाँ बार बार जाकर शीशा देखा जाता था.....वो गेलरी जहाँ से दोनों तरफ के लान जिनमे सुन्दर गुलाब के फूल लगे हुए थे .........और जो कॉलेज के आखिरी सिरे पर जा के ख़तम होती थी.......बीच में बहुत बड़ी लाइब्रेरी .........वो बोहरा सर का फोटोग्राफी रूम ......वो पेंटिंग का ग्राफिकस और म्यूरल पेंटिंग वाला कमरा..............जिनके ऊपर एसबेसडस शीट की छतें थी..............जो गर्मी के मौसम में तो पूरा आग उगलती थीं.........उन कमरों में बैठना बड़ा ही तपस्या करने जैसा काम था...................पर बनर्जी सर वहां बैठे मिलते थे..........वहां हमने लीनो कट और ग्राफिक डिजाईन बनाना सीखा........लीनो कट में एक सॉफ्ट रबर की शीट जिसपर पतले पतले महीन टूल्स से उभार कर चित्र बनाया जाता था ....और रोलर से इंक लगाने के बाद उसे सफ़ेद कागज़ पर छापा जाता था.....जितना हिस्सा कटा होता था उसे छोड़ कर बाक़ी जिस हिस्से पर इंक लगी होती थी .....वो बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्र के रूप में छप जाता था............बड़ा ही अच्छा अनुभव है ये भी.......
ग्राफिक रूम के सामने ही टेक्सटाइल रूम था जहाँ श्री जयशंकर सर और गोकुल सर बैठा करते थे........जयशंकर सर ...........बेहद हंसमुख और मिलनसार थे............बड़ी बड़ी ऐंठी हुई मूंछें और धोती कुरता ...हर समय बनारसी पान से भरा हुआ मुंह ...........उनका टेक्सटाइल का काम बहुत अच्छा था.......गोकुल सर ट्रेडिशनल काम के माहिर थे .... और बहुत महीन डिजाइन बनाते थे ........उनके बोलने का लहजा थोडा ग्रामीण था जिस से ...जो बच्चे खुद को जरा ज्यादा पढ़ा लिखा या अंग्रेजी बोलने वाला समझते थे वो उनका कभी कभी मजाक भी बना देते थे.......जिसके लिए मुझे शर्मिंदगी है.......वहां एक जगन्नाथ केसरवानी सर भी थे.............जो बहुत अच्छे चित्रकार थे खास कर ट्रेडिशनल पेंटिंग्स में ...........वो रंग स्वयं बनाते थे............और ऐसे ही कभी अपने प्रयोग करते समय किसी केमिकल रिएक्शन के कारण अपने आँखें गँवा बैठे थे..........ये सब हम लोगो के एडमिशन के पहले की बात है.............क्यों कि हमने उनको नेत्रविहीनता के साथ ही देखा..और किस्सा ही सुना था ....वे रिक्शा से कोलेज आते थे और उनको टेक्सटाइल डिपार्टमेंट तक ले जाने के लिए कोई न कोई सहारा देता था..............कुछ एक बार मैं भी ले कर गई हूँ.......वे बाद में सिर्फ थ्योरी की क्लास लेने लगे थे......
टेक्सटाइल रूम में एक हथकरघा मशीन भी रखी हुई थी जिस पर कपडा बुनना सिखाया जाता था........टेक्सटाइल और ग्राफिक रूम से बाहर आने के बाद ...... ........ वुड कार्विंग का कमरा था...........जहाँ सबसे पहले लकड़ी की मूर्ति बनाने का काम सीखा था........छेनी और लकड़ी की हथौड़ी से..(मैंने काठ का उल्लू बनाया था)..................
और वुड कार्विंग रूम के ठीक पीछे..........सेरेमिक्स या पोट्री मेकिंग की क्लास थी.......जहाँ बर्तन बनाने सिखाये जाते थे...... बहुत बढ़िया चिकनी मिटटी से पतले पतले क्वायेल बना कर एक पर एक चिपकाते हुए....ऊँचे ऊँचे लम्बी गर्दन वाले फ्लावर पाट और ............छोटे छोटे चाक चला कर सुन्दर सुन्दर आकार वाले छोटे छोटे घड़े या मग या कप बनवाये जाते थे................बहुत मन लगता था इसमें ....पर मुझे बहुत दुःख है कि मैं कभी भी एक जैसे क्वायेल नहीं बना सकी .......और उस वजह से मेरे पाट कभी भी बहुत अच्छे नहीं बन पाए.....मेरी सहेली अनामिका बहुत अच्छे क्वायेल बना लेती थी.................और उसने अच्छे अच्छे बर्तन भी बनाये थे............उन बर्तनों को सुखा कर उन पर अपने मन से सुन्दर डिजाइन बना कर रखा जाता था .....फिर उन्हें आंच पर पकाया जाता था...और ......जब वे भठ्ठी से बाहर निकाले जाते थे तब उनकी चमक और खूबसूरती देखते ही बनती थी..........पहली बार जब हम लोगो ने ये सब देखा तो बड़े ही प्रभावित हो गए थे................क्योकि तब तक ऐसे बर्तन सिर्फ बाज़ार में दुकानों में ही देखे थे....जब ये लगा कि ये सब अपने हाथ से किया जा सकता है तो बड़ी ख़ुशी हुई थी.........घर पर बहुत दिनों तक वैसे बर्तन सजा कर रखे थे.....आज पता नहीं कहाँ हैं वो.....
पोट्री डिपार्टमेंट के बाद ही मूर्तिकला विभाग था .... वहां उस समय....ठाकुर दिनेश प्रताप सिंह हेड थे.............जो ठाकुर साहब या सिंह साहब ही कहलाते थे.......जब हम लोगो ने उनका नाम सुना था तो ये लगा था कि कोई बहुत भारी भरकम शानदार व्यक्तित्व होगा......पर जब उन्हें देखा तो........बहुत ही दुबले पतले छोटे कद के.....पर उनका पहनावा और दोनों तरफ को मुड़ी हुई बड़ी बड़ी नुकीली मूंछें उनके राजपूत होने का आभास कराती थीं...........ठाकुर साहब सीने पर बाएँ ओर दो लम्बी लम्बी डोरियों से बंधा हुआ मुग़ल कालीन अंगरखा और चूड़ीदार पाजामा....और आगे से मुड़ी हुई नोकदार नागरा जूतियाँ पहनते थे ....और होंठो में सिगार रहता था......(सर से क्षमा याचना के साथ).....हमने जब उनको पहली बार देखा तो यही लगा था कि किसी नाटक में उनको राजपूत का रोल दिया गया है और वे उसका अभ्यास कर रहे हैं............पर बाद में रोज रोज उन्हें देखते देखते ये अहसास हो गया था..कि सर शायद पैंट शर्ट में उतने अच्छे नहीं लगते...जितना इस तरह लगते थे......बहुत स्नेह शील थे वो हम सभी के साथ.....................हमारी मूर्ति कला की क्लास के पहले अध्यापक वही थे............उनका काम इतना अच्छा था कि मैंने उतना अच्छा ट्रेडिशनल .... काम किसी और का फिर कभी नहीं देखा........बड़ी बड़ी मूर्तियाँ जो सर ने बनाई थीं आज भी वहां रखीं. हैं.........
.......ज्वाइन करने के थोड़े दिनों बाद हमारी मूर्ति कला कि क्लासेज मिसेज.लतिका कट लेने लगीं....वे आज कल जामिया मिलिया (दिल्ली ) में फाइन आर्ट्स कि हेड हैं............छोटे से कद की खूब गोरी और बहुत एक्टिव .... ...बहुत अच्छी कलाकार.....मुझे याद है उनके बाल बहुत ज्यादा लम्बे थे......और वे उनको लपेट कर जूड़ा सा बना लेती थीं....खादी का मरदाना कुरता और जींस पहनती थी वे ...........उनके पति श्री बलबीर कट थे जो खुद भी भारत के विख्यात मूर्तिकारो में गिने जाते हैं.............ये ऐसे कलाकार लोग हैं जिनका ज़िक्र हमने सिर्फ किताबों में ही पढ़ा था.....पर जब उनसे रूबरू हुए ..और उनको नज़दीक से जाना तब महसूस हुआ कि कितने सरल और मित्रवत थे वो लोग........कॉलेज टूर में कट सर की गायी हुई ...बहादुर शाह ज़फर की ग़ज़ल......लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में......आज भी यादो में तरोताजा है.......कट सर गाते वक़्त अपना गला पकड़ के गाते थे...ये उनका कुछ अपना अंदाज़ था...वो ऐसा क्यों करते थे नहीं मालूम......पर जो भी हो बहुत अच्छा लगता था उनके मुंह से.....हम लोगो ने कई बार वो ग़ज़ल उनसे सुनी थी.......
. वहां जाने के बाद सब कुछ फिर से जीवंत हो उठता है...... ..स्कल्पचर डिपार्टमेंट में राम गरीब जी थे और पोट्री डिपार्टमेंट में पांचू दादा .... जो मिटटी छान कर थोडा थोडा पानी मिला कर उसे चिकना करते थे और पैरों से मल कर ....मुलायम कर के मूर्ति बनाने लायक बनाते थे.....फिर सबको एक एक ढेर या लोंदा जो भी कहें ..... देते थे............ सभी बच्चो को एक एक लम्बी टांगो वाले स्टूल दिए जाते थे जिनपर वो मिटटी रख कर मूर्ति बनाना सीखते थे ...................ये ऐसे स्टूल थे जिनके चारो तरफ घूम घूम के काम किया जा सकता था........पोट्री के लिए इस तरह के स्टूलो पर चाक बनी हुई थी ................जिसे घुमा घुमा कर पाट बनाते थे....मुझे याद है ..............हम को सबसे पहली बार नाक (नोज ) बनाने को दी गई थी..........एक पहले से बनी हुई नाक के आकार की मूर्ति थी जिसे देख के हम लोगो को बनाना था.....और सभी लोगो ने ...ऐसा ऐसा आकार बनाया था जो पता नहीं क्या क्या लग रहा था..सिर्फ नाक नहीं लग रहा था...........उसके बाद आँख... .. होंठ ....पूरा चेहरा ........हाथ पैर ......बनाना सिखाया गया.........फिर छोटी छोटी मूर्तियाँ ..जिन्हें मेकेड कहते हैं..बनाना बताया गया...पर मुझे मूर्ति कला में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रही ................क्योकि ये काम बहुत शारीरिक मेहनत मांगता था.....और धूल मिटटी से भरा था.....मूर्तिकला विभाग में जाने का मतलब था....सारे कपड़ो में मिट्टी और गन्दगी लग जाना.......पर कुछ लडको को बहुत रूचि थी.......जिनमे ज्ञान सिंह प्रमुख था.....आज ज्ञान सिंह ने मूर्तिकला में काफी नाम कर लिया है.........देश के अग्रणी कलाकारों में नाम है उसका.......उसने और बिश्राम प्रसाद यादव ने वुड कार्विंग में पहली बार . खरगोश बनाया था ................मुझे आज भी याद है..............हम सभी लोग साथ में ही काम करते थे........................और ज्ञानसिंह मेरी बहुत मदद कर देता था..............मेरी बनाई हुई कुछ छोटी छोटी गणेश की मूर्तियों को उसने मेटल में कास्ट भी किया था................पर अफ़सोस है कि वो मूर्तिया मुझे कभी वापस नहीं मिली ......मूर्ति कला में भी सुरेखा का काम बहुत सुन्दर था.....वो बहुत ही नाज़ुक सी और खूबसूरत सी मूर्तिया बनाती थी......यहाँ तक कि उसने चाक जैसे सॉफ्ट पदार्थ पर भी आलपिन से मूर्तिया बना डाली थीं ......सभी हैरान रह जाते थे उसका काम देख कर ........बिश्राम को फोटोग्राफी में बहुत रूचि थी और उस ने फोटो स्टूडियो खोल लिया था और आज भी वो अपना स्टूडियो चला रहा है.........
. हमारे फोटोग्राफी के सर थे श्री डी.एल.वोहरा....जो कि हिन्दुस्तान के जानेमाने फोटोग्राफर्स में से एक रहे हैं.......बेहद अच्छे थे वो पर बच्चे उन्हें बहुत तंग करते थे.....जिसकी वजह उनका थोडा मूडी होना भी था.......बड़ी जल्दी किसी बात पर नाराज़ हो जाना .......और अपनी टेबल की चीजो को हर समय संभालते रहना उनका स्वभाव था................या कोई फोबिया था ..................नहीं कह सकती ....हम लोगो का पूरा ध्यान उनके लेक्चर से ज्यादा उनके टेबल पर रहता था ..........जहाँ वो बड़े ही मनोयोग से अपना सामान संभालते रहते थे...........पर वो ........जितनी बार अपना सामान संभालते.....लड़के उनकी नज़र बचाकर फिर इधर उधर कर देते......वे फिर ठीक करते और लड़के फिर वही काम करते...इसे देखते देखते... ..बड़ी हंसी आती थी........पर सब नजरे बचा कर खीं खीं करते रहते.........और मज़ा तो तब आता जब हम सभी उनके साथ ...प्रिंट डेवलप करने उनके डार्करूम में जाते थे.............
अपनी खींची हुई फोटोज का प्रिंट बनाने जब हम पहली बार डार्क रूम में गए और नेगेटिव से पोजिटिव बनाया .......उफ्फ्फ .....कितना अद्भुत लगा था जैसे कोई चमत्कार हो .....फोटोपेपर को चार तरह के केमिकल्स ........जिनमे डेवेलपर हाइपो और एक क्या था याद नहीं आरहा ..में से गुजरना पड़ता था ...और जब धीरे धीरे उस पर आकार उभर आता था तो एक जादू देखने जैसा अनुभव होता था वो ......सबका पूरा ध्यान रहता था की .......किसकी फोटो सबसे अच्छी आई है ......उस समय के बनाये हुए वो प्रिंट्स आज भी एक धरोहर की तरह हैं ......बहुत सी फोटोज खींची हैं हम लोगो ने ........अब तो यही लगता है की ब्लेक एंड व्हाईट फोटोज का कोई जबाब नहीं.....
एक दम अँधेरा कमरा ...सिर्फ एक लाल बल्ब जलता रहता था.....छोटे से कमरे में ....सभी एक दूसरे से सट कर खड़े होते थे..............हम चारो लडकियां बोहरा सर की बाएँ तरफ लडको से अलग हट कर खडी होती थीं.........वहां बड़ा सा पंखा चलता रहता था.........एक दिन किसी लड़के ने किसी लड़के को चुटकी काट ली फिर तो चुटकी का आदान प्रदान होने लगा और फिर किसी ने सर को ही चुटकी काट ली.......कितना जोर से बिगड़े थे सर आज भी याद है.......क्या बदतमीजी है...............बाहर निकलने के बाद कोई सर से बात नहीं कर पा रहा था ...........इतनी शर्म आई थी.......
बहुत दिनों बाद सर से मिलने उनके घर गई थी.....बहुत अशक्त और वृध्द हो गए थे सर........ .....बहुत रोना आया उनसे मिल के......अब नहीं है वोहरा सर....पर उनकी जगह आज तक कोई नहीं ले पाया......फाइन आर्ट्स में................फोटोग्राफी सेक्शन की जगह भी काफी बदल गई है........फोटो ग्राफी रूम के सामने ही टायपोग्राफी सेक्शन था ......वहां श्रीवास्तव सर थे...................और उनके हेल्पर थे संपत जी.....बहुत ज्यादा ख्याल रखने वाले...... वे बच्चो की कितनी मदद करते थे आज सोचती हूँ तो मन भर आता है......इतना स्नेह ................इतनी लगन से कोई चीज सिखाना .......आज भी फाइन आर्ट्स जाती हूँ तो ....संपत जी ,लाल जी,गोपाल जी सभी से मुलाकात होती है...कुछ लोग तो अब रिटायर हो गए हैं.....पर अभी भी जो लोग मिलते हैं बहुत प्रेम से से मिलते हैं............ टायपोग्राफी में प्रेस का काम सिखाया जाता था....कोई भी मैटर कैसे कैसे टाइप किये जाते हैं उनको मशीन से कैसे छापा जाता है..लेटर पैड बनाना...कैलेण्डर बनाना.....ग्रीटिंग कार्ड बनाना ये सब वहां पर सीखा ...............बहुत ही इंट्रेस्टिंग विषय था वो भी.....एक बार मेरे एक साथ के छात्र गिरीश का हाथ प्रेस मशीन में दब गया था....उसकी ३ उंगलियाँ कड़कडा कर टूट गई थीं.....पूरी मशीन और फर्श खून से भर गई थी.......आज भी याद कर के सिहर उठती हूँ.......टायपोग्राफी सेक्शन का ही एक और हिस्सा था ब्लाक मेकिंग.....जहाँ ब्लाक बनाना बताया जाता था..................ये चूंकि मेरी दिलचस्पी का विषय नहीं था............इस लिए इसमें मैंने ज्यादा काम नहीं किया.....या यूं कहूं कि मेरे ज्यादातर ब्लाक्स यादव जी (ब्लाक मेकिंग के हेल्पर) ने ही बना दिए थे.....मुखर्जी सर से क्षमा याचना सहित ........
. खैर ......पहला और दूसरा साल इसी तरह बीत गया.......तीसरे साल से कोई एक विषय लेना होता था जिसमे ज्यादा रूचि होती थी...तो मैंने और सुरेखा ने अप्लाइड आर्ट्स (कोमर्शिअल आर्ट्स )चुना और राजश्री और अनामिका ने पेंटिंग ......अनामिका का टेक्सटाइल डिजाइन में अच्छा काम था.....और राजश्री का ग्राफिक्स में......युवक ने भी पेंटिंग ही लिया था ...................ग्राफिक्स में...उसका काम भी बहुत अच्छा था..... ......पर यह तो मैं जरूर कहूँगी कि स्केचिंग में सुरेखा को छोड़ कर बाकि हम तीनो का हाथ बहुत अच्छा नहीं था...............बस किसी तरह बना लिया जाता था..........सेश्नल्स पूरा करने के लिए..
पेंटिंग और अप्लाइड कि साधारण कक्षाएं ऊपर होती थीं .सीढ़ियों से जाने पर दाहिनी तरफ पेंटिंग और बाएँ ओर अप्लाइड आर्ट्स ..........दोनों तरफ प्रवेश करते ही उस कक्ष का स्टोर होता था जहाँ पेंटिंग के लिए दादा जी तथा अप्लाइड के लिए राम सजीवन जी स्टोरकीपर थे......जो बच्चो को उनके कार्य करने हेतु कागज़ और रंग आदि देते थे........(उस वक़्त फीस के साथ ही साल भर के काम करने के लिए सभी सामग्रियों का पैसा जमा करा लिया जाता था....और हम लोग साल भर अपने सेश्नल्स बनाने के लिए रंग और कागज़ अपने स्टोर से ले सकते थे...) वहां बड़ी आपाधापी रहती थी.......क्यों कि बहुत से छात्र रंग और कागज़ लेते तो थे पर बनाते नहीं थे....और जब वो कागज़ ख़राब हो जाता था तो फिर फिर लेने जाते थे.....जिसके लिए सजीवन जी बहुत नाराज़ होते थे.....बहुत हाथ पैर जोड़ने पर फिर से देते थे...........वैसे ये नौबत कभी मेरे साथ नहीं आई.........पर अक्सर देखती थी कि लड़के बहुत रंग और कागज़ बर्बाद करते थे........अब जब सब खुद से खरीदना पड़ता है तो लगता है कि कितना बेवकूफी का काम करते थे हम सब.............कलर प्लेट में ढेरो रंग निकाल लेना और फिर काम हो जाने के बाद सारा रंग जाकर नाली में बहा देना.........फाइन आर्ट्स कि नाली भी रंग बिरंगी हो जाती थी..........अब वो नाली और पानी पीने के लिए लगे हुए नल ....सभी का काया कल्प हो चुका है.........सभी नए ढंग से बना दिए गए हैं......पहले पोस्टर बनाने के लिए जो कागज़ हम लोग बोर्ड पर चिपकाते थे.............वो वहीँ लान में एक दूसरे के सहयोग से पूरा किया जाता था..........पूरे बोर्ड को अच्छी तरह गीला करना फिर पूरे कागज़ को अच्छी तरह भिगो कर बोर्ड पर चिपकाना और ब्राउन गम टेप से चारो तरफ इस तरह दबा दबा कर चिपकाना कि किसी भी तरफ से उनके बीच हवा न पहुंचे .....फिर भी हवा पंहुच ही जाती थी....और सूख जाने के बाद आलपिन से छेद कर वो हवा बाहर निकली जाती थी.....ताकि बनाते समय कोई बुलबुले न उठें और .......चित्र बनाते समय कोई परेशानी न हो........ये काम सुनने में तो बहुत आसान लगता था पर जरा सी भी कमी हो जाये तो नुक्सान उठाना पड़ता था.........बने बनाये हुए चित्र अपने आप फट जाते थे..........अपने एडमिशन के थोड़े ही दिनों बाद अपने एक सीनिअर के बनाये हुए पोस्टर के साथ हम लोग ये हादसा( ! ) देख चुके थे.......इस लिए हमेशा सचेत रहते थे......... ..हुआ ये कि हमारे एक सिनिअर जिनका स्प्रे पेंटिंग का काम बहुत ही अच्छा था......बड़े मनोयोग से अपना प्रोजेक्ट वर्क बना रहे थे.......और वो चित्र इतना सुन्दर था कि हम सभी घंटो खड़े हो कर वो चित्र देखा करते थे.......एक नियम सा बन गया था कि रोज सुबह कॉलेज पहुँचने के बाद जाकर ये देखना कि वो चित्र कितना बन गया??......क्यों कि बहुत से हॉस्टल में रहने वाले छात्र शाम देर तक रुक कर भी काम किया करते थे......एक दिन जब हम लोग सुबह वहां पहुचे तो देखा कि वो चित्र बीच से फट गया है......किसी ने फाड़ दिया हो ये नहीं कहा जा सकता था ........क्यों कि चारो तरफ से लगा हुआ गम टेप वैसे का वैसा ही था.............बाद में ये पता चला कि अगर ठीक से कागज़ न चिपका हो तो वो एक समय के बाद वो खुद से तड़क कर फट जाता है........बहुत दुखी हुए हम लोग.........बाद में उस चित्र को सही किया गया पर ये बात हमेशा के लिए याद हो गई ...................ये सारी बाते आज भी आँखों के सामने जीवंत हैं......
बहुत दिनों बाद सर से मिलने उनके घर गई थी.....बहुत अशक्त और वृध्द हो गए थे सर........ .....बहुत रोना आया उनसे मिल के......अब नहीं है वोहरा सर....पर उनकी जगह आज तक कोई नहीं ले पाया......फाइन आर्ट्स में................फोटोग्राफी सेक्शन की जगह भी काफी बदल गई है........फोटो ग्राफी रूम के सामने ही टायपोग्राफी सेक्शन था ......वहां श्रीवास्तव सर थे...................और उनके हेल्पर थे संपत जी.....बहुत ज्यादा ख्याल रखने वाले...... वे बच्चो की कितनी मदद करते थे आज सोचती हूँ तो मन भर आता है......इतना स्नेह ................इतनी लगन से कोई चीज सिखाना .......आज भी फाइन आर्ट्स जाती हूँ तो ....संपत जी ,लाल जी,गोपाल जी सभी से मुलाकात होती है...कुछ लोग तो अब रिटायर हो गए हैं.....पर अभी भी जो लोग मिलते हैं बहुत प्रेम से से मिलते हैं............ टायपोग्राफी में प्रेस का काम सिखाया जाता था....कोई भी मैटर कैसे कैसे टाइप किये जाते हैं उनको मशीन से कैसे छापा जाता है..लेटर पैड बनाना...कैलेण्डर बनाना.....ग्रीटिंग कार्ड बनाना ये सब वहां पर सीखा ...............बहुत ही इंट्रेस्टिंग विषय था वो भी.....एक बार मेरे एक साथ के छात्र गिरीश का हाथ प्रेस मशीन में दब गया था....उसकी ३ उंगलियाँ कड़कडा कर टूट गई थीं.....पूरी मशीन और फर्श खून से भर गई थी.......आज भी याद कर के सिहर उठती हूँ.......टायपोग्राफी सेक्शन का ही एक और हिस्सा था ब्लाक मेकिंग.....जहाँ ब्लाक बनाना बताया जाता था..................ये चूंकि मेरी दिलचस्पी का विषय नहीं था............इस लिए इसमें मैंने ज्यादा काम नहीं किया.....या यूं कहूं कि मेरे ज्यादातर ब्लाक्स यादव जी (ब्लाक मेकिंग के हेल्पर) ने ही बना दिए थे.....मुखर्जी सर से क्षमा याचना सहित ........
. खैर ......पहला और दूसरा साल इसी तरह बीत गया.......तीसरे साल से कोई एक विषय लेना होता था जिसमे ज्यादा रूचि होती थी...तो मैंने और सुरेखा ने अप्लाइड आर्ट्स (कोमर्शिअल आर्ट्स )चुना और राजश्री और अनामिका ने पेंटिंग ......अनामिका का टेक्सटाइल डिजाइन में अच्छा काम था.....और राजश्री का ग्राफिक्स में......युवक ने भी पेंटिंग ही लिया था ...................ग्राफिक्स में...उसका काम भी बहुत अच्छा था..... ......पर यह तो मैं जरूर कहूँगी कि स्केचिंग में सुरेखा को छोड़ कर बाकि हम तीनो का हाथ बहुत अच्छा नहीं था...............बस किसी तरह बना लिया जाता था..........सेश्नल्स पूरा करने के लिए..
पेंटिंग और अप्लाइड कि साधारण कक्षाएं ऊपर होती थीं .सीढ़ियों से जाने पर दाहिनी तरफ पेंटिंग और बाएँ ओर अप्लाइड आर्ट्स ..........दोनों तरफ प्रवेश करते ही उस कक्ष का स्टोर होता था जहाँ पेंटिंग के लिए दादा जी तथा अप्लाइड के लिए राम सजीवन जी स्टोरकीपर थे......जो बच्चो को उनके कार्य करने हेतु कागज़ और रंग आदि देते थे........(उस वक़्त फीस के साथ ही साल भर के काम करने के लिए सभी सामग्रियों का पैसा जमा करा लिया जाता था....और हम लोग साल भर अपने सेश्नल्स बनाने के लिए रंग और कागज़ अपने स्टोर से ले सकते थे...) वहां बड़ी आपाधापी रहती थी.......क्यों कि बहुत से छात्र रंग और कागज़ लेते तो थे पर बनाते नहीं थे....और जब वो कागज़ ख़राब हो जाता था तो फिर फिर लेने जाते थे.....जिसके लिए सजीवन जी बहुत नाराज़ होते थे.....बहुत हाथ पैर जोड़ने पर फिर से देते थे...........वैसे ये नौबत कभी मेरे साथ नहीं आई.........पर अक्सर देखती थी कि लड़के बहुत रंग और कागज़ बर्बाद करते थे........अब जब सब खुद से खरीदना पड़ता है तो लगता है कि कितना बेवकूफी का काम करते थे हम सब.............कलर प्लेट में ढेरो रंग निकाल लेना और फिर काम हो जाने के बाद सारा रंग जाकर नाली में बहा देना.........फाइन आर्ट्स कि नाली भी रंग बिरंगी हो जाती थी..........अब वो नाली और पानी पीने के लिए लगे हुए नल ....सभी का काया कल्प हो चुका है.........सभी नए ढंग से बना दिए गए हैं......पहले पोस्टर बनाने के लिए जो कागज़ हम लोग बोर्ड पर चिपकाते थे.............वो वहीँ लान में एक दूसरे के सहयोग से पूरा किया जाता था..........पूरे बोर्ड को अच्छी तरह गीला करना फिर पूरे कागज़ को अच्छी तरह भिगो कर बोर्ड पर चिपकाना और ब्राउन गम टेप से चारो तरफ इस तरह दबा दबा कर चिपकाना कि किसी भी तरफ से उनके बीच हवा न पहुंचे .....फिर भी हवा पंहुच ही जाती थी....और सूख जाने के बाद आलपिन से छेद कर वो हवा बाहर निकली जाती थी.....ताकि बनाते समय कोई बुलबुले न उठें और .......चित्र बनाते समय कोई परेशानी न हो........ये काम सुनने में तो बहुत आसान लगता था पर जरा सी भी कमी हो जाये तो नुक्सान उठाना पड़ता था.........बने बनाये हुए चित्र अपने आप फट जाते थे..........अपने एडमिशन के थोड़े ही दिनों बाद अपने एक सीनिअर के बनाये हुए पोस्टर के साथ हम लोग ये हादसा( ! ) देख चुके थे.......इस लिए हमेशा सचेत रहते थे......... ..हुआ ये कि हमारे एक सिनिअर जिनका स्प्रे पेंटिंग का काम बहुत ही अच्छा था......बड़े मनोयोग से अपना प्रोजेक्ट वर्क बना रहे थे.......और वो चित्र इतना सुन्दर था कि हम सभी घंटो खड़े हो कर वो चित्र देखा करते थे.......एक नियम सा बन गया था कि रोज सुबह कॉलेज पहुँचने के बाद जाकर ये देखना कि वो चित्र कितना बन गया??......क्यों कि बहुत से हॉस्टल में रहने वाले छात्र शाम देर तक रुक कर भी काम किया करते थे......एक दिन जब हम लोग सुबह वहां पहुचे तो देखा कि वो चित्र बीच से फट गया है......किसी ने फाड़ दिया हो ये नहीं कहा जा सकता था ........क्यों कि चारो तरफ से लगा हुआ गम टेप वैसे का वैसा ही था.............बाद में ये पता चला कि अगर ठीक से कागज़ न चिपका हो तो वो एक समय के बाद वो खुद से तड़क कर फट जाता है........बहुत दुखी हुए हम लोग.........बाद में उस चित्र को सही किया गया पर ये बात हमेशा के लिए याद हो गई ...................ये सारी बाते आज भी आँखों के सामने जीवंत हैं......
Saturday, September 11, 2010
वो ५ दिन
सिर्फ ५ दिन ही तो थे वो.....
और हर दिन घंटों में
हर घंटा मिनटों में और
हर मिनट सेकेंडों में बदलता जा रहा था....
और हर सेकेण्ड में कितने युग.......
हर मिनट सेकेंडों में बदलता जा रहा था....
और हर सेकेण्ड में कितने युग.......
समय जैसे ठहर गया था.....
या यूं कहूँ ....................
भाग रहा था..............
.नहीं जानती......
मैंने गिन गिन के काटे थे वो पल
कितनी बार हनुमान चालीसा पढ़ी थी ................
बाहर रिसेपशन में लगे हुए साई बाबा के चित्र के आगे कितना गिडगिड़ाई थी ..........पर वे भी सिर्फ हमें मुस्कुराते हुए देखते रहे......शायद हमारे धैर्य की परीक्षा ले रहे थे....
भूलता नहीं..........
कितनी देर मन ही मन बाबा विश्वनाथ के आगे बैठी रही थी
आप के जाने के आखिरी पल तक मेरा यकीं बना हुआ था माँ
मुझे लगा था ........आप कभी हम सबको छोड़ के नहीं जा सकती हैं
मुझे लगा था हम सबका यकीं आपको दूसरी दुनिया से भी वापस ले आएगा.............
जागते हैं लोग बेहोशी की कभी न टूटने वाली नींद से भी ................
कितनी ही बार ऐसे किस्से सुने हैं ......................
कितनी उम्मीद लगा रखी थी कि कुछ ऐसा ही चमत्कार हो जाये हमारे साथ भी......................
डॉक्टर ने भी कहा था..............
पर कुछ नहीं हुआ.....
.
सभी की प्रार्थनाये बेकार हो गईं........
किसी भी देवता को तरस नहीं आया हम पर........
सब बैठे रहे...अपनी अपनी आस्था और विश्वास के साथ .....
आप कहीं नहीं जा सकतीं.......जरूर लौट आएँगी ये सोच कर ................
कितनी बार आपका हाथ पकड़ कर सहलाया .............झकझोरा था.....ऑक्सीजन मास्क से ढका हुआ चेहरा .......सूजी हुई आँखें जो एक समय में बेहद खूबसूरत कही जाती थीं.....बंद थीं......आज भी जेहन में बिलकुल ताज़ा है.....वो मशीन जो हर पल दिल के धड़कने और ब्लड प्रेशर के ऊपर नीचे होने की सूचना दे रही थी...आज भी उस आवाज से डर लगता है....(मम्मी के कराहने की आवाज के साथ उस मशीन की भयानक आवाज .......उफ्फ्फ्फफ्फ़ .......)......
आपके कानो में की .थी, .................नहीं जाने की ....................... गुजारिश..................बहुत सी बाते मन में ही रह गई और मन में ही रह जाएँगी हमेशा के लिए .......................
वो सारी बातें जो कभी किसी से .............जिंदगी में नहीं कही..........अब किस से कहूँगी ..???/
क्या आपने कुछ भी सुना होगा माँ?
पता भी नहीं चला......आप कब चली गईं......
आप ऐसे ही क्यों चली गई थी ???
................किसी को कुछ भी कहे बिना...............
मैं महसूस कर सकती हूँ कि क्या और कैसा लगा मुझे............
बार बार लग रहा था......... .कुछ नहीं होगा....
.कुछ अरसा लगेगा ................ .. फिर सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा .....
मगर कहीं मन में खटक रहा था ..................मैं जानती थी.................
कि अब सब कुछ पहले जैसा कभी नहीं हो पायेगा .
ये नामुमकिन है ...................................
ये मन सब कुछ पाकर भी खाली ही रहेगा ....
.
वो दिन .........अब कभी वापस नहीं लौटेंगे..............................
.....अब तो यही लगता ज़िन्दगी के कैलेण्डर में से गुज़रे हुए वो 5 दिन .............कहीं खो जाएँ ...........
और मैं सब कुछ फिर से ठीक कर लूं ......
जब आप मौत और ज़िन्दगी के दरम्यान थीं ....
और डाक्टर भी बहुत पुर उम्मीद नहीं थे.........
ये सह सकने लायक बात नहीं थी न .....
कम से कम मेरे लिए तो नहीं .....
मैंने बहुत कम अरसे में आपको और पापा जी को , दोनों
को खोया है ......न .....
वो मैं ज्यादा अच्छी तरह जान सकती हूँ
अब अफ़सोस होता है कि क्यों अपनी ज़िन्दगी में
इतना व्यस्त रही कि आप लोगो को बिलकुल
समय नहीं दे पाई ...
आज जब आप लोग नहीं हैं तो हाथ मलने के सिवा कोई चारा नहीं
हम अपनी व्यस्त जिंदगी में कई चीजो को समय नहीं दे पाते हैं
जिसका अफ़सोस हमें पूरी जिंदगी रहता है ,.हमेशा रुलाता है
सोचती हूँ कि ..................काश थोडा समय का
पहिया वापस घूम जाता ............
तो सारी गलतियों के लिए माफ़ी मांग लेती .......
.मुझे तो याद भी नहीं कि आखिरी बार कब आपसे लिपट के रोई हूँगी ......
आप क्यों चली गई ???............
सभी को कितनी जरूरत है आपकी ...................क्या करूँ..................
मुझे लगता है वहाँ से कोई वापस नहीं आता..........
फिर आप लोग कैसे आयेंगे
अभी तो कितने काम करने थे आपको...................
हमें कुछ भी तो नहीं मालूम .......कैसे करेंगे
........हम लोग सब कुछ......
इनमे से किसी भी सवाल का जबाब नहीं है हमारे पास.....
काश के आप लौट आयें फिर से..........
...
Wednesday, September 8, 2010
समय के साथ
टिक ........टिक …करते हुए लगातार आगे को बढती हुई घडी कि सुई सिर्फ समय नहीं बताती ……..बल्कि ये सन्देश भी देती है कि वक़्त किसी के लिए नहीं ठहरता …. जो समय एक बार गुजर जाता है ..............वो किसी के लिए लौट के नहीं आता ……........कुछ लोग तो घडी कि सुईयों के सामान ही लगातार आगे बढ़ते रहते हैं ………… लेकिन कुछ ,लोग ऐसे … भी होते हैं
जिनके हाथ से वक़्त का पल्लू छूट जाता है …..
एक बार वक़्त का पल्लू छूटा नहीं कि फिर वे पिछड़ते ही चले जाते हैं …… इस से उनके और समय के बीच का फासला इतना अधिक हो जाता है कि …………
उन लोगों के लिए दकियानूस और पिछड़ा …….
आदि शब्दों का इस्तेमाल शुरू हो जाता है …….
और ऐसी हालत में अन्दर ही अन्दर कुढने और सबसे चिढने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं बचता …..
और फिर एक दिन ऐसी हालत में ऐसे लोग खुद ही मानने को मजबूर हो जाते हैं कि वे वास्तव में समय से पिछड़ चुके हैं ………………
. समय के साथ चलना जहाँ वरदान है वहीँ पिछड़ना अभिशाप ……..
अक्सर समय के साथ चलने को आधुनिकता से जोड़ कर देखा जाता है ….जो कि गलत है …..
Sunday, September 5, 2010
रैगिंग के वो दिन
फाइन आर्ट्स पहुँचने के बाद ....महसूस हुआ के जितना हम समझ रहे थे वैसा आसान नहीं है सब ..............खास तौर पर स्केचिंग और ड्राइंग की क्लासेस ........सामने खड़े हुए इंसान को देख कर ज्यों का त्यों बना देना ....बड़ा मुश्किल का काम था ..............और जब किसी को ये पता चलता था कि हम आर्टिस्ट हैं तो सबसे पहले ये ही लोग पूछते थे कि ....हमारा फोटो बना दोगी ???........जैसे वो कोई बहुत ही अद्भुत वस्तु हैं .........और उनका फोटो बना लेना बहुत बड़ी कला है ....... ..... .या जब भी कोई हमारे बहुत अच्छा कलाकार होने का बखान करता तो ये जरूर बताया जाता कि ये बहुत अच्छा चित्र बनाती हैं समझ लो तुम बैठ जाओ तो बिलकुल तुम्हारा फोटो उतार के रख देगी ....
और ये कर पाना जरा मुश्किल काम था ...............क्यों कि जब भी कोई अपना चित्र बनवाने बैठता .........तो वो ये सोच कर बैठता कि हम बिलकुल उसकी फोटो खींच रहे हैं ......और अगर शकल न मिली ...तो ऐसा मुंह बनाता कि जैसे हम लोग बिलकुल बेवकूफ हैं और हमें कुछ आता जाता नहीं ..........फालतू में कलाकार बने बैठे हैं ..........
तो ड्राइंग में हाथ साधते साधते काफी वक़्त लगा ........और स्केचिंग करने कभी लंका (बी.एच.यू. के गेट के बाहर का एरिया ) कभी गंगा घाट तो कभी कैंट स्टेशन जाना पड़ता था ...........ज्यादातर तो हम लोग हॉस्पिटल के सामने के पार्क में या गंगा घाट जाते थे ......और वहां कहीं कहीं बैठ कर स्केच बनाते थे ......जो अनजान लोगो के लिए बड़ा ही उत्सुकता भरा विषय होता था .....सभी घेर कर खड़े हो जाते थे ..........और उस समय अच्छा चित्र न बन पा रहा हो तो बड़ी बेइज्जती सी महसूस होती थी .........
खैर कहते हैं न नया नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है .......तो वही बात ..हम लोगो के साथ भी थी .....नए नए फाइन आर्टिस्ट ...... .........रात दिन स्केच और ड्राइंग बनाने में जुटे रहते .....
जिस समय हमने कॉलेज ज्वाइन किया था .........उसी समय मेरी सहेली अनामिका की दीदी को बेटा हुआ था वहीँ बी.एच.यू. हॉस्पिटल में .............करीब एक हफ्ते तक कॉलेज जाने के बाद पता चला कि हमारे इंट्रो पार्टी होने वाली है ......हलकी फुलकी रैगिंग तो होती ही रहती थी .... पर ऐसा कुछ नहीं था कि कोई बहुत ज्यादा परेशान हो .......बस नाम पूछना ,गाना सुनना .......यही सब होता था .......तो लंच होते ही हम चारो कॉलेज से निकल भागते थे ....जिनमे राजश्री और सुरेखा तो ..हॉस्टल चली जाती और मैं और अनामिका की दीदी के पास हॉस्पिटल पहुँच जाते ........
और लंच ख़तम होने तक वहीँ रहते ......सीनियर लोगो से डर के मारे छुपे रहते ........
और एक दिन अचानक पता चला के बड़े बड़े लोग जो काफी सीनियर थे .......आने वाले हैं ....और रैगिंग के लिए तैयार हो जाओ .....हम सभी कि हालत ख़राब हो गई .....क्यों कि मेरी क्लास में सिर्फ ४ ही लड़कियां थीं ..........
और सीनियर में भी एक तिवारी दा हैं जो बहुत बुरी तरह रैगिंग लेते हैं ..............ये सुन कर काफी चिंता हुई कि क्या होगा ?//....क्यों कि तिवारी दा को हम लोगो ने रूबरू नहीं देखा था ..................सिर्फ फोटोग्राफी की क्लास में लगी हुई उनकी फोटो देखी थी .....बोहरा सर जो हमारे फोटोग्राफी क्लास के टीचर थे .....उन्होंने कुछ टिपिकल और अलग अलग इम्प्रेशंस कि अच्छी अच्छी फ़ोटोज़ बोर्ड पर लगा रखी थी .....जिनमे तिवारी दा की भी कुछ पिक्चर्स थी .....उनको देख कर कुछ बहुत अच्छा इम्प्रेशन नहीं पड़ा था ....लगता था कुछ रूड टाइप कि पर्सनालिटी होगी उनकी ........खैर ......एक दिन हम लोग कैंटीन में चाय पीने गए तो पता चला कि पूरा सीनियर ग्रुप वहां बैठा हुआ है ......जिनमे .......राजीव दा , सविता दी , धर्मेश दा ,तिवारी दा और भी कुछ लोग थे जिनके नाम अब याद नहीं .......
किसी तरह चाय पीकर हम लोग भागे वहां से ......अगले दिन की चिंता में ..रात भर नींद नहीं आई .....बस यही लगता था कि इतने सारे लोगो के बीच मेंबहुत हंसी उड़ाई जाएगी ....और ये भी कह दिया गया था कि अनुपस्थित नहीं होना है ....क्यों कि जो नहीं आया उसे अकेले ये सब झेलना पड़ेगा .......सबके बीच में तो काम चल जायेगा पर अकेले ???? ये सोच कर ही ..हालत ख़राब थी ..............
फाइन आर्ट्स पहुँचने के बाद ....महसूस हुआ के जितना हम समझ रहे थे वैसा आसान नहीं है सब ..............खास तौर पर स्केचिंग और ड्राइंग की क्लासेस ........सामने खड़े हुए इंसान को देख कर ज्यों का त्यों बना देना ....बड़ा मुश्किल का काम था ..............और जब किसी को ये पता चलता था कि हम आर्टिस्ट हैं तो सबसे पहले ये ही लोग पूछते थे कि ....हमारा फोटो बना दोगी ???........जैसे वो कोई बहुत ही अद्भुत वस्तु हैं .........और उनका फोटो बना लेना बहुत बड़ी कला है ....... ..... .या जब भी कोई हमारे बहुत अच्छा कलाकार होने का बखान करता तो ये जरूर बताया जाता कि ये बहुत अच्छा चित्र बनाती हैं समझ लो तुम बैठ जाओ तो बिलकुल तुम्हारा फोटो उतार के रख देगी ....
और ये कर पाना जरा मुश्किल काम था ...............क्यों कि जब भी कोई अपना चित्र बनवाने बैठता .........तो वो ये सोच कर बैठता कि हम बिलकुल उसकी फोटो खींच रहे हैं ......और अगर शकल न मिली ...तो ऐसा मुंह बनाता कि जैसे हम लोग बिलकुल बेवकूफ हैं और हमें कुछ आता जाता नहीं ..........फालतू में कलाकार बने बैठे हैं ..........
तो ड्राइंग में हाथ साधते साधते काफी वक़्त लगा ........और स्केचिंग करने कभी लंका (बी.एच.यू. के गेट के बाहर का एरिया ) कभी गंगा घाट तो कभी कैंट स्टेशन जाना पड़ता था ...........ज्यादातर तो हम लोग हॉस्पिटल के सामने के पार्क में या गंगा घाट जाते थे ......और वहां कहीं कहीं बैठ कर स्केच बनाते थे ......जो अनजान लोगो के लिए बड़ा ही उत्सुकता भरा विषय होता था .....सभी घेर कर खड़े हो जाते थे ..........और उस समय अच्छा चित्र न बन पा रहा हो तो बड़ी बेइज्जती सी महसूस होती थी .........
खैर कहते हैं न नया नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है .......तो वही बात ..हम लोगो के साथ भी थी .....नए नए फाइन आर्टिस्ट ...... .........रात दिन स्केच और ड्राइंग बनाने में जुटे रहते .....
जिस समय हमने कॉलेज ज्वाइन किया था .........उसी समय मेरी सहेली अनामिका की दीदी को बेटा हुआ था वहीँ बी.एच.यू. हॉस्पिटल में .............करीब एक हफ्ते तक कॉलेज जाने के बाद पता चला कि हमारे इंट्रो पार्टी होने वाली है ......हलकी फुलकी रैगिंग तो होती ही रहती थी .... पर ऐसा कुछ नहीं था कि कोई बहुत ज्यादा परेशान हो .......बस नाम पूछना ,गाना सुनना .......यही सब होता था .......तो लंच होते ही हम चारो कॉलेज से निकल भागते थे ....जिनमे राजश्री और सुरेखा तो ..हॉस्टल चली जाती और मैं और अनामिका की दीदी के पास हॉस्पिटल पहुँच जाते ........
और लंच ख़तम होने तक वहीँ रहते ......सीनियर लोगो से डर के मारे छुपे रहते ........
और एक दिन अचानक पता चला के बड़े बड़े लोग जो काफी सीनियर थे .......आने वाले हैं ....और रैगिंग के लिए तैयार हो जाओ .....हम सभी कि हालत ख़राब हो गई .....क्यों कि मेरी क्लास में सिर्फ ४ ही लड़कियां थीं ..........
और सीनियर में भी एक तिवारी दा हैं जो बहुत बुरी तरह रैगिंग लेते हैं ..............ये सुन कर काफी चिंता हुई कि क्या होगा ?//....क्यों कि तिवारी दा को हम लोगो ने रूबरू नहीं देखा था ..................सिर्फ फोटोग्राफी की क्लास में लगी हुई उनकी फोटो देखी थी .....बोहरा सर जो हमारे फोटोग्राफी क्लास के टीचर थे .....उन्होंने कुछ टिपिकल और अलग अलग इम्प्रेशंस कि अच्छी अच्छी फ़ोटोज़ बोर्ड पर लगा रखी थी .....जिनमे तिवारी दा की भी कुछ पिक्चर्स थी .....उनको देख कर कुछ बहुत अच्छा इम्प्रेशन नहीं पड़ा था ....लगता था कुछ रूड टाइप कि पर्सनालिटी होगी उनकी ........खैर ......एक दिन हम लोग कैंटीन में चाय पीने गए तो पता चला कि पूरा सीनियर ग्रुप वहां बैठा हुआ है ......जिनमे .......राजीव दा , सविता दी , धर्मेश दा ,तिवारी दा और भी कुछ लोग थे जिनके नाम अब याद नहीं .......
किसी तरह चाय पीकर हम लोग भागे वहां से ......अगले दिन की चिंता में ..रात भर नींद नहीं आई .....बस यही लगता था कि इतने सारे लोगो के बीच मेंबहुत हंसी उड़ाई जाएगी ....और ये भी कह दिया गया था कि अनुपस्थित नहीं होना है ....क्यों कि जो नहीं आया उसे अकेले ये सब झेलना पड़ेगा .......सबके बीच में तो काम चल जायेगा पर अकेले ???? ये सोच कर ही ..हालत ख़राब थी ..............
Thursday, September 2, 2010
फाइन आर्ट्स पँहुचे
पी .यू .सी .का रिजल्ट आने के बाद फाइन आर्ट्स के लिए भाग दौड़ शुरू हो गई......चूंकि हम लोगो को इसके बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था...इसलिए......श्री गाँधी आश्रम के हरी भाई बाबा जी के एक मित्र श्री रुस्तम सैटिन और सुश्री ज्ञानेश्वरी जी से मिलने उनके घर गए हम लोग...सैटिन जी के बेटे राजीव वहां के छात्र थे...उनसे काफी जानकारी मिली .कि एंट्रेंस एग्जाम में क्या क्या आता है ..किस किस विषय का पेपर होता है ये सब ...बार बार यही लगता था कि पता नहीं वहां दाखिला मिलेगा भी या नहीं....बस यूनिवर्सिटी जाने का इतना शौक़ था..कि क्या कहे शायद सभी को होता होगा एक तो यूनिवर्सिटी और उस पर फाइन आर्ट्स....क्या कहने .लगता था कितने मज़े कि लाइफ होगी दिन भर अपना मनपसंद काम करते समय बीतेगा ......
सब कुछ ठीक ठाक निबट गया....वहां इतना अच्छा अच्छा काम करने वाले बच्चे (बच्चे कहना ठीक नहीं.....क्यों कि कोई भी २२ ,२५ से नीचे नहीं था...शायद १५ ,२० लोग ही ऐसे थे जो १७ या १८ के अन्दर थे.....उस समय एडमिशन के लिए कोई उम्र कि सीमा नहीं थी कई लोग बी .ए . कर के भी आते थे .... ) आये थे .....कि उनका काम देख कर हमें अपना काम बेकार लगने लगा .................कई लोग ऐसे भी थे जो दूसरो से चित्र मांग कर लाये थे अपना नाम लिख कर.....जब सच्चाई पूछी गई तो वो लोग बगलें झाँकने लगे.........पर कुछ वाकई इतने अच्छे थे और फाइन आर्ट्स ज्वाइन करने के पहले ही उनका काम इतना मैच्योर था कि ताज्जुब होता था....जिनमे नेपाल से आया हुआ युवक रत्न तुलाधर और देहरादून से आई हुई सुरेखा आर्य ने बहुत प्रभावित किया सबको..........युवक तुलाधर काठमांडू से आया था.......(आज ये दोनों ही अपने कला क्षेत्र में ऊंचाइयो को छू चुके हैं....)
जब एडमिशन लिस्ट आउट हुई तो उसमे युवक का नाम पहले स्थान पर सुरेखा का नाम दूसरे स्थान पर और मेरा सातवे स्थान पर था....
एक लड़की पटना से आई थी..................बहुत ही प्यारी और अच्छी........राजश्री .....उसकी पर्सनालिटी बहुत अच्छी थी.......लगभग ५.८ ऊँचाई थी उसकी .............सुन्दर और स्मार्ट.....बहुत
सारे सीनियर लोग बड़े प्रभावित दिखे उस से ..(खास तौर पर लड़के..).......एक लड़की हमारे सेंट्रल स्कूल से ही आई थी पर उसने कुछ व्यक्तिगत कारणों से ज्वाइन करने के कुछ दिन बाद ही कॉलेज छोड़ दिया........ .... उस लड़की ने विमेंस कॉलेज में एडमिशन ले लिया.....
फर्स्ट ईअर में सिर्फ ५ ही लड़कियां थीं जिनमे से एक ने कुछ दिनों के बाद ही कॉलेज छोड़ दिया था.............उसके जाने का कारण जानने के बाद कुछ लोगो से बड़ी घृणा सी हुई...जो इतना वक़्त बीत जाने पर भी बनी हुई है.........ऐसे लोगो से हमारा पाला तो नहीं पड़ा............शायद इसमें मेरी..........लोगो को बहुत ज्यादा लिफ्ट नहीं देने की आदत का भी हाथ है...........खैर धीरे धीरे सबके बारे में जाना और कॉलेज में रमने की कोशिश शुरू हुई.....
Wednesday, September 1, 2010
कुछ पंक्तियाँ
संदर्भो से अलग अलग कटा हुआ है ...
जाने किन पाटो में मन बटा हुआ है
अपनी परछाईं भी अनजान हो गई है ..
जब से आधार बिंदु से हटा हुआ है ..
मन कि गहराई से आस का गगन गहन ..
दूर दूर है , मगर कहीं सटा हुआ है ..
अब भी वह श्वेत कबूतर वहीँ पड़ा है ..
आँखें चंचल है ,..पर पर कटा हुआ है
तुम भी इस पुस्तक को यूं ही मत छोड़ना ..
पृष्ठ सुरक्षित हैं ,,आवरण फटा हुआ है ..
(संकलन से).
परदेस जा रहे हो तो सब देखते जाओ ....
मुमकिन है वापस आओ तो वो घर नहीं मिले .......
हमें हमारे उसूलों से चोट पहुची है ...
हमारा हाथ हमारी ही छुरी ने काट दिया ..
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घने दरख़्त के नीचे मुझे लगा अक्सर ..
कोई बुज़ुर्ग मेरे सर पे हाथ रखता है ...
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तुम्हारे शहर की रंगीनियों से भाग आये ..
हमारी सोच का शीशा ज़रा पुराना था ..
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घर लौट के रोयेंगे माँ , बाप अकेले में ..
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में ..
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फिर मेरे सर पे कड़ी धूप कि बौछार गिरी ...
मैं जहाँ जा के छुपा था वही दीवार गिरी ..
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