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Wednesday, October 22, 2014

दीवाली की बचपन की यादें....




      अपने बचपन की दीवाली की यादों में से कुछ बांटने की इच्छा हो रही है..अब लगता है कि कितने भोले भाले पटाखे और आतिशबाजियां चलाई हैं हमने .......आज कल की भयानक आवाजों और दिल दहला देने वाले मंजर के सामने......उस समय में...एक तरह के पटाखे आया करते थे..सफ़ेद रंग के पतंगी कागज़ में थोड़ा सा बारूद वाला मसाला रख कर ऐंठ कर लपेट दिया जाता था....काफी कुछ लहसुन के आकार का ..उसे लहसुनिया पटाखा कहते भी थे..जिसे दीवार पर या जमीन पर इतने जोर से पटका जाता था की वो धड़ाम की आवाज़ के साथ फूट जाता था....एक बड़े पैकेट में काम से काम ५० से १०० लहसुन होते थे.....और उन्हें ज़मीन पर बार बार पटकने से हाथ भर जाते थे....और कई दिनों तक उनमे दर्द बना रहता था..पर फिर भी जोर की आवाज करने के लिए उस समय वो दर्द हम सब भूले रहते थे.......छोटे छोटे सुतली बम...मिर्ची बम....रेलगाड़ी...जो दूर दूर दो कीलों पर पतला सा धागा बाँध कर जला दी जाती थी जो सर्र से उस धागे पर चल कर जाती थी और दूसरें सिरे पर जाकर फिर वापस आती थी.... ..और सबसे मजेदार एक माचिस की डिब्बी जैसी पैकिंग में आने वाली छोटी छोटी लगभग हाजमोला की गोलियों के बराबर आकार जैसी काली काली टिकियां जिन्हे रख कर जलाने पर सरसराता हुआ एक सांप निकलता चला आता था......मुझे याद है उस सांप वाली डिब्बी पर जो चित्र बना होता था..........उसमे पूरा फन काढ कर बैठा हुआ नाग दिखाया जाता था.......पर हम सब कभी उस नाग का फन नहीं देख पाये..........गोल गोल तेजी से घूमने वाली चरखी.......बेहद खूबसूरत चमकदार रंग बिखेरने वाले बड़े बड़े अनार (जो मुझे कभी अनार के आकार के तो नहीं लगे...पता नहीं उनका नाम अनार कैसे पड़ा.? ),,,,..रॉकेट जलाने के लिए कबाड़ी की दूकान से खरीद कर लाई गई बियर की बोतलें.....छोटी छोटी पिस्तौलें ..जिनमे लगाने के लिए पतली पतली पत्तियों..वाली गोलिया.... जो एक बार पिस्तौल में लोड कर लेने पर चट चट की आवाज़ के साथ लगातार चलाई जा सकती थीं....मैंने तो कभी भी पटाखे चलने में रूचि नहीं ली पर मेरा भाई इस कार्य में ..और कहीं न कहीं हाथ पैर जलाने में भी....एक्सपर्ट था...मेरा सबसे मनपसंद दीवाली का आतिशबाजी आयटम था फुलझड़ी .....जो आज भी मुझे सबसे ज्यादा पसंद है.....
....पटाखे जला लिए जाने के बाद..चारों तरफ फैला हुआ उनका कूड़ा....बटोरना ..और सांप और चरखी जलाने के बाद ........मोजैक के फर्श पर बना हुआ कालिख और जलने का निशान साफ़ करना जो हफ़्तों की मेहनत के बाद कहीं साफ़ हो पाता था..... और अंत में सबसे खास बात..कि इतना कुछ खरीद के लाने के बाद भी १५ से २५ रूपये ही खर्च होते थे.....जब कि आज २५ रूपये में शायद कुछ भी न मिले......

Thursday, October 2, 2014

यूं ही.....

          साफ़ सुथरी सड़कों पर... नए नए झाड़ू लेकर ..पोज़ देते हुए..फोटो खिंचाने और रोज अपने घर द्वार की ही सफाई करने में बहुत अंतर है....एक से एक बनठन कर मेकअप  से पुते चेहरों का ....घर , रसोई और उसके आसपास पड़ी गन्दगी को भी देखा है.......अभी अपने ही घर में झाड़ू पोंछा लगाना पड़े तो आंधी आ जाए..........अगर हर कोई सिर्फ अपने घर ... अपने घर के आसपास...अपने मोहल्ले.... ही सफाई करने जा जिम्मा उठा ले..तो इतनी नौटंकी करने की जरूरत ही क्या पड़े.......आखिर हम लोग स्कूल में भी एक चार साल के बच्चे तक को ये सिखा ही देते हैं..की टॉफी खाने के बाद छिलका....और पेंसिल की छीलन या कागज की कतरन  को क्लास में रखे कूड़ेदान में ही डालना है......तो ये बात स्कूल से बाहर निकल कर सड़क पर पड़े कूड़ेदानों में कूड़ा डालने में कहाँ चली जाती है....सड़कों के किनारे भी दुनिया भर का कचरा चारो तरफ फेंका जाता है (सिर्फ कूड़ेदान में नहीं डाला जाता).....