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Saturday, October 20, 2012

फाउन्टेन पेन ...





हमारी पीढ़ी के लोगों ने जितना फाउन्टेन पेन का इस्तेमाल किया है उतना शायद अन्य किसी तरह की कलम का नहीं .....आज की पीढी में तो बहुतों ने इसे देखा भी न हो .....अब तो ये दुकानों में भी उपलब्ध नहीं ....मैंने कई दुकानों पर जाकर भी पूछा ....पर अब ये शायद बनना ही बंद हो गई हैं .....या शायद न बिकने के कारण दूकानदारों ने इसे रखना ही बंद कर दिया है ,.......

मुझे याद है जब कलम से लिखने का सुख प्राप्त हुआ, तो वह डेढ़ रुपये की फाउन्टेन पेन ही थी....प्लास्टिक की पारदर्शी पेन जिसका दक्कन किसी अलग रंग का होता था और पेन पारदर्शी प्लास्टिक का होता था जिस से ये पता चलता रहे कि उसमे स्याही है या नहीं.....कुछ पेन ऐसी भी होती थी जिसमे एक तरफ पतला सा स्टील का एक पिन जैसा लगा होता था जिसे दवात से स्याही भरते समय थोडा सा उठा लिया जाता था , ये पेन के अन्दर जो रबर की छोटी सी ट्यूब होती थी उसे दबाता था , दवात में निब की तरफ से पेन डालने के बाद उसे छोड़ देने से स्याही उस ट्यूब में भर जाती थी..........इस्तेमाल करते वक़्त बार बार उस ट्यूब को स्याही से भरना पड़ता था,.....

नया नया पेन रखने का शौक ऐसा था , कि आये दिन निब टूटी मिलती थी...कभी गिर कर टूट जाती थी कभी लिखते समय....टूट जाती थी....स्टील की या पीतल की निब जो शायद उस समय २५ पैसे की आती थी.....एक दो अलग से संभाल कर रखनी पड़ती थी..... कि लिखते लिखते पता नहीं निब कब साथ छोड़ दे......एक और बड़ी दिक्कत थी ...पेन लीक करने वाली ...अक्सर पेन निब की तरफ से लीक करने लगती थी....जिस से लिखने वालों की दो तीन उँगलियाँ हमेशा स्याही से रंगी रहती थीं......इस लीक करने वाली दिक्कत से निजात पाने के लिए..हम सभी बच्चों के पेंसिल बॉक्स ( जिसे उस समय ज्योमेट्री बॉक्स कहा जाता था , और उसमे कलम के अलावा चांदा ,परकार , , छोटी स्केल.डिवाइडर इत्यादि भी होते थे ) में गुलाबी या पीले रंग का सोखता कागज जरूर होता था ......जो लिखते समय अचानक आवश्यकता से अधिक स्याही निकल आने पर सुखाने के काम आता था......

उस समय स्कूल की डेस्क के एक कोने में एक छोटी सी अल्युमिनियम की एक कटोरी सी लगी होती थी ,...जिसमे स्याही भरी जाती थी.....कोई कोई बच्चे सिर्फ निब लगी हुई पेन से भी लिखते थे जिसे जी निब कहा जाता था, या फिर नरकट या सरकंडे और सेठे की कलम से भी ......स्याही की दवात लेकर आना आम बात थी.....और शर्ट की जेब पर नीला काला धब्बा लगे रहने पर भी कोई शर्म नहीं आती थी......
जो लोग महँगी इंक नहीं खरीद पाते थे वो पुडिया वाली स्याही पानी में घोल कर भी स्याही बना लेते थे......

मुझे ध्यान है हमारे घर पापा जी चेलपार्क इंक लाते थे.और उसके डिब्बे में एक ड्रापर और एक छोटा सा कपडे का टुकड़ा लपेट कर रखा रहता था, कि यदि पेन में इंक भरते समय गिर जाये तो तुरंत पोछी जा सके.....हमारे लिए अल्ट्रामेरिन ब्लू और पापा जी के लिए टरक्वाएश ब्लू इंक आती थी ....हर रविवार को सभी की पेन की सफाई की जाती थी और साफ़ सुखा कर पूरी तरह स्याही भर कर सोमवार की तैयारी कर ली जाती थी....

तब वो एक रुपये और डेढ़ रुपये की सुन्दर रंगबिरंगी कलमे कितना ललचाती थीं,.....और चार या पांच रुपये की कलम खरीदना एक विलासिता ही समझी जाती थी....मुझे याद है मेरी एक सहेली के बड़े भाई ने उसके पास होने पर उसे एक कलम गिफ्ट की थी,....जो उस समय २२ रुपये की थी,.....तो हम सब काफी दिनों तक उसके नखरे देख कर ईर्ष्यालु हो उठे थे.....

ये घटना मुझे तो स्मरण नहीं,....पर मम्मी बताती थीं कि जब मैं दो या ढाई साल की रही होउंगी.....,उस समय गाँधी आश्रम में बाबा जी के पास (मेरे बाबा पंडित रामधारी उपाध्याय बहुत लम्बे समय तक गाँधी आश्रम में मंत्री पद पर रहे हैं. ) आचार्य कृपालानी आये हुए थे....मम्मी के बार बार मना करने के बावजूद भी मैं उनके बैठक कक्ष में जा पहुची ,वहां खेलती रही .. और थोड़ी देर बाद चुपके से कृपालानी जी की पारकर पेन लेकर भाग निकली ......बाबा जी नाराज हुए, मम्मी को डांट भी पड़ी,...पर कृपालानी जी ने बड़े प्रेम से समझा कर कहा कि , ले जाने दो बिटिया को .........उसने पेन लेना पसंद किया है तो इसका मतलब है कि उसे पढने लिखने का शौक़ होगा आगे चल के..... बड़ी मुश्किल से वो पेन मुझसे लेकर उन्हें वापस किया जा सका....काश वो पेन आज मेरे पास होता तो कितनी कीमती धरोहर होती मेरे पास...........

हमारे बचपन में दो ही तरह की पेन ज्यादा प्रचलन में थी....फाउन्टेन पेन या डॉट पेन ....डॉट पेन से स्पीड तो अच्छी बनती थी....पर राइटिंग नहीं,,,,मुझे तो फाउन्टेन पेन से ही लिखना ज्यादा पसंद था.....उस से रायटिंग ज्यादा अच्छी बनती थी......सुलेख के लिए नरकट या सेठे की कलम ही प्रयोग करते थे और रोज कम से कम दो पृष्ठ सुलेख लिखना जरूरी था ,,..संभवतः इसी से उस वक़्त के ज्यादातर लोगो की हस्तलिपि इतनी सुन्दर है.....चाहे हिंदी या उर्दू या अंग्रेजी......बिलकुल मोती चुन कर रख देते थे.....आज के बच्चों का दुर्भाग्य है कि पैदा होते ही उन्हें पेंसिल थमा दी जाती है....और यही वजह है कि सौ दो सौ बच्चों में चार छः बच्चे ही ऐसे निकलते हैं जिनकी हस्त लिपि को सुन्दर कहा जा सके.....

अपने स्कूल में ही देखती हूँ , कि सुलेख प्रतियोगिता के समय छांटना मुश्किल होता है कि किसे अच्छा माना जाये....इतना गन्दा लेख .........लिखने के प्रति कोई जिज्ञासा या रूचि नहीं ....घसीटा मार लिखाई.....खाना पूर्ती.....

और थोडा बड़ा होते ही वही ....यूज एंड थ्रो वाली कलमें....जिनसे किसी तरह का कोई लगाव नहीं हो सकता.....क्यों कि वे सिर्फ एक या दो दिन ही बच्चों के हाथ में रहती हैं.....अब अपनी लकी कलम या पुश्तैनी दादा जी ,नाना जी ,की दी हुई कलमों का कोई रिवाज ही नहीं रहा......जिनसे कितना लगाव रहता था......

Thursday, October 18, 2012

कबाड़ गाथा






इधर कुछ दिनों से पुराने सामानों की उठा पटक चल रही है......न चाहते हुए भी इतना अल्लम गल्लम भरते चले जाते हैं हम लोग कि एक समय बाद न उसे रखते बनता है न फेंकते.......जब कि ये हम अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी जरूरत अब कभी नहीं पड़ेगी..फिर भी एक ऐसा मोह...है जो उन वस्तुओं को त्यागने नहीं देता....



इसी खोज बीन के दौरान........अपनी कुछ बिछुड़ी हुई डायरियां हाथ लगीं ..... .पतिदेव की तमाम चुटकी पुर्ची से भरी डायरियां मिलीं.... सैकड़ों ऐसे पते मिले जिन पर रहने वाले अब हैं ही नहीं.....हजारों ऐसे फोन नम्बर जो अब शायद कभी नहीं लगेंगे......तमाम ऐसी चिठ्ठियाँ ............. जिनमे पतिदेव को नौकरी मिलने...हमारी शादी होने और फिर हमारे बच्चे होने तक की बधाईयाँ ......और शुभ कामनाएं .......शामिल हैं......मिलीं......उनका सम्मोहन ऐसा है ....कि उनको न फेंकते बनता है न जोगा कर (संभाल कर ,, ये बनारसी भाषा है ) रखते.....न ही उन्हें फाड़ कर जलाने का मन हो रहा है.......कुछ ऐसी ऐसी चीजे भी मिलीं जो बरसो पहले बिला गईं थी......पर अब फिर से मिल गईं हैं ....जब कि उनका अब कोई काम नहीं.......फिर भी एक अनजाना प्यार सा उमड़ा आ रहा है उनसे...




कभी कभी जी में आ रहा है कि बिना देखे पूरा कागजों का बण्डल कबाड़ी के तराजू पर रखवा दूं...फिर लगता है कहीं कोई जरूरी कागज न इधर उधर हो जाये........बच्चों के पचासों खिलौने तो बाँट दिए हैं ......पर कुछ इतने प्यारे खिलौने हैं.....कि उन्हें किसी को देने का मन नहीं हो रहा.......एक बिटिया रानी का प्यारा टेडी बियर ...(जो मैंने अपने हाथो से बनाया था......उस समय कितना क्रेज था ....कितना शौक......खुद से बिटिया के कपडे सिलना ..खुद से उसके स्वेटर बनाना ..... खुद से खिलौने बनाना..... ओह्ह ) बिटिया ने अपने टेडी का नाम मेपू जी रखा हुआ था......जिसके बिना उसे चैन नहीं आता था..सारे दिन उसे लिए लिए फिरना ... उसे खिलाना .....उसे लेकर सोना .......बेटे का बैट बाल ....शतरंज , कैरम बोर्ड , लूडो , निकलता ही जा रहा है दीवान से.....बच्चों को गिफ्ट में मिले हुए गेम्स.......उनकी स्लैम बुक....कितने लोगो से लिए गए हस्ताक्षर .....


बिटिया रानी की कई सारी बार्बी डॉल्स उनकी पूरी गृहस्थी .उसके गहने ...बर्तन ....कपडे.....नानी के बनाये हुए सुन्दर सुन्दर बार्बी के स्वेटर ..निकाले धूप दिखाए और ...सब फिर से संभाल के रख दिए हैं.........


पतिदेव कि एक खास आदत है अपनी जेब में ढेरों कागज छोटी छोटी पुर्चियाँ.....जमा करते जाते हैं....और जब कमीज बदल कर दूसरी पहनी जाती है तो वे सारी चीजें दूसरी नई कमीज के जेब में चली जाती हैं.......और ये सामान जब आवश्यकता से अधिक जमा हो जाता है तो सब रुमाल में लपेट कर रबर बैंड से बाँध कर रख दिया जाता है ....यह कह कर कि फुर्सत से देखेंगे ....और ये फुर्सत बहुत मुश्किल से निकाली जाती है......ऐसे कई बण्डल भी इस सफाई अभियान में मिले......मैं जानती हूँ कि अगर मैंने ये सारे बण्डल कूड़े के हवाले कर दिए तो उनमे कोई न कोई ऐसा आवश्यक कागज जरूर निकल आएगा .. जो पतिदेव ऐसे मौके पर खोजेंगे और पूछेंगे कि ....मेरे पास कोई जवाब नहीं होगा .......फिर घर में एक सुनामी आना तो तय है ,,,,,,,,और जिसके बिना कुछ न कुछ नुक्सान हो जायेगा.....इस लिए बिना उन्हें डिस्टर्ब किये पड़े रहने देती हूँ.....




बच्चों के ढेरों पुराने पेंसिल बॉक्स , जो कभी नए खरीद कर लाये गए थे तो उनमे अपना मनपसंद बॉक्स लेने के लिए कैसे कटा युध्ध्ह मचा था याद आता है......दोनों को अपना छोड़ कर दूसरे का ही ज्यादा पसंद आता था........पुरानी स्कूल ड्रेस, पुराने जूते , पुरानी ढेरो किताबें .....उफ्फ्फ्फफ्फ़ .........
कलाकार होने के नाते हम लोगो को जो उपहार गिफ्ट्स आदि भी मिलते रहे हैं उनमे ज्यादा तर ऐसी ही चीजें हैं......जो लोगो को आकर्षित तो बहुत करती हैं.....पर एक समय बाद वे कबाड़ का ही रूप ले लेती हैं....( और ऐसी चीजे हमारे पास इतनी ज्यादा हैं की एक छोटा मोटा म्यूजियम तो बन ही सकता है )......मैं मूलतः एक आर्ट और क्राफ्ट टीचर हूँ.....और ज्यादातर बच्चों को यही सब सिखाती भी हूँ......पर अपने लिए कभी नहीं बनाती....इतना ज्यादा बनाया है की अब मुझे इनसे ऊब सी होने लगी है ......(क्यों कि मुझे लगता है कि वे भी सिर्फ कबाड़ (!!) ही बढ़ाती हैं..)........

किताबें जो अब किसी काम की नहीं रही है...उन्हें सिर्फ दीमको का आहार बनाने की इच्छा नहीं है... उन्हें दिल कड़ा करके कबाड़ी के हाथो देने का मन बना लिया है.......... बेटी के बनाये हुए तमाम चित्र और उसकी ड्राइंग कापियां ,,,,,कैसे दे दूं कबाड़ी को ???

सैकड़ों की संख्या में मैगजींस .........अनगिनती किताबें.......ऐसी किताबें जिनकी कवर डिजाइन बनाई है मैंने ...या जिनमे कभी कभी छपी भी हूँ...... आखिर कितना इकठ्ठा करूँ ??.....क्या करूंगी इकठ्ठा करके....सब पत्रिकाओं के पृष्ठ भी जर्जर होने लगे हैं ....फिर भी करीब २०० पत्रिकाएँ ऐसी हैं जिन्हें फेंकने को अभी दिल गवारा नहीं कर रहा .......वे फिर से संभाल कर किताबों की आलमारी में सजा दी हैं.....



कभी बेहद शौक़ से पत्रिकाओं से काट काट कर व्यंजन और अचार इत्यादि बनाने के तरीके इकठ्ठा किये थे...और जो शायद ही कभी प्रयोग में लाये गए......कितनी फाइल्स में लगा लगा कर रखे हुए ..तमाम घरेलू नुस्खे...पुराने अखबारों की कतरनें ..........सब एक बड़े लिफाफे में भर दिए हैं.....और ये सोच लिया है की वे मैंने देखे ही नहीं.......या वे कभी थे ही नहीं...( हाय !!!मैं कितनी कठोर दिल की हो गई हूँ )

Friday, October 12, 2012

मेरे प्यारे बच्चों

“मेरे प्यारे बच्चों,जिस दिन तुम्हें यह लगे कि मैं बूढ़ा हो गया हूं, तुम खुद में थोड़ा धीरज लाना और मुझे समझने की कोशिश करना…जब खाना खाते समय मुझसे कुछ गिर जाए… जब मुझसे कपड़े सहेजते न बनें… तो थोड़ा सब्र करना, मेरे बच्चों…और उन दिनों को याद करना जब मैंने तुम्हें यह सब सिखाने में न जाने कितना समय लगाया था.

मैं कभी एक ही बात को कई बार दोहराने लगूं तो मुझे टोकना मत. मेरी बातें सुनना. जब तुम बहुत छोटे थे तब हर रात मुझे एक ही कहानी बार-बार सुनाने के लिए कहते थे, और मैं ऐसा ही करता था जब तक तुम्हें नींद नहीं आ जाती थी.मैं तुम्हें ज़िंदगी भर कितना कुछ सिखाता रहा…अच्छे से खाओ, ठीक से कपड़े पहनो, बेहतर इंसान बनो, हर मुश्किल का डटकर सामना करो… याद है न?

बढ़ती उम्र के कारण यदि मेरी याददाश्त कमज़ोर हो जाए… या फिर बातचीत के दौरान मेरा ध्यान भटक जाए तो मुझे उस बात को याद करने को मौका ज़रूर देना. मैं कभी कुछ भूल बैठूं तो झुंझलाना नहीं… गुस्सा मत होना… क्योंकि उस समय तुम्हें अपने पास पाना और तुमसे बातें कर सकना मेरी सबसे बड़ी खुशी होगी… सबसे बड़ी पूंजी होगी.
...

एक दिन ऐसा आएगा जब मैं चार कदम चलने से भी लाचार हो जाऊंगा…उस दिन तुम मुझे मजबूती से थामके वैसे ही सहारा दोगे न जैसे मैं तुम्हें चलना सिखाता था? एक दिन तुम यह जान जाओगे कि अपनी तमाम नाकामियों और गलतियों के बाद भी मैंने हमेशा तुम्हारा भले के लिए ही ईश्वर से प्रार्थना की.

अपने प्रेम और धीरज का सहारा देकर मुझे ज़िंदगी के आखरी पड़ाव तक थामे रखना. तुम्हारी प्रेमपूर्ण मुस्कान ही मेरा संबल होगी.

कभी न भूलना मेरे प्यारे बच्चों… कि मैंने तुमसे ही सबसे ज्यादा प्रेम किया.

''तुम्हारा पिता”








''हिंदी जेन से साभार''