मन में एक अजीब सी तकलीफ और छटपटाहट सी हो रही है.......एक अरसे बाद आज अकेली चुप बैठी हूँ...
कुछ बोलने की इच्छा नहीं हो रही ........मन में कुछ बहुत प्रिय वस्तु छीन लिए जाने जैसा अहसास हो रहा है......२ जुलाई को
पापा जी को और १८ जुलाई के दिन मम्मी को कितनी ख़ुशी और
उत्साह के साथ जन्म दिन की शुभ कामनाएं दिया करते थे हम
सब.........फिर से वे तारीखें आईं और गुज़र गई...........
हमारे पास क्या था...कितनी बड़ी नियामत थी.....हमारे माँ बाप....ये हम तब समझ पाते हैं .........जब हम उन्हें खो देते हैं...............वक़्त रहते क्यों हम उनकी अहमियत नहीं समझते ???...............बाद में सिर्फ हाथ मलने के सिवा कोई
चारा नहीं रहता........
आज ही न्यूज़ में सुना ...एक बेटे ने अपनी ८० साल की माँ
को सड़क पर लावारिस फेंक दिया........लावारिस ??.............क्या
सचमुच वो लावारिस थी??.............फिर वो कौन था जिसने उसे
सड़क पर फेंक दिया,??
वो भी उस अवस्था में जब कि न वो बोल सकती है .....न चल सकती है ...न कुछ कर सकती है........ समझ में नहीं आता क्यों बच्चे इतने निष्ठुर हो जाते हैं???......... अपने ही
जन्मदाताओं के प्रति...........
...अपने से बड़ो के प्रति कोई ...शर्म .....झिझक ...या लिहाज़ नहीं.....खुद के
समर्थ होने सब कुछ कर लेने और पा लेने का दंभ ऐसी प्रबल भावना से मन पर घर कर गया है की वे अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझते........
क्या होता जा रहा है???.....ये अकेलापन ....वो भी इस उम्र में ........कैसा अवसाद छोड़ देता है.....
सिर्फ अपने ही बारे में सोचना.....और कोई अहसास नहीं....कितना स्वार्थीपन......???
सोचती हूँ.................क्या हमारे बाद हमारे बच्चे भी हमारे लिए कुछ ऐसा सोचेंगे?............कि उन्होंने कुछ अमूल्य खो दिया ??
या हम अमूल्य हैं ही नहीं??......अमूल्य मतलब जिसका कोई मूल्य ही नहीं...............इसे इस तरह भी सोचा जा सकता है......बेमोल या रद्दी ...........जिसका कोई मूल्य नहीं.........
इतना स्वार्थी पन क्यों आ गया है??..... या क्यों आता जा रहा है??नई पीढी में ?,शायद कोई उत्तर नहीं..............कभी कभी सोचती हूँ.....शायद यह हमारा भी स्वार्थ है..........हम क्यों चाहते हैं कि हम किसी कि जरूरत बने रहें ??/ किसी को हमेशा हमारी जरूरत
महसूस हो?????/
कोई हमारे लिए ही सोचे???
आखिर हमने किया ही क्या है अपने बच्चो के लिए?????
ये तो सभी करते हैं......चिड़िया और जानवर भी करते हैं.....पर एक बार घोंसला छोड़ देने के बाद चिड़िया के बच्चे भी पलट कर फिर कभी घोंसले में वापस नहीं आते..........और चिड़िया भी उनसे ये उम्मीद नहीं रखती.........पर फिर .....कभी कभी लगता है शायद इंसानों और चिड़ियों में यही तो फर्क है............धीरे धीरे मनुष्य फिर से अपनी आदिम प्रवृत्तियों की ओर लौट रहा है.......जहाँ कोई रिश्ते नाते नहीं होते थे..........शायद यह भी उसी सभ्यता की शुरुआत है.......
दिनों दिन बिगड़ते जा रहे समाज......अपने से बड़ों के प्रति इतने दुर्व्यवहार ........ इतनी असभ्यता के बावजूद .........जब एक खंड्काल के बाद पुनः खोज की जाएगी...........तो फिर हम एक सभ्यता के ही अवशेष कहलायेंगे न.......चाहे हम कितने भी असभ्य हो गए हों...............