लिखिए अपनी भाषा में

Thursday, February 9, 2012

क्या  लिखू ,
कि  वो  परियो  का  रूप  होती  है
या  कड़कती  ठण्ड   में  सुहानी  धूप  होती  है ,
वो  होती  है  उदासी  की  , हर  दर्द  की  दवा  की  तरह
या  फिर  उमस  में  शीतल  हवा  की  तरह ,
वो  चिड़ियों  की  चहचहाहट   है
या  फिर  निश्छल  खिलखिलाहट   है
या  फिर  आँगन  में  फैला  उजाला  है
या  फिर  मेरे  गुस्से  पे  लगा  ताला   है
या  पहाड़  की  चोटी   पे  किरण  है
या  फिर  ज़िन्दगी  सही  जीने  का  आचरण  है ,
है   वो  ताकत  , जो  छोटे  से  घर  को  महल  कर  दे
वो  काफिया   जो , किसी  भी  ग़ज़ल  को  मुकम्मल    कर  दे ,
वो  अक्षर  जिसके  बिना  वर्ण -माला  अधूरी  है
वो  जो  सबसे ज्यादा   जरुरी  है
ये  नहीं ,
कि  वो   हर  वक़्त  सांस -सांस  होती  है .....
क्योकि   बेटिया  तो  सिर्फ  अहसास  होती  है ..

और  लास्ट  में -
नहीं  वो  बहुत   सारे  पैसे , अपने  गुल्लक   में  उडेलना  चाहती  है
वो  बस  कुछ  देर  मेरे  साथ    खेलना   चाहती  है ..

"बेटा  वही  सब  ऑफिस  का  काम  है
नहीं  करूँगा  तो  कैसे  चलेगा "..

जैसे  मजबूरी  भरी  दुनिया दारी  को  संभालना  है ,
और  वो  झूठा  ही  सही
लेकिन  मुझे  एह्सास   कराती  है
जैसे  सब  समझ  गयी  हो
लेकिन  आँखे  बन्द  कर  के  रोती  है ,
सपने  में  खेलते  हुए  मेरे  साथ  सोती  है
ज़िन्दगी  ना  जाने  क्यों  इतना  उलझ  जाती  है ..
और  हम  समझते  है ,
की  बेटिया  सब  समझ  जाती  है ..........



( संकलन से )

कहाँ हैं आप मम्मी ??

         
मम्मी १९६३ में
मैं और मम्मी



                  आज फिर  मम्मी की बहुत याद आरही है...........उनके नाम के आगे स्वर्गीय लगाते   हुए ...जाने कैसा तो जी उमड़ा जा रहा है .....हाथ कांपने से लगते हैं.........जब कि आज  .......यानि ७ फरवरी को...२ साल.....या कहूं ...७३० दिन  बीत गए हैं.........मम्मी से बिछड़े..... पर अभी  भी........अभी तक तो .........मुझे खुद भी यकीं नहीं हो पाया है ..... शायद किसी जरूरत के वक़्त महसूस हो कि मम्मी नहीं रही.......अब इस से ज्यादा बड़ी जरूरत तो नहीं हो सकती..................अपनी प्यारी बेटी के विवाह से ज्यादा   महत्वपूर्ण अवसर ........मेरे लिए और कोई नहीं हो सकता.........उसके वैवाहिक  जीवन की पहली सीढ़ी........उसकी सगाई का दिन.....कितना इंतज़ार था उन्हें इस दिन का.............और आज मम्मी हमारे साथ नहीं हैं..... इस दरम्यान मैंने कितनी बार मम्मी को याद किया शायद ........मुझे इतनी गिनती नहीं आती ..........गिनने का वक़्त ही नहीं मिला.........कोई क्षण    ऐसा नहीं बीता जब मम्मी ख्यालों से उतरी हों..........हर समय साए की तरह....आगे  पीछे  ऊपर  नीचे .....मम्मी परछाईं की तरह मेरे साथ बनी हुई हैं.....शायद मैं यही चाहती भी हूँ कि..........मम्मी हमेशा मेरे साथ .......मेरे पास बनी रहे ..   मुझे सहारा , संबल और साहस देती रहे ......इस समय मुझे कितनी जरूरत है .......मम्मी और पापा जी की मैं बता नहीं सकती.....बस यही इच्छा है कि वे जहाँ भी कहीं हैं..अपना पूरा स्नेह और आशीष बनाये रखें हम पर.......भगवान् कभी कभी बड़ा अन्याय करते हैं ....पता ही नहीं चलता की हमारी गलती क्या है और किस बात की सजा मिल रही है हमें???        
                 कहते हैं ..........माँ शब्द ही ऐसा है ......जो ह्रदय से निकलता है.............यह सिर्फ शब्द ही नहीं है...भावनाओं को प्रकट करने वाली चरम स्थिति भी है..............दुनिया में जितने भी रिश्ते हैं...सबसे हमारा परिचय माँ  ही कराती है......

                जब वे सहज उपलब्ध थीं...तब उनका कहना समझ नहीं आता था.........पर अब लगता है कोई एक बार उनकी तरह बोल दे.....पुकार ले.... ....डांट दे.....   हम कुछ गलत करें....   और कोई समझाए..........कोई कहे... कि बहुत दिन हो गए हैं कोई बढ़िया सी डिश खाए हुए..... चलो कुछ बनाओ न......और फिर खुद ही जुट कर सारा बना डाले........दिन दूना रात  चौगुना फूलते जा रहे मेरे बेडौल शरीर को देख कर एक्सरसाइज , मार्निंग वाक और डाइटिंग पर लम्बा चौड़ा लेक्चर  दे डाले........पर डाइनिंग टेबल पर मेरे नहीं ....नहीं करने के बावजूद मेरी प्लेट भर डाले......और हर बार खाने के बाद ये कहे.........आज बहुत ज्यादा हो गया खाना........

             और ये मेरे साथ ही नहीं सभी के साथ था.....बच्चों का भी हमेशा यही कहना होता था.....कि पता नहीं मम्मी नानी के यहाँ जा कर हम लोग ज्यादा क्यों खाने लगते हैं..................हमेशा पेट भर जाता है मन नहीं भरता......थोडा सा ये .......थोडा सा वो...... 
             मम्मी के हाथ की कढी , कोफ्ता , सूरन की सब्जी , मटर पनीर या कोई भी स्पेशल सब्जी..... या फिर बिलकुल ही सादा खाना....क्या स्वाद होता रहता था उनमे ......जिसका जवाब नहीं... या फिर शायद सभी मम्मियों  का बनाया खाना उनकी संतानों को ऐसा ही लगता होगा.........
                   मुझे एक बार की घटना याद आती है....मामा जी को किसी बहुत आवश्यक काम से बाहर जाना था....और हम लोग बार बार उन्हें एक दिन और रुकने के लिए कह रहे थे...........अंत में मम्मी ने ये तरीका निकला...कि लाओ आज स्पेशल मटर पनीर की सब्जी और पुलाव बनाते हैं.......और ताज्जुब की बात...कि उस दिन उस पुलाव और मटर पनीर की सब्जी के लिए मामा जी ने अपनी ट्रेन छोड़ दी थी.........तब से हमने एक मजाक सा बना लिया था....कि जब भी मामा जी को रोकना हो कोई  स्पेशल   सब्जी या बढ़िया खाना बना लो......उस समय मैं और रेनू मौसी खाना  बनाना   सीख ही रहे थे...... कभी कभी कुछ अच्छा बन जाता था कभी कभी कुछ गड़बड़ भी हो जाता था.....तो मामा जी नाराज हो कर मम्मी से कहते   दीदी आप जाकर सिर्फ  छू लिया करो....इतना यकीं था उन्हें मम्मी के हाथों पर.......उसके स्वाद पर......कहाँ गए वो दिन...?.......क्या वो दिन फिर कभी लौटेंगे???

              इतना शौक़ था मम्मी को हर नई से नई  डिश ट्राई  करने का .....   इधर कुछ सालों से बाहर खाने से परहेज सा करने लगीं थीं वो  ....पर हम सबको कभी मना नहीं करती थीं.........मुझे याद है बचपन में   कभी कभी भाई के दोस्त लोग मिल कर छत पर मीट बनाने का ........कार्यक्रम  रखते थे...तो मम्मी वहां रोटी  चावल.. इत्यादि भेज देती थीं...पर कभी कोई एतराज नहीं किया उन्होंने.........
          पापा जी को तो स्वास्थ्य ने मजबूर कर दिया था  कुछ भी गरिष्ठ खाने पीने से.........पर उनके साथ ही मम्मी ने भी अपनी स्वाद इन्द्रियों को  सीमित कर लिया था........बार बार यही कहती थीं कि अब मन ही नहीं करता ज्यादा कुछ बनाने को ......पापा जी खाते ही नहीं.....न गाजर का हलवा.........न गुझिया........न मिठाई ........न लड्डू  .....पापा जी को जितना खाने का शौक़ था ....उतना ही दूसरों  को खिलाने का भी.......याद आता है....मेरी बिटिया के जन्म के वक़्त जो सोंठ के लड्डू बनाये थे मम्मी ने        उन्हें मुझसे ज्यादा तो  आने जाने वाले मेहमानों ने खाया होगा.....जो भी आता  ....पापा जी उसे जरूर खिलाते.......इतने स्पेशल ...मेवों से भरे हुए गरिष्ठ   लड्डू फिर कभी खाने को नहीं मिले   ( बेटे के जन्म के वक़्त मुझे डाक्टर ने ज्यादा गरिष्ठ और घी इत्यादि खाने से मना कर दिया था....)....कितनी मेहनत और जीवट से भरा काम है वो लड्डू बनाना...  पर वो तो मम्मी थीं न मेरी....वही कर सकती थीं ये काम....(पता नहीं मैं कर पाउंगी इतनी मेहनत अपने नाती पोतों के वक़्त , नहीं जानती....एक नंबर की आलसी जो ठहरी )  
                     मैं जब कभी भी छुट्टियों में बनारस जाती....तो देर तक सोई रहती....,रोज स्कूल जाने के लिए सुबह उठने वाली आदत के विपरीत , .............बार बार मम्मी जगाती रहतीं..........पर दो बार तीन बार चाय पीकर मैं फिर से सो जाती.........जब तक वो नाराज सी होकर न कहने लगें ......क्या है चार दिन के लिए आती है और सो सो के समय बिता देती है.........खाली सोने का नतीजा है कि    अपना इतना सुन्दर शरीर ख़राब कर लिया है.........बिलकुल ध्यान     नहीं देते  हो तुम  लोग ......(अब कोई नहीं कहता  ये सब   ......!!!!!!!!!).....

              दोपहर में सारा काम निबटाने के बाद बच्चों को सुला कर धीरे से मैं और मम्मी निकल जाते थे बाजार के लिए....या गंगा घाट पर जाकर काफी काफी देर बैठे रहते.......कितनी ही बातें जो मन में रहती थी एक दूसरे  से शेयर करते.........अभी भी बनारस जाने पर ये सारी  बाते  याद आती रहती हैं......पर अब गंगा घाट जाने का मन ही नहीं होता.......बाजार में वैसी ही चहल पहल है पर घूमने की कोई इच्छा नहीं होती........

                पर ये सब बहुत पुरानी बात है.....अब तो मम्मी को गए हुए भी आज ७३० दिन हो गए हैं.......समय कहाँ रुकता है.....दिन कहाँ रुकते हैं....रुकते नहीं इस लिए बीतते चले जाते हैं.......कितनी अजीब सी बात है हमारे साथ साथ समय भी चलता रहता है...हम भावनाओं में घिरे रह कर कुछ क्षणों  के किये खुद को रुका हुआ भी महसूस करें पर समय तो द्रुत गति से आगे बढ़ जाता है.......बढ़ता ही जा रहा है.......


           हम सभी बहुत याद कर रहे हैं मम्मी आप को भी........और पापा जी को भी...........