आज जी बहुत उदास है.....मम्मी की बहुत याद आरही है.....आज ही के दिन ठीक एक साल पहले......मम्मी को अस्पताल में भर्ती किया गया था......बार बार आँखें भर आरही हैं....कुछ लिखा नहीं जा रहा.......
कुछ अनकहे पल ..कुछ अनकही बातें ......कुछ अनकहे दर्द कुछ अनकहे सुख ......बहुत कुछ ऐसा जो सिर्फ महसूस किया .....किसी से बांटा नहीं . ...बस इतना ही .......
लिखिए अपनी भाषा में
Monday, January 31, 2011
Friday, January 28, 2011
एक स्मृति
आज अचानक बहुत दिनों बाद एक घटना याद आई...हमारे एक पारिवारिक मित्र की बताई हुई घटना है यह,,........वे पुरातत्व विभाग में काम करते थे...एक बार किसी महत्त्व पूर्ण विषय की खोज पर वो लोग राजस्थान गए थे......वहां एक ढाबे पर बैठ कर चाय पीते समय उनकी नज़र ढाबे वाली की पत्नी पर पड़ी जो पकौड़ी के लिए चटनी पीस रही थी ......उन्हें लगा कि जिस सिल बट्टे पर वो चटनी पीस रही है वो आम सिलों से कुछ हट कर है........तो वे उसके हटने के बाद उस सिल के पास गए और उसे दोबारा धो कर ठीक से देखा.......उनकी पारखी नजरो ने पाया कि वह एक साधारण पत्थर न हो कर एक शिलापट्ट था और उसमे किसी देवी की मूर्ति उकेरी हुई थी..........उन्होंने ढाबे वाले से वो सिल खरीदने कि पेशकश की.....वहां बैठे अन्य लोग भी हैरत में पड़ गए कि आखिर उस सिल में ऐसा क्या है??? खैर जब उस सिल वाले को १०० रूपये देकर उस सिल को खरीदा गया तो उसने ये बताया कि ऎसी सिलें तो वहां आसपास बहुत मिल जाएँगी.......उनलोगों ने वे जगहें भी दिखाई जहाँ से काफी कुछ ऐसा मिल सकता था .. ......जो ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था........बाद में वे अपनी टीम के साथ वहां गए और बहुत सी सामग्री एकत्र की .........आज भी वो देवी की उत्कीर्ण मूर्ति वाला शिलापट्ट किसी संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहा है..........
ये घटना मुझे इसलिए भी बहुत याद आती है क्यों कि एक ऐसी ही घटना मेरे साथ भी घटित हुई है............हुआ यूं कि फाइन आर्ट्स में एडमिशन के बाद कुछ दिन तक हम लड़कियां कॉलेज के सबसे पीछे के हिस्से में ...जहाँ ब्लोक मेकिंग का कक्ष था उसके सामने कुछ गढ़े या अनगढ़े बड़े बड़े पत्थर जो मूर्ति कला विभाग के छात्रों के लिए रखे हुए थे.........आज भी रखे हुए हैं....वहां एक बड़े से पत्थर पर बैठ कर अपना टिफिन खाया करते थे.......पत्थर काफी बड़ा होने से हम लोग आराम से उस पर पैर रख कर बैठ जाया करते थे...... ये लगभग रोज कि ही बात थी...... हमारे कॉलेज से लगभग बगल में ही बहुत अच्छा और काफी बड़ा विश्व विख्यात संग्रहालय भारतकला भवन स्थित है......वहां भी हम लोगो को पेंटिंग और मूर्तियों के स्केच और ड्राइंग बनवाने ले जाया जाता था........एक बार कलाभवन के ऊपरी कक्ष में जाते समय हमारी नजर खिड़की से बाहर पड़ी जहाँ से कॉलेज का पिछला हिस्सा और ब्लोक मेकिंग कक्ष साफ़ साफ़ दिखाई देता था.......वहां से देखने पर यह समझ आया कि कितने ही दिनों से हम जिस पत्थर पर बैठ कर अपना टिफिन करते थे .......वो देवी सरस्वती कि मूर्ति थी......और पट्ट लिटा कर रखी हुयी मुद्रा के कारण हम लोगो ने कभी उस पर ध्यान ही नहीं दिया था.......उस दिन एरियल व्यू से देखने पर हमें पता चला कि वो क्या है..............एक अरसे या यूं कहूं करीब २० साल के बाद भी कॉलेज जाने पर मैंने पाया कि वो मूर्ति तब भी वहीँ थी .....शायद आज भी वहीँ हो.......अबकी बार जाना होगा फाइन आर्ट्स तो जरूर देखने जाउंगी.........पुनः यादें ताज़ा करने.......
ये घटना मुझे इसलिए भी बहुत याद आती है क्यों कि एक ऐसी ही घटना मेरे साथ भी घटित हुई है............हुआ यूं कि फाइन आर्ट्स में एडमिशन के बाद कुछ दिन तक हम लड़कियां कॉलेज के सबसे पीछे के हिस्से में ...जहाँ ब्लोक मेकिंग का कक्ष था उसके सामने कुछ गढ़े या अनगढ़े बड़े बड़े पत्थर जो मूर्ति कला विभाग के छात्रों के लिए रखे हुए थे.........आज भी रखे हुए हैं....वहां एक बड़े से पत्थर पर बैठ कर अपना टिफिन खाया करते थे.......पत्थर काफी बड़ा होने से हम लोग आराम से उस पर पैर रख कर बैठ जाया करते थे...... ये लगभग रोज कि ही बात थी...... हमारे कॉलेज से लगभग बगल में ही बहुत अच्छा और काफी बड़ा विश्व विख्यात संग्रहालय भारतकला भवन स्थित है......वहां भी हम लोगो को पेंटिंग और मूर्तियों के स्केच और ड्राइंग बनवाने ले जाया जाता था........एक बार कलाभवन के ऊपरी कक्ष में जाते समय हमारी नजर खिड़की से बाहर पड़ी जहाँ से कॉलेज का पिछला हिस्सा और ब्लोक मेकिंग कक्ष साफ़ साफ़ दिखाई देता था.......वहां से देखने पर यह समझ आया कि कितने ही दिनों से हम जिस पत्थर पर बैठ कर अपना टिफिन करते थे .......वो देवी सरस्वती कि मूर्ति थी......और पट्ट लिटा कर रखी हुयी मुद्रा के कारण हम लोगो ने कभी उस पर ध्यान ही नहीं दिया था.......उस दिन एरियल व्यू से देखने पर हमें पता चला कि वो क्या है..............एक अरसे या यूं कहूं करीब २० साल के बाद भी कॉलेज जाने पर मैंने पाया कि वो मूर्ति तब भी वहीँ थी .....शायद आज भी वहीँ हो.......अबकी बार जाना होगा फाइन आर्ट्स तो जरूर देखने जाउंगी.........पुनः यादें ताज़ा करने.......
Monday, January 24, 2011
जाने अनजाने
जाने अनजाने
कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि बहुत सी बातें हम अनजाने में ही कर जाते हैं जिनका कोई औचित्य नहीं होता पर वो हो जाती हैं..... जिनके लिए हम बाद में चाहे लाख अफ़सोस कर लें....पर कुछ नहीं मिलता सिवा दिली तकलीफ के ..और ऐसा मैंने कितनी ही बार महसूस किया है.....या यूं कहूं दूसरों के व्यवहार में झलक आये निष्ठुर पन को बहुत बुरी तरह भुगता है .......अपने सीधेपन, बेवकूफी या भोलेपन जो भी कहूं सबकी साक्षी मैं खुद रही हूँ..पता नहीं क्यों?? मैं किसी के भी बारे में जल्दी कुछ गलत निर्णय नहीं ले पाती और अक्सर मेरे बारे में गलत सोच लिया जाता है.....शायद बहुत अंतर्मुखी होना भी ठीक नहीं है.......हमेशा आपको गलत समझा जाता है.......
अपनी बहुत प्रिय सहेली को खुद से विमुख होते हुए भी देखा है मैंने....और वो भी बिना किसी कारण के....सिर्फ किसी अन्य के कान भरने और उल्टा सीधा सिखाने से ...... मैं अभी तक यह नहीं समझ पाई कि क्या वजह हो सकती है....कि उसने मेरे विषय में इतना अनर्गल सोच लिया कम से कम एक बार मुझसे पूछा तो होता...पर वही मेरा अंतर्मुखी होना ही मेरी कमी बन गया.....न ही मैंने पूछा न ही उसने बताया.....वो जो दरार पड़ी वो आज तक नहीं भर पाई ऐसा मुझे लगता है......खैर....
वक़्त का काम है गुजरना तो वह गुजरता चला जाता है.......तब्दीली दुनिया की फितरत है इसीलिए सभी बदलते रहते हैं......अब मुझे इसका कोई गिला शिकवा नहीं.....
कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि बहुत सी बातें हम अनजाने में ही कर जाते हैं जिनका कोई औचित्य नहीं होता पर वो हो जाती हैं..... जिनके लिए हम बाद में चाहे लाख अफ़सोस कर लें....पर कुछ नहीं मिलता सिवा दिली तकलीफ के ..और ऐसा मैंने कितनी ही बार महसूस किया है.....या यूं कहूं दूसरों के व्यवहार में झलक आये निष्ठुर पन को बहुत बुरी तरह भुगता है .......अपने सीधेपन, बेवकूफी या भोलेपन जो भी कहूं सबकी साक्षी मैं खुद रही हूँ..पता नहीं क्यों?? मैं किसी के भी बारे में जल्दी कुछ गलत निर्णय नहीं ले पाती और अक्सर मेरे बारे में गलत सोच लिया जाता है.....शायद बहुत अंतर्मुखी होना भी ठीक नहीं है.......हमेशा आपको गलत समझा जाता है.......
अपनी बहुत प्रिय सहेली को खुद से विमुख होते हुए भी देखा है मैंने....और वो भी बिना किसी कारण के....सिर्फ किसी अन्य के कान भरने और उल्टा सीधा सिखाने से ...... मैं अभी तक यह नहीं समझ पाई कि क्या वजह हो सकती है....कि उसने मेरे विषय में इतना अनर्गल सोच लिया कम से कम एक बार मुझसे पूछा तो होता...पर वही मेरा अंतर्मुखी होना ही मेरी कमी बन गया.....न ही मैंने पूछा न ही उसने बताया.....वो जो दरार पड़ी वो आज तक नहीं भर पाई ऐसा मुझे लगता है......खैर....
वक़्त का काम है गुजरना तो वह गुजरता चला जाता है.......तब्दीली दुनिया की फितरत है इसीलिए सभी बदलते रहते हैं......अब मुझे इसका कोई गिला शिकवा नहीं.....
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