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Monday, December 10, 2012

बाय बाय डी- टाइप



ए - २०८ से डी -५५ तक का सफ़र



इधर काफी दिनों से घर (डी - ५५ ) छोड़ने की प्रक्रिया चल रही है.....

पतिदेव के अवकाश प्राप्त करने के बाद कम्पनी के आदेशानुसार अब हमें यह बंगलो ख़ाली करना पड़ेगा.....और शिक्षकों के लिए मिलने वाले बी - टाइप क्वार्टर में शिफ्ट होना पड़ेगा......जहाँ मैं बिना किसी परेशानी के रह सकती हूँ......पर पता नहीं क्यों .....नए घर में जाने का सोचते हुए एक अजीब सी मनःस्थिति बनी हुई है .......करीब २८ वर्षों से हम यहाँ आई.टी.आई. में रहते चले आरहे हैं....एक अच्छा , खुश हाल और लोकप्रिय जीवन जिया है......पतिदेव के एक संभ्रांत पद पर और स्वयं एक अध्यापिका के पद पर रहने के कारण लोगो का भरपूर आदर भी पाया है......

जब पतिदेव ने यहाँ ज्वाइन किया था तब हमें कुछ दिन यहाँ ए -टाइप (कंपनी का सबसे छोटा फ्लैट,दो कमरों वाला ) में भी रहना पड़ा था.......उसके बाद चार कमरों वाले बी - टाइप में शिफ्ट हुए जहाँ कुछ लम्बा समय बिताया .......फिट सी - टाइप और करीब साल भर से डी- टाइप ,,,,,....और अब समय चक्र के घूमने से फिर बी- टाइप में जा रही हूँ.....गृहस्थी कई जगहों में बँट गई है.. रायबरेली में पुश्तैनी घर , मैं यहाँ मनकापुर में , पतिदेव लखनऊ में. बेटा दिल्ली में , बेटी दामाद गुडगाँव में ........
.......

अब फिर से नए लोग, नया पड़ोस ,नए सिरे से एडजस्ट करना पड़ेगा........सोच के उलझन सी हो रही है ,......खैर देखा जायेगा ......

.सबसे अजीब तो लोगों की कुछ कुछ उपहासात्मक नजरो से महसूस होता है.......जैसे न कहते हुए भी कह रहे हो आ गए औकात में ???.........क्यों की यहाँ का कुछ ऐसा चलन है कि डी - टाइप और सुपर डी -टाइप में रहने वाले अपने को कुछ ख़ास समझते हैं और होते ही हैं....बड़े अफसर जो ठहरे ......पति बड़े अफसर होते हैं और पत्नियाँ उनसे भी बड़ी अफसर....और ए और बी टाइप वालो को छोटा समझने की एक अलग सी भावना होती है..........और जब ऐसी स्थिति आती है कि पतियों के रिटायर होने के बाद नौकरी शुदा पत्नियों को छोटे क्वार्टर्स में रहना पड़ता है तो उनकी स्थिति थोड़ी अजीब सी हो जाती है........फिर बड़े बंगले में रहने के उपरान्त छोटे घर और भी छोटे लगने लगते हैं.....

सर्वेंट क्वार्टर , फुल टाइम काम करने वाली. खाना बनाने वाली .... सहयोगी आया , माली , नौकर ....खूब बड़े बड़े तीन बेडरूम्स , १५ बाई २० का बड़ा सा ड्राइंग रूम , १० बाई १५ का किचन , और ८ बाई १० के दो अंग्रेजी और देशी ढंग के बाथरूम्स..... १५ बाई १८ की बड़ी सी लॉबी ....घर के आगे , बीघे भर का लॉन..अगल बगल और पीछे किचन गार्डन कई कई अमरुद और आम के पेड़.....ये सारे सुख (!!! ) छोड़ के छोटे घर में जाना अखर जाता है.... सारी नक्शेबाजी ख़तम......सारा भौकाल धरा रह जाता है.....पर क्या किया जाये जाना तो है ही......ये कोई अपना तो नहीं है....कुछ समय के लिए भले ही सभी भ्रम में पड़े रहे ...

इतने दिनों में जो इतनी बड़ी गृहस्थी जोड़ ली जाती है वो सब लेकर छोटे से घर में जाना , ये सोचने पर विवश कर देता है आखिर क्या छोडें क्या ले जायें....सब कुछ तो वहां समाएगा नहीं.....फिर रिटायर होने के बाद अपना घर कहीं न कहीं , कोई न कोई तो ठिकाना तो होना चाहिए जिसे अपना घर कहा जाये.......भगवान् की असीम कृपा से आखिर वो दिन आ ही गया है की हमारे पास भी अपना कहने को एक छोटा सा ही सही प्यारा आशियाना बन गया है.... जिसमे हमारे सपनो के अलावा भी , बहुत सी चीजों के रखने की जगह है.......

अब अबतक जोड़ी गई .पूरी गृहस्थी लखनऊ भेज कर बी-टाइप में शिफ्ट होना है.......दो चार सामान यहाँ रख कर कुछ समय पुनः यहाँ बिताना है......

आज से २८ साल पहले जैसे आये थे उसी पोजीशन में फिर पहुँच गए हैं.......जैसे दो चार सामान के साथ यहाँ आये थे.....फिर वही स्थिति है.....उस समय पतिदेव तीन चार साल तक अकेले रहे थे ...मैं आती जाती रहती थी.....अब मैं अकेली रहती हूँ पतिदेव आते जाते रहते हैं..........यही लगता है दुनिया गोल है और आई. टी. आई. ने कह दिया है ,,,,,,पुनः मूषकः भव..... . .......




Saturday, October 20, 2012

फाउन्टेन पेन ...





हमारी पीढ़ी के लोगों ने जितना फाउन्टेन पेन का इस्तेमाल किया है उतना शायद अन्य किसी तरह की कलम का नहीं .....आज की पीढी में तो बहुतों ने इसे देखा भी न हो .....अब तो ये दुकानों में भी उपलब्ध नहीं ....मैंने कई दुकानों पर जाकर भी पूछा ....पर अब ये शायद बनना ही बंद हो गई हैं .....या शायद न बिकने के कारण दूकानदारों ने इसे रखना ही बंद कर दिया है ,.......

मुझे याद है जब कलम से लिखने का सुख प्राप्त हुआ, तो वह डेढ़ रुपये की फाउन्टेन पेन ही थी....प्लास्टिक की पारदर्शी पेन जिसका दक्कन किसी अलग रंग का होता था और पेन पारदर्शी प्लास्टिक का होता था जिस से ये पता चलता रहे कि उसमे स्याही है या नहीं.....कुछ पेन ऐसी भी होती थी जिसमे एक तरफ पतला सा स्टील का एक पिन जैसा लगा होता था जिसे दवात से स्याही भरते समय थोडा सा उठा लिया जाता था , ये पेन के अन्दर जो रबर की छोटी सी ट्यूब होती थी उसे दबाता था , दवात में निब की तरफ से पेन डालने के बाद उसे छोड़ देने से स्याही उस ट्यूब में भर जाती थी..........इस्तेमाल करते वक़्त बार बार उस ट्यूब को स्याही से भरना पड़ता था,.....

नया नया पेन रखने का शौक ऐसा था , कि आये दिन निब टूटी मिलती थी...कभी गिर कर टूट जाती थी कभी लिखते समय....टूट जाती थी....स्टील की या पीतल की निब जो शायद उस समय २५ पैसे की आती थी.....एक दो अलग से संभाल कर रखनी पड़ती थी..... कि लिखते लिखते पता नहीं निब कब साथ छोड़ दे......एक और बड़ी दिक्कत थी ...पेन लीक करने वाली ...अक्सर पेन निब की तरफ से लीक करने लगती थी....जिस से लिखने वालों की दो तीन उँगलियाँ हमेशा स्याही से रंगी रहती थीं......इस लीक करने वाली दिक्कत से निजात पाने के लिए..हम सभी बच्चों के पेंसिल बॉक्स ( जिसे उस समय ज्योमेट्री बॉक्स कहा जाता था , और उसमे कलम के अलावा चांदा ,परकार , , छोटी स्केल.डिवाइडर इत्यादि भी होते थे ) में गुलाबी या पीले रंग का सोखता कागज जरूर होता था ......जो लिखते समय अचानक आवश्यकता से अधिक स्याही निकल आने पर सुखाने के काम आता था......

उस समय स्कूल की डेस्क के एक कोने में एक छोटी सी अल्युमिनियम की एक कटोरी सी लगी होती थी ,...जिसमे स्याही भरी जाती थी.....कोई कोई बच्चे सिर्फ निब लगी हुई पेन से भी लिखते थे जिसे जी निब कहा जाता था, या फिर नरकट या सरकंडे और सेठे की कलम से भी ......स्याही की दवात लेकर आना आम बात थी.....और शर्ट की जेब पर नीला काला धब्बा लगे रहने पर भी कोई शर्म नहीं आती थी......
जो लोग महँगी इंक नहीं खरीद पाते थे वो पुडिया वाली स्याही पानी में घोल कर भी स्याही बना लेते थे......

मुझे ध्यान है हमारे घर पापा जी चेलपार्क इंक लाते थे.और उसके डिब्बे में एक ड्रापर और एक छोटा सा कपडे का टुकड़ा लपेट कर रखा रहता था, कि यदि पेन में इंक भरते समय गिर जाये तो तुरंत पोछी जा सके.....हमारे लिए अल्ट्रामेरिन ब्लू और पापा जी के लिए टरक्वाएश ब्लू इंक आती थी ....हर रविवार को सभी की पेन की सफाई की जाती थी और साफ़ सुखा कर पूरी तरह स्याही भर कर सोमवार की तैयारी कर ली जाती थी....

तब वो एक रुपये और डेढ़ रुपये की सुन्दर रंगबिरंगी कलमे कितना ललचाती थीं,.....और चार या पांच रुपये की कलम खरीदना एक विलासिता ही समझी जाती थी....मुझे याद है मेरी एक सहेली के बड़े भाई ने उसके पास होने पर उसे एक कलम गिफ्ट की थी,....जो उस समय २२ रुपये की थी,.....तो हम सब काफी दिनों तक उसके नखरे देख कर ईर्ष्यालु हो उठे थे.....

ये घटना मुझे तो स्मरण नहीं,....पर मम्मी बताती थीं कि जब मैं दो या ढाई साल की रही होउंगी.....,उस समय गाँधी आश्रम में बाबा जी के पास (मेरे बाबा पंडित रामधारी उपाध्याय बहुत लम्बे समय तक गाँधी आश्रम में मंत्री पद पर रहे हैं. ) आचार्य कृपालानी आये हुए थे....मम्मी के बार बार मना करने के बावजूद भी मैं उनके बैठक कक्ष में जा पहुची ,वहां खेलती रही .. और थोड़ी देर बाद चुपके से कृपालानी जी की पारकर पेन लेकर भाग निकली ......बाबा जी नाराज हुए, मम्मी को डांट भी पड़ी,...पर कृपालानी जी ने बड़े प्रेम से समझा कर कहा कि , ले जाने दो बिटिया को .........उसने पेन लेना पसंद किया है तो इसका मतलब है कि उसे पढने लिखने का शौक़ होगा आगे चल के..... बड़ी मुश्किल से वो पेन मुझसे लेकर उन्हें वापस किया जा सका....काश वो पेन आज मेरे पास होता तो कितनी कीमती धरोहर होती मेरे पास...........

हमारे बचपन में दो ही तरह की पेन ज्यादा प्रचलन में थी....फाउन्टेन पेन या डॉट पेन ....डॉट पेन से स्पीड तो अच्छी बनती थी....पर राइटिंग नहीं,,,,मुझे तो फाउन्टेन पेन से ही लिखना ज्यादा पसंद था.....उस से रायटिंग ज्यादा अच्छी बनती थी......सुलेख के लिए नरकट या सेठे की कलम ही प्रयोग करते थे और रोज कम से कम दो पृष्ठ सुलेख लिखना जरूरी था ,,..संभवतः इसी से उस वक़्त के ज्यादातर लोगो की हस्तलिपि इतनी सुन्दर है.....चाहे हिंदी या उर्दू या अंग्रेजी......बिलकुल मोती चुन कर रख देते थे.....आज के बच्चों का दुर्भाग्य है कि पैदा होते ही उन्हें पेंसिल थमा दी जाती है....और यही वजह है कि सौ दो सौ बच्चों में चार छः बच्चे ही ऐसे निकलते हैं जिनकी हस्त लिपि को सुन्दर कहा जा सके.....

अपने स्कूल में ही देखती हूँ , कि सुलेख प्रतियोगिता के समय छांटना मुश्किल होता है कि किसे अच्छा माना जाये....इतना गन्दा लेख .........लिखने के प्रति कोई जिज्ञासा या रूचि नहीं ....घसीटा मार लिखाई.....खाना पूर्ती.....

और थोडा बड़ा होते ही वही ....यूज एंड थ्रो वाली कलमें....जिनसे किसी तरह का कोई लगाव नहीं हो सकता.....क्यों कि वे सिर्फ एक या दो दिन ही बच्चों के हाथ में रहती हैं.....अब अपनी लकी कलम या पुश्तैनी दादा जी ,नाना जी ,की दी हुई कलमों का कोई रिवाज ही नहीं रहा......जिनसे कितना लगाव रहता था......

Thursday, October 18, 2012

कबाड़ गाथा






इधर कुछ दिनों से पुराने सामानों की उठा पटक चल रही है......न चाहते हुए भी इतना अल्लम गल्लम भरते चले जाते हैं हम लोग कि एक समय बाद न उसे रखते बनता है न फेंकते.......जब कि ये हम अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी जरूरत अब कभी नहीं पड़ेगी..फिर भी एक ऐसा मोह...है जो उन वस्तुओं को त्यागने नहीं देता....



इसी खोज बीन के दौरान........अपनी कुछ बिछुड़ी हुई डायरियां हाथ लगीं ..... .पतिदेव की तमाम चुटकी पुर्ची से भरी डायरियां मिलीं.... सैकड़ों ऐसे पते मिले जिन पर रहने वाले अब हैं ही नहीं.....हजारों ऐसे फोन नम्बर जो अब शायद कभी नहीं लगेंगे......तमाम ऐसी चिठ्ठियाँ ............. जिनमे पतिदेव को नौकरी मिलने...हमारी शादी होने और फिर हमारे बच्चे होने तक की बधाईयाँ ......और शुभ कामनाएं .......शामिल हैं......मिलीं......उनका सम्मोहन ऐसा है ....कि उनको न फेंकते बनता है न जोगा कर (संभाल कर ,, ये बनारसी भाषा है ) रखते.....न ही उन्हें फाड़ कर जलाने का मन हो रहा है.......कुछ ऐसी ऐसी चीजे भी मिलीं जो बरसो पहले बिला गईं थी......पर अब फिर से मिल गईं हैं ....जब कि उनका अब कोई काम नहीं.......फिर भी एक अनजाना प्यार सा उमड़ा आ रहा है उनसे...




कभी कभी जी में आ रहा है कि बिना देखे पूरा कागजों का बण्डल कबाड़ी के तराजू पर रखवा दूं...फिर लगता है कहीं कोई जरूरी कागज न इधर उधर हो जाये........बच्चों के पचासों खिलौने तो बाँट दिए हैं ......पर कुछ इतने प्यारे खिलौने हैं.....कि उन्हें किसी को देने का मन नहीं हो रहा.......एक बिटिया रानी का प्यारा टेडी बियर ...(जो मैंने अपने हाथो से बनाया था......उस समय कितना क्रेज था ....कितना शौक......खुद से बिटिया के कपडे सिलना ..खुद से उसके स्वेटर बनाना ..... खुद से खिलौने बनाना..... ओह्ह ) बिटिया ने अपने टेडी का नाम मेपू जी रखा हुआ था......जिसके बिना उसे चैन नहीं आता था..सारे दिन उसे लिए लिए फिरना ... उसे खिलाना .....उसे लेकर सोना .......बेटे का बैट बाल ....शतरंज , कैरम बोर्ड , लूडो , निकलता ही जा रहा है दीवान से.....बच्चों को गिफ्ट में मिले हुए गेम्स.......उनकी स्लैम बुक....कितने लोगो से लिए गए हस्ताक्षर .....


बिटिया रानी की कई सारी बार्बी डॉल्स उनकी पूरी गृहस्थी .उसके गहने ...बर्तन ....कपडे.....नानी के बनाये हुए सुन्दर सुन्दर बार्बी के स्वेटर ..निकाले धूप दिखाए और ...सब फिर से संभाल के रख दिए हैं.........


पतिदेव कि एक खास आदत है अपनी जेब में ढेरों कागज छोटी छोटी पुर्चियाँ.....जमा करते जाते हैं....और जब कमीज बदल कर दूसरी पहनी जाती है तो वे सारी चीजें दूसरी नई कमीज के जेब में चली जाती हैं.......और ये सामान जब आवश्यकता से अधिक जमा हो जाता है तो सब रुमाल में लपेट कर रबर बैंड से बाँध कर रख दिया जाता है ....यह कह कर कि फुर्सत से देखेंगे ....और ये फुर्सत बहुत मुश्किल से निकाली जाती है......ऐसे कई बण्डल भी इस सफाई अभियान में मिले......मैं जानती हूँ कि अगर मैंने ये सारे बण्डल कूड़े के हवाले कर दिए तो उनमे कोई न कोई ऐसा आवश्यक कागज जरूर निकल आएगा .. जो पतिदेव ऐसे मौके पर खोजेंगे और पूछेंगे कि ....मेरे पास कोई जवाब नहीं होगा .......फिर घर में एक सुनामी आना तो तय है ,,,,,,,,और जिसके बिना कुछ न कुछ नुक्सान हो जायेगा.....इस लिए बिना उन्हें डिस्टर्ब किये पड़े रहने देती हूँ.....




बच्चों के ढेरों पुराने पेंसिल बॉक्स , जो कभी नए खरीद कर लाये गए थे तो उनमे अपना मनपसंद बॉक्स लेने के लिए कैसे कटा युध्ध्ह मचा था याद आता है......दोनों को अपना छोड़ कर दूसरे का ही ज्यादा पसंद आता था........पुरानी स्कूल ड्रेस, पुराने जूते , पुरानी ढेरो किताबें .....उफ्फ्फ्फफ्फ़ .........
कलाकार होने के नाते हम लोगो को जो उपहार गिफ्ट्स आदि भी मिलते रहे हैं उनमे ज्यादा तर ऐसी ही चीजें हैं......जो लोगो को आकर्षित तो बहुत करती हैं.....पर एक समय बाद वे कबाड़ का ही रूप ले लेती हैं....( और ऐसी चीजे हमारे पास इतनी ज्यादा हैं की एक छोटा मोटा म्यूजियम तो बन ही सकता है )......मैं मूलतः एक आर्ट और क्राफ्ट टीचर हूँ.....और ज्यादातर बच्चों को यही सब सिखाती भी हूँ......पर अपने लिए कभी नहीं बनाती....इतना ज्यादा बनाया है की अब मुझे इनसे ऊब सी होने लगी है ......(क्यों कि मुझे लगता है कि वे भी सिर्फ कबाड़ (!!) ही बढ़ाती हैं..)........

किताबें जो अब किसी काम की नहीं रही है...उन्हें सिर्फ दीमको का आहार बनाने की इच्छा नहीं है... उन्हें दिल कड़ा करके कबाड़ी के हाथो देने का मन बना लिया है.......... बेटी के बनाये हुए तमाम चित्र और उसकी ड्राइंग कापियां ,,,,,कैसे दे दूं कबाड़ी को ???

सैकड़ों की संख्या में मैगजींस .........अनगिनती किताबें.......ऐसी किताबें जिनकी कवर डिजाइन बनाई है मैंने ...या जिनमे कभी कभी छपी भी हूँ...... आखिर कितना इकठ्ठा करूँ ??.....क्या करूंगी इकठ्ठा करके....सब पत्रिकाओं के पृष्ठ भी जर्जर होने लगे हैं ....फिर भी करीब २०० पत्रिकाएँ ऐसी हैं जिन्हें फेंकने को अभी दिल गवारा नहीं कर रहा .......वे फिर से संभाल कर किताबों की आलमारी में सजा दी हैं.....



कभी बेहद शौक़ से पत्रिकाओं से काट काट कर व्यंजन और अचार इत्यादि बनाने के तरीके इकठ्ठा किये थे...और जो शायद ही कभी प्रयोग में लाये गए......कितनी फाइल्स में लगा लगा कर रखे हुए ..तमाम घरेलू नुस्खे...पुराने अखबारों की कतरनें ..........सब एक बड़े लिफाफे में भर दिए हैं.....और ये सोच लिया है की वे मैंने देखे ही नहीं.......या वे कभी थे ही नहीं...( हाय !!!मैं कितनी कठोर दिल की हो गई हूँ )

Friday, October 12, 2012

मेरे प्यारे बच्चों

“मेरे प्यारे बच्चों,जिस दिन तुम्हें यह लगे कि मैं बूढ़ा हो गया हूं, तुम खुद में थोड़ा धीरज लाना और मुझे समझने की कोशिश करना…जब खाना खाते समय मुझसे कुछ गिर जाए… जब मुझसे कपड़े सहेजते न बनें… तो थोड़ा सब्र करना, मेरे बच्चों…और उन दिनों को याद करना जब मैंने तुम्हें यह सब सिखाने में न जाने कितना समय लगाया था.

मैं कभी एक ही बात को कई बार दोहराने लगूं तो मुझे टोकना मत. मेरी बातें सुनना. जब तुम बहुत छोटे थे तब हर रात मुझे एक ही कहानी बार-बार सुनाने के लिए कहते थे, और मैं ऐसा ही करता था जब तक तुम्हें नींद नहीं आ जाती थी.मैं तुम्हें ज़िंदगी भर कितना कुछ सिखाता रहा…अच्छे से खाओ, ठीक से कपड़े पहनो, बेहतर इंसान बनो, हर मुश्किल का डटकर सामना करो… याद है न?

बढ़ती उम्र के कारण यदि मेरी याददाश्त कमज़ोर हो जाए… या फिर बातचीत के दौरान मेरा ध्यान भटक जाए तो मुझे उस बात को याद करने को मौका ज़रूर देना. मैं कभी कुछ भूल बैठूं तो झुंझलाना नहीं… गुस्सा मत होना… क्योंकि उस समय तुम्हें अपने पास पाना और तुमसे बातें कर सकना मेरी सबसे बड़ी खुशी होगी… सबसे बड़ी पूंजी होगी.
...

एक दिन ऐसा आएगा जब मैं चार कदम चलने से भी लाचार हो जाऊंगा…उस दिन तुम मुझे मजबूती से थामके वैसे ही सहारा दोगे न जैसे मैं तुम्हें चलना सिखाता था? एक दिन तुम यह जान जाओगे कि अपनी तमाम नाकामियों और गलतियों के बाद भी मैंने हमेशा तुम्हारा भले के लिए ही ईश्वर से प्रार्थना की.

अपने प्रेम और धीरज का सहारा देकर मुझे ज़िंदगी के आखरी पड़ाव तक थामे रखना. तुम्हारी प्रेमपूर्ण मुस्कान ही मेरा संबल होगी.

कभी न भूलना मेरे प्यारे बच्चों… कि मैंने तुमसे ही सबसे ज्यादा प्रेम किया.

''तुम्हारा पिता”








''हिंदी जेन से साभार''

Thursday, September 27, 2012

मेरा उदास जन्मदिन




कल फिर 25 सितम्बर बीत गया ,.......
जीवन में एक साल और जुड़ गया ...कहूं,
 या एक साल और कम हो गया  ,
नहीं समझ पा रही,  
दोनों ही बातें सच हैं,.....
.जब हम बच्चे होते  हैं  .......
साल दर साल   बढ़ते जाते हैं,,,,,
पर एक उम्र के   बाद साल दर साल घटने  लगते हैं ,  
और   पचास पार पहुँचने के बाद यह अहसास और भी तीव्र हो जाता है।........

अपना पचासवां जन्मदिन इतना एकाकी मनाउंगी .....नहीं सोचा था ,...
बच्चे दिल्ली में , पतिदेव लखनऊ में,      भाई लोग बनारस में ,       और मैं यहाँ मनकापुर में ,

चलो कोई बात नहीं,.....
सब समय का तकादा  है ,....
पर  इस . बात की      बहुत ख़ुशी     और तसल्ली है कि .......
 यहाँ न होते हुए भी     सब मेरे साथ थे। ...
भला हो फेसबुक का ...जहाँ    अनगिनत लोगों ने मेरे लम्बे जीवन और भविष्य के लिए दुआएं दीं ......सभी की आभारी हूँ ......
आज यानि 26 को  स्कूल में भी सभी साथी टीचर्स     और बच्चों ने असेम्बली में हैप्पी बर्थडे गाकर मुझे विश  किया .....
(25 को  स्कूल में  छुट्टी थी  ) ......

.



















Thursday, September 20, 2012

शाम होने को है



शाम होने को है
लाल सूरज समंदर में खोने को है ,
 और

उसके परे  कुछ परिंदे 
कतारें बनाये 
उन्हीं जंगलों     को चले ,
जिनके पेड़ों की शाखों पे हैं घोंसले ,

ये परिंदे वहीँ ,
लौट कर जायेंगे , 
और 
सो जायेंगे ........


हम ही हैरान हैं ,.....

इन मकानों के जंगल में 
अपना  कहीं भी ,
ठिकाना  नहीं ,.......

शाम  होने को   है ,,,,,,,
हम कहाँ  जायेंगे  , ?????
 





हमारी   आज कल की मनः स्थिति को जाहिर करती एक नज्म .......
( तरकश  से )

Wednesday, September 19, 2012

अमित द ग्रेट

हमारा अमित द  ग्रेट 


                मानव जीवन में इतने परिवर्तन होते रहते हैं,.............जीवन की चढ़ाई उतराई में कौन कहाँ छिटक जाता है , पता ही नहीं चलता ..है ,कितने घनिष्ट लोग  ऐसे बिछड़ते हैं कि        जीवन में फिर कभी  उनसे मुलाकात नहीं होती,...........और कितने अनजान लोग       ऐसे घनिष्ट हो जाते हैं मानो वे हमेशा से हमारे हों .......ज़िन्दगी के सफ़र  में हम   बहुत से लोगों से मिलते हैं ......बिछड़ते हैं ,,,,,,,,फिर कभी नहीं मिलते ,...............पर  उनमे से कुछ लोग   हमारे अपने बन कर     हमारे दिल के करीब      जगह बना लेते हैं     हमारी दिनचर्या में ,    हमारी बात चीत में     ऐसे शामिल हो लेते हैं,       जैसे वो   हमेशा से वहीँ थे ........

            इन्ही में एक अमित है,,,,,,अमित शर्मा ,,,,अमित का अर्थ  है,......जिसका  मित  या परिणाम न हो,......असीम , , ...या   लिमिटलेस ,..यथा नाम ..... , ..यथा गुण,.....असीम धैर्यवान ,...बेहद सज्जन ,....बेहद संवेदनशील ,....व्यावहारिक  और अनलिमिटेड   क्वालिटीज़  ( नहीं , नहीं  ज्यादा नहीं हुआ  ,  ये सब गुण हैं अमित में ,......) और लगभग 6    फीट ऊँचाई के साथ गोरा चिट्टा प्रभावशाली व्यक्तित्व .........

                अमित से मेरी मुलाकात कब हुई ,...तारीख तो   याद नहीं , पर सन, जरूर याद है, शायद ,2003 की बात है , हमारा  नेट तब नया नया लगा था ..... मुझे भी बहुत ज्यादा शौक़ उमड़ रहा था ,....    और उस  समय  कंपनी की   तरफ से नेट सुविधा सिर्फ  रात को 9  से 11.30 बजे तक ही मिलती थी और उन दो , ,ढाई  घंटों के  लिए मुझमे और बच्चों में इंटरनेट पर बैठने के लिए होड़ लगी  रहती थी   ,......और उन ढाई घंटों में भी नेट कितनी बार कटता था,.....उस वक़्त कितना क्रेज़ था नेट के लिए,.....नया नया चैटिंग करना सीखा था जल्दी ही अनगिनत दोस्त  बन ,गए .....जिनसे बराबर बातचीत  होने लगी,....  कुछ दिनों बाद  सभी ऑफिसर्स के लिए नेट का समय कुछ  बढ़ा दिया गया ,,,,,,,,, रात को करीब 1.30 बजे तक ,....और तब   पतिदेव के नाराज होने के बावजूद   मेरा   1.30 बजे तक का  समय नेट के  सुपुर्द  हो गया  ..............इन्ही दिनों में  एक दिन मेरी अमित से मुलाकात हुई और सिर्फ बनारस का होने के नाते  मेरी उस से बात होने लगी ,.... फिर क्रिकेट  के प्रति उसकी रूचि देख  कर   अच्छा लगा ,....एक समय मुझे भी क्रिकेट के लिए बड़ी दीवानगी थी ,.....अब सोचती  हूँ तो हंसी आती है ,,.....
            और अमित का ये हाल था कि  चैटिंग करने में  उसने रिकार्ड  बना  रखा था      कई कई घंटे, रात रात भर बैठ कर चैटिंग  की है उसने   (ऐसा उसने मुझे बताया  था )
          लगभग  रोज ही बात होती रही उस से ,  विश्वनाथ गली की उसकी पारिवारिक    दुकान पर भी  मैं और मेरी बेटी गए ,,......कुछ  सामान भी खरीदा   (पर  अफ़सोस है ,..कुछ कन्सेशन नहीं मिला )......

                 उस समय अमित किसी गैर मुल्की कन्या के प्रभाव में अपने आप  को भुलाए हुए था,........(सब इंटरनेट बाबा का प्रभाव था ),.....और वो कन्या भी उसे अच्छा बना रही थी ,........(यहाँ अच्छा  बनाने से मतलब उसे सुधारना नहीं ,...बल्कि बना रही थी,......मतलब बेवकूफ बना रही थी ,....ऐसा मेरा मानना है,....हो सकता है मैं गलत हूँ ,,.......पर मुझे ऐसा लगता  था ,......)कुछ एक बार मेरी भी उस से बात हुई,...पर अपने अनुभव के आधार पर  मैंने ये माना कि ,     वो बिलकुल भी  गंभीर नहीं थी , और ये यहाँ  शहीद होने पर उतारू थे ,.....खैर बहुत दिनों तक बातें और चर्चा होने के बाद       मैंने अमित को बहुत समझाया , और पता नहीं मेरे समझाने , या धमकी देने (कि  अब वो कभी मुझसे बात न करे )या स्वयं सदबुध्धि आजाने से  बात वहीँ के वहीँ ख़त्म हो गई ,.......मुझे लगता है कि    मैंने जीवन में       यदि कुछ अच्छे काम किये हैं,,,तो उनमे से एक ये भी है,...कि   उस वक़्त मैंने अमित को अच्छी सलाह दी    और उसने मानी भी ,.............(और अभी भी इस बात के लिए मैं उसे  चिढाती हूँ )

           अमित से जब मेरी बातचीत  शुरू हुई थी ,....उस समय मेरी बेटी शायद  आठवीं में और  बेटा पाचवीं में पढ़ते थे,.... नेट पर बात करने के दरम्यान एक दिन उसने मुझसे  फोन   पर बात करने की इच्छा जाहिर की तो मुझे      कुछ बहुत अच्छा सा नहीं लगा था ,..      क्यों कि  उस समय ऐसे बहुत से किस्से सुनाई देते थे ,कि  लोग अकारण ही महिलाओं को तंग करते हैं,....मुझसे भी बहुत से लोगो ने फोन नंबर की मांग रखी  थी  और मैंने हर किसी को मना  कर दिया था ....
              पर मुझे याद  है  मैंने सिर्फ दो लोगो को ही इस काबिल (!!! ) समझा था कि 
उनसे फ़ोन पर बात करूँ , ,, एक अमित और  दूसरा अंशु ,,,,  (अंशु भी हमारा अच्छा पारिवारिक मित्र है,)   शुरू में मुझे थोड़ी हिचक महसूस होती थी      कि  कहीं पतिदेव नाराज़ न हों,....पर बाद में सिर्फ मुझसे ही नहीं ,...मेरे बच्चों और मेरे पतिदेव से भी बहुत घनिष्टता हो गई अमित की,,,,,,और कितनी कितनी ही देर बातें होने लगी,.......मजेदार बात ये रही कि बातों के दरम्यान    ....हम सब सिर्फ सुनते थे स्पीकर की आवाज़ बढ़ा कर  .......बोलता सिर्फ अमित था।,,,,,,, क्यों कि   उसके जितनी स्पीड से ,,,,     बोलने वाले बिरले   ही मिलते हैं।,,,,,,,,,,,,(लगभग 25 से 30 शब्द प्रतिसेकेंड )........ 

           मुझे याद है अपने किसी आवश्यक काम से अमित कानपुर  आया हुआ था      और हम ( मैं , बेटू  , और बाबू ) अपने मेडिकल चेकअप के लिए लखनऊ गए  हुए थे,.... बहुत अच्छा लगा       जब अमित हम लोगों से मिलने लखनऊ तक आया    और बेहद आदर और स्नेह के साथ हम सबसे मिला,...यह मुलाकात क्षणिक ही रही,....   पर बहुत अच्छा अनुभव रहा,........

            कुछ दिनों बाद उसकी अपनी एक चैट फ्रेंड से ही शादी हुई ( पर गनीमत है इंडिया में ही हुई है )    और कुछ  समय बाद उसे एक बेहद खूबसूरत बच्चे का पिता बनने का भी सौभाग्य मिला,.....पर सिर्फ 10 या 12 दिनों के बाद ही उस बच्चे की असामयिक मृत्यु से हम सब स्तब्ध रह गए,.....खैर ईश्वरेच्छा बलीयसी  ....
           मुझे याद है,,......उस बच्चे के आगमन की प्रतीक्षा में मुझसे अमित बराबर  पूछता रहा था,....कि  किन किन उपायों से बच्चे सुन्दर और स्वस्थ होते हैं,... ,,दीदी आपके बच्चे इतने प्यारे कैसे हैं ,    मुझे बताइए कि ,        मानू को क्या खाना चाहिए  ,    किन बातों का ध्यान रखना चाहिए,,,,,,दीदी मुझे बताती रहिये ,    और मैं उसे बताती भी रहती थी,......पूरे समय पर एक स्वस्थ और सुन्दर  संतान देने के   बाद भी ,   पता नहीं क्यों    ,......ईश्वर  ने    इतनी निर्दयता    दिखाई   उनके  साथ ,....यकीं नहीं होता ,.......खैर  कोई बात नहीं,......शायद उसे यही मंजूर था ,....ईश्वर उन्हें पुनः ऎसी ख़ुशी पाने का मौका दें यही प्रार्थना है ,.....

            2007 में हमारा दिल्ली जाने का कार्यक्रम बना और अमित के बार बार निमंत्रित करने के कारण मैंने उसे अपने आने का कार्यक्रम बता दिया ,......बेहद ख़ुशी हुई कि  उसने हम लोगों को हमारी उम्मीद से अधिक समय दिया          और मेरे पतिदेव के मन में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया ,.....इन्हें उसका व्यवहार , सहजता ,चुस्ती , और खुशमिजाजी बहुत पसंद आई ,....

          2009 में  काफी बीमार होने के बाद अब वो पूर्णतया स्वस्थ है,......,बीमारी के दरम्यान जब कभी उस से बात हुई तो विशवास ही नहीं होता था कि ............. हम अमित से ही बात कर रहे हैं,...बोलने में उसे इतना कष्ट होता था कि  कई बार बात  करते करते मैं ही रो पड़ी हूँ,.........भगवान् की बड़ी कृपा है कि  अब फिर से उसके बोलने में वही   स्पीड आगई है    ,, जिसके लिए हम लोग उसे जानते हैं,,,,,,,( बिना फुल स्टाप ,कामा  लगाये),,,,,,,

          पिछला साल उसके लिए थोडा कष्टप्रद रहा।।उसने अक्तूबर में अपने युवा छोटे भाई को खो दिया। ,.... पर होनी पर किसी  का वश  नहीं .........

          इस वर्ष अप्रैल माह में  अपनी   बिटिया की शादी की ,...मुझे बहुत अच्छा लगा जब सिर्फ मेरे कहने पर      अमित मनकापुर तक आया और      यहाँ से हमारे साथ ही फ़तेह पुर तक गया  ,,,,,,, जरा सा भी ये महसूस नहीं हुआ कि       उसे किसी तरह की कोई असुविधा हुई हो   या कोई अनजानापन महसूस हुआ हो ,....( हुआ भी हो तो उसने जाहिर नहीं किया )       उसके हमारे साथ होने  से     हमारे घर के सभी सदस्य बहुत निश्चिन्त और प्रसन्न रहे ,....  .एक बेहद   जिम्मेदार व्यक्ति की तरह         उसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई ,......बच्चों  में बच्चा  और बड़ों में बड़ा बन कर शामिल  रहना उसकी खासियत है।,,, उसके हंसमुख व्यवहार को सभी ने बहुत पसंद किया ,......

             मई माह में हम  कुछ दिनों के लिए बिटिया के पास  गुडगाँव गए थे,... ,..वहां .. भी  अमित ने अपने व्यस्त और बहुमूल्य समय में से काफी समय हमारे साथ बिताया       अभी राखी पर मेरी बिटिया ने उसे मेरी तरफ से राखी भी बांधी  है,.......

                         अमित से अब हमारा   इतना प्यारा और  स्नेहमय रिश्ता  बन चुका  है ,   जिसके लिए कोई शब्द ही नहीं ,......जिसमे कोई खुदगर्जी  या   लालच का स्थान नहीं है ,,ईश्वर  से यही प्रार्थना है ,..........कि  ये स्नेहिल रिश्ता ऐसे ही बना रहे,.....और भगवान् उसे लम्बी उम्र और ढेर सारी खुशियाँ दे,......आमीन .........

















Saturday, September 8, 2012

कभी कभी




कभी कभी 
सोचती हूँ क्यों इतना कुछ सोचा करती हूँ,
फिर लगता है  
ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता 
कि  इंसान बिना कुछ सोचे भी जीवित रह सके ,
सोचना तो हर पल हर क्षण , जीवन भर  लगा ही रहता   है ,
बस कुछ पल ढूंढती हूँ  ,जिसमे  आपको सकून  दे सकू  ,
फिर तो वही  चक्रव्यूह   ,वही  निरंतरता    ,
कोल्हू के   बैल   सा हो गया है जीवन ,
आँखों पर पट्टी बांधे  ,,
निरंतर     , घूमते  जा रहे  हैं सब  ,
एक ही चक्र में लगातार  ,
सब अपने अपने  ,चक्रव्यूह में फंसे हैं 
 और जीवन की महाभारत ख़त्म होने  का नाम ही नहीं लेती ,
समय है , कि  बीतता  जा रहा है ,
हम चुकते जा रहे हैं ,
तरकश खाली हो चुका  है 
आयुध समाप्त हो चुके हैं , 
और युध्द अभी भी बाकी है  












Sunday, July 29, 2012

मेरी प्यारी बेटी ,मेरी.ख़ुशी....हमारा संसार



   मेरी प्यारी बेटी ,मेरी.ख़ुशी....हमारा संसार
             और क्या क्या कहूँ ........... समझ नहीं आता....


          उम्मीद ही नहीं ,पूरा यकीन है ,कि  तुम बहुत अच्छी तरह से हो,,,,.....और हमारा प्यारा बेटा भी ,........इस इन्टरनेट के युग में पत्र लिखना एक अलग अहसास है , वो भी तब जब कि  दिन भर में कितनी ही बार तुमसे बात होती रहती है.........फिर भी पत्र की जगह कोई नहीं ले सकता.......ये एक ऐसा अहसास है जो बेहद खूब सूरत है... आज उसी अहसास को जीने का मन हुआ ...इसलिए चिठ्ठी लिखने बैठ गई हूँ......यह मन ही है जो अपने हिसाब से मन मुताबिक़ देखता सुनता है....मन पर नियंत्रण कर पाना  बहुत मुश्किल है .....मैं भी नहीं कर पाती .....और एक अध्यापिका होने के नाते ....बिना लेक्चर दिए भी नहीं रह पाती ......पर यह लेक्चर नहीं है   सिर्फ कुछ बीते हुए पलों की पुनरावृत्ति और आने वाले जीवन के कुछ पहलुओं का आभास करना ही है.....सब समय का फेर है ....हमारा प्रारब्ध हमें कितना कुछ दे जाता है.....और हम हैं की उसकी कुछ कद्र ही नहीं करते ...बाद में पछताने के सिवा कुछ हाथ नहीं रह जाता.........फिर समय पलट कर कभी वापस नहीं आता........बेटा अब तुम्हारे जीवन का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है.....किसी भी माँ बाप के लिए इस से बड़ी ख़ुशी और कोई नहीं हो सकती....यह हमारा  सौभाग्य  था..कि  तुम जैसी प्यारी सुन्दर और मोह  लेनेवाली संतान ने जन्म लेने के लिए हमारा घर चुना..किसी भी अभिभावक को तुम जैसी बेटी पर गर्व हो सकता है.........मुझे वो भी दिन याद है.......जब तुमने पहली बार आँखें खोली...कितनी नन्ही प्यारी और कोमल थी तुम....तुम्हे छूने से भी डर  लगता था की  कहीं  तुम्हे चोट न लग जाये......मुलायम काले बालों से भरा हुआ छोटा सा सर ..बेहद गोरा सफ़ेद रंग.....और बेहद खूबसूरत  बड़ी बड़ी आँखें.....जो नानी के नारियल और मिश्री खिलाने का नतीजा माना    जा सकता है (ऐसा वो कहती थीं )सभी तुम्हे देख के बेहद खुश थे.....खास कर तुम्हारे पापा ( जिनके लिए तुम आज भी बेहद खास हो )


         हर माँ बाप की तरह.... हमारी भी यही ख्वाहिश रही है  कि  तुम लोग अच्छे से अच्छा करो.....कभी गलत रास्तों पर मत चलो.....और मुझे फख्र है इस बात पर कि  तुमने कभी ऐसी शिकायत नहीं होने दी.....हाँ तुमसे ये शिकायत  जरूर रही...कि  शुरूआती पढाई में तुमने बहुत अच्छा नतीजा नहीं दिखाया और इस बात को लेकर मैं बहुत अपसेट भी रही हूँ.....साथी टीचर्स और कुछ खास रिश्तेदारों   के व्यंग्य पूर्ण रिमार्क्स और कटूक्तियां भी सुनी हैं और बेहद दुखी भी हुई हूँ ....पर चलो वो समय भी बीत गया है.....मुझे मालूम है कि  तुम्हारे अन्दर पर्याप्त समझदारी ,समय के साथ चलने का जज्बा..,और व्यवहार कुशलता की  बारीकियां मौजूद हैं......और यही बातें ज़िन्दगी के कठिन सफ़र को बेहद आसान बना देती हैं.......
              हमारे बच्चे हमसे अधिक अच्छे होंगे ...और उनका जीवन भी हमसे अधिक अच्छा होगा यही उम्मीद है......तुम्हारी पीढी के बच्चे हमारी पीढी से ज्यादा  समझदार और सयाने हैं.............यही कारण है कि  मुझे तुमलोगों की ओर से कोई चिंता नहीं.......ये देख कर अच्छा लगता है कि ......... आज जो कुछ भी तुम बन सकी हो....और बनने  की ओर अग्रसर हो.....ये तुम्हारी अपनी सोच.., मेहनत , और जज्बे का ही फल है.......हमें ख़ुशी है कि ,.....अपना सम्पूर्ण योग्यता संपन्न जीवन साथी तुमने स्वयं चुना.......और मुझे अच्छी तरह मालूम है कि  मनचाहा जीवन साथी मिल जाने से जीवन की आधी मुश्किलें तो वैसे ही दूर हो जाती हैं......तुम्हारे पापा इसके सबसे अच्छे उदाहरण  हैं (आमीन ).....उन्होंने कभी किसी कार्य के लिए मुझे हतोत्साहित नहीं किया ...बल्कि हमेशा अच्छे से अच्छा करने की ही प्रेरणा दी है....(और मैं ऐसा सोचती हूँ की मैंने भी उन्हें निराश तो नहीं ही किया होगा )  
               मुझे याद है कि  तुम्हारे शादी के प्रस्ताव को लेकर मैं कितनी दुविधा में थी.....पर मेरे समझाने पर ....उन्होंने मेरा कितना साथ दिया   ... इसे कितनी सहजता से लिया.......और इस बात को कितना महत्व  दिया...............तुम्हारी शादी के वक़्त  .....सभी छोटे से छोटे और बड़े से बड़े.....हर आयोजन में ......कितनी रूचि और ख़ुशी से भाग लिया उन्होंने.....खरीदारी करते वक़्त मैं उनका उत्साह और....जिज्ञासा देख कर दंग रह जाती थी.....कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए........जो दुकान  में सबसे अच्छी वस्तु हो.... वही खरीदी जानी है... ..एक एक कपडा जो उनकी प्यारी बिटिया पर सुन्दर लगेगा.....ओह्ह्ह्ह       ......(मैं आभारी हूँ उनकी )  और आज वे तुम्हारे परिवार को कितना चाहते हैं........ये सबके सामने है...........जितने स्नेह शील तुम्हारे परिवार के लोग हैं...........उनके लिए उतना ही स्थान..... हमारे दिलों में भी है उनके लिए........
         .हाँ ,...ये एक अच्छी बात हुई...हम पारिवारिक पक्ष में  जिन  मुद्दों को लेकर परेशान थे , चिंतित थे , उनसे हमें...... अपनों परायों की पहचान हो गई.....ऐसा ही कुछ अभी हमने महसूस किया है......उम्मीद तो खैर हमने कभी किसी से नहीं की थी....पर इतनी ना  उम्मीदी भी .....कभी नहीं हुई....रिश्तों में मिली तकलीफ .....वक़्त के साथ कम हो जाये यही कामना कर सकते हैं.....कभी कभी न चाहते हुए भी......हम अपने साथ हुई उपेक्षा तिरस्कार आदि भावनाओं को मन ही मन दुहराते  रहते हैं बारबार याद करते रहते  हैं .........जब कि  ऐसा नहीं होना चाहिए......आखिर कार  एक समय ऐसा जरूर आएगा जब  दिल पर लगने वाली चोट........ टीसता जख्म .......... उतने आवेग के साथ याद नहीं आएगा ........,अपने पाए खोये का हिसाब लगाने बैठें तो यही पायेंगे कि .... हमें जिंदगी में बहुत कुछ ऐसा मिला है जो बहुतों को नहीं मिला.......वैसे ये भी सच है की दुनिया में कोई ऐसा नहीं जिसे सब कुछ मिल गया हो.....सब कुछ मिल जाने के बाद भी बहुत कुछ ऐसा रह ही जाता है.....जो हम पाना चाहते थे......पर चलो कोई बात नहीं.....शायद हम सभी सुख की तुलना में दुःख को ज्यादा महसूस करते रहते हैं ..........और यही हमारे साथ भी हो रहा है.......पर मैं किसी को दोष नहीं देना चाहती......ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से चल रही है और चलती रहेगी....... .ऊपर वाला  सब देखता  है ............खैर 

छोडो .....इन् बातों का कोई अंत नहीं.....
       
                  अब तुम अपने जीवन की एक नई पारी  शुरू कर चुकी हो....और अब अपने इस परिवार के साथ .....तुम्हारा एक और नया परिवार बन गया है.....जो आने वाले वक़्त में .......तुम्हे इस परिवार से ज्यादा प्रिय हो जायेगा...हमेशा से ऐसा होता  चला  आया   है  .......इसमें दो राय नहीं........और होना भी चाहिए......जितना समर्पित तुम उस परिवार के लिए होगी.......उतना ही अच्छा प्रतिफल तुम्हे मिलेगा......अब तुमको मैं और मेरा जैसे शब्द भुला कर हमारा और हम जैसे शब्द याद रखने चाहिए......यही एक ऐसा अहसास है .......जो तुमको सबका प्रिय बनाये रखेगा....और फिर रोहित जैसा प्यारा  बेटा  तो तुम्हारे साथ है ही......अपना एक स्वतंत्र और गरिमा युक्त व्यक्तित्व बना कर रखना......... पर सबके साथ मिलजुल के.....कभी ऐसा कुछ नहीं होने देना .....जो हमारी छवि को धूमिल करे......आखिर तुम हमारी ही परछाईं  हो बेटा......कभी हमसे दूर नहीं हो सकती.....


            यह तो सच है कि  कोई भी सम्पूर्ण नहीं होता  ,......पर हमेशा यह ध्यान   रखो कि  अपना अच्छा ही पक्ष  सभी को दिखाई  दे    और दूसरों  का भी अच्छा ही पक्ष  देखो ......सभी के साथ स्नेहिल  व्यवहार बना के रखना...........खैर तुम खुद  इतनी समझदार हो कि  तुम्हे समझाने की जरूरत नहीं.......तुम लोग अपने जीवन में खूब तरक्की करो.....और जहाँ भी रहो...अपने सद्व्यवहार से सबको खुश रखो....यही हमारी कामना है.......


           भावावेश  में कुछ अनुचित  लिख  गई होऊं   तो अन्यथा   मत लेना  .....


मम्मी





Sunday, July 22, 2012

मम्मी


मम्मी ...............थोड़ी   देर से ही सही जन्मदिन  की बहुत सारी शुभ कामनाये...........अपना आशीष बनाये  रखियेगा हमेशा .....हर दिन आप लोगों की  याद में गुज़रता है .........

Friday, July 13, 2012

.कृपया मेरी समस्या का समाधान करें







                      आज एक  अरसे बाद कुछ  लिखने    बैठी  हूँ ...... इन तीन  चार  महीनो में ब्लॉगर  ने अपनी  स्टाइल  काफी कुछ बदल ली  है ......जिस वजह से लिखने में थोड़ी  परेशानी   महसूस कर रही हूँ......शायद समय के साथ नहीं  चलने  से ऐसा  ही होता है..... ...समझ नहीं पा रही की ये मेरे ही ब्लॉग पर हो रहा है या सभी के साथ ये समस्या है..... ...समस्या कुछ  यूं है की जब मैं नई पोस्ट  लिखने के लिए पेज  खोलती हूँ तो पेज तो आसानी से खुल रहा है.. फिर अंग्रेजी लिपि में फोनेटिक रूप से लिखे गए शब्दों  को हिंदी में बदलना चाहती हूँ तो वो पहले की तरह आराम से नहीं लिखा और बदलता जा रहा है......हर शब्द लिखने पर एक बॉक्स जैसा दिखा रहा है जिसमे लिखना फिर सलेक्ट कर के पोस्ट की पंक्ति पूरा करना  बड़ा ही झंझट का काम लग रहा है.....कुछ गति नहीं बन पा रही......इस से ज्यादा आसान तो मुझे विजेट आपके ब्लॉग पर वाले ऑप्शन में लिखना लग रहा है जो मैंने अपने ब्लॉग में मुखपृष्ट  पर लगा रखा है.....अभी ये पोस्ट भी मैं उसी में लिख रही हूँ और कट पेस्ट कर के पोस्ट कर रही हूँ.......कृपया मुझे बताएं की ऐसा क्यों हो रहा है और अगर ये मेरी कोई गलती है तो वो कैसे सुधारू ?? कि फिर से सुचारू रूप से लिखा जा सके........

Thursday, March 1, 2012

क्या करूँ इन सबका ????






                             कल शाम अपने पुराने संकलन  में कुछ ऐसे कैसेट्स ढूंढ  निकाले मैंने   .............जिनको लगभग  भुला ही चुकी  थी.....,, अब तो जैसे कैसेट सुनने   का   रिवाज ही नहीं  रहा.......हर जगह सीडी  और पेन ड्राइव का  ऐसा   प्रचलन हो गया है कि......... मन पसंद गाने सुन ने को जी  तरस जाता है........टीवी खोलो तो वही बेहूदा बे सिर    पैर के  गाने ...जिनको न  सुना जाये तो ज्यादा अच्छा  है..... ..या हम ही इतने पुराने  हो चुके हैं.....(जैसा कि बच्चे कहते हैं...........क्या  मम्मी कितने  सड़े हुए अपने ज़माने के गाने सुन रही  हो..... )जैसे पता नहीं हम कितने पुराने ज़माने के हैं........खैर.....


                 एक  समय  में हमने  कितने कैसेट्स इकठ्ठे  किये थे......बेहिसाब   .........कितने गायब हो गए...कितने टूट  गए...इसके बावजूद भी अभी कम से कम ५००  कैसेट्स तो होंगे ही..........जिनमे से अब कितने तो रखे  रखे  ही ख़राब  हो चुके हैं बजते ही नहीं.......उनका क्या उपयोग है ??............समझ में नहीं आता...... न किसी को देते बनता है .......न फेंकते बनता है .........न ही रखने का मन हो रहा है.........कितने कैसेट्स हैं .........   जिनपर बच्चो को डांस सिखाया है.....स्कूल  में प्रोग्राम कराया  है......घंटो    दूकान  में खड़े  रह  कर  एक कैसेट से दूसरे कैसेट में गाने डब  करवाए हैं......हर मनपसंद गाने का कैसेट लेना तो संभव नहीं होता था.....किसी फिल्म का कोई खास गाना ही अच्छा लगता था..........तो वो सारे गाने एक लिस्ट  बना कर     ले जाते थे फिर नए  खाली  कैसेट में सारे गाने एक साथ डब किये जाते थे......कितना धैर्य  था तब.....


                     याद आता है जब हमने पहला टेप रिकार्डर खरीदा था.....तब कितना   एक्साईट मेंट   और क्रेज़ था......ये करीब  ८० या ८१  की बात है....................उस समय उस टेप के साथ दो  कैसेट मुफ्त मिले थे.....एक निर्गुण का था और दूसरा बालेश्वर ........जो कि पूर्वांचल के बहुत  प्रसिध्ध्ह  लोकगायक  थे ......  जब तक नए कैसेट नहीं खरीदे गए हम दिन भर  उन्हें  ही सुना करते थे.........और शायद  उस वक़्त एक कैसेट ५ रुपये का आता था...........
                  उस से भी पहले  वक़्त याद आता है.....टेप तब तक हमने सिर्फ फिल्मों में ही देखा था.......मैं शायद ३ या ४ में पढ़ती रही होउंगी.......जौनपुर वाली बुआ जी ने टेप रिकार्डर खरीदा था..... उसमे   एक तरफ एक चक्के में रील लिपटी रहती  थी....और प्ले  करने  पर  दूसरी  तरफ लिपटती चली जाती  थी.....अगर  आप  सभी  ने राजेश  खन्ना  की आनंद . देखी होगी तो उस टेप की याद आ गई  होगी....उस समय ये बहुत बड़ी चीज हुआ करती  थी......किसी किसी के घर में......ही दीखता था.................और जिनके पास ये सब हुआ करता था वो बहुत एडवांस  लोग माने जाते थे.............. हम लोग बड़ी हसरत भरी नज़रों   से देखा करते थे...ये चीजे .......क्यों   कि तब         हमारे   लिए   ये सब एक बड़ी विलासिता की वस्तु  हुआ करती थी.....   बुआ जी   और भैया लोगों ने ......हम बच्चो से कहा था कि कुछ भी बोलो................इसमें सब रिकार्ड  हो जाता है.....और हम सबने अपने अपने ढंग  से अपने कोर्स  की कवितायें  इत्यादि  बोल कर उसमे टेप की थीं....जब हमारा बोला हुआ दोबारा हमें सुनाया गया ................तो उस समय क्या अनुभव हुआ था वो आज बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं........आज ये बातें कितनी तुच्छ लग सकती   हैं ............पर वो कितना प्यारा  और अनोखा       अनुभव था हमारे लिए........
                 फिलिप्स का बहुत ही खूब सूरत रेडियो है ...अभी भी घर पर (बनारस में ).........अब शायद २0 या २५  साल से कभी खोला ही नहीं गया..............एक समय वो कितनी गौरव की चीज थी......सबसे बड़े कमरे में .......उसके  लिए बड़ा  शो बॉक्स बनाया गया था........और सुन्दर क्रोशिये के कवर से ढंका हुआ..........और किसी भी बच्चे को छूने नहीं दिया जाता था.......
                     रेडियो सीलोन ...विविध भारती ..बिनाका गीत माला.....फौजी   भाइयों   के लिए प्रोग्राम........... जो कोई खास   हीरो   या हिरोइन   पेश   करते थे...........और सन्डे को ...कोई फिल्म .........कितनी तन्मयता और लगन से सुनते थे हम सब.........पूरी फिल्म बिना देखे ............ सिर्फ सुन कर ही कितना मजा आता था........तभी विविध भारती की विज्ञापन सेवा आरम्भ हुई थी......हवा महल..............और दो गज जमीं के नीचे के विज्ञापन याद आते हैं.........पहली हारर  फिल्म जिसका विज्ञापन सुन कर ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते थे............  जब हम भाई बहन छोटे थे ........तब पापा जी कभी कभी ......हम लोगो को लेकर आकाशवाणी जाते थे....अपने मन पसंद बाल संघ कार्यक्रम में भाग  लेने .......कितना शौक़ से कहानी , कविता इत्यादि तैयार करते थे ....चुटकुले , गीत....    ....भैया    दीदी कितने प्यार से बात करते थे उसमे.....
                    
            जब यूनिवर्सिटी   पहुची  तो भी आकाशवाणी जाने  की रूचि  बनी  ही रही.........युवावाणी   कार्यक्रम  में  कितनी    ही वार्ताएं   .....कहानिया ......प्रस्तुत कीं......पापा जी को .....बहुत ज्यादा शौक़ रहा इन चीजो का.......और     उन्होंने    मुझे   प्रोत्साहित   भी   किया......हर . बार प्रसारण के समय से एक घंटा पहले ही रेडियो खोल कर बैठ जाते थे पापा जी....कि कहीं भूल न जाएँ ...सुनना   और आ    रही वार्ता या कहानी ..या कोई भी प्रोग्राम जो मैं प्रस्तुत कर रही होती थी...उसे टेप में रिकार्ड कर लिया जाता था और बार बार सुना जाता था..........कितना उत्साह...कितना क्रेज़......भूल नहीं सकती........
                    आज जब मेरा बेटा मीडिया लें से जुड़ने जा रहा है या जुड़ चुका है......   ये बातें बरबस ही बहुत याद आती हैं........शायद इसकी नीव तभी कहीं मेरे अंतर्मन में पड़ चुकी थी  .......... पतिदेव  बराबर आकाशवाणी से जुड़े रहे हैं और आज भी जाते रहते हैं.........


                 चलिए इतनी बातें तो बता दी सबको..........पर मैं अभी तक ये नहीं समझ पा रही हूँ कि .........उन पुराने कैसेटों का क्या करूँ     ???...........जिन्हें न फेंकते बन रहा है और न रखते........ ... यदि कोई तरीका है तो प्लीज  बताइए........मैं इंतज़ार कर रही हूँ........


Thursday, February 9, 2012

क्या  लिखू ,
कि  वो  परियो  का  रूप  होती  है
या  कड़कती  ठण्ड   में  सुहानी  धूप  होती  है ,
वो  होती  है  उदासी  की  , हर  दर्द  की  दवा  की  तरह
या  फिर  उमस  में  शीतल  हवा  की  तरह ,
वो  चिड़ियों  की  चहचहाहट   है
या  फिर  निश्छल  खिलखिलाहट   है
या  फिर  आँगन  में  फैला  उजाला  है
या  फिर  मेरे  गुस्से  पे  लगा  ताला   है
या  पहाड़  की  चोटी   पे  किरण  है
या  फिर  ज़िन्दगी  सही  जीने  का  आचरण  है ,
है   वो  ताकत  , जो  छोटे  से  घर  को  महल  कर  दे
वो  काफिया   जो , किसी  भी  ग़ज़ल  को  मुकम्मल    कर  दे ,
वो  अक्षर  जिसके  बिना  वर्ण -माला  अधूरी  है
वो  जो  सबसे ज्यादा   जरुरी  है
ये  नहीं ,
कि  वो   हर  वक़्त  सांस -सांस  होती  है .....
क्योकि   बेटिया  तो  सिर्फ  अहसास  होती  है ..

और  लास्ट  में -
नहीं  वो  बहुत   सारे  पैसे , अपने  गुल्लक   में  उडेलना  चाहती  है
वो  बस  कुछ  देर  मेरे  साथ    खेलना   चाहती  है ..

"बेटा  वही  सब  ऑफिस  का  काम  है
नहीं  करूँगा  तो  कैसे  चलेगा "..

जैसे  मजबूरी  भरी  दुनिया दारी  को  संभालना  है ,
और  वो  झूठा  ही  सही
लेकिन  मुझे  एह्सास   कराती  है
जैसे  सब  समझ  गयी  हो
लेकिन  आँखे  बन्द  कर  के  रोती  है ,
सपने  में  खेलते  हुए  मेरे  साथ  सोती  है
ज़िन्दगी  ना  जाने  क्यों  इतना  उलझ  जाती  है ..
और  हम  समझते  है ,
की  बेटिया  सब  समझ  जाती  है ..........



( संकलन से )

कहाँ हैं आप मम्मी ??

         
मम्मी १९६३ में
मैं और मम्मी



                  आज फिर  मम्मी की बहुत याद आरही है...........उनके नाम के आगे स्वर्गीय लगाते   हुए ...जाने कैसा तो जी उमड़ा जा रहा है .....हाथ कांपने से लगते हैं.........जब कि आज  .......यानि ७ फरवरी को...२ साल.....या कहूं ...७३० दिन  बीत गए हैं.........मम्मी से बिछड़े..... पर अभी  भी........अभी तक तो .........मुझे खुद भी यकीं नहीं हो पाया है ..... शायद किसी जरूरत के वक़्त महसूस हो कि मम्मी नहीं रही.......अब इस से ज्यादा बड़ी जरूरत तो नहीं हो सकती..................अपनी प्यारी बेटी के विवाह से ज्यादा   महत्वपूर्ण अवसर ........मेरे लिए और कोई नहीं हो सकता.........उसके वैवाहिक  जीवन की पहली सीढ़ी........उसकी सगाई का दिन.....कितना इंतज़ार था उन्हें इस दिन का.............और आज मम्मी हमारे साथ नहीं हैं..... इस दरम्यान मैंने कितनी बार मम्मी को याद किया शायद ........मुझे इतनी गिनती नहीं आती ..........गिनने का वक़्त ही नहीं मिला.........कोई क्षण    ऐसा नहीं बीता जब मम्मी ख्यालों से उतरी हों..........हर समय साए की तरह....आगे  पीछे  ऊपर  नीचे .....मम्मी परछाईं की तरह मेरे साथ बनी हुई हैं.....शायद मैं यही चाहती भी हूँ कि..........मम्मी हमेशा मेरे साथ .......मेरे पास बनी रहे ..   मुझे सहारा , संबल और साहस देती रहे ......इस समय मुझे कितनी जरूरत है .......मम्मी और पापा जी की मैं बता नहीं सकती.....बस यही इच्छा है कि वे जहाँ भी कहीं हैं..अपना पूरा स्नेह और आशीष बनाये रखें हम पर.......भगवान् कभी कभी बड़ा अन्याय करते हैं ....पता ही नहीं चलता की हमारी गलती क्या है और किस बात की सजा मिल रही है हमें???        
                 कहते हैं ..........माँ शब्द ही ऐसा है ......जो ह्रदय से निकलता है.............यह सिर्फ शब्द ही नहीं है...भावनाओं को प्रकट करने वाली चरम स्थिति भी है..............दुनिया में जितने भी रिश्ते हैं...सबसे हमारा परिचय माँ  ही कराती है......

                जब वे सहज उपलब्ध थीं...तब उनका कहना समझ नहीं आता था.........पर अब लगता है कोई एक बार उनकी तरह बोल दे.....पुकार ले.... ....डांट दे.....   हम कुछ गलत करें....   और कोई समझाए..........कोई कहे... कि बहुत दिन हो गए हैं कोई बढ़िया सी डिश खाए हुए..... चलो कुछ बनाओ न......और फिर खुद ही जुट कर सारा बना डाले........दिन दूना रात  चौगुना फूलते जा रहे मेरे बेडौल शरीर को देख कर एक्सरसाइज , मार्निंग वाक और डाइटिंग पर लम्बा चौड़ा लेक्चर  दे डाले........पर डाइनिंग टेबल पर मेरे नहीं ....नहीं करने के बावजूद मेरी प्लेट भर डाले......और हर बार खाने के बाद ये कहे.........आज बहुत ज्यादा हो गया खाना........

             और ये मेरे साथ ही नहीं सभी के साथ था.....बच्चों का भी हमेशा यही कहना होता था.....कि पता नहीं मम्मी नानी के यहाँ जा कर हम लोग ज्यादा क्यों खाने लगते हैं..................हमेशा पेट भर जाता है मन नहीं भरता......थोडा सा ये .......थोडा सा वो...... 
             मम्मी के हाथ की कढी , कोफ्ता , सूरन की सब्जी , मटर पनीर या कोई भी स्पेशल सब्जी..... या फिर बिलकुल ही सादा खाना....क्या स्वाद होता रहता था उनमे ......जिसका जवाब नहीं... या फिर शायद सभी मम्मियों  का बनाया खाना उनकी संतानों को ऐसा ही लगता होगा.........
                   मुझे एक बार की घटना याद आती है....मामा जी को किसी बहुत आवश्यक काम से बाहर जाना था....और हम लोग बार बार उन्हें एक दिन और रुकने के लिए कह रहे थे...........अंत में मम्मी ने ये तरीका निकला...कि लाओ आज स्पेशल मटर पनीर की सब्जी और पुलाव बनाते हैं.......और ताज्जुब की बात...कि उस दिन उस पुलाव और मटर पनीर की सब्जी के लिए मामा जी ने अपनी ट्रेन छोड़ दी थी.........तब से हमने एक मजाक सा बना लिया था....कि जब भी मामा जी को रोकना हो कोई  स्पेशल   सब्जी या बढ़िया खाना बना लो......उस समय मैं और रेनू मौसी खाना  बनाना   सीख ही रहे थे...... कभी कभी कुछ अच्छा बन जाता था कभी कभी कुछ गड़बड़ भी हो जाता था.....तो मामा जी नाराज हो कर मम्मी से कहते   दीदी आप जाकर सिर्फ  छू लिया करो....इतना यकीं था उन्हें मम्मी के हाथों पर.......उसके स्वाद पर......कहाँ गए वो दिन...?.......क्या वो दिन फिर कभी लौटेंगे???

              इतना शौक़ था मम्मी को हर नई से नई  डिश ट्राई  करने का .....   इधर कुछ सालों से बाहर खाने से परहेज सा करने लगीं थीं वो  ....पर हम सबको कभी मना नहीं करती थीं.........मुझे याद है बचपन में   कभी कभी भाई के दोस्त लोग मिल कर छत पर मीट बनाने का ........कार्यक्रम  रखते थे...तो मम्मी वहां रोटी  चावल.. इत्यादि भेज देती थीं...पर कभी कोई एतराज नहीं किया उन्होंने.........
          पापा जी को तो स्वास्थ्य ने मजबूर कर दिया था  कुछ भी गरिष्ठ खाने पीने से.........पर उनके साथ ही मम्मी ने भी अपनी स्वाद इन्द्रियों को  सीमित कर लिया था........बार बार यही कहती थीं कि अब मन ही नहीं करता ज्यादा कुछ बनाने को ......पापा जी खाते ही नहीं.....न गाजर का हलवा.........न गुझिया........न मिठाई ........न लड्डू  .....पापा जी को जितना खाने का शौक़ था ....उतना ही दूसरों  को खिलाने का भी.......याद आता है....मेरी बिटिया के जन्म के वक़्त जो सोंठ के लड्डू बनाये थे मम्मी ने        उन्हें मुझसे ज्यादा तो  आने जाने वाले मेहमानों ने खाया होगा.....जो भी आता  ....पापा जी उसे जरूर खिलाते.......इतने स्पेशल ...मेवों से भरे हुए गरिष्ठ   लड्डू फिर कभी खाने को नहीं मिले   ( बेटे के जन्म के वक़्त मुझे डाक्टर ने ज्यादा गरिष्ठ और घी इत्यादि खाने से मना कर दिया था....)....कितनी मेहनत और जीवट से भरा काम है वो लड्डू बनाना...  पर वो तो मम्मी थीं न मेरी....वही कर सकती थीं ये काम....(पता नहीं मैं कर पाउंगी इतनी मेहनत अपने नाती पोतों के वक़्त , नहीं जानती....एक नंबर की आलसी जो ठहरी )  
                     मैं जब कभी भी छुट्टियों में बनारस जाती....तो देर तक सोई रहती....,रोज स्कूल जाने के लिए सुबह उठने वाली आदत के विपरीत , .............बार बार मम्मी जगाती रहतीं..........पर दो बार तीन बार चाय पीकर मैं फिर से सो जाती.........जब तक वो नाराज सी होकर न कहने लगें ......क्या है चार दिन के लिए आती है और सो सो के समय बिता देती है.........खाली सोने का नतीजा है कि    अपना इतना सुन्दर शरीर ख़राब कर लिया है.........बिलकुल ध्यान     नहीं देते  हो तुम  लोग ......(अब कोई नहीं कहता  ये सब   ......!!!!!!!!!).....

              दोपहर में सारा काम निबटाने के बाद बच्चों को सुला कर धीरे से मैं और मम्मी निकल जाते थे बाजार के लिए....या गंगा घाट पर जाकर काफी काफी देर बैठे रहते.......कितनी ही बातें जो मन में रहती थी एक दूसरे  से शेयर करते.........अभी भी बनारस जाने पर ये सारी  बाते  याद आती रहती हैं......पर अब गंगा घाट जाने का मन ही नहीं होता.......बाजार में वैसी ही चहल पहल है पर घूमने की कोई इच्छा नहीं होती........

                पर ये सब बहुत पुरानी बात है.....अब तो मम्मी को गए हुए भी आज ७३० दिन हो गए हैं.......समय कहाँ रुकता है.....दिन कहाँ रुकते हैं....रुकते नहीं इस लिए बीतते चले जाते हैं.......कितनी अजीब सी बात है हमारे साथ साथ समय भी चलता रहता है...हम भावनाओं में घिरे रह कर कुछ क्षणों  के किये खुद को रुका हुआ भी महसूस करें पर समय तो द्रुत गति से आगे बढ़ जाता है.......बढ़ता ही जा रहा है.......


           हम सभी बहुत याद कर रहे हैं मम्मी आप को भी........और पापा जी को भी...........