भुलाना मुश्किल है ..........
जीवन में एक वक़्त एसा भी आता है जब सब कुछ जानते हुए भी हम अनजान बनने का अभिनय करते हैं,,,, कभी सफलता मिलती है तो कभी असफल भी हो जाते हैं .....सभी जानते हैं कि माँ बाप हमेशा हमारे साथ नहीं रह सकते...पर क्यों एसा सोचते रहते हैं कि जैसे वो हमेशा हमारे साथ बने रहेंगे.......कम से कम मैंने एसा कभी नहीं सोचा था क कभी ऐसा भी वक़्त आएगा मेरे जीवन में कि मम्मी पापा दोनों लोग हमारे साथनहीं होंगे वो भी सिर्फ २ साल के अंतर में ....
पापा जी के स्वास्थ्य को लेकर हमेशा चिंता लगी रहती थी ....उनके अन्दर मीठे कि इतनी अधिकता हो गई थी कि वो अन्दर तक कडवे हो गए थे..हर बात पर चिडचिडा जाना नाराज हो जाना .....किसी बात से कोई ख़ुशी न ज़ाहिर करना ......कई कई दिन तक किसी से भी बात नहीं करना .....कभी कभी तो हम लोग भी झल्ला जाते थे...एक मैं ही थी जो उनसे बहस कर लेती थी....और पता नहींएसा क्या था क वो मेरी बातो का बुरा नहीं मानते थे सिर्फ मम्मी को देखा था क कितने मनोयोग से लगी रहती थी उनके साथ...मनमें जरूर वो भी तनावग्रस्त रहती थीं पर कभी जाहिर नहीं किया ...........समय से दवा देना नाश्ते का खाने का ख्याल रखना ....पापा जी कि आदत थी कि हर काम समय पर होना चाहियेथा.. उनका नहीं तो घरभर कि शामत आ जाती थी ......भाई के बच्चो के साथ जरूर थोडा जी बहलता था ..पर उनको भी ज्यादा देर तक नहीं रखपाते थे अपने साथ ........मेरे बच्चो के साथ पापा जी को ज्यादा वक़्त नहीं मिला ..क्यों कि मैं हमेशा छुट्टियों में ही आती जाती रही हूँ....और जाना भी एसा कि जाते ही आने कि तैयारी शुरू...................
.बहोत बुरा लगता है ये सोच कर कि कितना कम वक़्त दिया हमने पापा जी को..बचपन से लेकर अपनी शादी होने तक अगर सारा समय सालो और महीनो में जोडू तो हम लोग १० ,१५ साल भी साथ नहीं रहे होंगे पापा जी का स्थानांतरण वाला जॉब और हम लोगो कि पढाई.... साथ में नहीं चल सकते थे...... जिस समय हम लोग लखनऊ छोड़ कर बनारस शिफ्ट हुए....उस समय मम्मी कितनी हिम्मत के साथ हम सभी को लेकर एक दम नई जगह रहने को तैयार हुई थी....
अब सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है.. ....शायद मैं इतनी हिम्मत नहीं कर सकती अभी भी ............जब कि मम्मी उस समय सिर्फ ३२ साल कि थीं ....मेरे मामा , मौसी रिश्ते कि एक और मौसी गाँव के एक दो लोग और हम तीनो भाई बहन...इतने लोग एक साथ रहते थे.....और बहुत आराम से रहते थे......घर अभी पूरी तरह बना नहीं था...या यूं कहूं सिर्फ चार कमरों कि चारो तरफ कि दीवारे और छत डाल दी गई थी..बांस बल्लियों से घिरा हुआ..कमरों कि फर्श भी नहीं बनी थी...और पापा जी को कोलकाता जाना पड़ा था....दो चार महीनों में हफ्ते दो हफ्ते के लिए उनका आना होता था.......और जब वो आते भी थे पूरा समय अपने गाँधी आश्रम के लोगो से घिरे रहते थे..सारा समय चाय बनती रहती थी.....
बनारस आकर मेरा और भाई का नाम गुरुनानक खालसा स्कूल में और मौसी का नाम बसंत कन्यामहा विद्यालय में लिखाया गया छोटे भाई का नाम तब नए नए खुले एक स्कूल में लिखाया गया .........उस समय का सिगरा आज का सिगरा नहीं था तब चाय कि पत्ती भी लेनी होती थी तो एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता था......स्कूल भी बहुत दूर लगता था शाम के बाद कहीं निकलना मुश्किल लगता था ............थोडा थोडा करके..धीरे धीरे मम्मी ने पूरा घर अपनी जिम्मेदारी पर बनवाया...हम सभी सारा समय लगे रहते थे..अपना घर बन ने का जो उत्साह होता है वो किसी और काम में नहीं होता...मुझे याद है हम सभी मजदूरों के साथ भी लग जाते थे काम करवाने में.........बस उस समय यही लगता था जल्दी से घर बन जाये..............पापा जी के मनिआर्डर आने का इंतज़ार रहता था सभी को.....मुझे याद है मेरा भाई तब सिर्फ ११ साल का था और वो बैंक का सब काम जान गया था.......
कितनी ही बाते हैं जो उमड़ उमड़ कर आती रहती हैं जिन्हें भुलाना मुश्किल है...................ऐसे ही फिर कभी ............
mammy... bahot acha..
ReplyDeletenana nani sab bahot yaad aate hai..
aur likho.. aur padhna chahti hu...
betu
hmmmm....beta jitna likhti jati hoon aaur bhi likhna baki rah jata hai....likhoongi.....
ReplyDeleteबहुत अच्छा प्रवाह है। आप इस शैली में पूरा संस्मरणात्मक उपन्यास लिख सकती हैं।
ReplyDeletethanks...shailesh.....koshish karoongi......sabhi posts padho.....aur apni pratikriya do.....
ReplyDelete