याद नहीं कब से कूची थामी पर...........
इतना याद आता है कि जब मैं नर्सरी में पढ़ती थी तब मैंने जयशंकर प्रसाद का एक चित्र बनाया था और शायद वो बहुत अच्छा बना था.....क्यों कि बहुत दिन बाद पापा जी के कागजो वाले लकड़ी के बाक्स में मैंने वो चित्र देखा तो खुद मुझे भी वो काफी अच्छा लगा था .....शायद ३ या ४ साल कि रही होउंगी तब जब पापा जी ने मुझे एक मोटा रजिस्टर बना कर दिया था (गाँधी आश्रम क पुराने बही खाते जो रद्दी में निकाल दिए जाते थे ,,हम लोग उनके रजिस्टर बना कर उनकी उलटी साइड पर रफ कार्य किया करते थे....या फिर लिखने का काम लेते थे.)
मुझे याद है उस रजिस्टर में मैंने बहुत से हीरो हिरोइन के चित्र चिपका रखे थे. फूल तितलिया बच्चो के चित्र जो भी कुछ मिलता था काट कर चिपका लेती थी उस रजिस्टर में ....
इस काम में पापा जी मुझे सहयोग करते थे.......उस वक़्त फेविकोल का प्रचलन नहीं था मैदे कि लेई बना कर गोंद का काम लिया जाता था.......और पापा जी बहुत अच्छी लेई बनाते थे ................हमारे घर बहुत सी पत्रिकाए आती थीं ..जिनमे साप्ताहिकहिंदुस्तान,धर्मयुग,,सारिका,,बालभारती.पराग ,नंदन और चंदा मामा हमेशा आती थी.......उनके अच्छे अच्छे चित्र काट कर चिपकाने में बहुत मज़ा आता था.....जिसके लिए कई बार बहुत डांट भी पड़ी है.......क्यों कि चित्र काट ते वक़्त ये ध्यान नहीं रहता था कि उसकी उलटी तरफ कोई जरूरी मैटर भी छपा हो सकता है................साप्ताहिक हिंदुस्तान में एक पृष्ट पर किसी न किसी हीरो या हिरोइन कि तस्वीर होती थी.........और वो काट कर मैं अपने अल्बम में लगा लेती थी....
.ये सिलसिला काफी दिनों तक चला जब तक मम्मी ने ये नहीं समझाया कि बेटा इस तरह तो पूरी मैगजीन ख़राब हो जाती है तुम खुद से कुछ बना के लगाओ.............और तब खुद से बनाने कि शुरूआत हुई........और जब अपनी बनाई हुई चीजो कि तारीफ सुन ने को मिली.....तो उत्साह और दुगना हो गया ......सचमुच अपने द्वारा सृजित वस्तुओ का सुख अलग ही होता है ......
फिर धीरे धीरे हर सुन्दर वस्तु को देख कर हर सुन्दर चित्र को देख कर वैसा ही बनाने कि इच्छा जागृत होने लगी और फिर यूं शुरू हुआ अपनी चित्रकला का सफ़र ..............
फिर तो कितने ही चित्र बना डाले...याद नहीं....
हर समय कुछ न कुछ रंगने पोतने का ही सुर चढ़ा रहता था...मुझे याद है एक बार रात में मैंने इतना शोर मचा दिया वाटरकलर के लिए कि मूसलाधार बरसते पानी में पापा जी को निशातगंज जाना पड़ा था मेरा रंग लेने.....
.पर इस बात का अफ़सोस है क उस समय इतना ख्याल नहीं था कि उन चित्रों को संभाल के रखना भी चाहिए.......
पापा जी के एक बहुत अच्छे मित्र जो उम्र में उनसे काफी बड़े भी थे......विभाकर जी...वो बहुत अच्छे चित्रकार थे..उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहित किया......
मेरे सभी चित्र वो बड़े ध्यान से देखते और उसमे सुधार भी करते थे.....
अपनी क्लास में मैं अच्छा चित्र बनाने वालो में गिनी जाती थी.......और बहुत से परिचितों कि लड़कियां जो गृह विज्ञान विषय पढ़ती थी.....
उनके डायग्राम और प्रोजेक्ट फाइल मैंने बना कर दिए हैं...विज्ञान विषय के सभी चित्र मैं बनाया करती थी.......घर में कोई भी पेंटिंग नहीं बनाता था सिवा मेरे.....और इस बात के लिए मैं हमेशा कृतज्ञ रहूंगी सबकी ...............कि जब मैं चित्र बना रही होती थी तो मुझे कोई डिस्टर्ब नहीं करता था........यह तब कि बात है जब मैं क्लास ८ में थी........
जब मैं क्लास ९ में आई तो सभी कि इच्छा थी कि मैं विज्ञान विषय लेकर पढूं......पर सिर्फ २ महीने तक ही विज्ञान पढने के बाद मुझे लगने लगाकि या तो ये मेरे लिए नहीं है या मैं इसके लिए नहीं हूँ...अंततः मैंने विज्ञान छोड़ दिया.....उसी साल गर्मी कि छुट्टियों में मामा जी कहीं से पता करके आये कि महानगर में एक महिला हैं जो पेंटिंग सिखाती हैं बच्चो और लड़कियों को ...............पता लगते ही मैं और मम्मी जाकर वहां मधु दीदी से मिले और सीखने कि इच्छा जाहिर कि...मुझे बड़ा ही सुखद अनुभव है वहां का ......बहुत सुन्दर काम था उनका .............वहां जाकर मैंने भी सोचा था कि जब मैं भी सीख जाउंगी तो ऐसा ही स्कूल खोलूँगी और लड़कियों को सिखाउंगी ...............आज करीब १८ साल से मैं भी घर पर पेंटिंग कि होबी क्लास चलाती हूँ..............ये उन्ही मधु दीदी कि ही देन है......मैं ने वहां करीब ३ महीने सीखा था और बच्चो के साथ कितना दोस्ताना व्यवहार रखना है कि वो मन लगा कर सीखें ...........ये उन्ही से सीखा .............शुरू में थोडा बहुत गड़बड़ बनाते बनाते जब बच्चो का काम धीरे धीरे..मैच्योर होने लगता है और जब उनको भी तारीफें मिलनी शुरू हो जाती हैं ....तब कितना अच्छा लगता है .........................आज जब बच्चों को अपने बनाये हुए चित्रों को देख कर खुश होते हुए देखती हूँ तो मुझे मधु दीदी हमेशा याद आती हैं.....बनारस आने के बाद लगभग १२ साल बाद अपनी बेटी को जो उस समय १ साल कि थी लेकर मधु दीदी से मिलने गई थी........मैं उनकी आभारी हूँ ...........
बनारस आने के बाद मुझे यहाँ पता चला कि चित्र कला की भी विधिवत पढाई होती है और उसमे भी लोग एम्. ए बी. ए करते हैं ये मेरे लिए बड़ा ही अच्छा समाचार था...मुझे बड़ी तमन्ना थी कि मैं भी कुछ ऐसा पढूं..और फिर बी. एच.यू में पढना तो एक बहुत बड़ा सपना था......
waahhh mammy..
ReplyDeleteisme se kai chize to mujhe pata hi nai thi..
bahot acha..
aur bahot ache tarike se likha b hai..
bETu..
bahut hi acha anubhav share kiya hai auntie aapne, "YE KAUN CHITRAKAAR HAI..." ye to hui chitrakaari ki baat , ab kuchh lekhni ki baat ho, aapki lekhni bhi bahut achi hai ...:)
ReplyDeleteyour blogs are like ur paintings...unmatched, superb...
ReplyDelete1 chhote se para me aap kitna kuch kah jatin hain