प्यारा लखनऊ
अभी कुछ समय पहले लखनऊ जाना हुआ....और संयोग ऐसा रहा की अपनी गाडी और कुछ समय भी हमारे साथ था...नहीं तो हर बार भागते हुए जाना और भागते हुए आना ....ऐसे में चाहते हुए भी कहीं आना जाना नहीं हो पाता........कितने ही लोग जानपहचान के और रिश्तेदार हैं वहां.....और सबकी ही ये शिकायत रहती है की आप लोग लखनऊ आते हैं और घर नहीं आते.....अगर एक के घर रुको और एक के घर न जाओ तो सब के कहने के लिए हो जाता है ...अब ऐसे में हमने यही तरीका निकला है की किसी के घर रुको ही नहीं.....सुबह जाओ और शाम को वापस ......अगर कभी रुकना भी हुआ तो आई टी आई का गेस्ट हाउस जिंदाबाद..........खैर ये तो हुई एक छोटी सी बात......मैं बता रही थी.....की अपने पास बचे हुए समय का क्या सदुपयोग किया हमने....
हर बार मनकापुर से लखनऊ जाते हुए.....जब इंदिरा ब्रिज पर से गुजरना होता था तो निगाहें बरबस ही उस रास्ते पर मुड़ जाती थीं....जहाँ हमारा ३५ साल पुराना घर हुआ करता था.....चाहे वो किराए का ही था...पर उस घर से बचपन की ऐसी यादें जुडी हैं.......जो कभी विस्मृत नहीं होंगी..... आज भी वो नीम का पेड़ वहीँ है.....बस थोडा बूढा और कमजोर सा दिखने लगा है......हर बार जब हमारी कार पुल से गुजरती थी.......तो ५ से १० सेकेंड में सिर्फ वो नीम का पेड़ ही दिख पाता था......और हर बार मैं बच्चो को वो रास्ता दिखा कर ये बताती थी की...देखो वो ही था हमारा घर........
पिछले से पिछले साल अक्टूबर के महीने में कुछ जरूरी काम से मैं बाबू और मेरे पतिदेव लखनऊ गए थे.....मैंने पतिदेव से गुजारिश की कि क्यों न हम लोग पुल से नीचे उतर कर अपने पुराने वाले घर कि तरफ चलें देखें कि अब वहां कौन रहता है और कुछ पल फिर से अतीत में देख लें.....
मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि मुझे वो जगह पहचानने में जरा भी दिक्कत नहीं हुई.....क्यों कि वो नीम का पेड़ तो आज भी वैसे ही खड़ा है......पर पहले जैसा घना और बहुत दूर तक फैला हुआ नहीं है.........सभी फ़ैली हुई शाखाएं काट दी गई हैं....उस जगह का उपयोग एक और मकान बनाने में कर लिया गया है कट जाने से पेड़ थोडा सिकुड़ गया है......मकान जब हम लोग वहां रहने आये थे तभी काफी पुराना था.....लगभग २५ से २७ साल पुराना और अब हम लोग ३५ साल से बनारस में हैं........और करीब ८ साल उस मकान में रहे हैं... ........अगर ये सारे साल जोड़े जायें तो कुल मिला कर लगभग ७० साल के करीब हो जाते हैं.......तो यक़ीनन इतने पुराने मकान की क्या हालत होगी ये सोचा जा सकता है.......वो मकान काफी बड़ा था.....इतना कि उसमे १४ किराये दार रहते थे....और ये कहते हुए अच्छा लग रहा है कि उन सभी किरायेदारो में सिर्फ हम लोग थे जिनके पास ऊपर का सबसे बड़ा हिस्सा था .............यानि ४ कमरे और आँगन भी......मुख्य सीढ़ी हमारे दरवाजे से ही नीचे उतरती थी.....अब उस सीढ़ी के अंत में लोहे का गेट लगा दिया है...
उस एरिया में बन्दर बहुत ज्यादा थे........पूरा आतंक मचा रहता था उनका.....बहुत नुक्सान भी करते थे..... एक बार एक बहुत छोटा सा बन्दर का बच्चा गलती से हमारे कमरे में बंद हो गया था.....उस वक़्त हम सब कहीं गए हुए थे......जब वापस आये तो देखा कि बंदरो कि पूरी फ़ौज ने हमारे दरवाजे और खिडकियों को घेर रखा है......बहुत मुश्किल से उनको हटा कर दरवाजा खोला गया...........तो अन्दर का हाल देख कर रोना आ गया था.....उस चूहे जैसे बच्चे ने पूरे कमरे का हाल ही बदल दिया था.....कोई भी सामान अपनी जगह पर नहीं था..सब तहसनहस कर के रख दिया था उसने......
अब उन खिडकियों पर प्लाई लगा कर बंद कर दिया गया है शायद बंदरो के डर से या अब वे खिड़कियाँ बिलकुल जर्जर हालत में हैं........पता नहीं ........नीचे रहने वाले एक सज्जन ने जब मुझे देखा और पाया कि मैं बड़ी ही आतुरता के साथ हर तरफ देख रही हूँ तो उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं किसी को खोज रही हूँ........मैंने उनसे कहा हाँ अपना बचपन.......तो बड़ी ही उत्सुकता से हंस कर उन्होंने कहा ......ओह्ह्ह....अच्छा अच्छा .....
बड़ी ही तक लीफ हुई उस जगह को देख कर वो नारायण औषधालय आज भी वहां है पर उस कमरे में बड़े बड़े पेड़ पौधे और घास उग आई हैं...... वैद्द जी उस समय ही बहुत वृद्ध थे.... उनके बाद शायद किसी ने दवाखाने को नहीं देखा..... .दवाखाने के सामने एक बहुत बड़ा पार्क था जहाँ अक्सर दीवार पर प्रोजेक्टर से पिक्चर दिखाई जाती थी......अक्सर रात में हम लोग पिक्चर देखने चले आते थे ..मनोज कुमार कि उपकार फिल्म हमने करीब ८ बार वहीँ पर देखी.......एक बार उस पार्क में नौटंकी भी देखी...............
तब मैंने उन्हें बताया कि बहुत पहले हम लोग यहाँ रहते थे.....और उस समय का कोई है यहाँ??? .........तो पता चला कि एक सज्जन आज भी उस मकान में रहते हैं....और अब वे लोग हमारे वाले पोर्शन में शिफ्ट हो चुके हैं करीब ३० साल पहले.......और जो किराया वो तब देते थे वही आज भी दे रहे हैं........उनका पूरा परिवार आज भी वहीँ है.........जो छोटे छोटे बच्चे थे सब शादी शुदा हो चुके हैं और अपने बच्चो के साथ वहीँ रहते हैं.......पूरा मकान बहुत जर्जर स्थिति में पहुँच चुका है.......सारी दीवारे बड़ी बड़ी ददारों से भरी हुई हैं......
अगल बगल के सभी मकान काफी हद तक बदल चुके हैं..कुछ नए बन गए हैं...मैं बाई और की गली से काफी दूर तक गई.....पीछे कि गली में मेरी एक बहुत अच्छी सहेली निशि रहती थी..... उनका परिवार आज भी वहीँ है..क्यों कि मैंने उसके पापा कि नेम प्लेट वहां लगी हुई देखी....थोडा और दूर चलने पर एक वैद्द जी का दवाखाना पड़ता था.......जहाँ घंटो जाकर हम लोग उनके चूरन के लिए बैठे रहते थे और झूठमूठ के पेट दर्द के लिए चूरन ले आते थे......कितना स्वादिष्ट चूरन होता था..आज भी याद है......बेमतलब ही जाकर वैद्द जी के यहाँ बैठना.....और उनके द्वारा किया जा रहा मरीजो का इलाज देखना....किस तरह वे शीशे के ग्लास में माचिस की तीली जला कर दिखाते थे और तुरंत वो गिलास पेट दर्द से छटपटाते मरीज के पेट पर रख कर चिपका देते थे.....ताज्जुब होता था कि कैसे नाभि सहित पूरे पेट का एक बड़ा हिस्सा उस गिलास में भर जाता था......थोड़ी देर उसी तरह रहने देने के बाद गिलास एक झटके से हटा लिया जाता था..और मरीज हँसते हुए खड़ा हो जाता था.....शायद ये नारा उखड जाने पर किया जाता था.......कितनी ही बार वैद्द जी के कंपाउंडर के साथ दवा की बोतलों पर खुराक बताने वाले कागज कि चिप्पियाँ चिपकाई हैं..........उस समय दवा में अक्सर लाल रंग का मिक्सचर दिया जाता था ...और खुराक कम या ज्यादा न हो ..........इस लिए कागज कि चिप्पी लगा कर दी जाती थी........वैद्द जी के दवाखाने कि भी बहुत सी यादें हैं..... ...बड़ी ही तक लीफ हुई उस जगह को देख कर वो नारायण औषधालय आज भी वहां है पर उस कमरे में बड़े बड़े पेड़ पौधे और घास उग आई हैं...... वैद्द जी उस समय ही बहुत वृद्ध थे.... उनके बाद शायद किसी ने दवाखाने को नहीं देखा..... .दवाखाने के सामने एक बहुत बड़ा पार्क था जहाँ अक्सर दीवार पर प्रोजेक्टर से पिक्चर दिखाई जाती थी......अक्सर रात में हम लोग पिक्चर देखने चले आते थे ..मनोज कुमार कि उपकार फिल्म हमने करीब ८ बार वहीँ पर देखी.......एक बार उस पार्क में नौटंकी भी देखी...............
और चौथी गली की रामलीला तो हम ज़िन्दगी में कभी नहीं भूल सकते ..........रात में ९ बजे से ही ताई जी वहां चादर बिछवा कर रजाई कम्बल के साथ डेरा डाल कर बैठ जाती थी....खाना वाना निबटा कर हम सभी रात भर रामलीला देखते थे.....सुबह ४ बजे तक वापस आते थे.....ज्यादा तर सीता स्वयंवर और भरत मिलाप वाले दिन बहुत भीड़ होती थी........... उसमे जो मेघनाद का अभिनय करते थे ......उनका नाम था जगदीश अलबेला ..........उनकी बहुत छोटी सी हलवाई की दूकान थी......जो आज काफी बड़ी और प्रसिध्ध दूकान बन चुकी है......अलबेला ने फिल्म लाइन में भी हाथ आजमाया ........कुछ फिल्मे आई भी.............फिर शायद वे लौट आये.............क्यों कि उनकी दूकान का नाम आज भी अलबेला मिष्ठान्न भण्डार है.....उसी रामलीला में ही हमने पहली बार अनूप जलोटा को सुना था....तब वो लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे........रामलीला के बीच बीच में दृश्य परिवर्तन के लिए जब पर्दा गिरा रहता था तब किसी गायक...या भजन गायक या किसी मिमिक्री करने वालो को मौका दिया जाता था.....उसी में वे भी गाने आये थे.......मुझे वो गाना भी याद है जो उन्होंने गाया था...मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली........
आज भी निशात गंज से गुजरते हुए वो सातवीं गली ....जहाँ हम लोग रहते थे................निशात गंज कि सभी 7 गलियाँ .........याद आती है .....चौथी गली की शुरूआत में ही थी समोसे की दुकान जहाँ १५ पैसे का एक समोसा मिलता था......और पहली गली कहू या बालदा रोड...........जहाँ के नुक्कड़ पर डेयरी की बोतलों में दूध मिलता था............सुबह सुबह चार बोतलें लेकर मैं या भाई वहां से दूध लेने जाते थे.....ख़ाली बोतलें देकर भरी हुई बोतलें ले आते थे......लाल नीली या सफ़ेद सभी के अलग अलग दाम थे.......
जन्माष्टमी के अवसर पर ...........हर गली में कोई न कोई झांकी सजती थी.....और सभी एक से एक बढ़ कर ....हम सभी बच्चो का झुण्ड बना कर सभी झांकियों को देखने जाना............और हर जगह का प्रसाद खाना याद आता है.......स्कूल से लौटने के बाद या किसी मेहमान के आने पर ठन्डे पानी के लिए .........हम में से कोई भी बर्फ लेने जाता था....बुरादे और बोरे में लपेटी हुई बर्फ जो बर्फ वाला छेनी से तोड़ कर और तौल कर देता था......घर तक आते आते वो कुछ हद तक पिघल भी जाती थी.....पर उस बर्फ का ठंडापन ऐसा तृप्त करता था जो आज फ्रिज के ठन्डे पानी में नहीं महसूस होता.....गर्मी के दिनों में अक्सर पापा जी बेल का शरबत बनाते थे.......या फिर तरबूज का शरबत..........बरफ डाला हुआ.......वो स्वाद अब नहीं मिलता ......पता नहीं अब बर्फ वैसी नहीं रही या तरबूज वैसा नहीं रहा .....या बेल में कोई कमी आगई है..कह नहीं सकती .....
जन्माष्टमी के अवसर पर ...........हर गली में कोई न कोई झांकी सजती थी.....और सभी एक से एक बढ़ कर ....हम सभी बच्चो का झुण्ड बना कर सभी झांकियों को देखने जाना............और हर जगह का प्रसाद खाना याद आता है.......स्कूल से लौटने के बाद या किसी मेहमान के आने पर ठन्डे पानी के लिए .........हम में से कोई भी बर्फ लेने जाता था....बुरादे और बोरे में लपेटी हुई बर्फ जो बर्फ वाला छेनी से तोड़ कर और तौल कर देता था......घर तक आते आते वो कुछ हद तक पिघल भी जाती थी.....पर उस बर्फ का ठंडापन ऐसा तृप्त करता था जो आज फ्रिज के ठन्डे पानी में नहीं महसूस होता.....गर्मी के दिनों में अक्सर पापा जी बेल का शरबत बनाते थे.......या फिर तरबूज का शरबत..........बरफ डाला हुआ.......वो स्वाद अब नहीं मिलता ......पता नहीं अब बर्फ वैसी नहीं रही या तरबूज वैसा नहीं रहा .....या बेल में कोई कमी आगई है..कह नहीं सकती .....
या शायद ....शायद क्यों ..सच कहूं तो हम ही अब वैसे नहीं रहे.....
bachpan ki yaadein hmesa saath hotin hain....aur bachpan ka ghar to kbhi nai bhulta...
ReplyDeletebahoooooooooooooooott sundar likha hai.... bahot acha .. ek ek baat ko pura likha hai, kuch b adhura sa nahi lagta hai.. mein mahsus kar sakti hu..
ReplyDeletebetu.