धीरे धीरे एक साल बीत ही गया ......धीरे धीरे या इतनी जल्दी.....कुछ नहीं कह सकती.....मम्मी के बिना यह दूसरी होली भी बीत गई.....पिछले साल तो होली इतनी बेरंग रही....की किसी को होश ही नहीं था...की कब होली आई और कब चली गई.......मम्मी को गए तब सिर्फ २० दिन बीते थे........न किसी ने रंग खेला न ही कुछ खाने पीने की सुध रही किसी को............बस सब कुछ यथावत चलता रहा.......त्यौहार का कोई आभास या अहसास नहीं रहा......
बस हर समय कान तरसते रहे ये आवाज सुन ने को..........की क्या क्या बनाया???......देखो कोई जाने वाला मिलता है तो गुझिया भेजवाएंगे ......चिप्स और पापड़ बनाया है की नहीं???.......वैसे तो अब सब चीज बाजार में मिलने लगी है पर ..................अपने हाथ का बना जरूर होना चाहिए......नहीं तो बेटू को क्या सिखाओगी ???....घर में नमकीन गुझिया वगैरा जरूर बना लिया करो.......साल भर का त्यौहार है......रीति रिवाज जरूर मानना चाहिए.........और कुछ चाहिए तो बता देना......देखो शायद पप्पू ही जाये...तो भेज देंगे...........और मेरे नहीं नहीं करने के बावजूद झोला भर सामान आ जाता था.........
पर ........कोई फ़ोन नहीं आया......किसी ने गुझिया भेजने की बात नहीं की.....न ही किसी को चिंता थी ......की हमने क्या बनाया या क्या खाया??..............कहाँ गए वे दिन??????..
याद आते हैं वो दिन जब.....हफ्ते भर पहले से हम सभी जुट जाते थे..होली की तैयारी में....दस दस किलो आलू के चिप्स और पापड़ बना लिए जाते थे ......कई तरह की कचरी.....नमकीन...दालमोठ.....मठरी और सबसे बाद में गुझिया.....सारी चीजें तो दिन में बनती थीं...पर गुझिया रात में सारा काम निबटाने के बाद इत्मिनान से बनाई जाती थी....और दो तीन रातो में जग कर ये काम होता था..... ...सबके सोने के बाद ......मैं मम्मी मौसी सब जुटते थे.....मैदा गूंथना.....लोई काटना फिर बेल कर पूरियां बनाना फिर उन पूरियों में बहुत ही स्वादिष्ट खोये और सूजी का मेवे वाला पूरण भरना.....ये सभी काम हम मिल कर करते थे....और बड़े ही कलात्मक ढंग से मम्मी गुझियों को गोंठ्ती थीं.....उनको भी और मुझे भी गुझिया बनाने वाले सांचे में गुझिया बनाना ..........कभी अच्छा नहीं लगा......हर गुझिया जो हाथ से बनाई हुई होती है ......मुझे बहुत पसंद है उसमे ये महसूस होता है की हर गुझिया पर अलग से ध्यान दिया गया है...........वैसे भी ये काम हर किसी के बस का नहीं.....मुझे लगता है कुछ चीजे ऐसी हैं जिनके लिए कभी कोई मशीन नहीं बनाई जा सकती.......जैसे लड्डू बनाने की कोई मशीन नहीं हो सकती.....उसी तरह गुझिया बनाने की भी कोई मशीन नहीं हो सकती.......लड्डू को कितने दबाव के साथ हाथो में घुमाना है ये सिर्फ अनुभव से ही जाना जा सकता है.....लड्डू कितने भी मुलायम हो ..............वो हाथो से उठा कर मुंह तक पहुँचने में फूटने नहीं चाहिए...........और ये काम कोई सांचा नहीं कर सकता.........उसी तरह सांचे में बनी गुझिया भी मुझे .......बस खाना पूर्ति सी लगती है......खैर.....मुझे गर्व है की मम्मी के इस गुण को मैंने सीखा है.........मम्मी की बनाई हुई गुझियों की बहुत डिमांड रहती थी........बड़ी बड़ी टोकरियों में अखबार बिछा कर उसमे गुझिया रखी जाती थी........बिस्कुट के बड़े बड़े वाले टिन .......लगभग ५ या ६ टिन भर जाते थे......छुट्टियों में पापा जी आये हुए होते थे और जब १०० ...१५० गुझिया बन जाती थीं तब पापा जी मोढ़ा लगा कर बैठते थे .......और शुरू होता था स्टोव पर बड़ी कड़ाही रख कर गुझियों क तलने का काम.......अपनी पसंद से पापा जी गुझिया सुनहरा होने तक तलते थे.......पहली गुझिया निकाल कर अलग साफ़ जगह रख दी जाती थीं.......फिर सभी एक एक गरमागरम गुझिया खाते थे........और ढेरों बाते होती रहती थीं ........जो कोई सो गया होता था उसे जगा कर गरम गुझिया खिलाई जाती थी......उस समय जो अपने पन और स्नेह का वातावरण बनता था घर में ......वो बयां से बाहर है........ ये सब होते रात के ३ या ४ भी बज जाते थे.......फिर सब सोने जाते थे..और सुबह ८ बजे तक सोते थे....
जिस दिन होलिका जलती थी.....उस दिन सभी बनाई हुई चीजो में से कुछ कुछ निकाल कर एक अलग पैकेट में रख लिया जाता था.... शाम को मौसी या मैं सभी के पैरों में सरसों का उबटन लगाते थे और उस उस उबटन की मैल को भी एक पुडिया में रख लिया जाता था......कुछ रंग और गुलाल भी उसमें डाल कर रात में जलने वाली होलिका में डाल दिया जाता था.........
मुझे और पापा जी को रंग खेलना कभी भी बहुत अच्छा नहीं लगा...............मुझे रंगों से खेलना पसंद है पर सिर्फ अपने कैनवास पर .........बेमतलब की लीपा पोती छीना झपटी मुझे बहुत फूहड़पन लगता है.....दूर से भले ही देख लूं ........पर मुझे याद नहीं .......की मैंने कभी भी बहुत ज्यादा रंग खेला हो.........हाँ भाई बहुत खेलता था ..और शायद आज भी खेलता है.....छोटे भाई को भी ज्यादा पसंद नहीं.....
शाम को पूरी टेबल पर भांति भांति के व्यंजन सजा कर रखना और हर आने वाले के लिए गुझिया के पैकेट बना कर रखना पापा जी का मनपसंद कार्य था......शाम को मिश्राम्बू की ठंडाई मंगाई जाती थी.....और सभी बहुत प्रेम से सेवन करते थे...........कई बार नाना जी भी होली पर रहे हैं बनारस में........बहुत सुखद यादें हैं उस समय की......जब भांग वाली ठंडाई पीकर हंसी मजाक होता था.......मम्मी को भांग बहुत ज्यादा लग जाती थी.....और एक बार तो वे बहुत ज्यादा रोने लगी थीं.......बिना बात के ही......सब खूब हंस रहे थे ....और वो रो रही थीं ........कहाँ गए वे दिन और कहाँ गए वो लोग ....
वक़्त सबको धकेल कर ........बहुत आगे निकल चुका है.....कमरा जो सबके कहकहे से गूंजता था वहां अब सन्नाटे और ख़ामोशी का डेरा है......सभी की जिंदगियों में कभी न कभी ऐसा कुछ घट जाता है की सब कुछ बदल जाता है.... ज़िन्दगी फिर वैसी ही नहीं रह जाती.........जिन्होंने घर बसाया था वो लोग तो अब इस दुनिया में नहीं हैं....पर उनकी खुशबू उनका अहसास आज भी कोने कोने में बसा हुआ है.....और हमारे पास भी उन पुरानी यादो की जुगाली करने के सिवा और कोई चारा नहीं है.....पर बहुत सी ऐसी खुशनुमा यादें जो कभी भुलाई नहीं जा सकतीं .....और लो देख लो ....ये होली भी हो ली ......
Bahot sundar likha hai mammy.. Banaras ka ghar ka niche vala jagah yaad aa raha hai.. Rona aata hai bahot sab yaad kar k, ki ab sab bandd pada hai..
ReplyDeleteMammy bahot acha likha hai tumne, padh k bahot kuch puraani chizo ka ahsaas hua..
Aur sabse sundar to title hai "holi b ho li", wahh bahot acha..
Betu.
thanks....beta....sachmuch ve din bahut yaad aate hain.....
ReplyDeletevry nostalgic blog... sucha gud imagery...maine to kuch bi nai dekha but padh k lagta h ki hr kuch aankho se dekha h....
ReplyDeleteaur itne saare vyanjan k baare me padh k to bhuk lg rh h..hehehe..
vry nice blog
thanks....harish ji....mera blog pasand karne k liye.....abhi main blog lekhan me naii hoon....aap sab ka amoolya sujhav milta rahe yahi aasha hai.....kripya sabhi posts padhein aur apni pratikiya dein....आपका ब्लॉग दिनोदिन आप अवश्य पधारें,......ye panktiyan kuchh samajh nahi aaiii....kripya spasht karin......
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