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Monday, October 19, 2020

बचपन के दिन

बहुत सुंदर, जरूर पढ़ें, आप पहली  लाइन पढ़ते ही खुद इसके मुख्य नायक हो जाएंगे!

बचपन में स्कूल के दिनों में क्लास के दौरान टीचर द्वारा पेन माँगते ही हम बच्चों के बीच राकेट गति से गिरते पड़ते सबसे पहले उनकी टेबल तक पहुँच कर पेन देने की अघोषित प्रतियोगिता होती थी।

जब कभी मैम किसी बच्चे को क्लास में कापी वितरण में अपनी मदद करने पास बुला ले, तो मैडम की सहायता करने वाला बच्चा अकड़ के साथ "अजीमो शाह शहंशाह" बना क्लास में घूम-घूम कर कापियाँ बाँटता और बाकी के बच्चें मुँह उतारे गरीब प्रजा की तरह अपनी चेयर से न हिलने की बाध्यता लिए बैठे रहते। टीचर की उपस्थिति में क्लास के भीतर चहल कदमी की अनुमति कामयाबी की तरफ पहला कदम माना जाता था।

उस मासूम सी उम्र में उपलब्धियों के मायने कितने अलग होते थे...
A) टीचर ने क्लास में सभी बच्चो के बीच गर हमें हमारे नाम से पुकार लिया।
B) टीचर ने अपना रजिस्टर स्टाफ रूम में रखकर आने बोल दिया तो समझो कैबिनेट मिनिस्टरी में चयन का गर्व होता था।

आज भी याद है जब बहुत छोटे थे, तब बाज़ार या किसी समारोह में हमारी टीचर दिख जाए तो भीड़ की आड़ ले छिप जाते थे। जाने क्यों, किसी भी सार्वजनिक जगह पर टीचर को देख हम छिप जाते है?

कैसे भूल सकते है, अपने उन गणित के टीचर को जिनके खौफ से 17 और 19 का पहाड़ा याद कर पाए थे।

कैसे भूल सकते है उन हिंदी शिक्षक को जिनके आवेदन पत्रों से ये गूढ़ ज्ञान मिला कि बुखार नहीं ज्वर पीड़ित होने के साथ सनम्र निवेदन कहने के बाद ही तीन दिन का अवकाश मिल सकता है। 

अपने उस कक्षा शिक्षक को कैसे भूले जो शोर मचाते बच्चों से भी ज्यादा ऊँची आवाज़ में गरजते:- "मछली बाज़ार है क्या?”
मैंने तो मछली बाज़ार में मछलियों के ऊपर कपड़ा हिलाकर  मक्खी उड़ाते खामोश दुकानदार ही देखे है।

वो टीचर तो आपको भी बहुत अच्छे से याद होंगे जिन्होंने आपकी क्लास को स्कूल की सबसे शैतान क्लास की उपाधि से नवाज़ा था। 

उन टीचर को तो कतई नही भुलाया जा सकता जो होमवर्क कापी भूलने पर ये कहकर कि “कभी खाना खाना भूलते हो?” बेइज़्ज़त करने वाले तकियाकलाम से हमें शर्मिंदा करते थे।

टीचर के महज़ इतना कहते ही कि  "एक कोरा पेज़ देना" पूरी क्लास में फड़फड़ाते 50 पन्ने फट जाते थे।

क्या आप भूल सकते है गिद्ध सी पैनी नज़र वाले अपने उस टीचर को जो बच्चों की टेबल के नीचे छिपाकर कापी के आखरी पन्नों पर चलती दोस्तों के मध्य लिखित गुप्त वार्ता को ताड़ कर अचानक खड़ा कर पूछते "तुम बताओ मैंने अभी अभी क्या पढ़ाया?"

टीचर के टेबल के पास खड़े रहकर कॉपी चेक कराने के बदले यदि मुझे सौ दफा सूली पर लटकना पड़े तो वो ज्यादा आसान था।

क्लास में टीचर के प्रश्न पूछने पर उत्तर याद न आने पर कुछ लड़कों के हाव भाव ऐसे होते थे कि उत्तर तो जुबान पर रखा है बस जरा सा छोर हाथ नही आ रहा। ये ड्रामेबाज छात्र उत्तर की तलाश में कभी छत ताकते, कभी आँखे तरेरते, कभी हाथ झटकते। देर तक आडम्बर झेलते झेलते आखिर टीचर के सब्र का बांध टूट जाता - you, yes you, get out from my class! 

सुबह की प्रार्थना में जब हम दौड़ते भागते देर से पहुँचते तो हमारे शिक्षकों को रत्तीभर भी अंदाजा न होता था कि हम शातिर छात्रों का ध्यान प्रार्थना में कम, और आज के सौभाग्य से कौन कौन सी टीचर अनुपस्थित है, के मुआयने में ज्यादा रहता था।

आपको भी वो टीचर याद है न, जिन्होंने ज्यादा बात करने वाले दोस्तों की सीट्स बदल उनकी दोस्ती कमजोर करने की साजिश की थी।

मैं आज भी दावा कर सकता हूँ, कि एक या दो टीचर्स शर्तिया  ऐसे होते है जिनके सर के पीछे की तरफ़ अदृश्य  नेत्र का वरदान मिलता है, ये टीचर ब्लैक बोर्ड में लिखने में व्यस्त रहकर भी चीते की फुर्ती से पलटकर कौन बात कर रहा है का सटीक अंदाज़ लगाते थे।

वो टीचर याद आये या नही जो चाक का उपयोग लिखने में कम और बात करते बच्चों पर भाला फेक शैली में ज्यादा लाते थे?  

जब टीचर एग्जाम हाल में प्रश्न पत्र पकड़कर घूमते और पूछते "एनी डाउट्" तब मुझे तो फिजिक्स पेपर में हमेशा एक ही डाउट रहता है कि हमें ये ग्राफ पेपर क्यो मिला है जबकि प्रश्रपत्र में ग्राफ किसमें बनाना है मुझे तो यही नही समझ आ रहा। मैं अपनी मूर्खता जग जाहिर ना करके चारों ओर सर घुमाकर देखते चुप बैठा रहता।

हर क्लास में एक ना  एक बच्चा होता ही था, जिसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करने में विशेष महारत होती थी, और ये प्रश्नपत्र थामे एक अदा से खड़े होते हैं... मैम आई हैव आ डाउट  इन कोश्च्यन नम्बर 11... हमें डेफिनेशन के साथ एग्जाम्पल भी देना है क्या? उस इंटेलिजेंट की शक्ल देख खून खौलता।

परीक्षा के बाद जाँची हुई कापियों का बंडल थामे कॉपी बाँटने क्लास की तरफ आते शिक्षक साक्षात सुनामी लगते थे।

ये वो दिन थे, जब कागज़ के एक पन्ने को छूकर खाई  'विद्या कसम'  के साथ बोली गयी बात, संसार का अकाट्य सत्य, हुआ करता थी।

मेरे लिए आज तक एक रहस्य अनसुलझा ही है कि खेल के पीरियड का 40 मिनिट छोटा और इतिहास का पीरियड वही 40 मिनिट लम्बा कैसे हो जाता था?

सामने की सीट पर बैठने के नुकसान थे तो कुछ फायदे भी थे। मसलन चाक खत्म हुई तो मैम के इतना कहते ही कि "कोई भी जाओ बाजू वाली क्लास से चाक ले आना" सामने की सीट में बैठा बच्चा लपक कर क्लास के बाहर, दूसरी क्लास में "मे आई कम इन" कह सिंघम एंट्री करते।

"सरप्राइज़ चेकिंग" पर हम पर कापियाँ जमा करने की बिजली भी गिरती थी, सभी बच्चों को चेकिंग के लिए कापी टेबल पर ले जाकर रखना अनिवार्य होता था। टेबल पर रखे जा रहे कापियों के ऊँचे ढेर में अपनी कापी सबसे नीचे दबा आने पर तूफ़ान को जरा देर के लिए टाल आने की तसल्ली मिलती थी।

हर समय एक ही डायलाग सुनते  “तुम लोगो का शोर प्रिंसिपल रूम तक सुनाई दे रहा है।" अमा हद है यार! अब प्रिंसिपल रूम बाज़ू में है इस बात पे हम बच्चों की लिप्स सर्जरी कर सिलवा दोगे या जीभ कटवा दोगे क्या? हमें भी तो प्रिंसिपल रूम की सारी बातें सुनाई देती है। हमने तो कभी शिकायत नहीं की।

वो निर्दयी टीचर जो पीरियड खत्म होने के बाद का भी पाँच मिनिट पढ़ाकर हमारे लंच ब्रेक को छोटा कर देते थे।
चंद होशियार बच्चे हर क्लास में होते है जो मैम के क्लास में घुसते ही याद दिलाने का सेक्रेटरी वाला काम करते थे। "मैम कल आपने होमवर्क दिया था।" जी में आता था इस आइंस्टीन की औलाद को डंडों से धुन के धर दो।

तमाम शरारतों के बावजूद ये बात सौ आने सही है कि बरसों बाद उन टीचर्स के प्रति स्नेह और सम्मान बढ़ जाता है, अब वो किसी मोड़ पर अचानक वो मिल जाए तो बचपन की तरह अब हम छिपेंगे नहीं।

आज भी जब मैं स्कूल या कालेज की बिल्डिंग के सामने से गुजरता हूँ, तो लगता है कि एक दिन था जब ये बिल्डिंग मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। अब उस बिल्डिंग में न  मेरे दोस्त है, न हमकों पढ़ाने वाले वो टीचर्स। बच्चो को लेट एंट्री से रोकने गेट बंद करते स्टाफ भी नही जिन्हें देखते ही हम दूर से चिल्लाते  थे “गेट बंद मत करो भैय्या प्लीज़”   वो बूढ़े से बाबा भी नहीं हैं जो मैम से सिग्नेचर लेने जब जब लाल रजिस्टर के साथ हमारी क्लास में घुसते, तो बच्चों में ख़ुशी की लहर छा जाती “कल छुट्टी है”।

अब स्कूल के सामने से निकलने से एक टिस सी उठती है जैसे मेरी कोई बहुत अजीज चीज़ छीन गयी हो। आज भी जब उस ईमारत के सामने से निकलता हूँ, तो पुरानी यादो में खो जाता हूं।

स्कूल/कालेज की शिक्षा पूरी होते ही व्यवहारिकता के कठोर धरातल में, अपने उत्तरदाईत्वों को निभाते , दूसरे शहरो में रोजगार का पीछा करते, दुनियादारी से दो चार होते, जिम्मेदारियों को ढोते हमारा संपर्क उन सबसे टूट जाता है, जिनसे मिले मार्गदर्शन, स्नेह, अनुशासन, ज्ञान, ईमानदारी, परिश्रम की सीख और लगाव की असंख्य कोहिनूरी यादें किताब में दबे मोरपंख सी साथ होती है, जब चाहा खोल कर उस मखमली अहसास को छू लिया।
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