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Wednesday, August 12, 2020

मैं बस ऐसी ही हूँ 😂😂😂

मेरे क़रीबतरीन  और नजदीकी लोग मुझे "अपने-आप को बहुत काबिल समझने वाला" कहते हैं। कारण कि मैं अपने मन मिज़ाज की मारी हूँ, मूडी हूँ...... मन हुआ तो सारा- सारा दिन घर को सजाने संवारने में लगी रही ,मन नहीं हुआ तो सवेरे से शाम तक अपने घोर आलसीपन में औंधी पड़ी रही। कभी मूड हुआ तो हर रोज़ बाहर घूमने टहलने निकली..... कभी हफ्तों महीनों खिड़की तक से न झांका। कभी किसी से ख़ूब बतियाने का  होने का मन हुआ ,  कभी पूरी तरह अपने में ही बन्द  रही ।कभी जिससे  घण्टों बातें की..... कभी उसी को महीनों तक देखा ताका भी नहीं ..... अबोला बना  रहा। कभी कोई सीरियल देखने बैठी तो जब तक वो खत्म न हो जाए तब तक उसके पात्रों से इतना घनिष्ठ हो उठी कि रातों को सपने में भी उन्हें देखने लगी.....  और आठों पहर उनके संग रहने लगी। कभी बहुत दिनों तक दो  शब्द लिखने का मूड नहीं  बना.... और कभी कभी पन्नों पर पन्ने भर डाले..... । कभी सँवरने का जी हुआ तो अकारण ही अपनी पसन्द की साड़ी या सूट पहनने के लिए अलमारी उल्ट पलट कर डाली  और कभी आलस चढ़ा (वैसे ये आलस वाली बीमारी हमेशा की है) तो पूरा दिन बीत गया गाउन में भूतनी बने हुए....अड़ोस पड़ोस  में भी गप्प बाजी और पुलिया प्रपंच की आदत नहीं..... किसी ने घमंडी कहा किसी ने अकड़ू और आलसी। जो अपने हैं , खास हैं. बेहद प्यारे हैं उनके माथे पर  गुस्से की एक  सिकुड़न भी मुझे पसंद नहीं....... माफ़ी मांगने में कभी पीछे नहीं रहती.... मुझसे बर्दाश्त ही नही होता । और जो मुझे पसन्द नही हैं वे निंदा करें या गालियां दें कोई अंतर नही पड़ता। मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं करती.... खामोश हो जाती हूं.... उपस्थित होने पर भी वहां अनुपस्थित रहती हूँ....

वैसे मैं कहना यही चाहती थी कि  यह कोई अजीब बात नही है कि मैं हमेशा  किसी न किसी खास मूड  या किसी अजीब मनःस्थिति की  गिरफ़्त में रही हूँ । मुझे कभी कभी ड्राइंग या पेंटिंग की ऐसी सनक सवार होती थी कि रात रात भर कैनवस ईजल से भिड़ी रही हूँ.... एक समय पढ़ने का सुरूर  चढ़ा (वो तो अब चढ़ता है. ...पर अब फोन बहुत समय खा जाता है वैसे.... अब पढने वाला पागलपन कम हो गया है) कभी किताबों से ऐसी यारी थी कि रात दिन का होश नहीं था।मनोहर कहानियां और सत्यकथा तक पढी है अगर कोई किताब नही मिली हो तो....... जब बच्चे हुए उन दिनों मैं उन्हें लेकर इतनी पगला गई कि सोना भूल गई।   जैसे उनके सिवा मेरे लिए दुनिया में कुछ और बाकी न  रहा।  सालों यह आलम रहा। एकबारगी सिलाई की ख़ब्त सवार हुई। झबले, फ्रॉक, स्कर्ट, पर्स, झोले, थैले और जाने क्या सिल डाला....उस  समय तो ये आलम था कि मेरे सिले बैग्स और पर्स दूर दूर तक गए..... बागबानी का शौक चढ़ा तो फूल कलियों और पत्तों की गिनती भी याद रहती। कभी साड़ियों की ख़ब्त चढ़ी , कभी बर्तनों और क्रॉकरी की,ढूंढ ढूंढ कर अमीना बाद, हजरत गंज, बनारस की गलियों और दिल्ली के लाजपत और करोल बाग को रौंद डाला.... कभी चुनकर -चुनकर अपनी पसन्द के गानों के  सैकड़ों कैसेट और सीडी खरीद डाले.... गाने सुनने की , कभी फ़िल्में  देखने की , कभी तस्वीरें खींचने की तो कभी पुस्तक मेले से या किसी भी साहित्यिक पुस्तकों की दुकान से जी भर कर (जी तो कभी भरता ही नहीं) किताबें खरीदने की धुन..... बनी रही . आजकल मैं एक नई ख़ब्त की शिकार हूँ।
       किसी जानवर को अपना पालतू बनाकर रखना और लोगों का शौक हो सकता है ..... लेकिन मुझे उनको गोद में बैठाना या चुम्मा चाटी करना बिल्कुल जिद की हद तक  नापसंद है...लेकिन पिछले दो सालों से  मेरी इस जिद पर जैसे लगाम लग गई है  शायद मै उसके प्यार में पड़ गई हूँ....एक पक्का देसी बिलौटा जिसे मैं बहुत दिनों तक बिल्ली समझती रही थी.. ....अचानक मेरी एकाकी सी लाइफ स्टाइल में आ टपका है... यह कितना प्यारा है। इसकी चमकीली हरी आंखें , मासूम सूरत ,   प्यार जताना , मेरी आहट सुनते ही उसकी सतर्क हरकतें.... मुझे अगले मोड़ तक स्कूल छोड़ने जाना और छुट्टी के वक्त मुझे उसी मोड़ से वापस लाना...मुझे देखते ही कुछ बिस्कुट या दूध की उम्मीद में आगे पीछे मंडराने लगना.... ऊं ऊं की आवाजें लगाना.... मुझे भाने लगा है....रात में ही उसके लिए दूध बचा कर रख देती हूँ..... सुबह दरवाजा खोलते ही मुझे उसी का इंतज़ार रहता है...और वो भी अंगड़ाई और जम्हाई लेते हुए दरवाजे पर विराजमान हो जाता है..... उसके लिए मैने एक मोढा सा बना कर दरवाजे पर  कोने में रख दिया है....और एक कांच का बाउल भी दूध के लिए..... उसे भी अब ये आभास है कि वो व्यवस्था उसी के लिए की गई है....मोढे पर आराम से जमा रहता है... दूध वाले को देखते ही भाग कर आ जाता है.....  जाड़ों में धूप में निधड़क मेरी कुर्सी के नीचे आकर बैठा रहता है.... आजकल  इसी का संग है।  कभी कभी इससे  गुपचुप बातें करती हूँ। इसे उठना बैठना सिखाती हूँ। और इसकी हरकतों पर  ख़ूब  हंसती हूँ। दिनभर यहां रहने के बाद वो रात में कहां रहता है मुझे नहीं पता..... पर सुबह सवेरे वो यहां मोढे पर बैठा ही मिलता है.....कई बार दरवाजा खुलते ही उसने अंदर आने की चेष्टा की पर धमकाए जाने पर अब समझ गया है कि अंदर आना मना है...... लॉकडाउन में बाकी सारी दिनचर्या के बाद ये मेरा मनपसंद शगल है...... मैंने पाला नहीं है उसको.... पर उसका यहां बने रहना मुझमें एक पॉजिटिव फीलिंग्स भरता है..
मैं बस ऐसी ही  हूँ

1 comment:

  1. बस ऐसे ही रहिये.. दुनिया की ना सुनने वाले ज्यादा खुश रहते हैं । ☺️☺️

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