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Wednesday, September 1, 2010

कुछ पंक्तियाँ


 


संदर्भो  से  अलग  अलग  कटा  हुआ  है ...

जाने  किन  पाटो   में  मन  बटा हुआ है 

अपनी परछाईं   भी  अनजान  हो  गई  है ..

जब  से  आधार  बिंदु  से  हटा  हुआ  है ..

मन  कि  गहराई से आस  का  गगन  गहन ..

दूर  दूर  है , मगर  कहीं  सटा   हुआ  है ..

अब  भी  वह  श्वेत  कबूतर   वहीँ  पड़ा  है ..

आँखें  चंचल  है ,..पर  पर  कटा  हुआ  है

तुम  भी  इस  पुस्तक  को  यूं  ही  मत  छोड़ना ..


पृष्ठ  सुरक्षित  हैं ,,आवरण  फटा  हुआ  है ..
  (संकलन से).





परदेस  जा  रहे  हो  तो  सब  देखते  जाओ ....
मुमकिन  है  वापस  आओ   तो  वो  घर  नहीं  मिले .......
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हमें  हमारे  उसूलों  से  चोट  पहुची  है ...


हमारा  हाथ  हमारी  ही  छुरी  ने  काट  दिया ..
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घने  दरख़्त  के  नीचे  मुझे  लगा  अक्सर ..


कोई  बुज़ुर्ग  मेरे  सर  पे  हाथ  रखता  है ...
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तुम्हारे  शहर  की   रंगीनियों  से  भाग  आये ..


हमारी  सोच  का  शीशा  ज़रा  पुराना  था ..
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घर  लौट  के  रोयेंगे  माँ , बाप  अकेले  में ..


मिट्टी  के  खिलौने  भी  सस्ते  न  थे   मेले  में ..
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फिर  मेरे  सर  पे  कड़ी   धूप  कि  बौछार  गिरी ...


मैं  जहाँ  जा  के  छुपा  था  वही  दीवार  गिरी ..
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