अमूमन मैं किसी भी मौसम में कमरे की खिड़की नहीं खोलती थी,बाहर दिन है या रात... या कौन सा मौसम आया और चला गया पता नहीं चलता था,यह मेरी अपनी दुनिया में छुपकर रहने की निंजा तकनीक थी......कभी सोचा करती थी जब मेरा अपना घर होगा तो उसमें खूब बड़ी सी बालकनी होगी.....सुंदर गमलों पौधों से सजी.......एक छत से लटकता झूला भी .....खूब बड़ी बड़ी खिडकियां बनवाऊंगी जिसमें लंबे शीशे होंगे......और जिनके करीब लेटने से आसमान ,तारे और चांद दिखाई देंगे.....चांदनी अंदर कमरे में आएगी. ....सीधे बिस्तर पर ......
अब अपना घर तो है लंबी बालकनी भी है .....लंबे शीशों वाली खिडकियां भी हैं...पर...चांद, तारे और आसमान नहीं दिखाई देते....हमारे हिस्से का सूरज भी अब हमारा नहीं रहा....चांद और सूरज देखे लंबा अरसा गुजर गया है .....
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