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Monday, June 27, 2011

वे दिन ........ये दिन

                 ये दुनिया है और यहाँ कुछ भी मुमकिन हो सकता है........एक खाली पन का अहसास सा होता है कभी कभी....जैसे कोई चीज बहुत दिन तक एक ही जगह पर रखी रहे .........और अचानक ही हटा दी जाये तो बहुत दिनों तक वो जगह अधूरी अधूरी सी लगती रहती है.....बस कुछ ऐसा   ही अहसास हो रहा है.......कभी किसी जगह कुछ दिनों के लिए भी रह आओ    तो कई दिनों तक उठते बैठते  उस जगह का कोना कोना याद आता रहता है.......कई बार सोते समय दिशा भ्रम और मतिभ्रम सा हो जाता है......  एक लम्बे रेल के सफ़र से लौट कर आओ तो ............कभी कभी एक अदृश्य ट्रेन में बैठे होने जैसा आभास होता है.....अचानक ही पैरो के नीचे से जमीं कांपने जैसा अनुभव होता है....कुछ ऐसा ही महसूस कर रही हूँ........पुराने दिनों को याद करके.....पुराने  दिनों  और  आज  के  दिनों  में  तुलना करना बेमानी है पर यही चीज तो है जो हमें समय के गुजरने और नए वक़्त के आने का आभास कराती है........

                     कुछ दृश्य पीछा क्यों नहीं छोड़ते.......हमेशा साथ साथ चलते हैं.....वक़्त गुजरने का अहसास इंसान को तब होता है जब वक़्त बहुत आगे जा चुका होता है.....और वक़्त ही एक ऐसा आइना है जिसमे हम अपना भूत वर्तमान और भविष्य देख पाते हैं...... ...

               भविष्य के बारे  में तो कुछ नहीं कह सकती पर अब तक जितना जी चुकी हूँ.......और जो जी रही हूँ.......उसमे एक ऐसी संतुष्टि और सुकून पाया है ......की यही उम्मीद करती हूँ की बस इतना ही मिलता रहे तो अपना जीवन सफल मानूंगी ......इस से ज्यादा की और कुछ उम्मीद नहीं रखती......... बहुत सफल नहीं तो असफल भी नहीं......माँ बाप के लिए एक अच्छी पुत्री ......पति के लिए एक सहयोगी पत्नी ....और बच्चों के लिए एक स्नेहमई  माँ बनाना चाहा था.......और किसी हद तक इसमें सफल भी रही हूँ........या शायद मेरी ख्वाहिशें भी बहुत सीमित रही हैं......इस से ज्यादा की उम्मीद भी नहीं कि थी मैंने........या शायद हमारी पीढ़ी के मध्यम वर्गीय लोगो की यही विडम्बना रही है.......सीमित सपने ......सीमित आकांक्षाएं ......सीमित उड़ान और ........उस उड़ान के लिए सीमित आकाश..........

          मुझे लगता है आज कल के बच्चे हमसे कहीं ज्यादा समझदार और प्रक्टिकल हैं......अपने पेरेंट्स के सामने मुझे याद नहीं कि कभी हमने अपना पक्ष समझाने या रखने की कोशिश  की हो.....बस यही लगता था कि वो जो कह रहे हैं.....वो बिलकुल सही है....उसके आगे कुछ सोचा ही नहीं जा सकता .....जो ज़रा भी मन का करना चाहता था....उसे विद्रोही.... ढीठ ...अपने मन का ....और मनबढ़ू   कह दिया जाता था........माँ और पापा की नजरो में अच्छा बनने के लिए  उनकी मर्जी ही सर्वमान्य होती थी.......चाहे उसमे अपना कितना ही मन मसोसना  पड़े.....पर कोई ये न कहे...कि कैसी मनबढ़ू लड़की या सरचढ़ा  लड़का है ..........कहीं दो चार हज़ार में दस पांच लोग ही ऐसे होते थे जो अपनी बात बड़ों के सामने रख पाते थे........उनपे इतनी उम्मीदें लदी  होती थीं....कि सांस लेना भी दूभर था .......सबसे पहले तो यही डर कि लोग क्या कहेंगे??.....एक खींच तान सी मची रहती थी....मन में...कितने ही पिता ऐसे होते थे.....जिन्होंने जीवन भर बच्चों से कभी प्रेम से बात ही नहीं की.......कभी बेटे बेटी से .....कुछ पूछा तक नहीं....बच्चों कि पढ़ाई लिखाई ,रहन सहन    तौर तरीके ....किसी भी चीज से उन्हें  ज्यादा मतलब  नहीं हुआ  करता  था.......पिता के घर आने के वक़्त सब भाग भाग कर अपने अपने कमरों में बंद......एक दबदबा सा बना रहता था......पिता के नाम से ही सब सहमे रहते थे...........परवरिश के नाम पर कठोर से कठोर बंधन ही बना दिए जाते थे.......और ऐसे वातावरण में पले बच्चे स्वयं भी ऐसे ही माता पिता बन जाते थे......या यूं  कहें .....की अपने माँ बाप की ज्यादतियों का बदला ......वे अपने बच्चो से निकालते थे .......उन्हें यही लगता था.....की शायद प्यार से बात करने या ज्यादा अपना पन दिखाने से बच्चे बिगड़ जायेंगे.....मुझे याद है की मेरे पापा जी कभी भी हमारे  स्कूल नहीं गए......उन्हें तो  ये तक याद नहीं रहता था की हम सब किस क्लास में पढ़ते हैं........बस हर साल पास होने का रिजल्ट सुन लेना....और किसी चीज की जरूरत  हो तो वो ला देना ........हमारी पढ़ाई से बस उनका इतना ही रिश्ता था.......जब कि मम्मी से हमारी हर अध्यापिका अच्छी तरह परिचित होती थी......मैं लगभग ८ साल यूनिवर्सिटी में पढ़ी हूँ....५ साल बी. ऍफ़. ए. और २ साल एम्. ऍफ़. ए. (आकस्मिक छुट्टियों की वजह से एक साल ज्यादा )..इतने दिनों में भी पापा जी कभी मेरे कोलेज  नहीं आये  .......कोलेज के आखिरी दिन ........जिस दिन मैं अपनी सारी पेंटिंग्स और पोस्टर्स वापस घर ला रही थी.....उस दिन उन्होंने अपनी ऑफिस की जीप से .........मेरे सामान को घर तक लाने के लिए .......मुझे   लिफ्ट दी थी .......और तब उस दिन मेरा कॉलेज देखा था उन्होंने.......
                        आपस में संवाद नहीं होने से सब कुछ अधूरा सा रह जाता था........आपसी रिश्तों में बहुत कुछ बचा रह जाता था........मैं अपनी मम्मी के ज्यादा करीब रही हूँ.......पापा जी ने भी ...कभी मुझे डांटा  या मारा नहीं......पर पता नहीं ऐसा क्या था कि .............पापा जी से बात करते वक़्त.....एक फोर्मेलटी सी निभाते थे हम ......हमेशा से एक डर सा लगा रहता था कि कहीं पापा जी नाराज़ न हो जायें......जैसे हर समय एक खुशामद सी करते रहते थे हम लोग.....मुझे याद नहीं आता कि कभी किसी चीज के लिए ठुनके या जिदियाये हों  हम सब  पापा जी के सामने.......मुंह फुला लेना ...या नाराज़ हो जाना .....या जोर जोर से बोल देना .......तो बहुत बड़ी चीज है..........आज के बच्चो को जब ऐसा करते देखती हूँ तो ताज्जुब होता है कि समय कितना बदल गया है........... इसका एक कारण यह भी हो सकता है.....कि हमें पापा जी के साथ रहने का ज्यादा अवसर और समय  नहीं मिला.......और जब कभी वे घर आते थे......तो हम अपना अच्छे से अच्छा..... प्रदर्शन करने कि ही चेष्टा में रहते थे........और उसमे भी सबसे ज्यादा यही चिंता रहती थी.....कि कहीं कोई गलती या बदतमीजी हुई तो सारा इलज़ाम मम्मी पर ही आएगा......कि वे क्या सिखा रही हैं हमें......

          आज भी ऐसा होता है कि जब बच्चे कुछ अच्छा करते हैं तो पिता बड़े गर्व से उन्हें अपनी संतान बताते हैं......और अगर कुछ गलत होता है तो वो माँ के गलत संस्कार बताये जाते हैं.......हमारी पीढ़ी में ज्यादातर बच्चो की पिता से बातचीत ..........माँ के माध्यम से ही होती थी.... अपनी बात पिता तक पहुंचाने  के लिए बच्चे माँ का सहारा लेते थे और बच्चो तक अपनी बात पहुंचाने  के लिए....पिता अपनी पत्नी का........और अगर दोनों पक्ष एक दूसरे की बातों से असंतुष्ट हैं....तो माँ की स्थिति बहुत कष्टदायक और दुविधाजनक हो जाती थी.........

                  आज अपने बच्चो को देखती हूँ तो लगता है आज जितना हम लोग अपने बच्चो से खुले  हुए  हैं.....और बच्चे भी अपनी हर तरह  की बात हमसे   शेयर  करते हैं....काश  हमने  भी किया  होता.......काफी हद तक मम्मी के साथ हमारा व्यवहार खुला रहा है.....पर फिर भी एक अदब और लिहाज़ के साथ.....किसी बात पर बहस के बारे में ......तो हम सोच भी नहीं सकते थे.......एक ऐसी इमेज  बनी हुई थी आज उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी मम्मी कभी जोर से बोल देती थी तो .............मेरी हालत ख़राब हो जाती थी.....हमेशा एक आदर का भाव मन में बना रहा.........मुझे याद भी नहीं कि कभी मैं मम्मी से जोर से या लड़ कर बोली हूँगी......वैसे  लड़ाई  झगडा मेरा कभी किसी से नहीं हुआ आज तक.......स्कूल से लेकर आज तक.......( जब मैं पढ़ती थी...और आज जब पढ़ा रही हूँ...)मेरे पास इसका एक ही उपाय रहता है.....की अगर मैं किसी की बात से असंतुष्ट हूँ या किसी से नाराज़ हूँ ...तो मैं उस से बात करना ही बंद कर देती हूँ.........बात को बिलावजह बढ़ाती नहीं.......कुछ दिनों में मेरा गुस्सा खुद ही शांत हो जाता है.....यही समझौता मैं खुद से पता नहीं कब से करती चली आरही हूँ.....शायद ये पापा मम्मी के सामने हमेशा लिहाज में रहने का नतीजा है........कभी कभी कुछ लोगों को या औरतों को हाथ पैर हिला हिला कर प्रचंड रूप से लड़ते देखती हूँ ...तो मन बड़ा भयभीत सा हो जाता है.........मुझसे तो कभी किसी को टेढ़ा या व्यंगात्मक रूप से भी बोला नहीं जाता.......व्यक्ति के जाने के बाद सौ तरीके     के  जवाब मन में उमड़ते घुमड़ते रहते हैं  ....पर सामने जुबान सिल सी जाती है.......या यूं कहूं की हमेशा मौका चूक जाती हूँ .......ये आज की नहीं हमेशा की आदत रही है मेरी......पीछे रोकर ....कुछ लिख कर.....मन ही मन में बुदबुदा कर .......भले ही गुबार निकाल लूं.........पर किसी के सामने उलटे सीधे जबाब नहीं दे सकती......किसी की बेईज्ज़ती नहीं कर सकती.......कभी कभी लगता है .......मुझमे ये बहुत बड़ी कमी है......क्यों की आज के समय में इतना सीधा होना ..बेवकूफ होना कहलाता है......कई बार ऐसे भी मौके आये हैं...जब मुझे लगा है.....कि यहाँ मेरी कोई गलती नहीं .....पर फिर भी खामोश रह गई हूँ.....और अब तो ये आदत नहीं सुधर सकती.........

                 बस ये गनीमत लगती है अपनी बात या ....अपना पक्ष सामने रखने का गुण आज के बच्चो में है.......वो जो ....और जिसके बारे में जैसा सोचते हैं....निसंकोच उसे कह भी देते हैं..........हमारी पीढ़ी में ये बात नहीं थी......माँ बाप से असीमित प्रेम होने के बावजूद ...हम उनसे कभी नहीं कह पाए की हम उन्हें बहुत प्यार करते हैं......पर आज के बच्चे बेहिचक हमसे लिपट कर (चाहे कहीं भी )....लव यू  मम्मी लव यू पापा कह लेते हैं.....अब उनका देखा देखी......... हम भी कह लेते हैं लव यू टू ........पर अपने माँ पापा के सामने एक ऐसी हिचक या संकोच बना रहा है कि........ अपने सगे माँ बाप को आलिंगनबद्ध कर के कुछ कहने का साहस नहीं हुआ.....यहाँ तक की पापा जी और मम्मी के नहीं रह जाने पर भी (जब कि ये जानती थी.....की अब वे दोबारा कभी देखने को नहीं मिलेंगे....).....उनकी देह से लिपट जाने की .......अंकवार में भर कर ......जी भर कर रो लेने की इच्छा मन में ही रह गई.................






10 comments:

  1. Didi,praynam aaj pehli bar ahsas hua ki hum ek achche bhai bhi nahi ban sake. Tumara blog padh kar kuch aisa laga.Ye to tumne apni dil ki bat likhi lakin ghar ka mahol kuch alag tarah ka hi tha shayad sahi hi tha.Ve apne aadat ke karan koi bhi pariwar ka sadasya apne raste se allag nahi hua.Maine bhi aapni sari abhilashao ko mar diya aur accha banane ki jugat me laga raha shayad ban bhi nahi saka ye mera apna tumhara blog padh kar apna vichar hai
    SHESH SHUBH

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  2. tumharii baat kuchh thik se samajh nahi aaiii.....isme tumhare achche bhaai na ban pane ki baat kahan se aa gaii???.............kabhi abhilaashaao ko itna jyada mat badhaao ki unhe marna pade....jivan jaisa bhi hai use usi roop me sweekar karo......haan ham jo nahi kar paye.....uska badla aane vali pidhi se nahi lena chahiye......jivan hamesha sundar hai........

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  3. Blog padha mammy.. aur acha b likha hai, mein sahmat hu pahle k samay se ki jab log apni baat nahi kah paate the aur chize kismat pe chhod dete the..
    but aaj ka samay aisa nahi hai.. bachche bahot zada samjhdaar hone lage hai, aur aage aane vali pidhi humse b kahi zada kuch advance hogi..agar hum apni baat nahi kahenge, to bahot piche rah jayenge, aur vaise bhi kis baat ki jhijakk.. agar bachcha apne maa baap se hatt naa kare ya baat naa manvaaye.. to aur kaun hai..
    Mein to ye samajhti hu.. Baaki ka nahi kaha ja sakta, kyuki aane vali padhi dar padhi chize badalti hi jayegi, aur ek samay aayega ki hum b budhe ho jayenge.. Fir hum b shayad tumhare hi jaise baaten karenge..
    per itna kahna chahungi.. tum ek bahot achchi maa thi, ho, aur hamesha rahogii mere ander, jab tak mei zinda hu.. Mujhe garv hai, ki mere maa baap se acha koi ho hi nahi sakta..
    basss...

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  4. ohhhhh.....thanks beta......mujhe bhi apne bachcho par garv hai....

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  5. Vicharniy baaten liye hai aalekh.... sunder dhang se vishleshan kiya aapne bachhon aur abhibhavkon ke vicharon aur halaton ka.....

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  6. thanks monika...apko achcha laga.....

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  7. man ki baat badi aasaani se abhivykt kee hai ..andaaz achchha laga..

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  8. माता- पिता और बच्चों के मध्य अत्यंत आत्मीय सम्बन्ध होना चाहिए ! बच्चों को अंक में भरने से एक अद्भुत शक्ति और ऊर्जा का संचार होता है उनमें जो , उनके आत्मविश्वास को बढ़ता है.

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  9. bahut hi badiya chintan...
    saarthak prastuti..

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  10. apka blog behad apna sa laga....thoda sa jo fark hai wo bas ye ki mummy ke gale me baahen daal kar sabkuchh aur papa se thoda jhijhakte hue thoda bahut share karne me saksham hoon...

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