आज जब पुराने अल्बम के पन्ने पलटते हुए बैठी हूँ......... तो यही सोच रही हूँ...........कि कितने ही दृश्य ऐसे हैं जो इस अल्बम में नहीं है...............पर जो जेहन में आज भी इतने ही ताज़ा और जीवंत हैं जैसे अभी कुछ दिनों पहले की ही बात हो.............सब कुछ बिलकुल सच होते हुए भी................ एक कहानी सा ही लगता है.........बस अब इस कहानी के कुछ प्रमुख पात्र ...........हमारे बीच नहीं रहे.....................यही तकलीफ है............खैर ये तो एक कटु सत्य है......और ये कभी न कभी तो होना ही था...........पर किसी का भी विछोह हमेशा ही कष्टदायक होता है.........और हमें इसके लिए तैयार भी रहना चाहिए.............
तब भी गर्मियों के दिन होते थे और ......ऐसी ही गर्मियों की छुट्टियाँ होती थीं.......पर जो उत्साह और सुकून उन छुट्टियों का होता था..आज उसका ५% भी नहीं महसूस होता है...... ....वार्षिक परीक्षा २० अप्रैल तक ख़तम हो जाती थी...और उसके तुरंत बाद........अपने प्यारे ननिहाल...ढेकही ....(जो कि गोरखपुर के पास एक बहुत छोटा सा गाँव है....). जाने का कार्यक्रम बन जाता था.......और वहां जाने की इतनी उत्सुकता रहती थी कि जैसे किसी विदेश यात्रा पर जा रहे हों...........२२ या २४ ऐप्रल से लेकर १३ जुलाई तक हम सभी .....मैं मेरे दोनों भाई और रेनू मौसी सभी ढेकही में ही रहते थे.......वहां हमारे नाना जी नानी जी मनोजी मामा और अनीता मौसी सभी को .............हमारा बेसब्री से इंतज़ार रहता था......... हमारे ट्रेन से खुशहाल नगर (स्टेशन ) उतरने के बाद घर तक आने के लिए नाना जी टायर गाड़ी भेजते थे......टायर गाड़ी बैल गाड़ी का ही एक रूप है बस उसमे लकड़ी के पहियों की जगह मोटे टायर लगे होते हैं........उसमे पुआल बिछा कर उसपर दरी या चादर डाल दी जाती थी और ऊपर बांस और त्रिपाल से ढँक कर छत बना दी जाती थी.........करीब ८ या १० किलोमीटर कि यात्रा हम लोग टायर गाडी से करते थे........ धीरे धीरे चलते हुए कई गाँव पार करते हुए वो छोटी सी यात्रा आज भी रोमांचित कर देती है...........खाते .......पीते , सोते हए ........हम लोग घर तक पंहुचते थे.............मेरा भाई कई बार गाड़ी चलाने वाले से कह कर .........खुद भी पतली छड़ी लेकर हांकता हुआ .........बैलगाड़ी की सवारी का मज़ा लेता था...........गाँव के छोटे छोटे बच्चे हमारी गाडी के साथ बहुत दूर तक दौड़ते हुए आते थे.....कितनी ही औरतें उत्सुकता भरी नजरो से गाड़ी को देखते हुए देर तक खड़ी रहती थी........रास्ते कि ऊबड़ खाबड़ सड़क पर कई बार गाड़ी के पहिये कीचड में धंस जाते थे........उन्हें वहां से निकालने के लिए ......तुरंत कितने लोग मदद को दौड़ पड़ते थे सब याद आता है.......मेरे भाई को इन सब कामों में बहुत मज़ा आता था.......कितनी ही बार गाँव के अन्य बच्चो के साथ उसने भैंस और गाय की सवारी भी की है...........गाँव के बहुत से बच्चे उसे गुलेल और तीर धनुष बना के देते थे........उसके लिए बहुत डांट भी खाई है उसने .................पर कई बार चिडियों पर निशाना भी लगाया है और एक दो बार सफल भी हुआ है...........गाँव के बच्चो के साथ तालाब पर जाकर मछली पकड़ना याद आता है...........पर आज तक मछली खाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई.........मेरे भाई के ....कुछ खास दोस्त भी बन गए थे वहां........जिनमे फुलबदना.....आज भी याद आता है.......छोटा सा खूब काला और चौड़े बदन का ..........वो दिन भर मेरे भाई के साथ साथ रहता था....उसी के साथ भैंस की पीठ पर बैठ कर घूमता था भाई....एक मोटा सा डंडा लेकर.........मुझे याद है मैंने कई बार फुलबदना को पढने के लिए भी .......प्रेरित किया था......स्लेट पर लिखना भी सिखाया था...पर उसे पढने में कोई दिलचस्पी नहीं थी.......आज पता नहीं कहाँ है वो....कभी कभी मिलने के मन होता है उस समय के साथियों से...... .नानाजी ने हमारे लिए कबूतर पालने के लिए एक उनका एक लकड़ी का बॉक्स नुमा घर भी बनवाया था जिसमे छोटी छोटी खिड़कियाँ बनी हुई थीं.........और मुर्गियों के लिए दरबा भी............कई मुर्गियां पाली हमने .........और बराबर आमलेट और अंडा भी खाया है.....कम से कम १२ कबूतर हो गए थे हमारे पास.........एक बार सफ़ेद चूहे भी पाले थे हमने.........पर बहुत तकलीफ होती थी जब हम ये सारा राज पाट छोड़ कर वापस आते थे........बहुत रोना आ जाता था ....... ..
उस समय मनोजी मामा और अनीता मौसी के स्कूल .........खुले ही होते थे............कई बार उन लोगो को साइकिल पर बैठा कर उनके स्कूल तक छोड़ने गई हूँ मैं भी.........ढेकही से बांसपार तक साईकिल से जाना एक अच्छा अनुभव था......मैंने वहीँ पर साइकिल चलाना भी सीखा.......मेरे नाना जी के पुराने घर के अलावा ..........गाँव से थोडा बाहर हट कर या कहूं........ढेकही और बांसपार के बीच में एक बहुत बड़ी हाल रुपी इमारत थी...जहाँ कई किस्म की मशीने लगी थी......आटा चक्की ,धान से चावल निकलने वाली मशीन ,तेल निकलने वाली मशीन..........चूड़ा कूटने वाली मशीन.....आरा मशीन..इत्यादि..........मुझे याद आता है ........वहां एक साइकिल का पंचर बनाने वाला भी बैठता था..................... वहां आने वाले लोगो की साइकिलें लेकर ......हम दोनों भाई बहन निकल लेते थे.........और कितनी ही देर जी भर कर ..............साईकिल चलाने के बाद वापस लाते थे..............और नानाजी की वजह से हमें कोई कुछ कहता नहीं था .........पर घर पर इसके लिए .....कितनी डांट पड़ती थी.........लेकिन हम बाज नहीं आते थे..........
सारे दिन धूप में घूमना......धूप में घूम घूम कर रंग बिलकुल काला सा हो जाता था........मसीन के पीछे (गाँव के बाहर वाली इमारत को मसीन या मशीन ही कहा जाता था..और शायद आज भी मसीन ही कहा जाता है...) वाले बगीचे में जहाँ ज्यादातर आम और अमरुद के पेड़ थे वहां नाना जी खाटें बिछ्वाते थे.....और दिन भर हम सब वहीँ रहते और सोते थे.........टॉयलेट और बाथरूम की व्यवस्था नाना जी हमारे आने से पहले ही करवा देते थे............वही पर ट्यूबवेल था...जहाँ से खेतों में...पानी भेजा जाता था........वहां एक हौज सा बना हुआ था.......जहाँ खूब मोटे पाइप से पानी की धार आती थी.......वहां घंटो ...जब तक ट्यूबवेल बंद न कर दिया जाये या लाइट न चली जाये............तब तक वहां खूब उछल कूद मचाते हुए नहाना........स्वीमिंगपूल का मज़ा लेते हुए.........बहुत याद आता है........नानाजी ने लीची , शरीफे और केले के बहुत सारे पेड़ लगवाये थे,,,,,,,,और शायद सुपारी के भी.........सुपारी लगी हुई तो नहीं देखी. मैंने........... पर सुना था.........छोटे जामुन के पेड़ जिसे कठ्जमुनिया भी कहते थे...... वहां थे.......खूब खाया है जामुन ......और ट्यूबवेल के ठीक बगल में लगा हुआ वो आम का पेड़ जिसके आम एक दम कच्चे होने पर भी बिलकुल मीठे होते थे.....नमक और मिर्च लगा कर खाने में बहुत मजा आता था...........हाय .........कहाँ गए वे दिन ................
उस बगीचे से थोड़ी दूर पर ही साधू बाबा का मंदिर था....जहाँ एक बहुत ही वृद्ध साधू बाबा रहते थे.....उनकी झोंपड़ी और एक बहुत बड़ा कुआं था ................. और साधू बाबा सम्मेमाई की पूजा करते थे.......पूर्वांचल में सम्मेमाई बहुत सिद्ध देवी मानी जाती हैं..........उनका रूप हाथी जैसा है सभी लोग अपनी आस्था ......और औकात के अनुसार .................स्थानीय मूर्तिकारो द्वारा निर्मित ......छोटे बड़े हाथी मंदिर में चढाते हैं......और छोटे छोटे मंदिरों में भी ......सैकड़ों की संख्या में हाथी रखे हुए मिल जाते हैं.........ऐसा हमने मनकापुर की तरफ भी प्रचलन देखा............ यहाँ भी ऐसे कई मंदिरों में हम गए हैं.........
ढेकही में बहुत छोटा सा मंदिर है सम्मेमाई का......... पर पूरा गाँव वहां इकठ्ठा होता है........मेला इत्यादि लगने पर.....दूर दूर के लोग आते हैं वहां...........कहते थे कि ........ उस मंदिर के पास कोई आत्मा रहती थी...और एक नाग नागिन का जोड़ा भी रहता था .......वहां एक पीपल , बरगद या नीम किसी का बहुत बड़ा विशालकाय वृक्ष था..........याद नहीं किसका था.......क्यों की वो इतना बड़ा और ऊँचा था की सिर्फ उसकी विशाल काया याद आती है........पत्तों की याद नहीं आती......पर ये तो तय है की किसी प्रकार के फल का पेड़ नहीं था.........बेहद चौड़े तने वाला......ऐसा किस्सा मशहूर था........कि वहां भूत और चुडैलें रहती हैं............वैसे ............हमने कभी देखा नहीं.....हाँ एक बार वहां खेल कर लौटने के बाद ......मेरी तबियत बहुत ख़राब हुई थी.......बेहद भयानक कंपकंपी.......सरदर्द ...............और बुखार का सामना करना पड़ा था........जो दफेदार नाना .....(नाना जी के एक घरेलू सेवक ) के कुछ पूजा इत्यादि करने के बाद ठीक हुआ था........अब वो किस कारण हुआ था नहीं जानती ....पर दफेदार नाना का कहना था कि .........मैं मेहदी लगा कर वहां गई थी......इस वजह से ऐसा हुआ..........पर मुझे इन बातो में कोई यकीं नहीं है...............खैर.......साधू बाबा वहां बहुत साफ़ सफाई रखते थे...और हम सबके वहां जाने पर प्रसाद में बताशे जरूर देते थे.............वहां पीले कनेर के फूलों वाले पेड़ और एक फालसे का भी पेड़ था.... जिसके फालसे हमने खूब खाए हैं ...........
. मैं ,,अनीता मौसी ,और रेनू मौसी दिन भर .....उन जगहों पर घूमा करते थे.......या फिर मैं अपनी ड्राइंग की कॉपी में कुछ कुछ बनाया करती थी.....मुझे याद है उस समय भी ड्राइंग कॉपी पेन्सिल और रंग ब्रुश हमेशा मेरे साथ होते थे........बहुत से चित्र बनाये हैं मैंने वहां........या फिर नाना जी की लाई हुई पत्रिकाएँ पढना और ...........नाना जी को पढ़ कर सुनाना.........या नरकट की कलम की तलाश में घूमना .......और कलम खोज कर लाना.........फिर कलम में सुन्दर ख़त काट कर ...........ओमेगा पुडिया स्याही घोल कर उसमे नोक डुबा डुबा कर लिखना याद आता है.........लम्बी लम्बी नरकट की डंडियाँ...जिन्हें अपने हिसाब से काट काट कर एक साइज की कलम बनाते थे........और फिर तेज चाकू से उसमे नोक और ख़त बनाते थे (एक तरफ से तिरछा काटना) .....नरकट सूख कर एक मजबूत कलम का रूप ले लेता था.............आज कल के बच्चो ने तो शायद इसका नाम भी न सुना हो........पर गाँव के स्कूलों में लकड़ी की पाटी पर घोली हुई खड़िया में इसी कलम को डुबो कर लिखना सिखाया जाता था ....अपनी सुन्दर(!) राइटिंग का श्रेय .....मैं उसी अभ्यास को दूँगी......बहुत सी कापियां भर डाली हैं लिख लिख के.........या फिर केशव मामा जी के घर जाकर उनके यहाँ से लाई हुई......किस्सा तोता मैना ...........अलादीन ...पंचतंत्र की कहानियां,राजा भरथरी (भृतहरि) इत्यादि पुस्तकें पढना याद आता है........उस समय उस पूरे गाँव में किताबो की या स्टेशनरी की एक मात्र दुकान वही थी...........नाना जी कादम्बिनी और धर्मयुग जरूर पढ़ते थे...........नाना जी के साथ ही मुझे भी पत्रिकाओं के पढने की लत्त लगी और आज तक लगी हुई है........वे एक रशियन मैगजीन स्पुतनिक भी मंगाया करते थे .......जिसे पढ़ पढ़ कर और .......सुन्दर रंगीन चित्र देख कर ..........मुझे भी विदेश जाने का बहुत शौक़ हो गया था.........
रात में छत पर खूब पानी छिड़क कर छत ठंडी की जाती थी.......फिर ...दरियों पर खूब लम्बा बिस्तर लगाया जाता था और सभी एक साथ सोते थे.......नाना जी से कहानियां सुनते सुनते और उनके ट्रांजिस्टर पर रेडियो सीलोन में बिनाकागीत माला और ....पता नहीं क्या क्या.....सुनते सुनते ...........कब नींद आ जाती थी .....पता ही नहीं चलता था...........कभी कभी सबका मन होने पर राम सेवक और सोभई (नाना जी के यहाँ काम करने वाले दो लोग ) वहीँ छत पर एक कोने में मिटटी की हंडिया में मीट ,, रोटी और चावल बनाते थे.......जिन्हें हम ...सब केले के पत्तों पर रख कर खाते थे...........वो अभूतपूर्व स्वाद याद आता है...............
जब चांदनी रात होती थी तब और मज़ा आता था.........ढेरो पहेलियाँ ....चुटकुले......कहानियां .........कवितायें........सुनते सुनाते .....कितना अच्छा समय बीतता था............कभी कभी ..बूंदाबांदी होने पर बारबार भाग कर नीचे जाना और ......बारिश रुकते ही फिर भाग कर ऊपर जाना याद आता है.......
बहुत सुबह बिलकुल भोर में छत पर से हिमालय की कुछ बहुत ऊँची चोटियाँ दिखतीं थी...........बेहद सुन्दर नज़ारा होता था........चारों तरफ खुले हुए खेत............हरियाली.......खूब साफ़ आसमान......दूर पर चरते हुए ढेरों मवेशी......खेतों की पगडंडियों पर जाते हुए स्त्री पुरुष........बैल लेकर जाते हुए किसान.......भैंसें और बकरी चराते हुए ग्रामीण बच्चे.......बिलकुल...........कलात्मक दृश्य जो कोई भी कलाकार अपनी स्मृति में सहेज लेना ....संजो लेना चाहेगा.......चित्रित कर लेना चाहेगा.......ये सब तो आज भी होता होगा...........नाना जी ...सुबह सुबह मुझे जगा के वो दृश्य दिखाते थे........पर आलस के मारे ..........आँखे ही नहीं खुलती थी.........अब वही आँखें हैं.....वो दृश्य देखने की......... चित्रित करने की इतनी इच्छा है .......पर उसे दिखाने और ......अपनी ड्राइंग कॉपी में बना लेने का आग्रह करने वाले बहुत दूर चले गए हैं...........नाना जी की बहुत इच्छा और पूरा विश्वास था.........की मैं भविष्य में बहुत बड़ी चित्रकार बनूंगी.......(काश ऐसा हो पाता ).............. .
रात में जब लाइट आने का वक़्त होता था....और सभी मशीने चालू की जाती थी...तो याद आता है कि कितने लोग .......वहां .होते थे जो अपनी अपनी बैल गाड़ी पर धान और गेंहू आदि लेकर आते थे ........उनकी कुटाई और पिसाई के लिए...........पूरी रात मशीने काम करती थीं........सारे सामान को तराजू पर तौलवाना.....और उनका हिसाब रखना ......उनसे पैसे लेकर नाना जी कि थैली में रखना ....उस समय २० पैसे के नए सिक्के चले थे जिनमे एक तरफ कमल का फूल बना हुआ था......ये सिक्के पीतल के होते थे...........और हम लोगो में .....ऐसे सिक्के एकत्र करने की ....... होड़ लगी रहती थी....एक बड़े डालडा के डब्बे में भर के हमने वे सिक्के जमा कर लिए थे...............ये सब मेरे भाई को बहुत अच्छा लगता था..........
कई बार बाहर रखे भूसे या धान के ढेर में हम लोग आम रख दिया करते थे.....जो कि एक दो दिन में पक जाता था.......फिर उसे निकल कर खाते थे.........जब कोई बरफवाला अपनी साइकिल पर कैरियर में बंधे ..डब्बे में बरफ लेकर आता था तो उस से हम लोग धान या गेंहू के बदले में लाल ,हरी ,नारंगी रंग की बर्फ वाली कैंडी ........लेकर खाते थे............कई बार नाना जी के साथ घुघुली (गाँव से कुछ दूर पर एक मार्केट) तक भी साइकिल पर गई हूँ मैं........वहां उसी समय रिलीज हुई..... रिक्शावाला फिल्म भी देखी है.........
अनीता मौसी और ........मनोजी मामा का बचपन याद आता है......अनीता मौसी बेहद गोरी चिट्टी भूरे घुंघराले बालो वाली थी......उनके बाल बहुत खूबसूरत हुआ करते थे.................मुझे याद है हम लोग कभी कभी उनको खूब सजाते थे ........नानी जी की बनाई हुई गुडिया ......और छोटे छोटे खिलौने.......फिर गुड़ियों की शादी करना...........नानी जी के शंकर भगवान् की पूजा करने के लिए मैं पीली चिकनी मिटटी से छोटे छोटे शिवलिंग बनाती थी...........
नानी जी बहुत ही सीधीसादी घरेलू महिला थीं......जिन्हें पूजा करना....हम बच्चों को कहानियां सुनाना .....( आज भी मुझे उनकी ढेरों कहानियां याद हैं.).......बहुत प्रिय था ........उनको सिर्फ हर समय यही फ़िक्र रहती थी कि कोई भूखा न रहे या ...........कोई उनसे नाराज़ न हो जाये..........सबके खाने की फ़िक्र करना .......खाना बनाना........दिन भर वहां लाईट नहीं रहती थी..... पर ........हमारे सो जाने पर घंटो .....हाथ के पंखे से हवा करते रहना कि कहीं हमारी नींद में खलल न पड़े.....बहुत याद आता है.....इतना करने के बावजूद ............ हर वक़्त सबकी झिडकी सहना..........मुझे अब सोच कर बहुत दुःख होता है कि....... उनके सीधेपन की वजह से कोई उनसे ठीक से बात ही नहीं करता था.............हर कोई हर बात पर झिड़क देता था......क्यों कि उनकी हर बात बहुत भोलेपन ...या दूसरो की भाषा में कहूं .........तो मूर्खता से भरी हुई होती थी..............किसी में इतना सब्र नहीं होता था कि उनकी बातो का प्रेम से जबाब दे.......चाहे वो घर के नौकर हों .........या कोई आने वाला.............घर के कुछ खास ....लोगों का व्यवहार उनके साथ बहुत कठोर रहता था ........छोटे होने की वजह से हम कुछ कह तो नहीं पाते थे.........पर मन ही मन में .............बहुत तकलीफ होती थी............ मैं नाम नहीं लेना चाहती.........पर मुझे यकीं है कि आज जब नानी जी नहीं हैं.......और वो लोग मेरा यह ब्लॉग पढ़ रहे हों तो अपने इस व्यवहार पर लज्जित होंगे........और अगर उनमे जरा भी शर्म है तो उन्हें लज्जित होना भी चाहिए...................भगवान् सब देखता है और हर किसी को उसके किये का जवाब यहीं देना पड़ता है.........और मैं दिल से प्रार्थना करूंगी कि भगवान् .......उन्हें उनके किये का हिसाब जरूर दे........
हम तीनो भाई बहनों पर वे जान छिड़कती थीं.......बच्चो के सो जाने पर भी ......जबरदस्ती खाना खिलाना ................अनीता मौसी और मामा जी सोते रहते थे फिर भी कौर बना बना कर उनके मुंह में डालते जाना.......याद आता है...................इसके लिए सब कितना चिडचिडाते थे पर वे बिना खिलाये नहीं मानती थीं.........एक बार मुझे याद है मेरे बालों में जुएँ पड़ गई थी...........और उस समय कोई मेडिकर या अन्य दवा नहीं मिलती थी..........नानी जी को बहुत कम दिखाई देता था .......पर कितनी मुश्किल से मुझे जबरदस्ती पकड़ पकड़ कर उन्होंने मेरे सर से जुएँ निकाली थी...........
उनकी बनाई हुई पके आम की सरसों हल्दी वाली सब्जी का कोई जवाब नहीं है........मुझे याद नहीं की मैंने उतनी स्वादिष्ट सब्जी कहीं और खाई हो..........नानाजी के बगीचों से आये हुए ढेरो आम ......जो खाते खाते ख़तम नहीं होते थे......(जब कि हम सब दिन भर आम खाते रहते थे )) ......गाँव के बीचोबीच लगा हुआ बहुत बड़ा मालदह आम का पेड़ जिसे सब मल्दहवा...... कहते थे.......उसके आम कितने स्वादिष्ट थे....एक एक आम आधाकिलो का होता था......कितने याद आते हैं वे दिन.......
नानीजी का .... अमावट बनाना याद आता है .......अब तो न वो अमावट कहीं दीखता है न ही बच्चे उसके बारे में जानते हैं............कितनी मेहनत और जीवट से भरा काम होता है अमावट बनाना.......हजारो की संख्या में पीले वाले हड्डे और मधुमक्खियाँ...........उन पर मंडराते रहते थे................और उनके बीच में बैठ के आम के गूदे को बार बार चादर पर फैलाना.......सोच कर ही डर लगता है...............पर नानी जी कितनी लगन से ये कार्य करती थीं..........उनके बनाये हुए आम के अचार की वो ......स्वादिष्ट बड़ी बड़ी फांकें................बड़े बड़े मटकों में अचार रखा जाता था.......वो बड़ी बड़ी फांके खाने में कितना मज़ा आता था......कितना मना किया जाता था ज्यादा अचार और खट्टा खाने के लिए पर हम सब चुरा चुरा के खाते थे .........अब सोचती हूँ ......तो मन भर आता है...........नानी जी के हाथ से भात घी और नमक सान के खाना.........और बीच बीच में भरे हुए मिर्च का अचार खाते रहना........कितना दुर्लभ स्वाद है .........ये हमारे सिवा कोई नहीं जानता...............आज की कोई नानी ऐसा स्वाद और स्नेह एक साथ परोस दे..........ऐसा सोचना ही सपना देखने जैसा है............
नानीजी का .... अमावट बनाना याद आता है .......अब तो न वो अमावट कहीं दीखता है न ही बच्चे उसके बारे में जानते हैं............कितनी मेहनत और जीवट से भरा काम होता है अमावट बनाना.......हजारो की संख्या में पीले वाले हड्डे और मधुमक्खियाँ...........उन पर मंडराते रहते थे................और उनके बीच में बैठ के आम के गूदे को बार बार चादर पर फैलाना.......सोच कर ही डर लगता है...............पर नानी जी कितनी लगन से ये कार्य करती थीं..........उनके बनाये हुए आम के अचार की वो ......स्वादिष्ट बड़ी बड़ी फांकें................बड़े बड़े मटकों में अचार रखा जाता था.......वो बड़ी बड़ी फांके खाने में कितना मज़ा आता था......कितना मना किया जाता था ज्यादा अचार और खट्टा खाने के लिए पर हम सब चुरा चुरा के खाते थे .........अब सोचती हूँ ......तो मन भर आता है...........नानी जी के हाथ से भात घी और नमक सान के खाना.........और बीच बीच में भरे हुए मिर्च का अचार खाते रहना........कितना दुर्लभ स्वाद है .........ये हमारे सिवा कोई नहीं जानता...............आज की कोई नानी ऐसा स्वाद और स्नेह एक साथ परोस दे..........ऐसा सोचना ही सपना देखने जैसा है............
और ऐसा किसी विशेष के साथ नहीं..........हम सभी के साथ था.........हम सभी छहों के साथ..........हम तीनो भाई बहन और मामा मौसियों के बीच ज्यादा अंतर नहीं है.........सिर्फ १० साल के अन्दर के ही................... हम सभी छोटे बड़े हैं..............और इसी लिए सभी में भाई बहनों जैसा ही लगाव और .......अपनापन रहा है.........साथ साथ खेलना पढना.......एक दूसरे के कपडे पहनना ...........रेनू मौसी चूंकि २ साल की उम्र से ही हमारे साथ रही है इस लिए वो भी सिर्फ गर्मियों की छुट्टी में ही नानाजी और नानी जी से मिलने जाती रही है...........
.टुन्नू मामा जी भी बहुत दिनों तक हमारे साथ रहे हैं ....पर वो उम्र में हमसे काफी बड़े हैं ....इस लिए उनके साथ एक लिहाज वाली भावना रही है..........पर अपना पन और स्नेह उनके साथ भी वैसा ही है............वक़्त और हालात ने जरूर कुछ दूरियां डालने कि कोशिश की है और कुछ हद तक सफल भी हुए हैं..............पर हमारे मन में अभी भी वैसा ही स्नेह है .........बाकियों के बारे में मैं कुछ भी कहना उचित नहीं समझती...........भगवान् सबको सदबुध्धि दे...........
मनोजी मामा से संपर्क बना रहता है............ वैसे भी आज के इस भागमभाग भरे माहौल में सब के पास फुर्सत ही कहाँ है की हमेशा मिलना जुलना हो सके.............पर भला हो मोबाइल फ़ोन का कि सबको जोड़े .रखता है......अब इतना भी संपर्क बना रहे ये ही काफी है.........
आज मम्मी नहीं हैं.........पापा जी नहीं हैं...........नाना जी नहीं हैं .........नानी जी नहीं हैं............ अब वो ढेकही नहीं है.......अब वो मसीन नहीं है.......अब वहां परमानेंट बिजली रहती है.....चारो तरफ लगे हुए ढेरो पेड़ काट डाले गए हैं.....आम और महूआरी बारी ख़तम हो गई है......जहाँ भूतों के डर से लोग जाने में डरते थे........ शायद इंसानों के डर से भूत कहीं और चले गए हैं...................वहां अब बहुत बड़ा बाज़ार लगता है................बहुत सारे लोग अब वहां रहने लगे हैं.......सारी शांति और एकांत समाप्त हो गया है ...........कभी एक ऐसा वक़्त .था.......... जब वहां कोई जाता नहीं था.........बेहद सन्नाटा और भयावह एकांत होता था वहां.....दूर तक ........पर ......अब वो माहौल नहीं है ......अब वो हम सब नहीं है..........अब हमारा बचपन नहीं है .................सब कुछ बदल गया है........सारा परिवेश बदल गया है...........दुनिया बदल गई है.........हम सब बदल गए हैं.......कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा........पर ईश्वर से यही कामना है कि हमारी एक दूसरे के प्रति भावनाएं ......कभी न बदलें...........इतना ही काफी है............आमीन ........
अति सुन्दर वर्णन... सच में बहुत की सुहावने थे वो बचपन के दिन जो हमने अपने अपने छोटे गाँव या शहर में बिताएं हैं सभी के पास अपनी अपनी यादें हैं जिनमे कितनी ऐसी कहानियां हैं जो आज सुनने को ही नहीं मिल सकती हैं | हमने भी ऐसा सुना था की एक ऐसा पेड़ होता है जो सिर्फ साल में एक बार एक रात के लिए एक फल देता है और जो वो फल प् जाता है वो बहुत अमीर बन जाता है लेकिन ये सब तो केवल कहानिया ही हैं जो हमारे बड़े हमें सुनते थे कभी | आधुनिकता के इस चकाचौंध में वो मासूम सी जिंदगी कहीं गुम हो गयी है|
ReplyDeletebht hi acha blog h....bht si khaaniya suni h aaplogon k bachpan k bare me....kitna acha tha us samay sb kuch
ReplyDeleteaur aam ki sbji...uska koi jawab nai...naniji ki to nai but mummy ki banayi hui sbji khaayi h...
हमारा अतीत भी आपके बीते दिनों से मिलता जुलता ही है. सचमुच कितना अच्छा समय था जब छोटी सी खुशी से भी दिल बहुत प्रसन्न हो जाता था, चाहे मिठाई हो, चाहे नये कपडे या फ़िर त्योहार के दिनों मे आसपास लगे मेलों में घूमने की बात. आज सब है तो हंसने या खुश होने के लिये भी बजह ढूंढ्नी पडती है.
ReplyDeleteसमय बीत गया, बडे बुजुर्ग और सम्बन्धी बिछड गये, वो माहौल और हालात बदल गये मगर यादें हैं कि उसी तरह तरोताजा इस जहन में समायी हैं और शायद यही सब से बडी पूंजी हमारे पास है
bilkul sach kaha bhaaijan......sabse badi poonji hamare paas yahi hai......thanks
ReplyDeleteबचपन की कितनी यादें ताजा हो गयीं।
ReplyDeletebohut achha hai.
ReplyDeletethanks hai ji....kuchh pics add ki hain kaisi lagi???
ReplyDeletesuperb pics...renu mausi lukng vry cute...
ReplyDeleteaur ye last wali pic kiski h?
aur blog to as usual awesome..
thanks beta......are beta last vali pic me pappu aur ranjan hain.....apni mumma ko dekha???
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