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papa ji at age of 16 |
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papa ji at age of 22 |
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papa ji aur main..1988 |
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papa ji in 2004 |
आने वाली २० फरवरी को पापा जी से बिछड़े ५ साल हो जायेंगे ...यकीं ही नहीं होता की ५ साल इतनी जल्दी बीत गए.....५ साल पहले पापा जी और 3 साल पहले मम्मी .........अब हम सब ऐसी उम्र में पहुच चुके हैं , जहाँ ऐसा होना स्वाभाविक है , पर माँ बाप ऐसी हस्तियाँ हैं , जिनका न रहना हमें अनाथ साबित कर देता है ,.......संसार में हर रिश्ता दुबारा तिबारा बन सकता है .....पर माँ बाप फिर कभी नहीं मिलते,,,,,..
मैंने मम्मी के साथ साथ पापा जी का भी भरपूर प्यार पाया है......मुझे लगता है पिता एक ऐसा रिश्ता है जिसके प्रति हम अंदरूनी भावनाएं नहीं दिखा पाते..... भले ही अन्दर से कितना भी प्यार और सम्मान भरा हो.......कम से कम हमारी पीढी के लोगों में तो एक ऐसी हिचक और झिझक बनी हुई थी.....कि हम कभी भी पापा जी के प्रति खुल कर अपना प्यार नहीं प्रदर्शित कर पाए.....हमेशा एक लिहाज वाली दीवार सामने खड़ी रही...... आज अपनी बिटिया को पापा से लाड लड़ाते या बेझिझक लिपट जाते देखती हूँ....तो मन को एक बड़ी आतंरिक ख़ुशी मिलती है.....अपनी हर तरह की बात पापा से शेयर करती है.....और उसका समाधान भी पाती है.....पर हमारे समय में ऐसा नहीं था.....आज सोचती हूँ तो यही लगता है उस समय उनकी सीख डांट लगती थी.....पर वो सीख आज भी मेरे साथ है......पिता का यही प्यार हमारा जीवन संवार देता है...बचपन में पापा जी का घर में रहना एक बंदिश का अहसास करता था.....पर अब लगता है कि वो दौर भी कितना सही था ....... पापा जी उतनी बातें हमसे नहीं करते थे..जितना मम्मी करती थीं .........हमारे हर झगडे का फैसला करना ....कोई भी ऐसी बात .....जिसमे ये लगे कि सुनकर पापा जी नाराज होंगे......वो बात उनतक पहुँचने ही नहीं देना....पापा जी से एक खास दूरी बना देता था.......अकसर ये देखा जाता है कि माँ की तुलना में पिता भुला से दिए जाते हैं........ मुझे याद है टूर में घूमते वक़्त या ननिहाल में रहते वक़्त..... जब कभी हम चिठ्ठियाँ लिखते थे...तो पूरी चिठ्ठी मम्मी के लिए ही लिखी जाती थी.....और अंत में पापा जी का हाल चाल पूछ कर चरण स्पर्श कह दिया जाता था..........और वो भी सिर्फ इस लिए कि चिठ्ठियों में लिखी भाषा की अशुध्धि या हिज्जों में मात्राओं की गलती पापा जी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे......और वे चिठ्ठियाँ... सभी गलतियों पर गोल बना कर हमें वापस भेज दी जाती थीं..........उस समय ये बातें हमें बुरी तरह चिढ़ा देती थी.....पर आज जब मैं हिंदी की अध्यापिका हूँ ...... और बच्चो की इन्ही गलतियों को बताती हूँ तो मुझे बहुत गर्व होता है कि मैं चाहे कितनी भी जल्दी में क्यों न लिखूं मुझसे कभी मात्रा की गलती नहीं होती और न ही व्याकरण की......और इसका पूरा श्रेय पापा जी को जाता है.......उनके द्वारा बोल बोल कर लिखाए गए लेख और .......इमला इसके उदाहरण हैं.....मेरी हस्तलिपि भी काफी कुछ उनकी हस्तलिपि से मिलती है....
पापा जी अपने स्वास्थ्य और कुछ ज्यादातर नौकरी के सिलसिले में घर से बाहर रहने के कारण कुछ नकारात्मक ( ऐसा तब हम सोचते थे ) से स्वभाव के हो गए थे.......किसी भी बात पर जल्दी नाराज हो जाना....या उनके मन का न होने पर चिढ जाना ..........हमें परेशान कर देता था........घर में जब भी किसी मुद्दे पर बहस होती थी.....तो घर के सारे लोग एक तरफ और पापा जी अक्सर अकेले पड़ जाते थे ........अब सोचती हूँ तो जी उमड़ आता है....क्यों हम इतने निष्ठुर हो जाते थे......अगर उनकी ही बात मान लेते तो क्या हो जाता ??.......आखिरकार बहस के बाद हमारी ही बात मानी जाती थी पर पापा जी को दुखी करने के बाद........कई कई दिनों तक वे किसी से बात नहीं करते थे ........अपमानित सा महसूस करते थे........ठीक से खाना नहीं खाते थे......अब उन दिनों को बीते भी कितने दिन हो चुके हैं.....जब हमारा बचपन पीछे छूटता जा रहा था और हम खुद को युवा समझने लगे थे.........जब अक्सर सिर्फ अपनी ही कही बात सही लगने लगती है.....
अब कभी कभी सोचती हूँ कि अगर वे हम सबसे....हर तरह की बात करते या हमारी तरह बेवजह खीं खीं करते ......तो शायद आज जितनी इज्जत या आदर हमारे मन में उनके लिए है वैसा न होता.....उनके लिए ....एक बहुत ही आदरणीय सी छवि मन में उभरती है......जो उन्हें कहीं से भी हल्का नहीं होने देती......हम कभी सोच भी नहीं सकते थे कि ...//उनके मुंह से कभी गाली जैसा कोई शब्द भी निकल सकता है.....या वे किसी को कोई अपशब्द भी कह सकते हैं.......गुस्से की चरम अवस्था होने पर भी मैंने कभी उन्हें ऊंचे स्वर में बोलते या धैर्य खोते नहीं देखा......सिर्फ उनके देखने या दांत पीसने से ही हम सब की हालत ख़राब हो जाती थी....या फिर उनका एक आध वाक्य ही हमें शर्मिंदा करने के लिए पर्याप्त था......
वैसे मैं भी यही मानती हूँ कि ज्यादातर घरों में मम्मी की बात न मानने या ज्यादा शैतानी करने पर पिता के नाम की ही धमकी दे कर बच्चों को काबू में किया जाता है............ शायद इसी लिए अपना रौब बनाये रखने के लिए पिता को सख्त होना ही पड़ता है.......माँ से बच्चे जितना हिले होते हैं.....या अपनी हर बात शेयर कर लेते हैं ....उतना पिता के साथ नहीं कर पाते एक अदृश्य सी दीवार बनी रहती है ......बच्चों और पिता के बीच ..... एक पिता को हमेशा गंभीरता और संयम की चादर ओढ़े रहनी पड़ती है........खुल कर हँसना तो बच्चे देखते हैं पर पिता को रोते हुए शायद ही बच्चे कभी देख पाते हों.......शायद यही कारण है कि बच्चे पिता को दुनिया का सबसे बहादुर आदमी समझते हैं.....पापा भी रोते हैं ....बहुत से बच्चे ये जानते तक नहीं.......पर हमारे पापा जी के साथ ऐसा नहीं था.......बहुत बार सिर्फ कहानी पढ़ते या टीवी देखते समय उन्हें बेहद भावुक होते हुए हमने देखा है........कितनी ही बार ऐसा हुआ है कि ... .मैं उन्हें कोई उपन्यास या कहानी सुना रही हूँ ......और वे बरबस ही छलछला आई आँखें पोंछने लगे हैं..... ...
मुझे इस बात का फख्र है कि मैंने एक बेहद ईमानदार , भले और सच्चे इंसान को अपने पिता के रूप में पाया , अगर हम उनके जैसा बनने की कोशिश भी करें, तो पता नहीं सफल हो सकेंगे या नहीं,,,,अगर १००% में से १० % भी उनकी बातों को ग्रहण कर सके तो ये हमारी खुश किस्मती ही होगी.......इतनी छोटी छोटी बातें जो एक साधारण व्यक्तित्व को महान बना सकती हैं......उनमे ही थीं......स्वार्थ से ऊपर उठ कर हमेशा दूसरों के लिए सोचने की प्रवृति बहुत कम लोगों में होती है, वो उनमे थी..... अपनी आय को ही मितव्ययिता से खर्च कर कार्य चलाना ही उनका ध्येय था...घर में सीमित साधन थे , पर उनके मनी मैनेजमेंट से हमें कभी किसी चीज की कमी नहीं रही...... और इस काम में मम्मी की भूमिका अग्रणी ही रही, उनके किफायती गृह सञ्चालन से ही पापा जी अपने उसूलों को जीवन में उतारने में सफल हुए....सही मायनो में मम्मी गृहलक्ष्मी ही थीं.....उनके हाथ कभी खाली नहीं रहे..........
अपने कार्य के प्रति बेहद सजग ईमानदार.. तथा जागरूक ...हर काम को नियम पूर्वक करने वाले....कहीं किसी काम को बेईमानी या नियम विरुध्ध करना पड़े यह तो बिलकुल ही मंजूर नहीं था उनको.....
मुझे याद आता है जब हम अपनी बिटिया का नाम एल .के . जी. में लिखवाने जा रहे थे , उस समय पास पड़ोस के लोगों की ही भांति ( जैसा कि अभी भी हम लोग बराबर देखते हैं, एक शिक्षिका होने के नाते बराबर ही साबका पड़ता है ऐसे लोगों से ....... जो बच्चो की उम्र साल दो साल घटा कर ही लिखवाते हैं, कोई कोई तो तीन या चार साल तक ) हमने भी सोचा एक साल उम्र कम करा कर ही लिखवा दें.....पर पापा जी ने जैसे ही ये सुना इस पर इतना नाराज़ हुए कि इस घटना पर आज भी शर्मिंदगी महसूस होती है.....उन्होंने कहा....अभी तुम लोग उसकी नई शुरुआत करने जा रहे हो .....जीवन का पहला कदम ...बिस्मिल्लाह कर रहे हो .....वो भी झूठ से ???? एक अध्यापिका हो के तुम्हारे मन में ये बात आई कैसे ??
और मुझे इतनी शर्म आई की आज भी ये सोच कर झेंप जाती हूँ......
पढाई का शौक़ मुझे पापा जी से ही मिला , हमेशा पढना , पढ़ते रहना , ,...उनके लिखे हुए पत्र, आज भी मेरे लिए धरोहर की तरह हैं.....वे पत्र लिखने में बहुत ज्यादा नियमित थे........हर पत्र का बिला नागा जवाब देना ....और सभी रिश्तेदारों से पत्र व्यवहार बनाये रखना..उन्हें पसंद था......उनका आखिरी पत्र मेरे पास बहुत संभाल कर रखा हुआ है.....जिसमे उन्होंने हमें नया साल सकुशल बीतने की शुभकामना दी थी...(.4 जनवरी २००८ का पत्र.)....... कहाँ बीता वो साल पापा जी सकुशल ???....
जब पतिदेव नई नई जगह पर नौकरी करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे और बार बार ......... यहाँ से वापस बनारस जाने के लिए परेशान थे.....उन्हें कितनी अच्छी तरह समझा कर पापा जी ने लम्बा पत्र लिखा था.....वो बेहद प्रेरणादायक है....बेहद सुन्दर हस्तलिपि , पत्र लिखने की शैली का कोई जवाब नहीं........काश मुझे भी ये गुण विरासत में मिलता ,........
अपने अंतिम क्षणों में भी आखिरी दिन तक वे मम्मी से पढवा कर गाँधी बनाम महात्मा पुस्तक सुन रहे थे...........उसे वे समाप्त नहीं कर सके......
मैं अपने लिए खरीदी गई सारी साहित्यिक किताबें .....पहले उनके लिए ही ले जाती थी...जब वे पढ़ लेते थे तभी...मैं पढ़ती थी.....और उसके बाद उन किताबो के बारे में....चर्चाएं की जाती थीं........एनशिएंट हिस्ट्री के छात्र होने के नाते उन्हें इतिहास का बहुत अच्छा ज्ञान था....
उनके जैसा सुदर्शन व्यक्तित्व कम ही देखने में आते हैं....जहाँ भी खड़े हो जाते थे अलग ही दिखाई देते थे.....मेरी स्मृति में उनका २८- ३० वर्ष वाला , चेहरा आज भी उसी तरह शामिल है..बेहद गौर वर्ण , लग भग ६ फीट ऊंचा कद , संतुलित शरीर , और नीली हरी आँखे .....काश हम भाई बहनों को उन जैसा कुछ भी मिल जाता ......तो हम भी खूबसूरत कहलाते.........मेरे नाना जी को पापा जी पर बहुत गर्व था......वे कहते थे...दामाद तो हमारे आये थे.....देखने लायक.....माड़ो (मंडप ) में उजाला हो गया था.......उनके आने से........
ट्रेन में चढ़ने के लिए ट्रेन टाइम से कम से कम एक घंटा पहले स्टेशन पहुंचना जरूरी है ऐसा उनका मानना था,...अब ये सोचती हूँ तो लगता है की वे कितना सही सोचते थे.....सामान लेकर प्लेटफोर्म पर परिवार के साथ दौड़ भाग करना,.... किसी तरह टीटी से एडजस्ट कर लेने की रिक्वेस्ट करना उन्हें सख्त ना पसंद था......अब ये सोच कर ही कष्ट होता है कि जब भी उनकी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया हमने ........तो कई बार कितनी बुरी परिस्थिति में फंसे हैं हम लोग .....और हर बार यही सोचा है कि पापा जी कितना सही कहते थे......
किसी भी कठिन परिस्थिति में या कोई बड़ा निर्णय लेते समय पापा जी बहुत याद आते हैं.......अब कोई नहीं है जो हमें चेता सके या बता सके कि हर बात के दो पहलू होते हैं.....उस समय जब भी हमारे और उनके विचारों में टकराव होता था तो सबसे बड़ी बात यही होती थी .....कि हम उस बात को सकारात्मक ले रहे होते थे और वो नकारात्मक ....और कुछ ही समय बाद हमें उनकी बात भी सही लगने लगती थी....और होने वाले नुक्सान से बचा देती थी........उनकी कई बातो को हमेशा नकारात्मक सोचने वाली प्रवृति कई बार हमें चिढ़ा भी देती थी.....पर आज ये बात कई मायनो में सही मालूम होती है..........
सन २००८ की २० फरवरी (जो संयोग से मेरे बेटे का जन्मदिन भी है ) इतनी तकलीफ देकर जाएगी इसका कोई अंदाजा नहीं था हमें.....एक हफ्ते पहले ही तो हम उनसे मिल कर आये थे......
वो २० फरवरी जाते जाते कितना कुछ हमसे छीन ले गई..... उस दिन भी मेरे बेटे का जन्मदिन था...पता नहीं क्यों उसने उस दिन सुबह से ही कोई जश्न नहीं मनाने का एलान कर दिया था..पर अचानक शाम को ४ बजे दोस्तों के फोन आने पर उसका मन हो आया कि मम्मी एक छोटा सा ही फंक्शन कर लेते हैं क्यों कि २००९ में बोर्ड एग्जाम होने की वजह से कोई दोस्त नहीं आ पायेगा ........कोई एन्जॉय नहीं कर पायेगा.....इस लिए शाम ५ बजे क्लब से सिर्फ छोले भठूरे, केक और कोल्ड ड्रिंक की व्यवस्था की गई........रात मे उस के सभी १० - १५ दोस्त इकठ्ठे हुए ........खूब धूम धड़ाका, गाना बजाना , डांस करते हुए....रात के १० बज गए ,,,,मालूम नहीं किस अन्तः प्रेरणा से मुझे इन सबमे शामिल होने कि जरा भी इच्छा नहीं हुई......मैं पूरा समय एक अधूरी पेंटिंग को पूरा करने में लगी रही.........
अचानक १०.३० बजे बनारस से पंडित क्षमानंद का फोन आया कि....दीदी मौसा जी कि तबियत बिलकुल ठीक नहीं है....देखना हो तो आ जाइये....फिर पप्पू के एक दोस्त का फोन पतिदेव के पास आया कि जीजा जी बनारस के लिए निकल लीजिये ............अगर पापा जी को देखना हो तो....उनके पास ज्यादा समय नहीं है......दूसरी तरफ से आती वो आवाज सर में हथौड़े की तरह लगी थी.....पापा जी नहीं रहे ....अभी एक ही हफ्ते पहले उन्हें ठीक ठाक छोड़ कर हम लोग बनारस से लौटे थे...
३ दिन पहले उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया था ...अस्पताल में उनका आनाजाना बराबर ही लगा रहता था...इस बार तकलीफ कुछ ज्यादा होने पर उन्हें दिल्ली ले जाने की बात थी.....प्रणव मुखर्जी (वर्तमान राष्ट्रपति, पापा जी उन्हें इस पद पर पंहुचा नहीं देख सके , ,कितनी ख़ुशी की बात होती उनके लिए ) का भी दो बार फोन आ चुका था कि उपाध्याय तुम दिल्ली आ जाओ .......यहाँ एम्स में दिखाते हैं...पर पापा जी ने किसी को कोई मौका ही नहीं दिया .......बस चल दिए सबको छोड़ कर ....
समाचार सुनते ही जैसे कानो में सायं सायं होने लगी थी,,,,,ना कुछ दिखाई दे रहा था ना सुनाई ...... जैसे तैसे दो चार कपडे बैग में ठूंसे और ड्राइवर की व्यवस्था कर अपनी ही गाडी से जाने का प्लान कर लिया ......उस समय तक ना मैंने कुछ खाया था ना पतिदेव ने.....पर कुछ भी नहीं सुहा रहा था......भयानक ठण्ड और बेहद घने कोहरे के बावजूद करीब ६ घंटे का सफ़र तय कर के हम सब बनारस पहुंचे ......ये समझ नहीं आरहा था कि मम्मी का सामना कैसे करूंगी ???रास्ता कैसे कटा कुछ मालूम नहीं....बस यही याद आता है कि किसी तरह सुबह ६ बजे हम बनारस पहुंच ही गए........मैं कुछ कह नहीं सकती , जब गाडी दरवाजे पर जाकर रुकी , उस समय मेरी क्या हालत थी,,,,दिमाग सुन्न और पैर मन मन भर के हो रहे थे.......कार से उतर कर गेट में घुसने की हिम्मत नहीं हो रही थी......बाहर बरामदे में ही अगर बत्ती की गंध फैली हुई थी.....और सामने वही वजूद खामोश पड़ा था ,जिसने कभी हमें ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया था,,,,गोद में ले कर प्यार किया था.....वही स्नेहमयी हरी आँखें ........... जिनमे हर वक़्त हम सबके लिए चिंता और प्यार नजर आता था ..आज सख्ती से बंद थीं.......लाख कहने पर भी..... एक बार भी खोल कर नहीं देखा उन्होंने .......
अपने ऊपर तरस आता है कि...... हम होनी के समक्ष कितने लाचार हैं................सब कुछ करने और पा सकने का दंभ भरने वाले हम......विवश खड़े रह जाते हैं.......ये मानना ही पड़ता है....कि जिंदगी एक सफ़र है.....जहाँ लोग, वस्तुएं , और स्थान मिलते हैं....कुछ दूर तक साथ चलते हैं.....एक दिन बिछड़ जाते हैं .......और फिर कभी नहीं मिलते .........
कभी कभी बड़ा एकाकीपन लगता है....बस स्मृतियों के गलियारे में मन भटकता फिरता है.....बहुत विश्वास है पापा जी हम फिर मिलेंगे ,,,,,आपका प्यार हमेशा हमारे साथ है.......