जीवन के कुछ अनकहे ,
कटु अनुभवों के बाद ,
और उम्र की आधी सदी बीतने के बाद ,
आज इस निष्कर्ष पर पंहुच सकी हूँ , कि
क्या कभी हमने ऐसा सोचा था ???
बचपन में पढ़ी हुई ,
रेखा गणित की पुस्तक का
एक बेहद साधारण सा सिद्धांत ,
हम सबके जीवन की एक नियति बन जाता है ,
दो साथ साथ चलती
सामानांतर रेखाएं
चाहे कितनी ही दूर तक साथ साथ क्यूँ न चलें....
(उम्र का एक लम्बा पड़ाव पार करने के बाद भी .. )
भले ही परिपेक्ष्य दृष्टि से देखने पर ,
वो दूर जाकर एक होती क्यूँ न दिखें .....
यह एक कटु सत्य है कि
आपस में वे कभी मिलती नहीं हैं........
आज इस पड़ाव पर पँहुच कर और
ये सोच कर कितना कष्ट होता है ,
कि बचपन से इस उम्र तक चलती
सारी सामानांतर रेखाएं....
आखिर आपस में मिलती क्यूँ नहीं हैं ??.....
उन सभी रेखाओं का अंत ...
एक अनजान लक्ष्य पर जाकर ही क्यूँ ख़त्म हो जाता है ?......
और इस बात के स्मरण मात्र से ही
दिल टूक टूक..........खंड खंड हो जाता है कि
माँ बाप के आँखें मूंदते ही
एक साथ चलते चलते अचानक
हमारे
रास्ते
एक न हो कर कब और कैसे
सामानांतर हो जाते हैं....??
कभी न मिलने के लिए ????
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