वैसे मुझे बार बार पीछे मुड़ कर देखना ज्यादा पसंद नहीं लेकिन अपनी जड़ों को याद रखने के लिए पीछे जरूर देखना पड़ता है और ये जरूरी भी है .......इसलिए बार बार पीछे देखती हूँ .....
पिछली दीवाली में बनारस जाना हुआ.....वही घर जहाँ मैंने २३ साल बिताए हैं......कितनी यादें जुडी हैं वहां से......वो घर वो कमरे वही ऊपर दीवार पर लगी हुई बाबाजी और दादी जी की तस्वीरें....जिनपर कभी बहुत शौक़ से हमने चन्दन की छिलकों वाली मालाएं चढ़ाई थीं......एक कमरे में इंदिरा जी के साथ खड़े हुए हैं पापा जी....(ये चित्र हमें एक समय में अपने दोस्तों के सामने बहुत गर्व से भर देता था..)मुझे लगता है आज के कुछ नेताओं के साथ अगर गलती से भी हमारे चित्र खिंच जायें..तो कम से कम मैं तो अपने बारे में यही कह सकती हूँ....की मैं वो चित्र छुपा कर रख दूँगी....की कल को ऐसी कोई बात हुई....तो कम से कम ये तो नहीं कहा जा सकेगा की मैं भी किसी घोटाले में अमुक नेता के साथ शामिल हूँगी......खैर....
मेरे बनाये कुए कुछ चित्र आज भी वैसे ही लगे हुए हैं.....घर का निचला हिस्सा किराए पर देते हुए भी मुझे याद है मम्मी ने वे चित्र हटाने नहीं दिए थे.....वो सब सजावट वैसे ही थी......और आज इतने साल बीत जाने पर भी सब कुछ वैसा ही है......लगता है जैसे वक़्त इस घर में आकर रुक गया है.......जिन्होंने एक एक ईंट जोड़ी थी इस घर के लिए...वो लोग तो अब नहीं है.....पर हर समय हर क्षण मुझे यही लगता रहता है की अभी मम्मी या पापा जी आवाज देंगे......डाइनिंग टेबल की वो खास कुर्सी जिस पर पापा जी बैठा करते थे....और थोडा तिरछे होकर बैठते थे.......मम्मी के बनाये हुए कम से कम ५ या ६ तरह के अचार और चटनी......हमेशा टेबल पर मिलते थे......( पिंकी ने ये सिस्टम बरकरार रखा है अभी तक..)...
अब बनारस जाना बहुत कम ही हो पाता है.....कुछ अपनी व्यस्तता और कुछ आलस ...लगभग एक या दो बार ही.... साल भर में....पर जब भी जाती हूँ कभी ऐसा नहीं महसूस होता की बहुत दिन के बाद आई हूँ पता नहीं ऐसा क्यों है...... बस अब यही बदलाव आया है की अब जाने पर मम्मी और पापा जी नहीं मिलते.........और ये ऐसा बदलाव है की .......सोचने से ही मन उदास हो जाता है...... घंटो घंटो कितने ही अलग अलग टॉपिक्स पर पापा जी से बातें करना ......मेरा और मेरे पतिदेव का शौक़ रहा है......स्टेशन से कई कई बढ़िया साहित्यिक किताबें खरीद कर हम लेजाते थे पापा जी के लिए....और जब वो पढ़ लेते थे...तब अगली बार जाने पर वापस ले आते थे और फिर मैं पढ़ती थी......मुझे याद है अपनी अंतिम अस्पताल यात्रा में पापा जी गाँधी बनाम महात्मा पढ़ रहे थे.......काफी तबियत ख़राब होने की वजह से वो खुद नहीं पढ़ पा रहे थे तो उन्होंने मम्मी को पढने के लिए कहा हुआ था....और वो सुन रहे थे........लेकिन वो पूरी नहीं हो पाई..........जिस पृष्ट पर उन्होंने बुकमार्क लगा कर छोड़ दिया था..........वो पृष्ठ मैंने आज भी वैसे ही रख छोड़ा है...........बुक मार्क लगा हुआ............वो किताब मेरे लिए एक बहुत प्यारी चीज हो गई है........
मेरे लिए ये बहुत ही कचोटने वाली बात है और शायद मैं अब जीवन भर इस बात के लिए शर्मिंदा रहूंगी की......मैंने आखिरी बार पापा जी से मिलते वक़्त उन्हें बहुत कम समय दिया...... सिर्फ ३ दिन के लिए हम लोग बनारस गए थे.. और उनमे भी परिस्थितियों वश २ दिन दूसरे दूसरे कामो में व्यस्त रहे......... जब हम लोग वापस मनकापुर आये तो हमारे पीछे पापा जी ने मम्मी से ये बात कही थी......की पता नहीं क्यों....गुडिया ने मुझे जरा भी समय नहीं दिया......तिवारी जी भी बहुत व्यस्त दिखे......अब शायद पापा जी की जरूरत नहीं लगती.......किसी को........
पिछली दीवाली में बनारस जाना हुआ.....वही घर जहाँ मैंने २३ साल बिताए हैं......कितनी यादें जुडी हैं वहां से......वो घर वो कमरे वही ऊपर दीवार पर लगी हुई बाबाजी और दादी जी की तस्वीरें....जिनपर कभी बहुत शौक़ से हमने चन्दन की छिलकों वाली मालाएं चढ़ाई थीं......एक कमरे में इंदिरा जी के साथ खड़े हुए हैं पापा जी....(ये चित्र हमें एक समय में अपने दोस्तों के सामने बहुत गर्व से भर देता था..)मुझे लगता है आज के कुछ नेताओं के साथ अगर गलती से भी हमारे चित्र खिंच जायें..तो कम से कम मैं तो अपने बारे में यही कह सकती हूँ....की मैं वो चित्र छुपा कर रख दूँगी....की कल को ऐसी कोई बात हुई....तो कम से कम ये तो नहीं कहा जा सकेगा की मैं भी किसी घोटाले में अमुक नेता के साथ शामिल हूँगी......खैर....
मेरे बनाये कुए कुछ चित्र आज भी वैसे ही लगे हुए हैं.....घर का निचला हिस्सा किराए पर देते हुए भी मुझे याद है मम्मी ने वे चित्र हटाने नहीं दिए थे.....वो सब सजावट वैसे ही थी......और आज इतने साल बीत जाने पर भी सब कुछ वैसा ही है......लगता है जैसे वक़्त इस घर में आकर रुक गया है.......जिन्होंने एक एक ईंट जोड़ी थी इस घर के लिए...वो लोग तो अब नहीं है.....पर हर समय हर क्षण मुझे यही लगता रहता है की अभी मम्मी या पापा जी आवाज देंगे......डाइनिंग टेबल की वो खास कुर्सी जिस पर पापा जी बैठा करते थे....और थोडा तिरछे होकर बैठते थे.......मम्मी के बनाये हुए कम से कम ५ या ६ तरह के अचार और चटनी......हमेशा टेबल पर मिलते थे......( पिंकी ने ये सिस्टम बरकरार रखा है अभी तक..)...
अब बनारस जाना बहुत कम ही हो पाता है.....कुछ अपनी व्यस्तता और कुछ आलस ...लगभग एक या दो बार ही.... साल भर में....पर जब भी जाती हूँ कभी ऐसा नहीं महसूस होता की बहुत दिन के बाद आई हूँ पता नहीं ऐसा क्यों है...... बस अब यही बदलाव आया है की अब जाने पर मम्मी और पापा जी नहीं मिलते.........और ये ऐसा बदलाव है की .......सोचने से ही मन उदास हो जाता है...... घंटो घंटो कितने ही अलग अलग टॉपिक्स पर पापा जी से बातें करना ......मेरा और मेरे पतिदेव का शौक़ रहा है......स्टेशन से कई कई बढ़िया साहित्यिक किताबें खरीद कर हम लेजाते थे पापा जी के लिए....और जब वो पढ़ लेते थे...तब अगली बार जाने पर वापस ले आते थे और फिर मैं पढ़ती थी......मुझे याद है अपनी अंतिम अस्पताल यात्रा में पापा जी गाँधी बनाम महात्मा पढ़ रहे थे.......काफी तबियत ख़राब होने की वजह से वो खुद नहीं पढ़ पा रहे थे तो उन्होंने मम्मी को पढने के लिए कहा हुआ था....और वो सुन रहे थे........लेकिन वो पूरी नहीं हो पाई..........जिस पृष्ट पर उन्होंने बुकमार्क लगा कर छोड़ दिया था..........वो पृष्ठ मैंने आज भी वैसे ही रख छोड़ा है...........बुक मार्क लगा हुआ............वो किताब मेरे लिए एक बहुत प्यारी चीज हो गई है........
मेरे लिए ये बहुत ही कचोटने वाली बात है और शायद मैं अब जीवन भर इस बात के लिए शर्मिंदा रहूंगी की......मैंने आखिरी बार पापा जी से मिलते वक़्त उन्हें बहुत कम समय दिया...... सिर्फ ३ दिन के लिए हम लोग बनारस गए थे.. और उनमे भी परिस्थितियों वश २ दिन दूसरे दूसरे कामो में व्यस्त रहे......... जब हम लोग वापस मनकापुर आये तो हमारे पीछे पापा जी ने मम्मी से ये बात कही थी......की पता नहीं क्यों....गुडिया ने मुझे जरा भी समय नहीं दिया......तिवारी जी भी बहुत व्यस्त दिखे......अब शायद पापा जी की जरूरत नहीं लगती.......किसी को........
हम ही कहाँ जानते थे की अब कभी पापा जी से मिलना नहीं होगा ......मुझे बहुत तकलीफ होती है सोच सोच कर.....हमारे आने के सिर्फ एक हफ्ते बाद ही पापा जी चले गए..........कभी वापस न आने के लिए .......
अब लगता है की इंसान अन्दर से कितना खुदगर्ज़ सा होता है......भले ही ये खुद गरजी जान के न की गई हो.......पर बाद में सिवा हाथ मलने के कोई चारा नहीं रह जाता.........कभी कभी हमारी ज़िन्दगी में ऐसा कुछ घट जाता है की सब कुछ बदल जाता है......ज़िन्दगी फिर वैसी ही नहीं रह जाती......ऐसे में फिर हमें नए सिरे से सोचना पड़ता है.......
एक समय के बाद सभी के साथ ऐसा होता है की माता पिता हमें सँभालने वाले नहीं रहते....अब वे हमारी ज़िम्मेदारी बन जाते हैं....हर बार बनारस जाने के बाद ....ये तो महसूस होने लगा था......या यूं कहूं कहीं पूरा अहसास होने लगा था....अब पेड़ के हरे पत्ते पीले से होने लगे हैं......इन परिस्थितयों में उन लोगो को खो देने का अहसास हिला देने वाला तो नहीं था......पर यक़ीनन कहीं ऐसा कुछ खो रहा था जो फिर कभी नहीं मिल सकता था......अब हम सब ऐसी उम्र में पहुच चुके हैं...जहाँ ये सभी के साथ होना एक सच है...पर मन कभी यकीं नहीं करना चाहता .......जब तक माता पिता जिंदा रहते हैं.....तब तक हमारा बचपन भी जिंदा रहता है......पर उनके जाने के बाद अचानक ये बचपन कहीं खो जाता है.............एक दम से ..........प्रौढ़ता आजाती है......जिम्मेदारियों का अहसास होने लगता है.....
मुझे याद आता है की अभी थोड़े दिनों पहले तक जब भी मैं बनारस जाती थी.....बात ....व्यवहार में.....दूकान पर मम्मी के साथ खरीदारी करते समय ............मुझे अपने इतने बड़े होने का अहसास ही नहीं रहता था......सारा फासला मिट गया सा लगता था....लगता था मम्मी मैं और मेरी बिटिया तीनो दोस्तों जैसे ही हैं............हर बात पर खुल के बात कर लेना.....मजाक कर लेना .....टी वी देखते समय हर तरह की बातें करना.......पापा जी के साथी मित्रो के आने पर फुर्ती से दौड़ दौड़ कर काम करना लगता ही नहीं था की मैं भी किशोर वय के दो बच्चो की माँ हूँ......
पर अब ऐसा नहीं है........ लगता है एक दम से बड़ी हो गई हूँ ....एक उम्रदराज़ होने का आभास होता है.....
मुझे याद आता है की अभी थोड़े दिनों पहले तक जब भी मैं बनारस जाती थी.....बात ....व्यवहार में.....दूकान पर मम्मी के साथ खरीदारी करते समय ............मुझे अपने इतने बड़े होने का अहसास ही नहीं रहता था......सारा फासला मिट गया सा लगता था....लगता था मम्मी मैं और मेरी बिटिया तीनो दोस्तों जैसे ही हैं............हर बात पर खुल के बात कर लेना.....मजाक कर लेना .....टी वी देखते समय हर तरह की बातें करना.......पापा जी के साथी मित्रो के आने पर फुर्ती से दौड़ दौड़ कर काम करना लगता ही नहीं था की मैं भी किशोर वय के दो बच्चो की माँ हूँ......
पर अब ऐसा नहीं है........ लगता है एक दम से बड़ी हो गई हूँ ....एक उम्रदराज़ होने का आभास होता है.....
बस यही सोचती हूँ.....की माता पिता आजीवन तो बच्चो के लिए दुआए करते ही हैं........पर उनके जाने के बाद भी कई बार ऐसा महसूस होता की............. लगता है की कोई अदृश्य हाथ हमारा हाथ पकड़ के सही रास्ता दिखा रहा है...................उनके जाने के बाद भी उनकी बेशुमार दुआओं का सिलसिला ख़त्म नहीं होता............यही विश्वास है की हमेशा ये सिलसिला बरकरार रहे..... ....न हम कभी उन्हें भूलें..........न वो कभी हमें भूलें.....
bahot acha mammy.. nani nana hume chhod k nahi gaye kabhi b.. mujhe to abhi b vishvas nai hoga..
ReplyDeletetum bilkul udaas mat hua karo.. hum log hai na.. tumhare bachce tumhare saath.. akele mat mahsus kiya karo..
mujhe b nani ki bahot yaad ati hai.. banaras fone pe baat karne ka mann karta hai, fir yaad karti hu.. ki ab to hai hi nahi.. :((
mammy.. aaj Mother's Day hai.. tumko aur nani ko, meri taraf se khub saarii wishes..
love u both.. muuaahhhhh.. :))
Betu
itz really amazing auntie :) Every sentence has its own depth and feeling. Jo hamare pass hai wo hamein kaise bhul sakta hai...nana nani ji hamesha hamre pas hain hamare upar unka ashirwad hai...ye rishte sirf nashwar hain,jise koi physical identity ki jarurat nahi hai...ye to hamare man me kisi kone me apni jagah bana kar rakhte hain jise ham bhi mita nahi sakte :)
ReplyDeleteitsss amazingggg.. i like ur comment rohit..
ReplyDeleteyesssssssss its true beta...
ReplyDeleteआपने सामान्य से शब्दों में जो शब्द चित्र बनाया है, वह बेहद भावपूर्ण है, बधाई
ReplyDeleteTouched ....bahut hi sundar bav Jo har kisi ke andar samaye hotey hai...aaaah..koi lota de mere bitey Huey din
ReplyDeleteTouched ....bahut hi sundar bav Jo har kisi ke andar samaye hotey hai...aaaah..koi lota de mere bitey Huey din
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