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Monday, September 15, 2014

                 
       बनारस की   मिठाई         


            
              बनारस के रहने वाले सभी मिष्ठान पसंद  शौक़ीन लोगो को मेरा ये छोटा सा लेख समर्पित है.....जो मेरी तरह बनारस से दूर है....वो इस दर्द को समझ सकता है....की बढ़िया ताज़ा मिठाई बहुत दिन तक न मिले तो क्या दशा होती है.....अब तो मिलावट और दुनिया भर के झंझटों से बचने के लिए कुछ ख़ास ब्रांड की डिब्बा बंद सोनपापड़ी  खा खा के मन ऊब गया है........उस पर भी उसकी  मैन्युफैक्चरिंग और  एक्सपायरी डेट देख कर जी घबराया रहता है....
मुद्दतें हो गयी...गरमागरम गुलाबजामुन ..या ताजे छेने का ठन्डे ठन्डे बंगाली रसगुल्ले खाए हुए..... क्षीर सागर की रसमलाई , जलजोग की मिष्टी दोई , बेनीराम देवीप्रसाद (जौनपुर) की बेहद नरम मुलायम इमरती .....कचौड़ी गली की स्वादिष्ट कचौड़ी सब्जी और जलेबा का नाश्ता ......घर पर कितना भी बना लो पर वो स्वाद नहीं आता .....
.बनारस के सिवा  और जगहों पर तो ये देखा है..कि लोग जलेबी...जलेबा,या इमरती में फर्क ही नहीं कर पाते.....वैसे .एक ही  परिवार के सदस्य होने के नाते इनमे फ़र्क़ करना भी मुश्किल है   पर हर बनारसी जानता है कि जलेबी और जलेबा में क्या अंतर है ....बनारस जैसी बढ़िया स्वस्थ चाशनी से भरी जलेबियाँ....और कहाँ और जगहों की दुबली पतली रसविहीन एनिमिक जलेबियाँ....नारंगी रंग की खिसखिस करती सूखी इमरतियाँ....जिन्हे देखने से भर से ही अरुचि हो जाये.....
.जलेबी किसी को कुरकुरी पसंद है किसी को मुलायम......किसी को गरमागरम ...तो किसी को दूध के साथ....पर जलेबा जो जलेबी का बड़ा भाई है..वो साइज में कम से कम १०० ग्राम जलेबी के बराबर सिर्फ एक ही होता है..और वो रबड़ी के साथ ज्यादा पसंद किया जाता है........बसंत बहार की रसमलाई ,सत्यनारायण मिष्ठान्न भण्डार का राज भोग....कितने नाम गिनाये जाएं....बनारस की बहुत याद आती है.....
.मेरे मोहल्ले की बहुत प्रसिद्द दुकान 'मधुर मिलन' के लाल पेड़े...और लवंगलता  बहुत मशहूर हैं.......पर मुझे लगता है....बनारस में जितनी भी मिठाइयां बनती हैं सब बेहद स्वादिष्ट होने के साथ साथ....बेहद खूबसूरत भी है.....सिर्फ एक लवंग लता को छोड़ के.....वैसी भद्दी और बदसूरत मिठाई..और कहीं नहीं मिलती....नाम सुन कर लगता है कोई नाज़ुक सी लवंग लतिका जैसी छूने भर से लचक जाने वाली चीज होगी..पर देखो तो ऐसा लगता है जैसे सुंदरियों से भरी सभा में कोई अखाड़े से  आया हुआ पहलवान खड़ा हो गया हो....
.या सुन्दर सुन्दर वी आई पी सूट्केसों के बीच एक भद्दा सा होल्डाल लपेट कर रख दिया गया हो......उसकी भी एक विशेषता है की इसे गर्मागर्म ही खाया जाये तो अधिक स्वादिष्ट लगता है .....ये ऐसी मिठाई नहीं जो पैक करा के  कहीं ले जाई जा सके या कई दिनों तक रखी जा सके.......इसका आनंद वही बता सकता है जिसने इसे खाया हो.....
और  झन्नाटू  साव  की  दूकान  में  रोज शाम को लवंग लता खाने वालों की भीड़ जमा रहती है......बनारस में सबसे ज्यादा खाई जाने वाली मिठाई यही है....सिर्फ एक लवंग लता खा लो तो फिर और कुछ मीठा खाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती......
सिर्फ एक यही मिठाई है जो अमीर गरीब का फ़र्क़ नहीं रखती....सब जी भर के  खाते   हैं...पर ये इतनी बड़ी और इतनी मीठी होती है कि ज्यादा केलोरी कॉन्शस लोग इसे पचा नहीं सकते...पर मुझे तो ये बहुत पसंद है.....और साल छ महीने में जब भी मेरा बनारस जाना होता है......झन्नाटू साव का लवंगलता और समोसा खाए बिना वापस नहीं आती......

Sunday, September 14, 2014

एक याद

               




              कई साल पुरानी एक घटना याद आरही है..शायद २००० या २००१ की ...लखनऊ से .गोरखपुर ..आने वाली रेलगाड़ियों के यात्रियों   के बारे में .कुछ फेसबुक मित्रों की प्रतिक्रिया पढ़ी  ....हम  लोग  बराबर  उसी   लाइन  से आने जाने  वाले  हैं...लखनऊ  से मनकापुर  करीब  तीन  से चार  घंटों  का  सफर  है.....पर  ये हिंदी  का  सुहाना सफर  नहीं  अंग्रेजी  का  सफर  ज्यादा है.....ज्यादा तर  लगभग  75% ग्रामीण  यात्रियों  से भरी  हुई ....पूर्वांचल  या बिहार  के यात्री .....सर्दियों के मौसम की वो चार घंटे की यात्रा तो जैसे तैसे काट ली  जाती है...पर भयंकर गर्मी के मौसम में वो समय बिता पाना ....उफ्फ्फ वो एक भुक्त भोगी ही बता सकता है........तो किस्सा  कोताह ये है....कि उस साल की भयंकर गर्मी में हम सब लखनऊ से वापस मनकापुर लौट रहे थे.... ..अब चार घंटे के सफर के लिए कोई रिजर्वेशन तो कराता नहीं....बस जहाँ तहाँ  सब बैठ जाते हैं....ऐसे ही हम सब भी चढ़ लिए.......चिपचिपी  बदबूदार गर्मी ....उसमे ऊपर की बर्थ पर बैठे एक सज्जन......अपना एक रुमाल सीट पर बिछा कर नीचे उतरे..और प्लेटफॉर्म पर जा कर दो तीन बड़े बड़े लिफाफों में आम और केले लेकर वहीँ टहलने लगे ...शायद इस इंतज़ार में की ट्रेन जब चलने ही वाली हो तो चढ़ जाएँ........और जब ट्रेन चली तो लपक कर चढ़ लिए......किसी तरह मुश्किल से अंदर जब अपनी सीट तक पंहुचे  तो उन्होंने पाया कि....कोई उनकी जगह  बैठ चुका है.......बड़े ही चिढ़े हुए अंदाज में उनका गुस्सा देखने लायक था.....बार बार उनका  कहना याद आता है ..यहां दस्ती रहल ह ..हम दस्ती ध के गइल रहलीं ह...(दस्ती बिहार में रुमाल को कहा जाता है ).मतलब यहाँ हम रुमाल रख के गए थे....वो क्या हुआ ???........अगल बगल के सब लोग उनकी तरफ आकृष्ट हो गए.....उसी में से किसी ने चुटकी  लेते हुए कहा.......अरे दस्तिये नु रहल ह.....के कवनो सीव जी के धनुख रहल ह ..के राम जी अईहें   त   उठैइहैं  (अरे रुमाल ही तो था न कि कोई शिव जी का धनुष था कि राम जी आएंगे तो वही उठाएंगे ??)....उनका इतना कहना था कि आसपास जो हंसी का फौहारा छूटा  कि आज भी याद करने पर बरबस हंसी आ ही जाती है.....और जिस किसी को भी ये घटना बताते हैं सब हँसते हँसते लोट पोट हो जाते हैं.......क्या हाजिर जवाबी थी.....