लिखिए अपनी भाषा में

Saturday, August 13, 2011

                







 हम  और  हमारी  तन्हाई 
                


               जिंदगी और  परिस्थितियों ने  हमें परिवार से अलग कर दिया है और ..........अकेला रहना सिखा दिया  है .........कितनी बार ऐसा लगता   है कि आस पास सारा माहौल भरा हुआ होने पर भी......सन्नाटा सा महसूस  होता है....धीरे धीरे ऐसा  लगने लगा है  ......... ये  अकेलापन  इंसान पर इस कदर हावी होता जा रहा है .........कि उसे ख़तम कर के ही दम लेगा.......

                     इतने वर्षो में कितना कुछ बदल गया है.......रिश्तो का  दायरा सिमटता   चला जा रहा है....इतना तंग  हो गया है  कि      रिश्तों  के अर्थ ही खोते जा रहे हैं.....न कोई किसी के घर जाना पसंद करता है....न अपने घर किसी का आना.......अकेले  रहने की .....सबकी ऐसी आदत पड़ती जा रही है कि किसी का आना या रहना भी एक दखलंदाजी सी लगती है........उम्र के इस पड़ाव पर  आने के बाद    .....मुझे  ये अक्सर महसूस होता है कि सालों तक सबसे कटी हुई जिंदगी जीने के बाद .............अब एक ऐसे अकेलेपन  के आदी  हो चुके हैं हम  सब ...........कि  सभी छूट चुके हैं .....हमसे .....
               जिनसे हम जुडे हुए थे .....वे एक एक कर जा चुके हैं......और जो हमसे जुडे थे.....उनकी  अपनी एक दुनिया  बन गई है.....जिसमे  हमारी अब शायद ......कोई जगह ........नहीं है.....फिर दूरियां भी इतनी हैं.....कि जल्दी जल्दी  मुलाकातें संभव     नहीं.....अब सोचती  हूँ कि यदि मैं काम काजी  न होती  तो वक़्त काटना कितना मुश्किल होता..............
          दूरियां .......दिलों   की  दूरियां  भी  बढ़ा  देती  हैं ......अपने  पेरेंट्स    से  हम  आज   भी इतना   इसीलिए  जुडे  हुए   हैं .....कि हम हमेशा  उनके  साथ  रहे ...हर  अच्छाई    हर बुराई  में ...... सुख  दुःख  में ....... एक  साथ ....कभी    उनके लिए मन   में दुराव   की भावना  आई  ही  नहीं  ..........कभी लगा  ही  नहीं कि.....  वे     हमारे      लिए     कुछ     गलत        भी    सोच       सकते    हैं....आज भी .....सिर्फ   उनका      नाम     भर      ही आँखों     में आंसू    ला    देने     के   लिए काफी   है .....अब   ये  लगता    है  कि ....हम कितना   अंतर्मन   तक     जुडे हुए थे   उनसे   ...सिर्फ   एक तेज़   आवाज  ....या   आँखों  का  इशारा  ही काफी था  ......... हमारी    गलती   हमें  बताने   के   लिए...और  वो  गलती  दुबारा  दोहराने   कि नौबत  ही नहीं आती  थी  कभी.....
                  शायद ........दूसरो   से ज्यादा अपेक्षा   रखने का यही  नतीजा   होता है....कि..... थोडा   सा भी .......नकारात्मक     प्रत्युत्तर  मिलने    से ........मन विचलित  हो  उठता  है........टीवी  या इन्टरनेट  ..........हमारा    अकेलापन नहीं बाँट  सकते .....हमारी समस्याएं  नहीं सुन  सकते......सुनते   भी हैं तो किसी हद तक ही.....पर इसके  बाद ???..........वही सूना  पन  भर जाता  है.....अन्दर .........उबा  देने वाला सूनापन ............            
                               एक उम्र के बाद यही लगता है  .......कि शायद कोई नहीं चाहता   हमें...........किसी के  पास हमारे लिए ..वक़्त नहीं..........और कोई भी हमारे लिए नहीं....किसी को हमारी  जरूरत   नहीं........पर सच तो यही है कि ........कोई किसी के लिए नहीं........हमें अपने लिए ...........एक जिंदगी खुद बनानी   होती है.......अकेलेपन   को    खुद      हमने ही न्योता  दिया  है.............इच्छाएं और अभिलाषाएं  इंसान को बहुत कुछ करने पर मजबूर करती हैं...पर  इन्हें पूरी करने में ....हम  जो  कुछ गंवाते  चले जाते   हैं  ......वो फिर कभी नहीं मिलता ..............मिलता.है ....तो सिर्फ सूनापन और............अकेलापन ............अकेलेपन में हम किसी से जुड़    नहीं पाते कटते  ही चले  जाते हैं....
                 इस  भागम  भाग  भरी  जिंदगी  में ........हमें   अपने लिए भी कुछ लम्हों और एक कोने  की तलाश  रहती   है.... ...... और   अगर   हम कोई लम्हा   कोई कोना   नहीं   निकल   पाते .... तो ये खीझ  अक्सर खुद  पर ही निकलती  है.....बार  बार   ये महसूस होता है .......सब  हमें भूलते   जा रहे हैं......पर सच   तो ये हैं कि ...कोई किसी   को नहीं भूलता ....सिर्फ  व्यस्तता  की वजह     से  दूरियां बनती  जाती      हैं....पर .........जब यह  दूरी  हद  से ज्यादा  बढ़  जाती  है............समस्या  वहीँ   से शुरू  होती    है......समय के साथ   साथ एक ठहराव    सा   आ   जाता        है.....वही  शायद    कहीं     एक कड़वाहट       सी    घोल    देता     है.....


                             एक समय के   बाद    लगता     है कि जैसे  अकेलापन  सभी   की नियति  है.......कुछ   लोग      परिस्थितियों     वश  अकेले   पड़  जाते    हैं कुछ   अहम्   वश    ....पर सभी महसूस जरूर  करते  हैं....इसका  क्या  निष्कर्ष  निकला  जाये  ......समझ  नहीं आता .....सभी इतना व्यस्त  हैं कि कोई     किसी   के लिए वक़्त निकाले  भी तो     कैसे   ?// 
  ..                    आज हर घर में यही स्थिति है.....जब हमने अपने माँ बाप के लिए वक़्त नहीं निकाला ......तो नई पीढी जो खुद में इतना व्यस्त है..........हमारे  लिए  कैसे सोचे .??....जब कि ये स्थिति  भविष्य में सबके साथ आने वाली है.....शायद इस से भी ख़राब .........

          उम्र बीतती जाती है............घर छूट जाते हैं..........संगी साथी धीरे धीरे साथ छोड़ते जाते हैं.....वक़्त मुठ्ठी से रेत की तरह फिसलता जाता है.....उस समय यादों को रुमाल की तरह तह करके..जेब में रखने का मन होता है कि जब भी उदासी की गर्द चेहरे पर छाए उसे जेब से निकल कर मुंह  पोंछ लें और फिर से वही ताजगी महसूस कर लें......
                      पर  वो अकेलेपन  की  पीड़ा   कैसे  दूर हो .......जो  बाहर   से दिखती  नहीं पर पुराने  ज़ख्म   की भांति  रह  रह कर टीसती  रहती है.....




             

Thursday, July 21, 2011

कुछ भी नहीं...




            मन में एक अजीब सी तकलीफ और छटपटाहट सी हो रही है.......एक अरसे बाद आज अकेली चुप बैठी हूँ...
                कुछ बोलने की इच्छा  नहीं हो रही ........मन में कुछ बहुत प्रिय वस्तु छीन लिए जाने जैसा अहसास हो रहा है......२ जुलाई को

पापा जी को और  १८ जुलाई के  दिन मम्मी को कितनी ख़ुशी और

उत्साह के साथ  जन्म दिन की शुभ कामनाएं दिया करते थे हम

सब.........फिर से वे तारीखें आईं और गुज़र गई...........

            हमारे पास क्या था...कितनी बड़ी नियामत थी.....हमारे माँ बाप....ये हम तब समझ पाते हैं .........जब हम उन्हें खो देते हैं...............वक़्त रहते क्यों हम उनकी अहमियत नहीं समझते ???...............बाद में सिर्फ हाथ मलने के सिवा कोई

चारा नहीं रहता........

         आज ही न्यूज़ में  सुना ...एक बेटे ने अपनी ८० साल की माँ

को  सड़क पर लावारिस फेंक दिया........लावारिस ??.............क्या

सचमुच वो लावारिस थी??.............फिर वो कौन था जिसने उसे

सड़क पर फेंक दिया,??

             वो भी उस अवस्था में जब कि न वो बोल सकती है .....न चल सकती है ...न कुछ कर सकती है........ समझ में नहीं आता क्यों बच्चे इतने निष्ठुर हो जाते हैं???......... अपने ही

जन्मदाताओं के प्रति...........  

 ...अपने   से  बड़ो के प्रति कोई ...शर्म .....झिझक ...या लिहाज़ नहीं.....खुद  के  
समर्थ   होने सब कुछ कर लेने और पा लेने का दंभ ऐसी प्रबल भावना से मन पर घर कर गया है की वे अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझते........ 
          क्या होता जा रहा है???.....ये अकेलापन ....वो भी इस उम्र में ........कैसा अवसाद छोड़ देता है.....
             सिर्फ अपने ही बारे में सोचना.....और कोई अहसास नहीं....कितना स्वार्थीपन......???

                सोचती हूँ.................क्या हमारे बाद हमारे बच्चे भी हमारे लिए कुछ ऐसा सोचेंगे?............कि उन्होंने कुछ अमूल्य खो दिया ??

            या हम अमूल्य हैं ही नहीं??......अमूल्य मतलब जिसका कोई मूल्य ही नहीं...............इसे इस तरह भी सोचा जा सकता है......बेमोल या रद्दी ...........जिसका कोई मूल्य नहीं.........

        इतना स्वार्थी पन क्यों आ गया है??..... या क्यों आता जा रहा है??नई पीढी  में ?,शायद कोई उत्तर नहीं..............कभी कभी सोचती हूँ.....शायद यह हमारा भी स्वार्थ है..........हम क्यों चाहते हैं कि हम किसी कि जरूरत बने रहें  ??/ किसी को हमेशा हमारी जरूरत

महसूस हो?????/

कोई हमारे लिए ही सोचे???
                आखिर हमने किया ही क्या है अपने बच्चो के लिए?????
ये तो सभी करते हैं......चिड़िया और जानवर भी करते हैं.....पर एक बार घोंसला छोड़ देने के बाद चिड़िया के बच्चे भी पलट कर फिर कभी घोंसले में वापस नहीं आते..........और चिड़िया भी उनसे ये उम्मीद नहीं रखती.........पर फिर .....कभी कभी लगता है    शायद इंसानों और चिड़ियों में यही तो फर्क है............धीरे धीरे मनुष्य फिर से अपनी आदिम  प्रवृत्तियों की ओर लौट रहा है.......जहाँ कोई रिश्ते नाते नहीं होते थे..........शायद यह भी उसी सभ्यता की शुरुआत है.......

           दिनों दिन बिगड़ते जा रहे समाज......अपने से बड़ों के  प्रति  इतने  दुर्व्यवहार ........  इतनी असभ्यता  के बावजूद    .........जब एक खंड्काल के बाद पुनः खोज की जाएगी...........तो फिर हम एक सभ्यता के ही अवशेष कहलायेंगे न.......चाहे हम कितने भी असभ्य हो गए हों...............