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Monday, September 23, 2013

माई री !! मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की.......



           कैसे यकीन दिलाऊँ खुद को मम्मी , कि अब सब कुछ पहले जैसा कभी नहीं हो पायेगा...मम्मी आपके जाने के बाद तीन गर्मियां, तीन सावन , तीन तीजें और बीत गईं,....मैंने नई चूड़ियाँ नहीं खरीदीं , हर बार इंतज़ार रहता था , आपके मनीआर्डर का जो मेरे लिए तीज पर नई चूड़ियों और मेहंदी का सबब बनता था......ऐसा नहीं कि मैं खरीद नहीं सकती ....या ये सब यहाँ मिलता नहीं......बस एक उम्मीद या लगाव सा रहता था ...कि मम्मी की खरीदी हुई चूड़ियाँ ही होनी चाहिए.......आपने आखिरी बार जब मेरे लिए चूड़ियाँ और कुछ बर्तन आदि सामान खरीदा था ,      वो समय कितना भारी रहा होगा आपके लिए   मैं समझ सकती हूँ मम्मी ,,,पापा जी के नहीं रहने के महीनो बाद ......मैं खुद आपको जबरदस्ती..बाजार ले कर गई थी....और मेरे नहीं नहीं करते रहने के बाद भी .....चूड़ियों और कड़ों का काफी लम्बा बजट बन गया था , और वो सब आपने ही दिया था ,,मुझे क्या पता था कि हम आखिरी बार एक साथ वो खरीदारी कर रहे हैं ?.....मेरे लिए मन पसंद साडी न खरीद पाने का अफ़सोस ...आपके चेहरे से साफ़ दिखाई दे रहा था , पचासों साड़ियाँ आपने मुझे दी हैं. ...पर पता नहीं ऐसी कौन सी चीज आप खोज रही थीं , जो अंततः नहीं मिल सकी ........अब कौन इतनी तन्मयता से ,....इतनी दिलचस्पी से खोजेगा मम्मी ?

           बेटू की शादी के लिए क्या करना है ...क्या देना है ...क्या बनवाना है ....ओह्ह!! कितना कुछ अरमान था आपका .....काफी कुछ किया है हमने ...पर शायद वो सब नहीं कर पाए जो आप करना चाहती थीं.....समय के साथ सब कुछ बदल जाता है मम्मी ....  ये तो सच है कि माँ - बाप तक ही मायका होता है और सास ससुर तक ही ससुराल ......उसके बाद तो भाइयों या पट्टीदारों का घर हो जाता है.......अब तो वो हक नहीं रहा कि ....कहूं मम्मी ..पापा के पास जा रही हूँ......या सास ससुर के पास जा रही हूँ ......छुट्टियाँ बिताने.....या दीवाली दशहरे या होली की  छुट्टियाँ होते ही कभी रायबरेली   या बनारस भागना.....एक दिन भी बर्बाद न हो....यही सोच कर....

अब तो लगता है कि हमारा कोई रहा ही नहीं.....महज़ एक खाना पूरी सी लगती है........शायद एक उम्र के बाद       सभी औरतों के साथ ऐसा होता है.....क्यों हम उम्मीद लगाये रहते हैं ?         जब कि मालूम है ....कि इन बातों का कोई नतीजा नहीं निकलेगा........ प्राणपण से चेष्टा करने के बाद भी एक असहजता भरी दूरी आती जा रही है....संबंधों में ...वो स्वाभाविकता ख़त्म है जो पहले हुआ करती थी.......बातचीत में मेरी यही चेष्टा रहती है कि कहीं मेरी बातों से किसी को बुरा न लगे , कहीं कोई ऐसी बात न हो जाये जो स्तरीय न हो.....कहीं कुछ ऐसा न निकल जाये मुंह से ....कोई कुछ का कुछ समझ बैठे ......इतनी सावधानी बरतने के बावजूद सामने वाले.... से... ऐसा कोई प्रत्युत्तर नहीं मिलता तो बहुत तकलीफ होती है मम्मी,,   ,बहुत ज्यादा ...किस से बांटूं ये सब ?       हम किसी के लिए अच्छा करते हैं या अच्छा सोचते हैं      तो उन को एहसास क्यों नहीं होता .?
लोग साथ क्यों छोड़ देते हैं ?
रिश्तो की इज्जत करना भूल क्यों जाते हैं ?
ईर्ष्या........जैसी भावना     इतनी प्रबल क्यों हो उठती है.?   कि सारी अच्छाइयों को ढँक लेती है ?
यही सब सवाल हैं ..और हम सब  ..इसकी कीमत चुका रहे हैं …...
अपना सेल्फ रेस्पेक्ट गँवा के ..हासिल क्या हुआ ?.


        अच्छा होना बहुत कठिन है ..और अच्छे बने रहना    उस से भी दुरूह ......कितना मन मसोस के रह जाना पड़ता है
मुझे व्यंगात्मक  भाषा में न बोलना पसंद है न सुनना....और अगर कभी ऐसी स्थिति आती है ,तो बेहद तनाव वाली स्थिति में आ जाती हूँ...अब मेरी भी इतनी उम्र हो चली है मम्मी कि    अब बर्दाश्त नहीं होता...हमेशा एक  फ़ोर्मेलिटी  सी निभाते रहना अब नहीं होता......
मैं कभी किसी को कठोर भाषा में नहीं बोल सकती , अगर गलती से कभी कुछ कह भी जाऊं तो कई दिनों तक यही सोच सोच के परेशान रहती हूँ , कि पता नहीं अगला क्या सोच रहा होगा ?....मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था , क्या हो जाता अगर मैं ही चुप रह जाती , क्या घट जाता मेरा ?...पर बहुत बार ऐसा होने पर अब जी ऊब गया है......क्यों मैं ही चुप रहूँ ?  अक्सर बहुत लम्बे समय बाद मुलाकात या बात होने पर भी.....अगला चोट पहुंचाने से नहीं चूकता .....तो आखिर मैं ही क्यों सहन करती रहूँ ?   बिना किसी वजह के ही लोग चोट देकर चले जाते हैं.....और हम सिर्फ देखते रह जाते हैं .....ऐसा नहीं कि मुझे जवाब देना नहीं आता या मैं कुछ कह नहीं सकती......लेकिन सिर्फ इस लिए चुप  रह  जाती हूँ कि मैं किसी की  बेइज्जती  नहीं कर सकती..... किसी को तोड़ नहीं सकती.....किसी को चोट नहीं पहुंचा सकती....किसी को इतना कडवा   जहरीला   नहीं बोल सकती कि अगला रो पड़े ..चूर चूर हो जाये .....किसी को इतना दुखी कर दूं कि उसकी जिंदगी तहस नहस हो जाये.... .पर मैंने महसूस किया है कि हमारे साथ कई बार ऐसा हुआ है ….हमारे साथ कई लोगो का व्यवहार ऐसा रहा है.....क्यों कि वो जानते हैं, कि हमें उनकी जरूरत है , वे हमारी ज़िन्दगी का एक अटूट हिस्सा हैं...हमारी नाराज़गी से किसी को क्या फर्क पड़ता है ? ..हम नाराज या दुखी हैं तो रहें  ..उनकी बला से .......कई बार हमें ये अहसास दिलाया गया है कि हम तो ऐसे ही हैं....... तुम्हें बुरा लगे तो लगे ..हमें क्या ?....हम कोई चिंता क्यूँ करें ?   पर वो ये क्यों भूल जाते हैं,   कि आज अगर वे हमारी चिंता नहीं करते तो  ..  कल वो हमसे कैसे उम्मीद करेंगे ?
ऐसा लगता है प्रेम धाराएं सूखती जा रही हैं.....सब सिर्फ अपने लिए ही जी रहे हैं ...एक दूसरे  के लिए भी जिया जाता है,    ये सब भूल ही गए हैं...और अकेले जी कर भी सब खुश हैं ..  ऐसा नहीं है....  उससे भी सब उकता गए हैं , मन ऊब गया है.... सम्बन्ध टूटते जा रहे हैं...., सिर्फ अपने लिए जीने का क्या मतलब है ? एक दूसरे की शुभ आकांक्षा के पीछे भी अपना ही सुख छिपा है   हम भूलते जा रहे हैं....

कभी कभी सोचती हूँ मम्मी ......कितना अच्छा होता कि जब कभी मैं बरसों बाद अपने पुराने दिन याद करूँ ,   और उन दिनों में लौटना चाहूं तो वक़्त मुझे वैसे का वैसे ही समूचा   वापस खड़ा मिले ...जिसे मैं छोड़ आई थी...बिना किसी बदलाव के ..  पर ऐसा कहाँ संभव है ?... मम्मी .....कितना कुछ कहने की इच्छा होती है   और कितना कुछ करने की भी ... हम इंसान बहुत बेवकूफ हैं    कितनी बेरहमी से सब कुछ छोड़ते चले जाते हैं...जब कि  ये तय है आज जो कुछ भी हमारे पास है ....ये सब कुछ दोबारा कभी मिलने वाला नहीं ......अपने गुरूर में , सामने की हकीकत नजर ही नहीं आती.....और जब नजर आती है मम्मी तो बहुत देर हो चुकी होती है, वैसे कभी कभी लगता है ,  कुछ गलती हमारी भी है ,  जब जब हमें कोई चोट पहुँचती है या हम  अंतर्मन से दुखी होते हैं..   तो कोई ऐसी गोद या आत्मीय कन्धा तलाशते हैं  जहाँ हम जी भर के रो सकें ....  पर हम यह हमेशा भूल जाते हैं,   और किसी के दुःख में हमने .. कब किसके आंसू पोंछे हैं ?   या कितने वक़्त पहले अपनी गोद में  किसी को रोने दिया है ?
          कैसी विडम्बना है मम्मी कि बात कुछ भी नहीं पर बहुत बड़ी है सबके व्यवहार में ऐसा कुछ नजर नहीं आता जिसकी आलोचना की जाये , जो दिखाई दे , जो सभी भांप सकें, पर जरूरी तो नहीं हर बात दिखाई ही दे जाये... ये सिर्फ महसूस करने की बात है.... जिस अपनेपन की आशा रहती थी,    जो भावनात्मक सम्बन्ध बना कर हम सबके साथ जुड़े रहना चाहते थे, सबके जीवन का एक अभिन्न अंग बने रहना चाहते थे ,   उसे पूरी तरह नकार दिया जाता है ,    सभी को उसमे स्वार्थ और बनावट की बू आती है....सिर्फ रहने खाने की पर्याप्त सुविधा ही तो जीवन में सब कुछ नहीं है न....उसके अलावा भी इंसान की जरूरतें या आशाएं हो सकती हैं....ये नहीं भूलना चाहिए....दिन रात ऐसी कितनी ही बातें हैं जो अन्दर तक धंसे हुए कांटे की तरह रह रह कर टीसती रहती हैं.....अब किस से कहूं ये सब मम्मी......बहुत याद आती है आपकी.....सचमुच....   किस से कहूं ये पीर अपने जी की......

3 comments:

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  2. बहुत सही कहा आपने अब लोगों में भावनाएँ सच में नहीं रही...सब अपने लिेए जीते हैं....

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  3. Haan didi sach to yahi hai..........Bahut sundar.Tumne aapne man ki baat likhi hai............Good

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