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Friday, August 2, 2013

दिन जो पखेरू होते





हाँ वही पीला मकान ही तो है वह ...
कंगूरों पर सफ़ेद और गुलाबी नक्काशी वाला ...जब नया नया पेंट किया गया था तो उस से ज्यादा खूबसूरत मकान उस पूरे मोहल्ले में और कोई नहीं लगता था....
दीवारों के एक एक छिद्र और दरारों में दोबारा तिबारा रंग भरवा कर मैंने अपने सामने सारे घर की पुताई करवाई थी....
.बेहद उत्सुकता और ख़ुशी के साथ उस पुराने घर को फिर से नया बनाने में अपने सारे अरमान निकाले थे....कितनी ही किताबें उलट पलट कर इंटरनेट पर सर्च कर कर के पचासों डिजाइन के ड्राइंग रूम और बेड रूम के चित्र सेव कर के अपनी फ़ाइल बनाई थी.......और बाथरूम और किचन को अपनी कल्पना मुताबिक बनाने में कोई   कसर    नहीं छोड़ी थी.......ढूंढ ढूंढ कर टाइल्स ,नल की टोंटियाँ ,वाशबेसिन और कमोड की तलाश में कितना भटके थे हम लोग......और आखिर में जब घर बन कर तैयार हुआ तो सचमुच जैसे हमारे सपनों में इंद्र धनुषी रंग भर गए थे.....
पर आज......
एक लम्बे अरसे बाद लौट रही हूँ यहाँ....(हाँ दस साल का अरसा भी लम्बा ही होता है ) ...तब मैं एक पैंतालिस साल की सुखी संतुष्ट गृहणी थी...अपने प्यारे सुन्दर तीन बच्चों की स्नेह मयी माँ और पति की आज्ञाकारिणी सुशील पत्नी.....और आज .....मैं एक नौ दस  वर्षीय
 … शांत गंभीर और उत्सुकता से पूर्ण बच्ची हूँ...जिसने अपना सालों पहले बिछड़ा हुआ घर खोजने में    अपने माता पिता को कितना परेशान  किया है......मुझे मालूम है   मेरे माता पिता ये कभी नहीं मानेंगे कि ये मेरा इस दुनिया में आने का दूसरा अवसर है और मैं फिर से क्यों अपनी पुरानी दुनिया में जाने को उत्सुक हूँ...जाने को नहीं सिर्फ देखने को.... उनसे मिलने को…… जो कभी केवल मेरे अपने थे......मेरे बिना भी रह सकने वाला मेरा परिवार कैसा है ? यही देखने की इच्छा मन में बहुत ज्यादा थी.....मुझे इस बात का अहसास होना तब शुरू हुआ जब मैं पहली बार स्कूल गई.......बार बार मुझे ये महसूस होने लगा…। जैसे मैं कोई सपना देख रही हूँ....कुछ छूटा हुआ सा है.....कुछ है जो मैं पाना चाहती हूँ.....और पाने में
सक्षम नहीं हूँ.......अचानक कुछ चेहरे मुझे बार बार याद आने लगे.....ऐसे चेहरे जो मैंने अपने तीन चार साल की  उम्र तक देखे भी नहीं थे.....कुछ ऐसी घटनाएं जो कभी घटी ही नहीं थीं......कुछ ऐसी बातें जो कभी हुई ही नहीं थीं.....मैंने माँ को बतानी शुरू कीं ...... माँ ने पापा को......और कुछ ही दिनों में मैं घर भर के लिए अजूबा बन गई......हर आने जाने वाला मुझे ऐसी नजरों से देखता मानों मैं कोई अद्भुत वस्तु  हूँ......कोई राज़ हूँ.....सभी मुझसे अलग अलग ढंग की  बातें पूछते.....मुझे भी अपनी स्मृतियों पर बड़ा जोर डालना पड़ता....धीरे धीरे  नौबत यहाँ तक आ पहुंची कि मुझे लाल ईंटों वाली चारदीवारी और मीठे इलाहाबादी अमरूदों वाला पेड़ बुरी तरह याद आने लगा. .....मुझे अक्सर ये महसूस होता कि अगर मैं फिर से वहां नहीं पहुंची तो शायद जीवित नहीं रह पाउंगी......बार बार रोने की इच्छा होती.....माँ पापा भी परेशान होने लगे .....अब उनकी यही चेष्टा रहती कि किसी भी तरह कोई मुझे पुरानी बातें याद न दिलाये.....कभी भी पंडितों और बाबाओं की  बातों पर यकीं   न करने वाले मेरे पापा भी चोरी छुपे उनसे सलाह लेने लगे..... ..मैं भी जब अकेली होती तरह तरह की  सोचों से घिरी रहती.....पर ये याद नहीं आता कि आखिर मेरा वो सपनो से प्यारा घर है कहाँ ???
मेरे घर के लोग...मेरे पति, मेरे बच्चे सब कहाँ हैं ??किसी भी बाइक की आवाज पर चौंक पड़ती लगता वो आगये हैं........ बाहर की  और दौड़ पड़ती.....एक चार ,पांच साल की  बच्ची  के   मुंह से पति और बच्चों की  बातें सुनना हर किसी को एक नागवार सी उत्सुकता से भर देता......कभी कभी कुछ रिश्तेदार कुछ अश्लील सी बातें भी पूछ देते जो मेरे लिए हैरान कर देने वाली होतीं.....
अंततः एक मनोवैज्ञानिक मित्र के समझाने पर पापा ने पता लगाया और मुझे पुनः मेरे घर ले जाने को तैयार हुए......और इसका ही परिणाम है कि मैं आपने इस चिरपरिचित मोहल्ले में आ सकी हूँ.....कितना कुछ बदल गया है इन आठ दस सालों में....कितने ही मकान बन गए हैं...जो दो मंजिल थे वो चार मंजिल बन गए हैं......झन्नाटू हलवाई की दूकान अब भी वहीँ है पर अब उसका नाम बदल कर मधुर मिलन स्वीट्स हो गया है.....मोटरपार्ट्स की दूकान,.. ....केसरी की ब्रेड बिस्कुट की दुकान......सारी चीजें देखी पहचानी सी लग रही हैं ....जैसी एक धुंधली सी परत आँखों के सामने थी,....अब वो परत हटती जा रही है......सड़क की दाएँ ओर एक बड़ा सा नाला और मलबे का ढेर रहता था अब वो नहीं है....वहां एक बहुत बड़ा शो रूम बन गया है....नेता जी की छोटी सी दूकान जहाँ दूध वाले पैकेट मिला करते थे वहां डेयरी का सामान मिलता दिखाई दे रहा है.....
रस्ते में कई चेहरे ऐसे दिखे जिन्हें मैं पहचान रही हूँ पर वो मुझे बिलकुल नहीं पहचान रहे.....सभी चेहरों को गौर से देखती जा रही हूँ.....सभी पर उम्र की धूल की एक परत सी चढ़ी हुई है  …… जो अब कभी झाडी नहीं जा सकती.....सामने वाली गली में रहने वाली सरदारनी आज भी मुन्नीलाल सब्जी वाले से वैसे ही लड़ रही हैं......
सरदारनी और भी बूढी हो गई हैं और मुन्नी लाल और भी जवान........दस साल आगे बढ़ गई है सभी की ज़िन्दगी........पर मैं अभी भी वहीँ की वहीँ खड़ी हूँ.......
बेहद उत्सुकता है अपने घर (! ) पहुँचने की...........माँ   पापा की ऊँगली पकडे सीढियां चढ़ती हूँ .........चौड़ी सीढ़ियों पर दोनों तरफ गमले रखे रहते थे.........अब नहीं हैं.......बरामदे में मेरे बनाये हुए कुछ चित्र फ्रेम कर के लगे थे ......अब वो भी नहीं हैं..........हर चीज मुझे फिल्म की तरह याद आती जा रही है.......बरामदे के दाहिनी तरफ सीढियां थी जो ऊपर के कमरे में जाती थीं........वहां मकड़ियों ने जाले तान रखे हैं.....लगता है अब वहां कोई नहीं रहता.........दस साल पहले वहां एक छोटा सा तीन प्राणियों का परिवार रहता था.......बरामदे में सन्नाटा है........पापा माँ के कान में फुसफुसाते हैं......अभी भी वापस लौट चलो.......क्या कहेंगे इनसे कि  हम कौन हैं ?? ...और किस लिए आये हैं ???....पर मेरी उत्सुकता का अंत नहीं है.....मैं उछल कर कालबेल बजा देती हूँ.....ताज्जुब है आज भी वही कालबेल लगी हुई है........चींचीं करती चिड़ियों की आवाज मैं खुद ही पसंद करके लाई थी ये बेल की जब भी कोई स्विच पर हाथ रखे......गौरयों की चहकार से घर भर जाए...........बिना जरूरत के ही बच्चे बार बार बजा कर ये आवाजें सुना करते थे.....

अन्दर से स्लीपर पहन कर किसी के आने की आहट सुनाई दे रही है.....फिर दरवाजे के पीछे लगे हुए रॉड के हटाये जाने की, और अब चिटखनी खोले जाने की......अब कुछ नहीं किया जा सकता.....दरवाजा खुलने ही वाला है......बस दरवाजा खुला........अरे ये कौन हैं ??.....पहचानने की कोशिश करती हूँ....ओह्ह्ह....दस सालों में वे इतना बदल गए हैं ???.....ताज्जुब होता है.....लगभग सारे बाल सफ़ेद हो चुके हैं....शायद चश्मे का नंबर भी बढ़ गया है.....मैं तो भूल ही गई..की अब वो भी तो साठ के आस पास पहुँच रहे हैं.....यानी मेरे नए पिता से २५ साल ज्यादा......पापा से उन्होंने उनके आने का कारण  पूछा है....और बताये जाने पर उनकी हैरत की हद देखने लायक है.........जितनी उत्सुकता से मैं यहाँ तक आई हूँ........अब माँ पापा के सामने मुझे उनसे बात करने में बड़ी हिचक और शर्म सी महसूस हो रही है..........शरमाई हुई सी मैं.........पूरे कमरे को ध्यान से देख रही हूँ.....बच्चों के बारे में जानने की इच्छा है.....पापा पूछ ही लेते हैं.....वे बताते हैं.......बड़ी बिटिया की शादी हो गई है..........छोटी हैदराबाद में पढ़ रही है और बेटा यानि मेरा जान से प्यारा दुलारा राजू... उनके साथ यहीं है और इस साल इंटर की परीक्षा देने वाला है........बड़ी बिटिया के विवाह की मुझे कितनी तमन्ना थी उन्हें पता है.....वे बड़ी निरीहता से मुझे देखते हैं.......आलमारी से अल्बम निकाल कर वे हमारे सामने रखते हैं........और अन्दर की ओर जाते हैं.........मेरा जी हो रहा है मैं भी साथ में जाऊं उसी रसोईघर में जो मैंने कितनी तमन्ना से बनवाया था.........माँ से पूछ कर मैं भाग कर रसोई में जाती हूँ..........पूरा घर मेरा देखा भाला है.........१५ साल कम नहीं होते.........मैंने १५ साल इस नए घर में बिताये हैं.....इसी कोरिडोर में खड़े हो कर हम सर्दियों की सुबह में सूरज के धुंध से निकलने का इंतज़ार करते थे ....... हाथ में चाय का कप लेकर सड़क के उसपार पेड़ों के झुण्ड को देखना कितना अच्छा लगता था......

एक प्लेट में बिस्कुट और पानी के चार गिलास  …। ट्रे में लेकर ये बाहर निकलते हैं.....और ड्राइंग रूम में चले जाते हैं.....
और मैं पीछे का दरवाजा खोल कर किचन गार्डन में आ जाती हूँ.....मैंने सालों पहले यहाँ नीम्बू, करौंदे , आम और अमरुद के पेड़ लगाये थे....सब सूखी झाड़ियाँ सी रह गई हैं.....पेड़ों का झुण्ड अब नहीं रहा.....कुछ पेड़ों को जडें खोखली हो गई हैं.....कुछ पेड़ लुटे पिटे से खड़े हैं पता नहीं कब गिर जाएँ.......किसी की जडें जमीं से उखड गईं हैं...किसी की शाखाएं काट डाली गईं हैं......कौन हमेशा रहता है...दुःख इंसान तक  को घुन की तरह चाट जाते हैं....पेड़ क्या चीज हैं ?? .मेरे बाद किसी ने इसे संभाल कर रखना नहीं चाहा....जी उदास सा हो जाता है......शायद अपनी उम्र के लिहाज से मैं ज्यादा मैच्योर हूँ....या हमेशा अतीत में खोये रहने का नतीजा है.....
...

अन्दर कमरे में दो तीन नई आवाजें सुनाई दे रही हैं..........झाँक कर देखती हूँ........एक तो मेरा राजू ही है.....ऊँचा पूरा कद ,....गोरा रंग.....हलकी हलकी मूंछें.....पूरा पापा पर ही गया है......और साथ में शायद मेरे जेठ हैं.........ये पूरी तरह उन्हें समझाने में लगे हैं......कि मेरे माँ पापा कौन हैं.....और किसलिए आये हैं.......पर जेठ जी को इन फ़ालतू बातों में कोई यकीन  नहीं है .....और वे बार बार इस बात को साबित करने में लगे हैं......आज कल फ्रॉड  करने वाले ऐसे बहुत से लोग घूमते रहते हैं.......पर मैं उन्हें कैसे समझाऊँ  कि .... मैं किसी लालचवश नहीं आई ....एक अनजानी अनचीन्ही सी डोर में बंधी चली आई हूँ.....
राजू बाहर आकर मुझे गौर से देखता है.....जी उमड़ रहा है कि उसे जोर से लिपटा कर प्यार कर लूं पर काश !!! ऐसा हो पाता.......राजू को बुला कर दिखाती हूँ वो जगह..... जहाँ चमेली की झाड के नीचे.....मैंने उसका गिनी पिग दफनाया था....सफ़ेद और खूब मोटा गिनी पिग जो राजू को बहुत प्रिय था..... और जिसके मरने पर राजू ने तीन दिनों तक खाना नहीं खाया था......उसी जगह की मिटटी में लोहे का एक चाकू भी गाड़ दिया गया था की गिनी पिग को डर न लगे.........ये सारी बातें राजू को भी शब्दशः याद हैं .....वो हैरानी से मेरी बातें सुनता है....पर उसके चेहरे से अविश्वास की लकीरें ख़तम नहीं होती......



पर सोचती हूँ यदि वो यकीन  कर भी ले तो क्या होगा ???मैं क्या फिर से उसके साथ उसकी प्यारी माँ बन कर रह पाऊँगी ??? उसके पिता की पत्नी बन कर ?

वक़्त का पहिया फिर से तो नहीं घूम सकता न.......मैं सोचती हूँ मुझे ज्यादा उदास नहीं होना चाहिए.........मैं यहाँ उदास होने नहीं आयी यादों के बिखरे पत्ते समेटते हुए थक गई हूँ.....बरामदे की सीढ़ियों पर रुक जाती हूँ.......मेरे कदम उठ नहीं रहे........मैं गीली आँखों के साथ मुंह फेर कर खड़ी हो जाती हूँ.......................

5 comments:

  1. Very very nice.. use padhte time meri ankh k saamne sirf banaras ka Vo ghar tha.. Jo niche thaa hamesha se.. darwaje k piche ka rod, chitkani Ki aawaz.. hmmmmm.. sundar.. bahot umda likha hai.. odor movie b banai Haa sakti h.. iss theme ko leke :)

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  2. bohot hi acha likha h apne... really touching.. :)

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  3. very touching ... so beautifully written :)

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  5. bahot he sunder likha hai aunty..iss story ko leke sach may ek acchi film bnayi ja skti hai..behtarein superlyk

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