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Saturday, August 24, 2013

किताबें और मैं

पुस्तकों के प्रति मेरा रुझान कब से है ......मुझे स्वयं भी याद नहीं.......बचपन से ही पढने का बहुत शौक रहा...अक्षर ज्ञान होते ही रास्ता चलते हर दीवार हर बोर्ड पढ़ती चलती थी........किताबों से मेरी दोस्ती बचपन में ही हो गई थी......दूसरे सभी लालचों पे लगाम लगा के किताबें खरीदती थी........ये जरूर याद है कि किताबों की दूकान , रेलवे के बुक स्टाल , फुटपाथ पर सजी किताबों की दुकानें .....मुझे हमेशा से आकर्षित करती रही हैं,,......आज भी जब भी मौका मिलता है..... मैं हर समय कुछ न कुछ पढ़ती ही रहती हूँ.......मनपसंद पुस्तकें भी एक लम्बे अरसे बाद भी पढने से नई ही लगती हैं..........एक किताब ख़तम होती है ,.....तो तुरंत दूसरी शुरू कर देती हूँ....एक चेन स्मोकर की तरह ........लगातार सोते ,   जागते उठते बैठते बेडरूम से लेकर रसोई तक और ड्राइंग रूम से लेकर बाथरूम तक ,    मेरा पढने का कोई नियत स्थान नहीं है.......और इस वजह से अक्सर डांट भी खा जाती हूँ......   पर आदत है कि कमबख्त छूटती नहीं ........  समझिये अब ये मेरा स्वभाव ही बन चुका है......और आदत बदली जा सकती है स्वभाव नहीं......    मेरे पर्स में भी  हमेशा कोई न कोई किताब होती है और कार में भी ......स्कूल में खाली पीरियड में ..........बैठ कर गप्पें हांकने से ज्यादा....... मुझे कुछ न कुछ पढ़ते रहना ही पसंद है........छुटती नहीं है मुंह से ये काफ़िर लगी हुई.......कभी कभी सोचती हूँ कि अगर मुझे पढना नहीं आता , ......या मैं भी ...अम्मा या सोना ( हमारी मेड्स ) की तरह होती तो क्या होता ???

            हजरतगंज से खरीदी हुई एक एक रुपये वाली बाल पाकेट बुक्स या फिर 20 पैसे दिन के किराए पर ली गई कहानियों की किताबें मेरी यादों में हमेशा तरोताज़ा हैं..... मुझे याद है जब मैं कक्षा ४ की छात्रा थी......तब मेरे लिए पहली बार दो बाल पाकेट बुक्स के दो उपन्यास........ जिनकी साइज ४ बाई २ इंच रही होगी....उनके नाम आज तक मुझे याद हैं.......मेरे जीवन के प्रथम उपन्यास........भूतों की रानी और दयालु राजा.........उन्हें पढने के बाद से ही मुझे उपन्यास पढने का शौक शुरू हुआ ..... और उसके बाद तो कम से कम ४०० , ५०० . बाल उपन्यास पढ़ ही लिए होंगे.....सहेलियों से उनका आदान प्रदान होता रहता था..........बाल पाकेट बुक्स जो उस समय एक रुपये की आती थीं...और दो दिन के लिए किराए पर लेकर पढने पर २० पैसा किराया देना पड़ता था...हम बच्चो में बराबर इसका लेन देन चलता था,,,....अदल बदल कर सैकड़ों बुक्स पढ़ ली जाती थीं............लोट पोट, दीवाना...पराग., मिलिंद , बाल भारती..नंदन. चंदामामा ..कहाँ तक नाम गिनाऊ ??....थोड़ी उम्र और रूचि में विविधता आने पर... .....फिल्मी पत्रिकाओं का भी चस्का लगा, ..फिर फिल्म फेयर. स्टार डस्ट, माधुरी ...भी पसंद आने लगी...........बचपन से ही अपने आस पास पुस्तकें देखी हैं,,, ...उस वक़्त जितनी भी पत्रिकाएँ बाजार में उपलब्ध होती थी.............धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान., दिनमान, रविवार, इलेस्ट्रेटेड वीकली ,फेमिना .....सभी पापा जी अपने ऑफिस की लाइब्रेरी से लाते थे....... बाद में कुछ कहानियाँ मैंने भी लिखीं,,,....पर यह जारी नहीं रह सका.....शायद छ या सात कहानियों तक ही सीमित रह गया....जिनमे से ३ या ४ छपी भी....एक दो बार अपनी कहानी आकाशवाणी के युवा वाणी कार्यक्रम में भी पढ़ी........लिखने का शौक भी बना रहा पर कहानी फिर नहीं लिखी जा सकी.... (फिर से प्रयास में हूँ कि शायद कुछ लिख सकूं )...कभी कभी कुछ पंक्तियाँ लिख लेने का मन होता है तो लिख लेती हूँ.......कभी कभी कहीं मूड आने पर चुटकी पुर्जे इत्यादि पर भी लिखा गया ......पर उन्हें संभाल कर नहीं रख पाई .......और वे इधर उधर हो गए....पढने के लिए मुझे कुछ भी चाहिए.......बहुत उत्कृष्ट साहित्य ही हो ये जरूरी नहीं .........हाँ प्रथम श्रेणी में मैं उसे ही रखना चाहूंगी,,,,,,पर सामान्य या ......... इमानदारी से कहूं तो निकृष्ट साहित्य भी मैंने पढ़ा है ,,,... दूकान पर खड़े खड़े ......आते जाते ट्रेन में.......अगलबगल..........यहाँ तक कि झाडू लगते वक़्त भी ....अगर कोई अखबार या मैगजीन का टुकड़ा मिल जाये तो..... बिना पढ़े उसे नहीं फेंकती......कई बार बड़ी इंट्रेस्टिंग सी चीजे भी मिल जाती है यहाँ वहां.........अभी तक कितने उपन्यास , कितनी कहानियां, कितने आर्टिकल्स मैंने पढ़े हैं याद नहीं........
पुस्तकों  की दूकान में घुस जाने पर .......मैं समझ नहीं पाती कि क्या छोडू क्या ले लूं ?? काश !! मेरे पास इतना पैसा होता , कि मैं जी भर कर पुस्तकें खरीद पाती...

कॉलेज में पढ़ते वक़्त वहां  की लाइब्रेरी  की लगभग ७५% पुस्तकें मैंने पढ़ डाली थीं....और कुछ संयोग भी अच्छा रहा कि शादी के पश्चात पतिदेव का सहयोग भी बराबर मिला......यदि मुझे पढने का शौक़ रहा है तो उन्होंने भी मुझे पूरी तौर पर पुस्तकें खरीद कर देने में कोई कोताही नहीं बरती उन्हें ज्यादा पढने का तो नहीं....पर अच्छी किताबें खरीदने का बहुत शौक़ है.....(वैसे आज कल पढना भी शुरू कर दिया है उन्होंने...).....इसी का नतीजा है कि आज मेरे घर में मेरी अपनी निजी लाइब्ररी है...जिसमे करीब २००० पुस्तकों का संकलन है ज्यादातर साहित्यिक कृतियाँ हैं.....वैसे तो मुझे हर तरह कि किताबें पसंद हैं पर साइंस या फिक्शन से ज्यादा लगाव नहीं.....आत्मकथाएं या जीवनियाँ पढना ज्यादा भाता है......अच्छे साहित्यिक उपन्यास साथ ही रशियन साहित्य भी......हर तरह की मैगजींस पढ़ती हूँ ......
बल्कि हालत ये है कि कोई भी मैगजीन देख कर मैं ललचा उठती हूँ....रहा नहीं जाता जब तक उन्हें पूरा न देख डालूँ....पत्रिकाओं का भी बहुत बड़ा संग्रह है मेरे पास....सभी तरह की पत्रिकाएँ.......अपने अखबार वाले से.....हर महीने कई पत्रिकाएँ मंगाती हूँ.......अब ये अलग बात है कि वे खरीदती नहीं हूँ....पढ़ कर वापस कर देती हूँ.....

मुझे लगता है कि हर इंसान को अपने अन्दर पढने की आदत डालनी चाहिए या पैदा करनी चाहिए......क्यों कि इस से कल्पना शक्ति भी प्रखर होती है...किसी ने कहा है कि पुस्तकें एक बहुत अच्छी गुरु हैं,....ऐसा गुरु जो न डांटता है न शिकायतें करता है न ही हमारी कोई परीक्षा लेता है और न ही हमारी असफलता का मूल्यांकन करता है......वे बस एक स्नेहमयी माँ की तरह सहजता से हमें पढ़ाती रहती हैं....उनके पढ़ाने का तरीका भी तो निराला है , मूक भाव से , बिना कुछ कहे , बिना बोले....
किताबें हमारे व्यक्तित्व में बदलाव लाती हैं ये तो तय है ....छोटे छोटे बच्चे भी नई चमकती सुन्दर किताबो के प्रति लालायित होते हैं......न पढना जानते हुए भी सुन्दर चित्रों से सुसज्जित पुस्तकें देखकर उनके चित्रों से स्वयं को जोड़ते हैं.....एक अध्यापिका होने के नाते........मैंने यह महसूस किया है कि पुस्तकों के प्रति ,बच्चों का एक स्वाभाविक लगाव होता है.....और अनदेखे अनजाने चित्रित पात्रों को देख कर वो ऐसी ऐसी कहानियां गढ़ कर सुनाते हैं कि ............उनकी कल्पना शक्ति पर ताज्जुब होता है....                                                

  बच्चों को   इसी लिए किताबें थमाई जाती हैं.....
हम किस तरह के व्यक्ति बनना चाहते हैं ?....समाज और दुनिया के लिए हम क्या क्या कर सकते हैं ?? इन सबके बारे में किताबों से बढ़ कर कौन मदद कर सकता है ??

मेरा बहुत सा एकांत इनके साथ ही बीत ता है ..किताबों की एक खास तरह की महक मुझे बहुत अच्छी लगती है.....उनकी छुवन उनका अहसास ....सिरहाने रख कर सोना ,,,..पढ़ते पढ़ते कब सो जाती हूँ, पता ही नहीं चलता , कई बार ऐसा हुआ है चश्मा पहने पहने ही सो गई हूँ.....और उसके लिए पतिदेव नाराज भी हुए हैं......स्कूल से आकर जब कोई नई ताज़ा मैगजीन टेबल पर रखी हुई मिलती है तो जी खुश हो जाता है .......

स्कूल की... चख चख , शोर और तनाव सब भूल जाती हूँ....खाना खा कर आराम करने का वक़्त (जो अमूमन २ घंटे से तीन घंटे के बीच होता है ) सिर्फ मेरी किताबों को और नींद को समर्पित है इसमें मुझे किसी भी तरह का व्यवधान पसंद नहीं.........
मेरे जीवन में अच्छे बुरे अनुभवों के बाद के बचे हिस्से पर सिर्फ पुस्तकें ही काबिज हैं ….. सिर्फ वे ही हैं जो मेरे एकाकी और उदास पलों की साक्षी रही हैं......मेरा मन बहलाती हैं.......ऊब थकान और हताशा से मुक्ति दिलाती हैं.........कितनी भी चिंता में या तनाव में रहूँ,........पर सिर्फ कुछ पृष्ठ पढ़ लेने से ही जैसे शांति सी मिल जाती है........
अब जब से मैं नेट से जुड़ गई हूँ, ....... बहुत से ऐसे साहित्य कारों ,... कवियों, ....और लेखकों से संपर्क हुआ जो मेरे प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं, .....बहुत सी रचनाएँ जो नेट पर उपलब्ध हैं पढ़ती रहती हूँ........कई इ- मैगजींस के साथ भी जुडी हूँ .......उनके लिए कुछ कुछ कार्य करती रहती हूँ..........पर बात फिर घूम फिर कर वहीँ आ जाती है......किताबों के प्रति प्रेम की,....तो उनका कोई जवाब नहीं......कितनी भी किताबें नेट पर हों.. पर उनको पढने में मुझे ज्यादा आनंद नहीं आता , किताबों की बात ही कुछ और है,..... वे हमेशा अपनी सी लगती हैं........मेरे प्रिय लेखक निर्मल वर्मा जी के शब्दों में ...
"किताबें मन का शोक , दिल का डर , या अभाव की हूक कम नहीं करतीं , सिर्फ सबकी आँख बचा कर चुपके से दुखते सर के नीचे सिरहाना रख देती हैं.".........

4 comments:

  1. Waaaaaahh..
    Awesome blog written by u Mammy..last lines by nirmal Verna is too good..

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  2. books padhna toh ek nasha hai .... aur bekaar cheezon me time brbaad krne se bhut hi acha hai ki kuch na kuch padha jaye... i always wish ki kv aapke books k collection ko dkh paun..

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