कई साल पुरानी एक घटना याद आरही है..शायद २००० या २००१ की ...लखनऊ से .गोरखपुर ..आने वाली रेलगाड़ियों के यात्रियों के बारे में .कुछ फेसबुक मित्रों की प्रतिक्रिया पढ़ी ....हम लोग बराबर उसी लाइन से आने जाने वाले हैं...लखनऊ से मनकापुर करीब तीन से चार घंटों का सफर है.....पर ये हिंदी का सुहाना सफर नहीं अंग्रेजी का सफर ज्यादा है.....ज्यादा तर लगभग 75% ग्रामीण यात्रियों से भरी हुई ....पूर्वांचल या बिहार के यात्री .....सर्दियों के मौसम की वो चार घंटे की यात्रा तो जैसे तैसे काट ली जाती है...पर भयंकर गर्मी के मौसम में वो समय बिता पाना ....उफ्फ्फ.. वो एक भुक्त भोगी ही बता सकता है........तो किस्सा कोताह ये है....कि उस साल की भयंकर गर्मी में हम सब लखनऊ से वापस मनकापुर लौट रहे थे.... ..अब चार घंटे के सफर के लिए कोई रिजर्वेशन तो कराता नहीं....बस जहाँ तहाँ सब बैठ जाते हैं....ऐसे ही हम सब भी चढ़ लिए.......चिपचिपी बदबूदार गर्मी ....उसमे ऊपर की बर्थ पर बैठे एक सज्जन......अपना एक रुमाल सीट पर बिछा कर नीचे उतरे..और प्लेटफॉर्म पर जा कर दो तीन बड़े बड़े लिफाफों में आम और केले लेकर वहीँ टहलने लगे ...शायद इस इंतज़ार में कि ट्रेन जब चलने ही वाली हो तो चढ़ जाएँ.....और जब ट्रेन चली तो लपक कर चढ़ लिए......किसी तरह मुश्किल से अंदर जब अपनी सीट तक पंहुचे तो उन्होंने पाया कि....कोई उनकी जगह बैठ चुका है.......बड़े ही चिढ़े हुए अंदाज में उनका गुस्सा देखने लायक था.....बार बार उनका कहना याद आता है ..ईहां दस्ती धइल रहल ह..... .हम दस्ती ध के गइल रहलीं हं...का भइल ऊ??? (दस्ती बिहार में रुमाल को कहा जाता है ).मतलब यहाँ रूमाल रखा था..... हम रुमाल रख के गए थे....वो क्या हुआ ???........अगल बगल के सब लोग उनकी तरफ आकृष्ट हो गए.....उसी में से किसी ने चुटकी लेते हुए कहा.......अरे दस्तिये नु रहल ह.....के कवनो सीव जी के धनुख रहल ह ..के राम जी अईहें त उठैइहैं (अरे रुमाल ही तो था न कि कोई शिव जी का धनुष था कि राम जी आएंगे तो वही उठाएंगे ??)....उनका इतना कहना था कि आसपास जो हंसी का फौहारा छूटा कि आज भी याद करने पर बरबस हंसी आ ही जाती है.....और जिस किसी को भी ये घटना बताते हैं सब हँसते हँसते लोट पोट हो जाते हैं.......क्या हाजिर जवाबी थी.....
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