आज भी कंधे पर कश्मीरी कढ़ाई वाले सूट, शाल का गठ्ठर लिए फेरी वाले चक्कर लगाया करते हैं.....और हमारे स्कूल - कॉलेज के दिनों में भी आया करते थे.... और वो जानते थे कि हमारे घर मे उनका दो चार आइटम तो जरूर निकल जाएगा..... पुराने कपड़े लेकर स्टील के बरतन या प्लास्टिक के बने टब, बाल्टी जैसी चीजें बदल कर लेने का रिवाज था तब...... दो चार छः चीजें ..... ये मम्मी थीं जो जरूर खरीद लेती थीं..... ले लेती थी..... उनका मोलभाव करने का अपना ही तरीका था.... सौ रूपए की चीज को पचीस रूपए में कैसे लेना है.....उनको बखूबी आता था..... और वो बंदे वाकई पचीस तीस में देकर ही जाते थे...सिर्फ उनके बात करने के तरीक़े से.... बिना जरूरत भी वो तमाम छोटी बड़ी चीजें खरीद कर सहेज लेतीं और मौके मौके पर किसी किसी को देने के लिए ढेरों सामान रहता उनके कलेक्शन में....बाजार में कितने ही दुकानदारों से खूब अच्छा व्यवहार रहा उनका.... मुझे याद है दो सरदार बच्चे एक बार हमें गोदोलिया में मिले.... जो छिटपुट बनियान रूमाल जैसी चीजें हाथ में लेकर बेच रहे थे...उनसे थोड़ा प्यार से बातचीत कर लेने पर वो हमारे पीछे ही पड गए और साथ साथ चलने लगे फिर उन्होंने बताया कि कुछ पहले हुए दंगे में उनके माता-पिता को मार दिया गया था और बस वही दोनो बच्चे हैं अब घर में.... मुझे याद है हम लोग उनकी मार्मिक कथा से द्रवित हो उठे थे.... उनसे कुछ सामान लिया और काफी दिनों तक गोदोलिया जाने पर उनसे सामान लेते भी रहे.... धीरे-धीरे वो बच्चे संभल गए और अपनी छोटी सी दुकान भी खोल ली....एक बार काफी दिनो बाद जाना हुआ तब भी वो हमें भूले नहीं थे...... मम्मी को देखते ही आवाज लगाई उसने... फिर तमाम कपड़े लिए गए वहां से.... बहुत अच्छा लगा... आज भी बाजार वही है, गोदोलिया भी वही है, दुकानें भी वही हैं पर अब मम्मी अब कभी उधर नहीं जाएंगी कि मेरे लिए छोटा मोटा समान खरीद कर सहेज लेंगी.....
उनके के रहते..... हम उपस्थित न होते हुए भी उस घर में हमेशा बने रहते थे.... वो जोड़ती थीं...... सबको जोड़ के रखना जानती थीं....कितने ही लोगों का आना जाना लगा रहता था..... . हमारा होना उस घर में पुख्ता करने वाली मम्मी ही थीं....हमारा हाल चाल पूछने वाली मम्मी थीं..... कौन त्योहार कब आ रहा, कब कब क्या क्या करना है ये सब बताने वाली मम्मी ही थीं..... और वो सारे उपक्रम करते हुए हमको उनकी ही सबसे ज्यादा याद आई.....रिश्तों की अहमियत बताने वाली.... सभी को याद करते रहने वाली मम्मी ही थीं.....
अब तो ये ही लगता है जैसे जब माँ नहीं होती.... तो हम मांँ के घर से घटने लगते है और घटते घटते धीरे धीरे लुप्त हो जाते हैं.....घनिष्ठता समाप्त सी होने लगती है शायद एक समय के बाद कभी कभार दूर दराज की बातों में हमारा जिक्र भर सुनाई देता है.....या शायद वो भी नहीं...
खुद नानी दादी बन जाने के बाद भी..... औरते जब भी तकलीफ में होती हैं... खुद को टूअर समझने लगती हैं.....
माँ नहीं है तो लगता है हमारा दुख दर्द सुनने वाला कोई नहीं......किससे कहें??
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