उम्र गुज़रने के साथ जो सबसे तकलीफ़देह बात होती है, अपने सबसे प्रिय लोगों को बूढ़े, कमज़ोर और बीमार होते देखना.... उनको एक एक करके दुनिया से जाते हुए देखना..... बचपन में जिन्होंने हमें गोदों में खिलाया, हमारी फ़रमाइशें, मनमानियां पूरी कीं, जिनको सेहतमंद, ताक़तवर, ख़ूबसूरत देखा, उनको ढलते और मरते देखना......
फिर भी इस छोटी सी , अनिश्चितताओं से भरी ज़िन्दगी को भी हम ग़ुस्से, नफ़रत, साज़िश, जलन, ग़लतफ़हमियां, ईगो में बर्बाद कर रहे हैं, क्योंकि यही हम सबकी फ़ितरत है.... किसी भी बात के प्रति वैराग्य भी बस कुछ समय का होता है, फिर सब अपनी-अपनी दिनचर्या में लग जाते हैं क्योंकि मन ही मन में उम्मीद होती है कि हमें तो अभी जीना है बहुत। और इसी उम्मीद पर ही दुनिया टिकी है..... भविष्य है, सब कुछ अच्छा होगा, यही सोचकर उसे बेहतर बनाने की जुगत में ही लगे रहते है।
ख़ुश-नसीब होते हैं वे लोग, जो बिन किसी तकलीफ़-परेशानी के दुनिया छोड़ जाते हैं, और पीछे छोड़ दिया गया परिवार भी सेटल्ड होता है। वरना अचानक चले जाने वालों के परिवार तिनकों की तरह बिखर भी जाते हैं।
लेकिन बहुत यंत्रणादायक होता है ज़िन्दगी के पचास-साठ साल की कमाई उठा कर अस्पताल में दे आना..
बस हाथ-पैर चलते रहें और सबसे अहम, शरीर और दिमाग़ के बीच तालमेल और संतुलन बना रहे, किसी की मोहताजी न हो, किसी पर डिपेंडेंसी न हो, बस उतनी भर ज़िन्दगी सबसे अच्छी...
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