इन दिनों घर से स्कूल के रास्ते पर जगह जगह सूखे पत्तों के ढेर मिलते हैं एक उदास करने वाली चरमराते पत्तों वाली आवाज़ के साथ गोल-गोल चक्कर काटते हुए लम्बी-लम्बी सड़कों को चूमते आखिरी विदा का गीत गाते हुए।
इन पत्तों को अभी चंद दिनों पहले तक ही तो हरा-भरा देख सब विस्मित थे....आशान्वित थे.. खुश थे, कैसे वर्षों से स्थिर खड़े पेड़ों पर खूबसूरत झालरों जैसे झिलमिलाते थे और आज हवा इन्हें बुहार कर जाने किस दिशा लिए जा रही है...
कोई पूछे कि ये तो जीवनक्रम है इसमें नया क्या है? उदासी क्यों ?? मगर पतझड़ का यह उदास दृश्य आँखों पर हर बरस नमी सी भर देता है..... आप पत्तों का टूटना देखते हैं और बस.... कुछ भी नहीं कर सकते।
कभी आप संसार के सबसे उदासीन मनुष्य में बदलने लगते हैं.. धीरे-धीरे यह समझने लगते हैं कि संसार का हर सुख इतना क्षणिक है कि हवा के एक झोंके से ही तहसनहस हो जाता है...... या फिर आप हरेक बात को हल्के में लेने लगते हैं...... गम्भीर से गम्भीर बात पर भी पर हँसने लगते हैं। ऐसा महसूस होता है कि यहाँ सब कुछ हँसी में उड़ा देने योग्य है... कुछ भी सीरियस नहीं है
जिस ने राह में रूक कर, ठहर कर.. टूटते हुए पत्ते नहीं देखे कभी, वो कभी नहीं समझ पाता कि यह संसार कैसे कैसे असहनीय दृश्यों से भरा पड़ा है।
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