मैंने अपने पापा और माँ के दरमियान बहुत घनिष्ठ तोता मैना वाला प्रेम कभी नहीं देखा। दोनों बहुत सी बातों में बेमेल थे। पापा बेहद खूबसूरत,गौर वर्ण स्मार्ट और शानदार प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी..... और मां बेहद खूबसूरत आंखों वाली पर सामान्य शक्ल सूरत, कद काठी और सांवली सलोनी.....पापा जी की तुलना में कम पढी लिखी और साधारण ज्ञानवान....हालांकि बाद के वर्षों में ये पढ़ने वाला शौक काफी डेवेलप कर लिया था उन्होंने.... हां लिखना नहीं शुरू किया... जब कि उनकी कल्पना शक्ति बेहद तीक्ष्ण थी.... नानी बनने के बाद मेरी बिटिया को रोज दो तीन कहानियां उसे सुनाना उनकी दिनचर्या का महत्वपूर्ण कार्य था... और बेटी की उत्कट इच्छा रोज नई कहानी सुनने की रहती थी.... वो रोज एक दो नई कहानी बनातीं ,जोड़तीं और उसे सुनाती..... अफसोस है कि उन कहानियों का कोई संग्रह नहीं बन पाया....किसी भी घटना का बेहद सजीव चित्रण करना..... उनको बखूबी आता था......संभवतः ये गुण थोड़ा बहुत मुझमें भी आया है... पर उनके जैसा नहीं.... न लिखने के पीछे उनकी मात्रा संबंधित अशुद्धियों का ही हाथ था इस बात पर मैं बिल्कुल सहमत हूं क्योंकि शुरुआती पढाई चम्पारण बिहार (उनके ननिहाल) में होने से इस पक्ष पर संभवतः बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया.... मैने महसूस किया है कि मात्रा की अशुद्धि पर बिहार में बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता....और इसी टोकाटाकी और लज्जा वश उन्होंने लिखना छोड़ दिया था....बाद में जब हम सब भाई बहन लिखने पढने योग्य हुए तो उनका चिट्ठी, डायरी का हिसाब भी लिखना भी छूट गया....
शायद वो लोग कभी इस वस्तु स्थिति को अपना नहीं पाए। मैं बड़ी हुई तो बहुत सारी बातों में पिता से उलट रही। ज्यादातर बातों में उनसे असहमत..... ज्यादातर उन बातों में जिनमें मम्मी की बातों को काटा जा रहा हो... या उनकी बेइज्जती हो रही हो..... मैं मम्मी के निकट ज्यादा थी... उनसे हर तरह की बातें शेयर करती थीं और बहुत सी बातें हम दोनों पापा जी तक पंहुचने ही नहीं देते थे ये सोच कर ही कि वो नाराज होंगे..... लेकिन इसके बावजूद वे दुनिया के सबसे अच्छे पिता थे । जिनके न रहने को मैं हर ख़ुशी हर दुःख में महसूस करती हूँ।
कितनी सुंदर सुखद स्मृतियां हैं उनके साथ.... बचपन में उनका मेरी हर बात को सबसे ज्यादा महत्व देना.... उनके दो चार दिनों वाले अॉफिशियल टूर में अपनी दो चार फ्रॉकों के साथ लटक जाना....अब समझ सकती हूँ कि वो कितना परेशान हो जाते होंगे...एक घटना तो मुझे अच्छी तरह स्मरण भी है..... जब एक बार ट्रेन में वो मेरे घने लंबे बालों की चोटी बनाने की असफल कोशिश कर रहे थे तो साथ में बैठी महिला ने उनसे कंघी लेकर मेरी कसी कसी दो चोटियां गूंथ दी थी जो दो तीन दिनों तक नहीं खुली थी....रोज अपनी हथेली के बित्ते से नापना कि रात भर में मैं कितनी लंबी हो गई हूँ.....अभी भी आंखों में आंसू ला देने के लिए काफी है...... उनकी
और यह बात दिल को छू जाती थी कि, " अब तुम बड़ी हो गई हो....ऐसे रोअनी कब तक बनी रहोगी??" .... मेरी बात बात पर रो देने वाली और आंसू भर लेने वाली आदत आज भी बरकरार है.....
पापा से बचपन में सबसे ज़्यादा बात मैं करती थी, या यूं कहूँ कि उनसे कुछ मनवाना होता तो मुझसे ही कहा जाता था....... अब कुछ बदल सा गया है, अब वैसी बातें नही हो पाती। मैं सबके सामने अब रो नही पाती... शायद मैं अब "बड़ी" हो गयी हूँ!
जन्मदिन पर उन्हें प्रणाम करना चाहती हूं आज भी...जबकि वो दोनों ही लोग अब नहीं हैं... . बस सोचती रह जाती हूँ .... क्या कहूँ?
अब देखो न! कितना कुछ कह गयी हूँ यहां........मैं भी पापा की प्रिय बिटिया रही हूं.....घर में सिर्फ एक मैं थी जो किसी भी बात को लेकर उनसे बहस कर सकती थी... और अपनी मनमानी करा लेती थी..... ये लिखते समय मुस्कुराती रही हूँ ...... लेकिन आखिरी पंक्ति तक आते ही आँखें भर आई हैं। कोई तो होता जो ये कहता अब "तुम बड़ी हो गई हो। रोअनी बेटी और नकचतनी(नाक से मिनमिना के बोलने वाली) पतोह ठीक नहीं होती "
कितना कुछ छीन लेता है ये बड़ा होना भी ।कोई कहीं नहीं जाता..सब यहीं रहते हैं❤️
इतने प्यारे पापा को पुनः नमन करती हूं
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