मम्मी जिस दिन लौट जाती थीं.... वो दिन जरूरत से ज्यादा लंबा हो जाता था....स्कूल से वापस आने के बाद....अपने आप ताला खोलना और सूनी डायनिंग टेबल देखना बेहद कष्टप्रद होता था.... रसोई में भी जैसे सारे बर्तन सुन्न पडे होते थे.... हफ्ते दस दिन तो एकाकी पन को एडजस्ट करने में ही बीत जाते थे... मम्मी चली जाती थीं तब पता चलता था न उनसे ढेर सारी बातें कर पाई न उनसे लिपट कर प्यार कर पाई। मम्मी जब तक रहती थीं, मैं डरती रहती थी कि वो बीमार न पड़ें... कुछ भी न हो उन्हें..... हमेशा यही लगता रहा कि मम्मी बस बीमार न पड़ें।
मम्मी जब तक रहती थीं तब तक रोज सबेरे एक ही बात कहती थी तुम्हारे यहां नींद बहुत अच्छी आती है । पढने की बेहद शौकीन होने के कारण ढेरो मैग्ज़ीन्स और मेरी लाइब्रेरी की किताबों की संगत में ही उनका दिन बीतता... जिस दिन उनको जाना होता था तो बीती रात न वो सो पाती थीं न हम सब... सो नही पाती थीं, शायद जाने की इच्छा नहीं होती होगी... इसलिए नींद नही आती होगी।
उनसे दूर हमारी उम्र बढ़ रही थी.... हमसे दूर उनकी उम्र बढ़ रही थी। थोड़ी सी गुंजाइश होती तो हम सबकी की उम्र बढ़ने से रोक देते। काश!!!
कोई भी चीज़ उन्हें पसंद आ जाती थी और हम ये महसूस कर लेते थे.... तो शुरू होता था हमारा आग्रह और उनकी ना नुकुर.... शायद वो संकोच करने लगी थीं..... आते समय ढेरों सामान लेकर आना.... और जाते समय ढेरों सामान खरीद कर रख जाना उनका सबसे बड़ा शौक था....
उनके होते हुए हम उन्हें उतना प्यार नही कर पाए जितना करना था...... अब उनके जाने के बाद उनकी याद बहुत आती है। यह अफसोस हमारे साथ जिंदगी भर रहेगा.... कि हमने लोगों के जाने के बाद उन्हें याद करना सीखा, साथ रह रहे लोगों को प्यार करना और जताना शायद नहीं सीख पाए.....
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