इंसान हालातों के चलते एक दिन समझदार हो ही जाता है......................
और इतना समझदार हो जाता है कि वहाँ अपनापन ही ख़त्म हो जाता है...
अतः न इंसान कोई शिकायत करता है, न किसी चीज के लिए कोई नाराज़गी, न पहले की तरह अपनेपन की हक़ से कोई ज़िद्द करना, न पहले की तरह अपनेपन से अपना कोई हक़ जताना और न ही कोई सवाल-जवाब... रिश्ते में आई दूरी के सन्नाटे को हमेशा इंसान समझदार हो जाना समझते है...
तुम कैसे हो..................?????
ठीक हो?" पूछने पर जवाब में "मैं ठीक हूँ" कहने का अर्थ हमेशा वह इंसान ठीक ही है ऐसा नहीं... यह नज़दीक के रिश्ते में आयी एक त्रासदी ही है कि सामनेवाले को झूठ समझ न आया क्यूंकि महसूस करने कि क्षमता खत्म सी हो चुकी होती है। और दूसरे से अब सच बोला नहीं जाता क्यूंकि बिन एहसासों के चीज़ो को क्या महसूस करवाना...
रिश्ते, जीवन, मनुष्यता रेंग रही होती है लेकिन जब कोई पूछता है कि सब कैसे चल रहा है तो हम ठीक है कहकर आगे बढ़ जाते हैं..............
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