कितना अच्छा होता कि हम जीवन के बीते हुए दिनों को भी एक बैंक
में जमा करते जाते और जब कभी जी चाहता , जाकर
जितना जी चाहे उतने दिन निकाल लेते और फिर से उन दिनों को जी लेते,,,,और हम वापस लौटना
चाहते तो समय वहीँ का वहीँ रुका मिलता बिना किसी बदलाव के जस का तस ......ज्यूँ का
त्यूँ ...और हम फिर यादों में जी लेते ........सिर्फ यादें ही तो
ऐसी हैं....जो समय के हमेशा के लिए चले जानें के बाद भी फिर से उस गुजरे हुए समय को
याद दिलाती रहती हैं......
मैं अपने ननिहाल
पक्ष से बहुत ज्यादा जुड़ाव महसूस करती हूँ.....ददिहाल पक्ष में बाबा जी साथ बहुत ही
कम रहा ........पर मुझे इस बात का गर्व है कि मैंने अक्षर ज्ञान बाबा जी से ही सीखा....भट्टी
में पकाई हुई .मिटटी की गोलियां जिनसे बाबा जी गिनती..जोड़ना घटाना.....इत्यादि सिखाते
थे....बहुत दिनों तक पुराने ट्रंक में संभल कर रखी हुई थीं.....दादी जी को मैंने देखा ही नहीं....हाँ
उनका उस समय का ज्वेलरी बाक्स जो अब करीब ८० साल पुराना हो चुका है मेरे लिए एक एंटीक
चीज है.......और वो शायद इतना भाग्यशाली है
कि कभी खाली नहीं रहा.....पहले दादी , फिर मम्मी और अब मेरे लिए पूर्ववत कार्य कर रहा
है........
मुझे अपने नाना
नानी का अगाध स्नेह और दुलार मिला है जो अभी भी मेरी स्मृतियों में ज्यूँ का त्यूँ
है...कुछ ऐसी विडम्बना रही कि एक अरसा पहले जो नानी का घर छूटा तो
एक लम्बे अर्से तक वहाँ जाना ही नहीं हुआ.....कुछ परिस्थितियां , कुछ समयाभाव, और कुछ सम्बन्धो में दूरियां सबने
मिलकर एक ऐसा संसार रच दिया ....कि ढेकही (मेरा ननिहाल) एक सपना सा हो कर रह गया
....फिर सिर्फ एक ऐसा अवसर आया...जब नाना जी नहीं रहे थे तब एक दिन के लिए जानें का अवसर मिला था.....पर वो
एक ऐसा दुखदाई अवसर था जिसे मैं याद नहीं करना चाहती......नाना जी के बगैर ढेकही की कल्पना करना भी मुश्किल है.....हमने इतना स्नेहभरा
और सुखद समय बिताया है उनके साथ.....पर कहते हैं न कि हर वक़्त एक सा नहीं रहता और परिवर्तन
तो संसार का नियम है.....तो सब कुछ बदलता जा रहा है.....वक़्त के गुजरने का अहसास इंसान
को तब होता है जब वक़्त बहुत आगे जा चुका होता है.....पता ही नहीं चलता कि कितना समय
बीत गया और हम कहाँ से कहाँ आ पहुचे हैं.....कभी पता ही नहीं चला कि इतना वक़्त गुजर
गया .... इतने सालों के बाद शायद एक युग के बाद अचानक ही ढेकही जानें का कार्यक्रम
बन गया .....विगत कई सालों से सोचते सोचते भी हम उस पर अमल नहीं करपा रहे थे....पर
आखिरकार केशव मामा जी का अत्यंत स्नेहपूर्ण निमंत्रण इस बार हम स्थगित नहीं कर सके
और दो दिनों का अवकाश निकल कर अंततः गोरखपुर चल ही दिए...एक रात्रि मनोजी मामा के पास
विश्राम कर दूसरे दिन ढेकही का कार्यक्रम बना ...संयोग कुछ ऐसा रहा कि कोई टैक्सी इत्यादि
कि व्यवस्था नहीं हो सकी तो हम लोग ऑटोरिक्शा से ही निकल पड़े .......बहुत आराम आराम
से चल कर वहाँ तक पहुचे.......
वहाँ जाकर
"आपाद-मस्तक" बदल जानें वाली बात सार्थक होती दिखी.....पहले तो कुछ भी समझ
नहीं आया कि हम किस ओर , किस छोर से वहाँ पंहुच रहे हैं.....दिशा भ्रम सा हो गया
....पता नहीं कितने सालों पहले कि बात है शायद २८ या ३० साल पहले जब हम यहाँ आये थे.....कभी
कभी जैसे अचानक किसी रात देखा हुआ कोई सपना याद आ जाता है और
काफी समय तक झिंझोड़ता रहता है कुछ वैसी ही अनुभूति हुई .....
टैक्सी से उतरते
ही एक गहरी उदासी ने घेर लिया .....उदासी नहीं एक ऐसी अनचाही अनुभूति जो गले तक लबालब भर गई..... कुछ समझ नहीं आरहा था
कि क्या महसूस कर रही हूँ.....गले में अटकी रुलाई सी ….जो न बाहर आ रही थी...न ही अंदर जा रही थी.....एक चुप्पी सी लग गई .....जी
कुछ ऐसा हो गया कि मैं क्या चाह रही हूँ
.....व्यक्त नहीं कर पा रही थी.....चाहने भर
से तो कुछ नहीं हो सकता न........चुप्पी के भी अपने रंग होते हैं.....कुछ बोलने का
ही मन नहीं कर रहा था...... कभी चारों ओर से बहुत बड़ा लगने वाला वो घर अनचाहे
ही काफी छोटा लग रहा था.......बिलकुल अपरिचित ..जानें कब से उन दीवारों पर पुताई नहीं
हुई है .....बिलकुल काली और उजाड़ पड़ी सुन्न सी दीवारें....एक अजीब सी उदासी से भरा
अहाता .....जो अपने आस पास उग आये कुकुरमुत्तों से घरों और दुकानों के कारण और भी दुखी
, उजाड़ और उदास लग रहा था....ये वही जगह थी....जिसे नाना जी कि लगवाई हुई कई तरह की मशीनो के कारण "मसीन " कहा जाता था....
..बदलाव अच्छी बात है...पर ऐसा बदलाव तो कलेजा चीर कर धर देता है.....
वे सारी जगहें
जो हमारे लिए अत्यंत प्रिय थीं.....जहाँ खाना बनता था,...वे अलमारियाँ जिनमे कितना
ही सामान भरा रहता था.....नानी जी द्वारा बनाये गए अचारों के मर्तबान , और मटके...राशन
की बोरियां , ड्रम ,डेहरी....अब वहाँ कुछ भी नहीं था.......जिस जगह नाना जी की बड़ी
खाट बिछी रहती थी,..वो जगह सूनी है....मैं
बड़ी उत्सुकता से कमरे का द्वार खोल कर अंदर
घुसी और धुएं से काली पड़ी खिड़की से बाहर झाँकने की चेष्टा की तो अचानक ही मेरा एक पैर
घुटने तक वहाँ की पोली मिट्टी के गड्ढे में
घुस गया..... सारे
शरीर में डर की एक लहर
सी दौड़ गई.. कि
कहीं
वहाँ सांप इत्यादि न हों.......पर बाद में मालूम हुआ कि वहाँ बहुत
बड़े बड़े साइज के चूहों का बिल बन चुका है......दोनों पुराने जर्जर पलंगों पर सूखे उपलों
का ढेर रखा हुआ था.....जो अब उस घर में रह रहे परिवार के लिए ईंधन के काम आता है....नाना
जी के पारिवारिक पुरोहित कभी कभी इस समय वहाँ रहते हैं....दोनों मामा जी लोगों ने शहर
में आशियाना बना लिया है....
कमरे की दीवारों पर उस समय ही पीली मिटटी का कच्चा प्लास्टर
था जहाँ कोनों में बरसात के समय सैकड़ों को संख्या में मेंढक चढ़े रहते थे .....यहाँ
तक कि वो पूरी दीवार ही मेंढकों
की बनी हुई लगती थी .....धीमी
धीमी धड़कती हुई दीवार
......आज भी याद करती हूँ....तो अजीब सी गिनगिनाहट
से सिहर उठती हूँ....... मुझे याद है राम सेवक मामा (उस समय सभी घरेलू सेवकों
को मामा या काका ही कहने का रिवाज़ था और उन्हें
नौकर जैसा नहीं समझा जाता था...और उन्हें पूरा हक़ था कि अगर हमारी शैतानियाँ हद पार
कर रही हैं , तो वे हमें डाँट भी सकते थे.....)
सीढ़ी या तखत पर चढ़ के उन मेढ़कों को दीवार से खींच खींच के निकालते थे और उन्हें बोरी में भर कर कुछ दूर पर स्थित तालाब में फेंक
आते थे.....हमें बहुत मजा आता था ..वो उछलती कूदती बोरी देख के.......
और हफ्ते दस
दिनों में फिर उतने ही मेंढक जाने कहाँ से निकल आते थे......पूरी बोरी भर मेंढक
...गंदे पीले ,मटमैले हरे, ऊदे...घिनौने मेंढक..उफ़..आज भी याद आते हैं तो रोंगटे खड़े
हो जाते हैं....मुझे मेंढकों और छिपकलियों से इस कदर नफरत है जिसका कोई हिसाब नहीं......उस
समय हम बच्चो को ये कहा जाता था की मेंढक मारने से कान में दर्द होता है....पता नहीं
इस बात में कितनी सच्चाई है पर मैंने कभी किसी मेंढक को नहीं मारा, जबकि मेरा छोटा
भाई इस काम में माहिर था...कितने ही मेंढकों को उसने जबरदस्ती जमीन में गढ्ढा खोद कर जिन्दा गाड़ने की कोशिश की है...पर
उसके कान में कभी दर्द नहीं हुआ.....और मैं अक्सर कान दर्द से परेशान रही.....और कभी
कभी आज भी रहती हूँ....मुझे याद आता है एक बार नाना जी ने कादम्बिनी से पढ़ कर बताया
था, की चीन में मेढक और छिपकलियों को खाया जाता है...ये सोच कर ही...कई दिनों तक खाना
गले से नीचे नहीं उतरा था...... बाद में हम लोग खूब हँसते थे ये सोच सोच कर कि चीन में जब
मम्मियां पूछती होंगी ..कि आज खाने में क्या बनाया जाये तो बच्चे कहते होंगे..मां आज
भरवां छिपकली या मेंढक की भुजिया बना लो......
जिस चौकोर पत्थर
पर ट्यूबवेल के मोटे पाइप से पानी छोड़ा
जाता था...वो पत्थर आज भी वहां पड़ा हुआ है.....बड़ा सा करीब ८ बाई ८ का वो पत्थर जिस
पर हम सब घंटों नहाते हुए उछल कूद करते रहते थे और पतली सी एक नहर बना कर खेतों की
तरफ पानी भेजा जाता था..आज भी वैसा ही है.... पर अब कोई ट्यूबवेल या मशीन वहां नहीं है....थोड़ी
ही दूर पर नाना जी का बनवाया हुआ टॉयलेट दिखाई दिया खेतों में जाने की आदत न होने से हम सबको बहुत
दिक्कत होती थी...उसके लिए एक कच्चे तौर पर शौचालय की व्यवस्था कराई गई थी.....उसे
बिलकुल ध्वस्त हालत में देख कर जी भर आया सब
झाड़झंख़ाड के बीच उजाड़ पड़ा हुआ.......उस समय
आमों के बगीचे में कितने ही पेड़ ऐसे थे जिन पर हम आसानी से चढ़ जाया करते थे...अब वे
पेड़ बहुत बड़े हो चुके हैं....और ज्यादातर काटे जा चुके हैं....
गिनती के चार
छ पेड़ ही दिखाई दिए.....हर तरफ घर और वो भी पक्के मकान बन जाने से सारी लोकेशन ही बदल गई लगती है...साधू बाबा की कुटिया
जो उस समय बहुत दूर लगती थी....अब सिर्फ ध्वस्त हालत में है....मड़ई बिलकुल टूटफूट गई
है....बहुत बड़ा सा कुआं ..जिसमे हम बड़ी उत्सुकता से झांकते और जोर से अपना नाम पुकार कर उसकी गूँज सुना करते
थे...उस समय वो कुआं कितना बड़ा लगता था.....अब उस कुएं में पानी नहीं है....उसके अंदर
बड़े बड़े पेड़ पौधे उग आये हैं....चारों ओर का चबूतरा भी काफी खस्ता हाल में है.... साधू बाबा उस चबूतरे पर किसी को चढ़ने नहीं देते
थे......साफ़ सफाई ......और खरहरे से झाड़ू लगते हुए कितनी ही बार उन्हें देखा है...सम्मेमाई
के प्राचीन स्थान की जगह नए मंदिर का निर्माण
हो गया है...वो पुराना पीपल का बहुत बड़ा पेड़ जिसके नीचे एक सांपों का जोड़ा रहता था,काट
डाला गया है.....अनुष्ठान इत्यादि करने और लोगों के बैठने हेतु नए नए मंडपों का निर्माण
हो गया है.....काफी कुछ शहर के मंदिरों जैसा....अब वो जगह सम्मेमाइ का थान कहलाने लायक
नहीं है बल्कि टेम्पल ऑफ़ सम्मेमाइ जैसी हो गई है.....
हाँ यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि अब हर घर के सामने
सरकारी शौचालय बना दिए गए हैं...जिस से काफी साफ़ सुथरा सा माहौल लगा....एक समय थोड़ी
सी भी बरसात हो जाने पर जिन गलियों और सड़कों कि हालत बुरी हो जाती थी, वहां अब काफी
अच्छी सड़कें (गाँव के हिसाब से ) बन गई हैं.....ऐसे कई घर जो उस समय झोंपड़ी या खपरैलों
के रूप में थे उन्हें पक्के मकान के रूप में देख कर बहुत अच्छा लगा.....हालांकि उन्हें
पहचान ने में काफी समय लगा
क्यों कि मेरी
याददाश्त में तो उनका वही रूप बना हुआ था.... कई लोगों ने अपने नए नए घर बनवा लिए हैं...केशव
मामा जी के घर जाते समय ऐसे बहुत से लोग मिले
जिन्हे पहचान पाना मेरे लिए दुरूह कार्य था...मम्मी
के बचपन के साथी संडुल मामा (घर में कहार का
कार्य करने वाले ) से मुलाकात हुई, उन्होंने मुझे देखते ही कहा....".मालती बहिनी
के धीया हई न ?..एक दम्मे उनही के लेखां बाड़ी
"...सुन के बहुत अच्छा लगा कि मुझे देख कर लोगों को मम्मी की याद
आजाती है.....मैं उनसे करीब ३० साल बाद मिली
और उन्होंने मुझे पहचान लिया......फिर कई लोगों से मुलाकात हुई ...सभी बहुत प्रेम से
मिले...मिलने की इच्छा तो कई लोगों से थी,
पर दुर्भाग्यवश उस दिन पट्टीदारी के ही किसी अभिन्न की मृत्यु हो जाने से काफी लोग उनके अंतिम संस्कार
में शामिल होने चले गए थे , इस लिए बहुत से
लोगों से मुलाकात नहीं हो सकी......
केशव मामा जी
के घर का सुस्वादु भोजन करने के उपरान्त हम लोग वापस आने के लिए चले, पर नाना जी का
पुश्तैनी घर देखने की मेरी बड़ी इच्छा थी,....इस
वजह से हम लोग दूसरे रास्ते से वहां पहुंचे....नाना जी का पुराना घर अब वहां नहीं है...सिर्फ
टूटी फूटी ईंटों और मिटटी का ढूह ही दिखाई दिया....पूरा घर तोड़ डाला गया है....छोटे
नाना जी का घर अभी वहां है...पर वो भी जर्जरित अवस्था में है....बड़े बड़े लकड़ी के नक्काशीदार
दरवाजे....काफी जर्जर हो चुके हैं...नाना जी की कचहरी गायों की गोशाला....सब अब धीरे
धीरे अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं....या कहूँ खो चुके हैं तो ज्यादा सही होगा……
सूर्यनारायण
भैया के पिता जी वहां बैठ कर सरपत और मूँज के रस्सियाँ बनाया करते थे ...भीगे हुए मूँज
या सरपत को पीट पीट कर मुलायम करना फिर अपनी जांघो और हाथों की सहायता से बट कर रस्सियाँ
बनाना बड़ा मजेदार कार्य लगता था.. ..मामा जी से मैंने रस्सी बनाना भी सीखा था....उन्हें
मैंने अक्सर वही कार्य करते देखा था दिन भर में कई कई मीटर रस्सियाँ बना डालते थे....एक
बार उन्होंने हमें बताया था कि हाथ से मल कर खाने वाली सुरती या खैनी को ३०० बार तक
मल लिया जाये तो वो जहर का काम करती है....पता नहीं ये बात कहाँ तक सच है, पर यह भी सच है कि हमने कई बार ऐसी चेष्टा की थी
कि ऐसा जहर तैयार किया जाये, पर ऐसा संभव नहीं हुआ .....
अक्षैबर मामा जी के घर से ही थोड़ा आगे बढ़ कर तिर्जुगी मामा का घर था, जिन्हे बचपन से ही थोड़ा मंदबुद्धि होने के कारण लोगों के मज़ाक का पात्र बनना पड़ता था....मुझे याद है ज्यादातर बड़े, यहाँ तक कि बच्चे भी उनसे मज़ाक करते थे , और वो अपनी सहज बुद्धि के हिसाब से उनकी बातों का जवाब नहीं दे पते थे, या देते भी थे तो उन्हें झिड़क दिया जाता था...पता नहीं क्यों लोग इतने निर्मम हो जाते हैं....मुझे सख्त नफरत है ऐसी ओछी प्रवृत्ति वाले लोगों से....मुझे उनके साथ बहुत सहानुभूति थी मैंने कभी कुछ ऐसा व्यवहार नहीं किया उनके साथ …जिस से मुझे शर्म आये....आज वो नहीं हैं....पर मुझे उनका वही चेहरा याद है....जब मैंने फोटोग्राफी पढ़ना शुरू किया तो बहुत शौक़ से अपने क्लिक ३ कैमरे से वहां बहुत सी तसवीरें ली थीं....और तिर्जुगी मामा कितने सहज भाव से फोटो खिंचाने खड़े हो गए थे.....बेहद बचकाने पन से खींची हुई वे तसवीरें आज एक अमूल्य वस्तु हैं मेरे लिए......
उनकी माँ को बड़का कहा जाता था....और उनके घर में ढेंकी (धान कूट कर चावल निकलने वाला प्राचीन घरेलू यंत्र )लगी हुई थी....जिसमे एक बहुत मोटे से गोल लकड़ी के लठ्ठे के एक सिरे पर मूसल जैसा बना होता था....पट्ट लिटा कर रखा हुआ वो लठ्ठा बीच में एक मोटी रस्सी के द्वारा छत की बँड़ेरी से से बंधा होता था....दोनों सिरों पर जमीं में दो छोटे छोटे गड्ढे से होते थे जिनमे एक तरफ के गढ़े में धान या चूड़ा जो भी कूटना होता था वो थोड़ा थोड़ा डालते जाते थे और लठ्ठे के दूसरी तरफ खड़ा हुआ व्यक्ति एक पैर उस लठ्ठे पर रख कर और छत से लटकी रस्सी के सहारे एक निश्चित समय पर लठ्ठे को धीरे धीरे ऊपर नीचे करता रहता था ...उस लठ्ठे पर उछल उछल कर ढेंकी चलाने में बहुत मजा आता था....पर उसे चलाने में बड़ी सुगढ़ता और फुर्ती चाहिए थी कि जिस समय वो मूसल चावल वाले गढ़े में पड़े वहां से बार बार धान डालने वाले हाथ हटा लिए जाएँ ...कई बार अनाड़ी हाथो की वजह से अभी हाथ हटाया नहीं गया और मूसल की चोट उस हाथ पर पड़जाती थी....यह काम इतने लयबद्ध तरीके से किया जाता था कि कई कई बोरी धान कूट लिया जाता था बिना थके....कहाँ विलुप्त हो गए ये सब यंत्र ??
अक्षैबर मामा जी के घर से ही थोड़ा आगे बढ़ कर तिर्जुगी मामा का घर था, जिन्हे बचपन से ही थोड़ा मंदबुद्धि होने के कारण लोगों के मज़ाक का पात्र बनना पड़ता था....मुझे याद है ज्यादातर बड़े, यहाँ तक कि बच्चे भी उनसे मज़ाक करते थे , और वो अपनी सहज बुद्धि के हिसाब से उनकी बातों का जवाब नहीं दे पते थे, या देते भी थे तो उन्हें झिड़क दिया जाता था...पता नहीं क्यों लोग इतने निर्मम हो जाते हैं....मुझे सख्त नफरत है ऐसी ओछी प्रवृत्ति वाले लोगों से....मुझे उनके साथ बहुत सहानुभूति थी मैंने कभी कुछ ऐसा व्यवहार नहीं किया उनके साथ …जिस से मुझे शर्म आये....आज वो नहीं हैं....पर मुझे उनका वही चेहरा याद है....जब मैंने फोटोग्राफी पढ़ना शुरू किया तो बहुत शौक़ से अपने क्लिक ३ कैमरे से वहां बहुत सी तसवीरें ली थीं....और तिर्जुगी मामा कितने सहज भाव से फोटो खिंचाने खड़े हो गए थे.....बेहद बचकाने पन से खींची हुई वे तसवीरें आज एक अमूल्य वस्तु हैं मेरे लिए......
उनकी माँ को बड़का कहा जाता था....और उनके घर में ढेंकी (धान कूट कर चावल निकलने वाला प्राचीन घरेलू यंत्र )लगी हुई थी....जिसमे एक बहुत मोटे से गोल लकड़ी के लठ्ठे के एक सिरे पर मूसल जैसा बना होता था....पट्ट लिटा कर रखा हुआ वो लठ्ठा बीच में एक मोटी रस्सी के द्वारा छत की बँड़ेरी से से बंधा होता था....दोनों सिरों पर जमीं में दो छोटे छोटे गड्ढे से होते थे जिनमे एक तरफ के गढ़े में धान या चूड़ा जो भी कूटना होता था वो थोड़ा थोड़ा डालते जाते थे और लठ्ठे के दूसरी तरफ खड़ा हुआ व्यक्ति एक पैर उस लठ्ठे पर रख कर और छत से लटकी रस्सी के सहारे एक निश्चित समय पर लठ्ठे को धीरे धीरे ऊपर नीचे करता रहता था ...उस लठ्ठे पर उछल उछल कर ढेंकी चलाने में बहुत मजा आता था....पर उसे चलाने में बड़ी सुगढ़ता और फुर्ती चाहिए थी कि जिस समय वो मूसल चावल वाले गढ़े में पड़े वहां से बार बार धान डालने वाले हाथ हटा लिए जाएँ ...कई बार अनाड़ी हाथो की वजह से अभी हाथ हटाया नहीं गया और मूसल की चोट उस हाथ पर पड़जाती थी....यह काम इतने लयबद्ध तरीके से किया जाता था कि कई कई बोरी धान कूट लिया जाता था बिना थके....कहाँ विलुप्त हो गए ये सब यंत्र ??
ढेंकी चलते वक़्त कितने मधुर गीत गाती रहती थीं महिलाएं....शायद
थकान का पता न चलने देने के लिए........
लिपे पुते
(गोबर तथा पीली मिट्टी से )छोटे छोटे दरवाजों और खपरैलों वाले घर अभी भी स्मृतियों
में ताजा हैं....अब तो काफी कुछ या कहूँ सबकुछ ही बदल गया है...तो सही होगा..अब बहुत
सी चीजे जो उस समय सहज उपलब्ध हुआ करती थीं....उनका अभाव सा हो गया है....वो खूब मोटी
गाढ़ी भूरे रंग की साढ़ी (मलाई वाली गुलाबी दही ) जो एक चौड़े मुंह की चपटी मटकी में दूध
को खूब औटा कर जमाई जाती थी....कहीं नहीं दिखती.....पता नहीं अब वैसा दूध मिलना बंद
हो गया है या गायें भैंसे दूध देना भूल गईं हैं या ग्वाले वैसा दही जमाना......विस्मृत
कर चुके हैं...जो भी हो अब वैसा दही कहीं नहीं दीखता....गोरखपुर की दही एक ज़माने में
बहुत मशहूर हुआ करती थी......मुझे याद है नाना जी मेरी शादी में भी विशेष रूप से वो
दही बनवा कर लाये थे.....जो बड़े बड़े कनस्तरों में लाया गया था..उस दही की ये विशेषता
थी कि वो इतनी गाढ़ी (कंसन्ट्रेटेड )होती थी कि सिर्फ एक कटोरी दही से एक भगोना दही
तैयार की जा सकती थी....लगभग खोये जैसी गाढ़ी .....
नाना जी बताते थे कि उनके बचपन में कोई दही वाला ऐसा था जिसकी जमाई दही को यदि हाथ में लेकर उछाल दिया जाये तो वो छत में चिपक जाती थी गिरती नहीं थी....और ये कल्पना नहीं हकीकत है......नाना जी के चले जाने के बाद फिर कभी वैसा दही नही मिल पाया और अब शायद कभी मिलेगा भी नहीं....खैर....ढेकही में कई लोगों से मिलने की इच्छा थी पर मुलाकात नहीं हो सकी.....कई लोग मुझे नहीं पहचान सके बहुतों को मैं नहीं पहचान सकी.....
नाना जी बताते थे कि उनके बचपन में कोई दही वाला ऐसा था जिसकी जमाई दही को यदि हाथ में लेकर उछाल दिया जाये तो वो छत में चिपक जाती थी गिरती नहीं थी....और ये कल्पना नहीं हकीकत है......नाना जी के चले जाने के बाद फिर कभी वैसा दही नही मिल पाया और अब शायद कभी मिलेगा भी नहीं....खैर....ढेकही में कई लोगों से मिलने की इच्छा थी पर मुलाकात नहीं हो सकी.....कई लोग मुझे नहीं पहचान सके बहुतों को मैं नहीं पहचान सकी.....
इतना लम्बा
अरसा, इतने बहुत सारे दिन बीत चुके हैं...सब अतीत बन कर खो गया है....परिवर्तन या बदलाव
की ऐसी भूल भुलैया जिसका कोई ओर छोर पकड़ना अब संभव ही नहीं.....सब कुछ बदल गया है और
बदलना ही पड़ता है इस से निजात नहीं.....वैसे सच कहूँ तो सारा कुछ वैसा ही है....वही
घर वही लोग....कुछ चले गए कुछ आज भी हैं....पर वो भोले भाले दिन कहाँ रहे ?? सिर्फ
हम बदल गए हैं......
Beautiful.. Beautiful.. Beautiful..
ReplyDeleteAur kuch nahi, aisa lag ra h.. sab mera dekha hua sa hai.. Bahot sunder likha h..
Change is the only permanent thing.. log chale jate h, chize yahi rah jaati h.. mein samajh sakti hu mammy, ki san purana banjar halat dekh kar kaisa laga hoga.. jaha ek time me din raat kaisi beet-ti hogi pata hi nahi chalta hoga h.. itne log, hansi mazakk.. ab sam khaali pada h..
Dhekhi mein b jaungi kabhi..
Mazaa aa gaya padh k.. :)
बहुत सुंदर लिखा है आंटी...माहौल और वातावरण भले ही बदल जाए लेकिन जो यादें दिल से जुड़ी होती हैं वो कभी धुंदली नहीं पड़ती। :)
ReplyDeleteननिहाल का सुखद अनुभव पढ कर बहुत ही अच्छा लगा।दिल का बोझ कम हो जाता है मन की बात कहने से। अति उत्तम।
ReplyDeleteआप सभी को धन्यवाद
ReplyDeleteBahut sundar didi....laga ki dekahin pahunch gaye.Kafi marmik hai,sari yaade taaza ho gayin
ReplyDeleteकुछ ऐसी ही भावुक यादें हमारी भी हैं !
ReplyDelete