लिखिए अपनी भाषा में

Sunday, August 28, 2022

पुरानी डायरी, पुराने एल्बम

                इधर कुछ  रातें  पुरानी डायरियों और पुराने एल्बम से गुज़रते हुए बीतीं...... कुछ सूखी पत्तियाँ,  झड़ चुके बालों वाले मोर पंख, छोटे छोटे कार्टूनों वाले स्टिकर्स शायद किसी ख़ास नीयत से डायरी के भीतर रख दी होंगी मैंने..... . पुरानी डायरी पढ़ते हुए समझ आता है कि कितना कुछ बदल गया है.... जैसे वे  अब से बहुत अलग मौसम थे.....जैसे मैं कोई और थी..... उस वक्त मेरी ख़ुशियां, मेरी उदासियां अब से कितनी फ़र्क़ थीं...... हम धीरे-धीरे कितना बदलते चले जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता... अचानक कोई पुरानी डायरी मिलती है और सालों की  यह  हेरफेर सदियों जैसी जान पड़ती है.... एक एक पन्ने पढते पलटते मैं एक हैरानी से भरती गई ... यहाँ कॉलेज में किसी बात हंसते -हंसते पेटदर्द हो जाने की बात लिखी है... मैं सोचती हूँ कि मैं आख़िरी बार मैं कब ऐसा खिलखिला कर हंसी हूंगी?? बात बात पर हँस पडने वाली आदत, बात बात पर रो पडने वाली आदत... अजीब आदतें थीं यार!!!!! अब नहीं रही.....बल्कि अब तो जैसे हँसी ही नहीं आती....कभी-कभी सोचती हूँ किसी बात पर खूब हँसू इतना हँसूं कि सब कुछ भूल जाऊँ...... पेट में दर्द होने लगे, बेदम हो जाऊँ..... लोट-पोट हो जाऊँ बच्चों की तरह..... पर........ फेसबुक, वाट्सैप पर रील देखते समय भी बस होंठ जैसे  हंसने का अभिनय कर के रह जाते है बस.... .  वह उल्लास  वो खुशी अब बनावटी सा लगता है.... हां अब भी आंसू बहुत जल्दी आ जाते हैं..... बात करते करते आवाज रूंध जाती है....आँसुओं पर कंट्रोल करना आज तक नहीं सीख पाई.... जरा सा भी उदास होने पर आँसू बेसाख्ता बह निकलते हैं.... डायरी में कुछ उदास शामों का जिक्र भी है....... पर वो उदासी किस कारण से थी इसकी बाबत कुछ नही लिखा.... बहुत जोर देने पर भी याद नहीं आता.... एक खास उदास शाम की बात भी है...... जिस पर अब मैं सिर्फ़ मुस्करा  सकती  हूँ...... उन दिनों की  खुशी और उदासी सब कुछ अब अपरिचित सी लगती है । '   कितनी ही बचकानी बातें यादें और अनाड़ी पन से भरी कविताएं लिखी हैं... जिनमें से मेरी लिखी कौन सी है पहचान नहीं पाई.... जो भी पंक्तियां छू जाती थीं या मेरे मनोभावों से मिलती जुलती होती थीं फौरन लिख लेती थी.. ऐसा क्यों करती थी..... पता नहीं....पढ कर मैं देर तक मुस्कराती रही..... 
             अब आँखों में वैसी चमक नहीं रही। चश्मे का नं लगातार बढता जा रहा है... चेहरे के भराव में, आँखें अब उतनी अच्छी नहीं लगतीं.. जिन आँखों की तारीफ सुनने की आदत सी पड़ चुकी थी.... .. बालों में चांदी भरती जा रही है..... वज़न लगातार बढ़ रहा है...... कोई न कोई बीमारी परेशान करती रहती है..... कहते हैं  ढलते हुए लोगों को उनका विगत बहुत सुख देता है..... मैं सोचती हूँ - अपनी लिखी चिट्ठियों का एक कलेक्शन बना डालूँ. 
कितनी प्यारी चिट्ठियाँ…कितवी भावभरी सुंदर हस्तलिपि में सजा के चिट्ठी लिखते थे उस समय....... अब तो चिट्ठी लिखने का रिवाज ही नही रहा...... 
             हम  जब खुद के, मां पापा के, अपने बच्चों के बारे में लिखते हैं तब कितने प्योर .., ईमानदार … ओरिजनल होते हैं........ एक बात में मैं  हमेशा से ऐसी ही थी, मुझे हमेशा अपना कल पसंद था पर मेरा लौट कर बीते पलों में जाना कभी नहीं हो पाया, किसी के याद दिलाने और कभी कभी अपने आप याद आने तक ही रही मेरी याद... जिस भी उम्र में रही उससे बड़े होने की ख्वाहिश की और अब इतनी उम्र बीतने का भी मलाल नहीं..... ईमानदारी से बिना किसी आरोप आक्षेप के बूढ़े होते जाना भी एक कला ही है शायद!!! 
हम किसी की जिंदगी में सुख दुख की स्थिति देख कर तो उसकी परिस्थितियों का अंदाजा नहीं लगा सकते..... 
               सबके पास कुछ न कुछ शिकायत है..... जिनके पास सब कुछ है उसके पास भी....... जिसके पास कुछ नहीं है उसे भी.......... हमारे मन में मोह के साथ थोड़ा सा ही सही लेकिन वैराग्य भी होना ही चाहिये...... किसी के जाते वक्त उससे लिपट कर रोना चाहें...तो रो लेना चाहिए .. अगर उसे भींच कर उसके दिल की धड़कन सुनना चाहें तो सुन लेना चाहिए..... पर अगले ही पल उसे मुस्कुरा कर विदा करने की भी ताकत होनी चाहिये....                   सोचती हूँ कि अगर हम चीजों से मोह छोड़ना नहीं सीखेंगे तो एक वक्त के बाद बेमतलब के ढेरों  बोझ से हमारे कंधे झुक जायेंगे और हम एक कदम भी आगे चल नहीं सकेंगे।

   ये थोड़ा सा वैराग्य.... और मुस्कुरा कर मुठ्ठी में भींच कर रखी चीजों को छोड़ देने से ही जिंदगी के अंत तक पहुँच पायेंगे....... 

आजकल मैं सबकी सुनती हुई खुद को शांत रखने की कोशिश करती हूं....बहुत ज्यादा समझ में आना बंद हो गया है अब जैसे  .....या अब मैं समझना ही नहीं चाहती..... बस आंखे बंद कर अतीत में गोता लगाना अच्छा लगता है. या आंखे खोल कर डायरियों, एल्बमों और किताबों में सुकून तलाशती हूँ... 

शायद इसलिए मुझे पुरानी तस्वीरें और डायरियां बहुत सुकून देती हैं....... 

Saturday, August 27, 2022

मेरी प्रिय किताबें


प्रिय किताबों की श्रृंखला में पापा जी के बहुत अच्छे मित्र श्री चंद्र किशोर जायसवाल की पुस्तकों का नाम न लूं  ऐसा नहीं हो सकता..... उनके कई। उपन्यास और कहानी संग्रह पढने का सौभाग्य मुझे मिला है... जिनमें से कई मेरे संग्रह में हैं.... उनकी भाषा शैली और कहानी कहने का अंदाज गजब का है..... मैं अक्सर जोर जोर से पढ़ कर सुनाती थी और मम्मी पापा बडी ही दिलचस्पी से सुनते थे.... एक दो बार जब वे घर पर आये तो उनकी वाणी में ही उनकी रचनाएं सुनी गईं.... "नकबेसर कागा ले भागा", "मैं नहि माखन खायो"..."गवाह गैरहाजिर"... "मर गया दीपनाथ" सब एक से बढ़कर एक हैं....
 

यूं ही


 आज हर कोई  कुछ न कुछ बेच रहा  है। मैं सुबह वाट्सैप खोलने के बाद से लेकर रात को सोने के वक्त तक दिन भर कुछ न कुछ खरीदने का ही सोच रही होती हूँ....अक्सर खरीदती भी रहती हूँ..... . पहले कभी भी ऐसी जरूरत नहीं महसूस होती थी.. मुझे अक्सर वो दिन याद आता है जब मैं नौकरी नहीं करती थी और दिन में एक बार भी सिवाए किताबों, रंगों और कला से संबंधित चीजों के कुछ और खरीदने का नहीं सोचती थी...... 

 

नौकरी और मैं

          मुझे अपनी नौकरी से बहुत  प्यार तो कभी नहीं था हां पर नफरत भी नहीं थी..... बस थोडा व्यस्त रहने का एक जरिया सा था..... जब मुझे अनावश्यक से कुछ कारण बता कर दूसरे सत्र में जॉब देने से मना कर दिया गया तभी नौकरी से पहली नफ़रत ठीक उसी समय हो गयी थी...... दोबारा नौकरी ज्वाइन करने से लेकर आज तक निभाए चले जाने तक का एक लंबा सफर है.....कभी कभी लगता है बिना किसी मंजिल का ये सफर बहुत निरर्थक तो नहीं रहा..... बहुत से फायदे भी रहे.... पर जीवन भर की इस तपस्या को फायदे नुकसान की तराजू में नहीं  तोला जा सकता..... इसका कोई मापदंड नहीं है......
               माँ बनना मतलब पूरी दुनिया बदल जाने जैसा होता है किसी भी औरत के लिए...... और जब ऐसे में फैमिली सपोर्टिव न हो..... नई नई नौकरी हो... तब बिल्कुल एक चक्रव्यूह में घुसने और निकलने जैसा होता है.... मेरी बिटिया कब पैदा हुई और कब पाल पोस कर स्कूल में पढने की एज में मुझे सौंप दी गई .... मुझे पता भी नही चला........ मैं मम्मी की कृतज्ञ हूँ.... मेरी बिटिया की उस उम्र की सारी जिम्मेदारी उठाने, मेरी पढ़ाई पूरी करवाने में मम्मी का बहुत सहयोग रहा......पता नहीं मैं इतनी सहयोगी दादी-नानी बन पाऊंगी  या नहीं😕😕
            दूसरी डिलीवरी के बाद मैं भी बहुत डिप्रेस होने लगी थी। कुछ हार्मोन्स का असर, कुछ अपने घर की हालत देखकर...... ट्रेडिशनल फैमिलीज ऐसे में और हताश करती हैं.... "500/_रुपए के लिए लड़िका के जान के पीछे परी हैं" (तब मेरी सेलेरी 500/_से शुरू हुई थी)बिना किसी सहयोग के ऐसे कमेंट्स सुनने को मिले... नतीजा जॉब छोडनी ही पडी....सारी सीनियारिटी खत्म हो गई...जब किसी ने मेरे  ज़रा से बच्चे को  ज़्यादा खास प्रियॉरिटी नहीं दी ..... मदद करने के बजाय कमेंट मारने को सब तैयार....  तमाम जली कटी भी सुनी,  बच्चे के लिए कोई कुछ करने को तो तैयार नहीं लेकिन मेरे काम मे नुक्स निकालने को सब के मुंह खुले हुए...... मैं उसकी माँ हूँ तो मैं उसका ध्यान अच्छे से अच्छा ही रखूंगी ये तो स्वाभाविक है .....सब मिला कर नतीजा यही रहा ...अभी तक संभल नहीं सकी हूं...."जॉब में हूँ और सैटिस्फाई हूँ".... इस बात की बस तसल्ली देनी पडती है मन को......अगर पतिदेव का सहयोग न मिला होता तो शायद ये संभव नहीं होता.... और तभी से.. .सभी से....... जैसे मन खट्टा सा हो गया मेरा हमेशा के लिए..... और अब तो जैसे किसी से कोई घनिष्ठता और आत्मीयता ही नही रही...ये जरूर है कि चेष्टा करती हूँ........ सबके सामने  सामान्य बनी रहूं.... अपने मनोभावों को छिपा ले जाऊँ.....पर कभी-कभी असफल भी हो जाती हूँ....अंतर्मुखी और अल्पभाषी होने के कारण घमंडी तो पहले से ही प्रचारित हूँ.....पर  अब तो  मुझे जो ठीक लगता है... हर हाल में वो ही करती हूँ....... मुझे अब किसी की कोई चिंता नहीं है...... 
           इतना होने पर भी मैं भूलना चाहती हूँ सब........ कि छोड़ो अब याद करने से कोई फायदा नहीं पर..... कभी कभी मन में ये कसकने सा लगता है.... . ज़िंदगी में मैंने बहुत से लोगों को माफ़ किया ...... क्यूँकि मैं "छोड़ो जाने दो" में  यक़ीन करती हूँ ..
लेकिन कुछ लोगों को कभी माफ़ नहीं करूँगी …

रिश्तों की भी कोई "एक्सपायरी डेट" होती है क्या???
___________________________

 

Tuesday, August 23, 2022

बाप के जीते, घर में बेटी की स्थिति

*

जब तक बाप जिंदा रहता है, बेटी मायके में हक़ से आती है और घर में भी ज़िद कर लेती है और कोई कुछ कहे तो डट के बोल देती है कि मेरे बाप का घर है। पर जैसे ही बाप मरता है और बेटी आती है तो वो इतनी चीत्कार करके रोती है कि सारे रिश्तेदार समझ जाते है कि बेटी आ गई है।

और वो बेटी उस दिन अपनी हिम्मत हार जाती है, क्योंकि उस दिन उसके पिता ही नहीं उसकी वो हिम्मत भी मर जाती हैं।

आपने भी महसूस किया होगा कि पिता की मौत के बाद बेटी कभी अपने भाई- भाभी के घर वो जिद नहीं करती जो अपने पापा के वक्त करती थी, जो मिला खा लिया, जो दिया पहन लिया क्योंकि जब तक उसके पिता थे तब तक सब कुछ उसका था यह बात वो अच्छी तरह से जानती है।

आगे लिखने की हिम्मत नहीं है, बस इतना ही कहना चाहती हूं कि बाप के लिए बेटी उसकी जिंदगी होती है, पर वो कभी बोलता नहीं और बेटी के लिए बाप दुनिया की सबसे बड़ी हिम्मत और घमंड होता है, पर बेटी भी यह बात कभी किसी को बोलती नहीं है। 

बाप बेटी का प्रेम समुद्र से भी गहरा है
       🌹 #🌹

Monday, August 22, 2022

एक टीचर का दर्द

आपके एक या दो बच्चे हैं और कभी कभार आप उनकी शरारतों पर झल्ला कर उनकी कनपटी तक सेंक देते है तो ज़रा सोचिएगा कि एक शिक्षक इतने सारे बच्चों को कैसे संभालता है...

आप खुद tv या mobile में व्यस्त हैं। आपका बच्चा आपके पास आता है। आप उस अधखिले फूल को झिड़क देते है-- "जाओ भागो पढ़ाई करो।"  ज़रा मन को शांत करके विचारियेगा कि एक मास्टर किस तरह अलग-अलग बुद्धिलब्धि वाले और अलग अलग अभिरुचि वाले बच्चों को 45 मिनट तक एक सूत्र में बाँध के रखता है।

आपका बच्चा दिनभर गेम खेलता है, घर पर पढ़ता नही है। इसकी भी शिकायत आप टीचर से करते हैं--- "क्या करें, हमारा मुन्ना तो हमारी बात ही नही सुनता। ज़रा डराइये इसे।"
(अरे भाई बच्चे को डराना है तो उसे किसी बाघ के सामने ले जाओ।)

आप "गुरु ब्रह्मा" टाइप की बातें रटते है पर आप भगवान तो छोड़िए, टीचर को इंसान तक नही मानते। आप ये मानने को तैयार ही नही कि टीचर का व्यक्तिगत जीवन भी है, उसकी भावनाएं भी है, उसकी लिमिटेशंस भी हैं।

आप कहते है कि बच्चे को डांट-डपट के रखिये। सरकार कहती है कि किसी बच्चे को मारना तो दूर, अगर गधा-उल्लू-पाज़ी भी कहा तो मास्टरजी की मास्टरी भुलवा दी जाएगी।

अन्य विभागों के कर्मचारियों की तरह शिक्षक सिर्फ एक वेतन-भोगी नही होता। इसमें सिर्फ सेवा का आदान प्रदान नही होता छात्र-शिक्षक के बीच तमाम मानवीय मूल्यों का भी लेन-देन होता है।

आप अपने छोटे-मोटे काम कराने के लिए सरकारी कर्मचारियों के आगे दाँत चियारते रहते है। हाथ जोड़ते है, पैर पकड़ते है। लेकिन टीचर जो कि आपकी सन्तान को शिक्षा दे रहा है, उसकी एक गलती आपसे बर्दाश्त नही होती।

आप का बच्चा, वो बच्चा जिसके लिए आपने मंदिरों और अस्पतालों के जाने कितने चक्कर काटे होंगे, अगर एक ही चीज़ 3-4 बार पूछ लें तो आपके शरीर का तापमान बढ़ जाता है। अब जरा सोचिये कि टीचर किस धैर्य के साथ बताता है कि 3+1 और 1+3 दोनों बराबर होते है भले ही ये एक दूसरे के विपरीत नज़र आते हैं।

टीचर ने रात में किसी टॉपिक की तैयारी की। सुबह 45 मिनट तक तन-मन से उस टॉपिक को क्लास में प्रस्तुत किया। पूरे आत्मविश्वास के साथ वो क्लास से पूछता है--- अब तो समझ गए सब लोग!

और पीछे वाली बेंच पर बैठे रवि और पंकज उदास होकर बोलें-- सर एक बार और बता दीजिए....

खैर टीचर की नौकरी करने का एक फायदा ये है कि मूर्खता पूर्ण सवालों, कटाक्षों, व्यंग्योक्तियों और नासमझों की बातों पर गुस्सा तो बिल्कुल नही आता। हँसी भी नही आती। आती है सिर्फ दया। आता है सिर्फ प्यार।

(अगर आपने अपने जीवन में किसी से, कभी भी, कहीं भी, कुछ भी सीखा है तो वो आपका शिक्षक ही है। )

सभी शिक्षक बंधुओ को समर्पित एवं सभी सम्मानित अविभावकों को चिंतन करने हेतु प्रेषित।