इधर कुछ रातें पुरानी डायरियों और पुराने एल्बम से गुज़रते हुए बीतीं...... कुछ सूखी पत्तियाँ, झड़ चुके बालों वाले मोर पंख, छोटे छोटे कार्टूनों वाले स्टिकर्स शायद किसी ख़ास नीयत से डायरी के भीतर रख दी होंगी मैंने..... . पुरानी डायरी पढ़ते हुए समझ आता है कि कितना कुछ बदल गया है.... जैसे वे अब से बहुत अलग मौसम थे.....जैसे मैं कोई और थी..... उस वक्त मेरी ख़ुशियां, मेरी उदासियां अब से कितनी फ़र्क़ थीं...... हम धीरे-धीरे कितना बदलते चले जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता... अचानक कोई पुरानी डायरी मिलती है और सालों की यह हेरफेर सदियों जैसी जान पड़ती है.... एक एक पन्ने पढते पलटते मैं एक हैरानी से भरती गई ... यहाँ कॉलेज में किसी बात हंसते -हंसते पेटदर्द हो जाने की बात लिखी है... मैं सोचती हूँ कि मैं आख़िरी बार मैं कब ऐसा खिलखिला कर हंसी हूंगी?? बात बात पर हँस पडने वाली आदत, बात बात पर रो पडने वाली आदत... अजीब आदतें थीं यार!!!!! अब नहीं रही.....बल्कि अब तो जैसे हँसी ही नहीं आती....कभी-कभी सोचती हूँ किसी बात पर खूब हँसू इतना हँसूं कि सब कुछ भूल जाऊँ...... पेट में दर्द होने लगे, बेदम हो जाऊँ..... लोट-पोट हो जाऊँ बच्चों की तरह..... पर........ फेसबुक, वाट्सैप पर रील देखते समय भी बस होंठ जैसे हंसने का अभिनय कर के रह जाते है बस.... . वह उल्लास वो खुशी अब बनावटी सा लगता है.... हां अब भी आंसू बहुत जल्दी आ जाते हैं..... बात करते करते आवाज रूंध जाती है....आँसुओं पर कंट्रोल करना आज तक नहीं सीख पाई.... जरा सा भी उदास होने पर आँसू बेसाख्ता बह निकलते हैं.... डायरी में कुछ उदास शामों का जिक्र भी है....... पर वो उदासी किस कारण से थी इसकी बाबत कुछ नही लिखा.... बहुत जोर देने पर भी याद नहीं आता.... एक खास उदास शाम की बात भी है...... जिस पर अब मैं सिर्फ़ मुस्करा सकती हूँ...... उन दिनों की खुशी और उदासी सब कुछ अब अपरिचित सी लगती है । ' कितनी ही बचकानी बातें यादें और अनाड़ी पन से भरी कविताएं लिखी हैं... जिनमें से मेरी लिखी कौन सी है पहचान नहीं पाई.... जो भी पंक्तियां छू जाती थीं या मेरे मनोभावों से मिलती जुलती होती थीं फौरन लिख लेती थी.. ऐसा क्यों करती थी..... पता नहीं....पढ कर मैं देर तक मुस्कराती रही.....
अब आँखों में वैसी चमक नहीं रही। चश्मे का नं लगातार बढता जा रहा है... चेहरे के भराव में, आँखें अब उतनी अच्छी नहीं लगतीं.. जिन आँखों की तारीफ सुनने की आदत सी पड़ चुकी थी.... .. बालों में चांदी भरती जा रही है..... वज़न लगातार बढ़ रहा है...... कोई न कोई बीमारी परेशान करती रहती है..... कहते हैं ढलते हुए लोगों को उनका विगत बहुत सुख देता है..... मैं सोचती हूँ - अपनी लिखी चिट्ठियों का एक कलेक्शन बना डालूँ.
कितनी प्यारी चिट्ठियाँ…कितवी भावभरी सुंदर हस्तलिपि में सजा के चिट्ठी लिखते थे उस समय....... अब तो चिट्ठी लिखने का रिवाज ही नही रहा......
हम जब खुद के, मां पापा के, अपने बच्चों के बारे में लिखते हैं तब कितने प्योर .., ईमानदार … ओरिजनल होते हैं........ एक बात में मैं हमेशा से ऐसी ही थी, मुझे हमेशा अपना कल पसंद था पर मेरा लौट कर बीते पलों में जाना कभी नहीं हो पाया, किसी के याद दिलाने और कभी कभी अपने आप याद आने तक ही रही मेरी याद... जिस भी उम्र में रही उससे बड़े होने की ख्वाहिश की और अब इतनी उम्र बीतने का भी मलाल नहीं..... ईमानदारी से बिना किसी आरोप आक्षेप के बूढ़े होते जाना भी एक कला ही है शायद!!!
हम किसी की जिंदगी में सुख दुख की स्थिति देख कर तो उसकी परिस्थितियों का अंदाजा नहीं लगा सकते.....
सबके पास कुछ न कुछ शिकायत है..... जिनके पास सब कुछ है उसके पास भी....... जिसके पास कुछ नहीं है उसे भी.......... हमारे मन में मोह के साथ थोड़ा सा ही सही लेकिन वैराग्य भी होना ही चाहिये...... किसी के जाते वक्त उससे लिपट कर रोना चाहें...तो रो लेना चाहिए .. अगर उसे भींच कर उसके दिल की धड़कन सुनना चाहें तो सुन लेना चाहिए..... पर अगले ही पल उसे मुस्कुरा कर विदा करने की भी ताकत होनी चाहिये.... सोचती हूँ कि अगर हम चीजों से मोह छोड़ना नहीं सीखेंगे तो एक वक्त के बाद बेमतलब के ढेरों बोझ से हमारे कंधे झुक जायेंगे और हम एक कदम भी आगे चल नहीं सकेंगे।
ये थोड़ा सा वैराग्य.... और मुस्कुरा कर मुठ्ठी में भींच कर रखी चीजों को छोड़ देने से ही जिंदगी के अंत तक पहुँच पायेंगे.......
आजकल मैं सबकी सुनती हुई खुद को शांत रखने की कोशिश करती हूं....बहुत ज्यादा समझ में आना बंद हो गया है अब जैसे .....या अब मैं समझना ही नहीं चाहती..... बस आंखे बंद कर अतीत में गोता लगाना अच्छा लगता है. या आंखे खोल कर डायरियों, एल्बमों और किताबों में सुकून तलाशती हूँ...
शायद इसलिए मुझे पुरानी तस्वीरें और डायरियां बहुत सुकून देती हैं.......