मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक ...यकीन से नहीं कह सकती , शायद कोई भी स्थिति स्वीकार या अस्वीकार कर लेने के बीच की भी एक स्थिति होती है,, ... हाँ या ना के बीच वाली ,...तो वही स्थिति मेरी भी है......मैं प्रार्थना करती हूँ,... मैं ईश्वर भक्त हूँ,....अगाध श्रद्धा है मुझमे , ईश्वर के लिए,............ पर इसे एक नियमित रूप से एक रूटीन के रूप में जीवन में उतार पाने का अनुशासन मुझमे नहीं है,रोज सुबह शाम दैवी मूर्तियों को जगाने , भोग लगाने , उनके सामने घंटी बजाने और फिर रात को उन्हें सुला कर सोने की न तो मुझे कभी उत्सुकता रही, न ही वक़्त.....अन्य साथी लड़कियों , (और अब महिलाओं ) की तरह शुक्रवार या सोमवार के व्रत रखने की इच्छा नहीं हुई.....मुझे अभी भी ज्ञात नहीं कि प्रदोष , एकादशी या सोमवती अमावस्या क्या होती है ?...और क्यों मनाई जाती है ?/
घर में बचपन में कभी देखा नहीं .....मम्मी कुछ समय तक तो करती थीं पर बाद में .....हम सब की बहुत ज्यादा रूचि नहीं देख कर .... सिर्फ सुबह नहाने के उपरान्त पूजा और साल में दो तीन व्रतों तक ही सीमित हो गईं....... पापा जी के विचारों से बहुत ज्यादा पूजा पाठ या व्यक्ति विशेष की भक्ति करना या घर परिवार की उपेक्षा करके दिन रात भजन सत्संग (!!) में लीन रहना एक ढकोसला मात्र था ... वे कभी कभी अपनी तार्किक बातों में ऐसी कटाक्ष पूर्ण कटूक्तियां कह देते थे , जो किसी भी धार्मिक व्यक्ति को बुरी लग सकती थीं.....यही हाल नाना जी का भी था, वे मन से ईश्वर को मानते थे पर किसी पाखण्ड को नहीं.......अच्छी और सुधारक बातें... हर धर्म में हैं.... पर उन्हें किसी देवी देवता का डर दिखा कर मनवाया जाये ये मैं उचित नहीं समझती..... मुझे मंदिर , मस्जिद , गुरूद्वारे या चर्च में कोई भिन्नता नहीं लगती... .मेरी दृष्टि में सब एक से ही हैं,,, और मैं जब भी वहाँ जाती हूँ... हर जगह मेरी एक ही प्रार्थना होती है ..और मन ही मन मैं एक ही इच्छा हर जगह रखती हूँ.......
शायद ही हमने कभी पापा जी को मंदिर जाते या मन्त्र पढ़ कर घंटी बजाते हुए ,पूजा करते देखा हो..... सिर्फ दीवाली की रात जब लक्ष्मी गणेश की मूर्ति सजा कर पूरा परिवार वहाँ पूजा करने बैठता था... तब वे भी कुछ समय के लिए वहाँ हाथ जोड़ कर बैठते थे...... पर वहाँ भी विधिवत पूजा करना उन्हें नहीं आता था.....या शायद हम सबको नहीं आता .... .कि कब अक्षत डालना है , फूल चढ़ाना है , या कब जल चढ़ाना है, कब सिन्दूर लगाना है या कब अगरबत्ती जलानी है... ..करते सब हैं...पर किसके बाद क्या करना है ?...ज्ञात नहीं........,मुझे लगता है जो भी करना है . द्धा के साथ करना चाहिए बस.....
वैसे भी जिस तरह की किचिर पिचिर और गन्दगी हमारे मंदिरों में मचती है उसे क्या कहा जाये.... पंडितों और बाबाओं की छीना झपटी देख कर सिर्फ भाग आने का जी चाहता है, वहाँ किसी तरह की कोई भक्ति या श्रध्धा नहीं पनपती......गन्दगी और कूड़ा देख कर ही जी घबराने लगता है, और पूरा ध्यान अपने कपडे भीगने से बचने या फिसल कर गिर न पड़ें , इसी में लगा रहता है....धक्का मुक्की या पंडों की छीना झपटी , यजमान को लूट लेने की आतुरता देख कर बहुत क्षोभ होता है.....कुछ समय पूर्व अपने एक घनिष्ट पारिवारिक मित्र परिवार के साथ विंध्याचल जाना हुआ, वहाँ एक पण्डे ने हमें अपरिचित जान कर इतना ज्यादा परेशान किया जिसकी हद नहीं.....वो इस बुरी तरह पीछे पड़ गया ,हमारे मित्र के........ कि यही जी में आरहा था ...... उस पण्डे को पीट कर धर दिया जाये.... जब मैंने उसे सख्ती से दुत्कार कर भगाया तो वह गाली गलौज पर उतर आया.....ऐसे समय में कौन सी श्रद्धा रह जाती है .......बस यही जी में आता है कि यहाँ से लौट चलें.....ऐसा ही कुछ अनुभव .... बहराइच की एक प्रसिद्ध दरगाह पर भी देखने को मिला.....वहाँ भी हर स्थान पर पैसे चढाने के लिए जिस तरह मुल्ला लोग ज़िद कर रहे थे और न देने वालो के साथ अभद्रता से व्यवहार कर रहे थे वो कहीं से भी शोभनीय नहीं था........एक दम लूट खसोट मची हुई थी...जिसने ज्यादा पैसा दिया है उसे अंदर ले जाकर दर्शन कराये जाते हैं........कतार में भी धक्का मुक्की और बदतमीजी करते हुए .... .श्रद्धालु लड़कियों और युवतियों को किसी न किसी बहाने अश्लीलता से स्पर्श करना उनकी क्षुद्र नीयत का पता देता है.......
इसके विपरीत चर्च और गुरुद्वारे में जाने का मेरा अनुभव बहुत अच्छा रहा.....कक्षा नौ और दस मैंने गुरु नानक खालसा कॉलेज वाराणसी से पास किया,.. .स्कूल के बगल में ही गुरुद्वारा था..जहाँ लगभग रोज ही जाना होता था,,,,,बेहद शांत और सुकून भरा माहौल, जाते ही, मन को तसल्ली मिलती थी.... अच्छा रिजल्ट आये इसके लिए मैंने बाबा विश्वनाथ के साथ साथ गुरु नानक देव से भी आशीष माँगा है.......
वैसे ही कई बार चर्च जा कर भी बहुत अच्छा अनुभव हुआ,.....जैसे सचमुच किसी ईश्वरीय आश्रय में पहुँच गए हों.... न कोई धक्का मुक्की न छीना झपटी न कोई लूट खसोट....न ही यहाँ वहाँ पैसा चढाने की व्यर्थ की गुहार ......पता नहीं हम कब सीखेंगे... .इतने धैर्य और तमीज से पेश आना ....बिना किसी को डिस्टर्ब किये . चुपचाप आकर बेंच पर बैठ जाना....... साफसुथरे सुन्दर परिवेश...में ..और एक गहन शांति में डूब जाना ....
कुछ ऐसा ही अनुभव लोटस टेम्पल में जा कर भी हुआ.....बेहद शांत सुकून दायक और आध्यात्मिक माहौल में किसी शून्य में विचरण करने जैसी अनुभूति ...... सच कहूँ तो वहाँ सिर्फ चुपचाप बैठे रहने से ही इतनी पॉजिटिव एनर्जी मिलती है , जो अन्य कहीं सम्भव नहीं.........भगवान् में मेरा अटूट विश्वास है पर अंध विश्वास नहीं... .मुझे लगता है भगवान् हर जगह है आप जहाँ चाहो खड़े हो कर उसकी प्रार्थना कर सकते हैं...उन्हें शुक्रिया कह सकते हैं.... फलां दिन , फलां मंदिर जाने से ही भगवान ज्यादा खुश होते हैं, या फलां व्रत के जरिये ही मन्नत पूरी होती है या रोज भगवान् के आगे घंटी बजाना जरूरी है, इन बातो में मुझे जरा भी यकीन नहीं......मैं सोते जागते , चलते फिरते ,खाना बनाते या खाते समय कभी भी कहीं भी भगवान को याद कर सकती हूँ और मुझे पूरा यकीन है कि वे मेरी प्रार्थना कभी अनसुनी नहीं कर सकते ......हाँ ध्यान जैसी चीज मुझे पसंद है उसके लिए मैं जरूर समय देती हूँ .. .बल्कि निद्रा वस्था से ठीक पहले मैं इसी मुद्रा में होती हूँ....उस समय मैं यही सोचती हूँ कि मैंने आज किसी को कोई तकलीफ तो नहीं दी....., किसी की उपेक्षा तो नहीं की.... किसी का मज़ाक़ तो नहीं उडाया.....और जब इसका जवाब न में आता है तो तो यकीन मानिये जो संतुष्टि या सुकून मिलता है उसका जवाब नहीं.........
भगवान ने मेरी हर बात सुनी है......और ज्यादा तर मानी भी है.....और मुझे पूरा विश्वास है की आगे भी ऐसा ही होगा.....आमीन